
धर्मतंत्र का परिष्कार अत्यंत अनिवार्य
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परम पूज्य गुरुदेव द्वारा १९६९ में गायत्री तपोभूमि, मथुरा में दिया गया उद्बोधन
गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
दो ही मुख्य तंत्र देवियो,
भाइयो! व्यक्ति एवं समाज के ऊपर नियंत्रण करने वाली दो ही शक्तियाँ मुख्य हैं। एक शक्ति का नाम धर्मतंत्र और दूसरी का नाम है- राजतंत्र राजतंत्र मनुष्य के ऊपर नियंत्रण करता है और धर्मतंत्र मनुष्य के भीतर श्रेष्ठताओं और रचनात्मक प्रवृत्तियों को ऊपर उठाता है, उभारता है। एक का काम संसार में और व्यक्ति में महत्ता को, श्रेष्ठता को ऊँचा उठाना है और दूसरे का काम मनुष्य की अवांछनीय गतिविधियों पर नियंत्रण करना है। भौतिक क्षेत्र राजनीति का है और आत्मिक क्षेत्र धर्म का है। दोनों ही एक गाड़ी के दो पहियों के तरीके से एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे का एक दूसरे से बहुत ही घनिष्ठ संबंध है। राजनीति यदि ठीक हो, राजसत्ता यदि ठीक हो, तो मनुष्यों की धार्मिकता, विचारणा, आध्यात्मिकता और श्रेष्ठता अक्षुण्ण बनी रहेगी और यदि मनुष्यों की धर्मबुद्धि ठीक हो, तो उसका परिणाम राजनीति पर हुए बिना नहीं रहेगा।
दोनों एक दूसरे के पूरक
मित्रो! अच्छे व्यक्ति, धार्मिक व्यक्ति अच्छी सरकार बना सकने में समर्थ हैं और अच्छी सरकार में यदि अच्छे व्यक्ति जा पहुँचें, तो साधन स्वल्प होते हुए भी, सामग्री स्वल्प होते हुए भी समाज का हितसाधन कर सकते हैं। धर्म के मार्ग पर जो रुकावटें पैदा हों या जो कठिनाइयाँ हों, उनको दूर करना राजसत्ता का काम है और राजसत्ता में जो विकृतियाँ पैदा हों, उनको नियंत्रित करना धर्मसत्ता का काम है। वस्तुतः दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों ही समर्थ हैं। दोनों का ही क्षेत्र बड़ा व्यापक है और दोनों की सामर्थ्य लगभग एक समान है। हमारे देश में धर्मसत्ता राजनीति सत्ता से कहीं आगे थी। इस समय में गई- गुजरी अवस्था में भी जबकि विकृतियाँ चारों ओर से फैल पड़ी हैं। ऐसे समय में भी धर्मसत्ता का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है।
हम देखते हैं कि इतनी जनशक्ति, धनशक्ति, भावनाशक्ति, विवेकशक्ति इस धर्म- क्षेत्र में लगी हुई है। यदि ये शक्तियाँ ठीक दिशा में नियोजित की गई होतीं और उनका ठीक तरीके से उपयोग किया गया होता, तो जो काम राजसत्ता देश भर में कर सकती है, उसकी अपेक्षा सौ गुना ज्यादा काम धर्मसत्ता ने कर लिया होता, क्योंकि अपने देश में धर्मसत्ता का स्थान बहुत ऊँचा और महत्त्वपूर्ण है। अपने यहाँ संसार के सभी क्षेत्रों से अधिक धार्मिक प्रक्रियाओं की ओर ध्यान दिया जाता है। अपने यहाँ संत- महात्माओं को ही लें, साधु- ब्राह्मण को ही लें, तो इतना बड़ा वर्ग जिस देश में है, जो धर्म के आधार पर जीविका भी प्राप्त करता है, अपने मन में यह समझता भी है कि हम धर्म के लिए जीवित हैं। न केवल अपने आपको समझता है, अपितु समाज में यह घोषित भी करता है कि हम समाज के ही नहीं हैं, हम धर्म के लिए भी हैं। अगर इन लोगों की गतिविधियाँ सही रही होतीं और यदि इन लोगों के विचार करने की शैली सही रही होती, तो इनके द्वारा इतना बड़ा विशाल कार्य देश में ही नहीं, समस्त विश्व में कर सकना संभव हो गया होता कि दुनिया को उलट- पुलट कर लिया जाता।
भगवान् बुद्ध के केवल ढाई लाख शिष्य थे। उन ढाई लाख शिष्यों को भगवान् बुद्ध ने आज्ञा दी कि आप लोगों को सारे एशिया और सारे विश्व के ऊपर छाप डालनी चाहिए। इस समय जो अनैतिक और अवांछनीय वातावरण पैदा हो गया है, उसे ठीक करना चाहिए। भगवान् बुद्ध की इच्छा के अनुसार गृहत्यागी, धर्म पर निष्ठा रखने वाले ढाई लाख व्यक्ति रवाना हो गए और सारे एशिया पर छा गए, सारे यूरोप पर छा गए, सारे विश्व पर छा गए। उन्होंने बौद्ध धर्म- संस्कृति एवं बौद्ध भावनाओं का प्रसार सारे विश्व में कर दिया।
विराट संख्या एवं बढ़े हुए साधन
मित्रो! आज हमारे साधन बहुत ज्यादा बढ़े- चढ़े हैं। अपने इस भारतवर्ष में सरकारी जनगणना के हिसाब से छप्पन लाख व्यक्ति इस तरह के हैं, जो कहते हैं कि हमारी जीविका केवल धर्म के आधार पर चलती है। धर्म ही हमारा व्यवसाय है, रोटी कमाने का स्रोत है। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनकी जीविका धर्म नहीं है, जो केवल अपने मन और संतोष के लिए स्वांतः सुखाय और सामान्य कर्तव्य समझ करके पूजा- पाठ या धार्मिक कृत्य करते हैं। धर्म के माध्यम से जीविका कमाने वालों में साधु- बाबाजी पंडे- पुजारी आते हैं। यह संख्या छप्पन लाख हो जाती है। यह संख्या इतनी बड़ी है कि सरकार के एंपलाइज- कर्मचारियों की संख्या उससे कम है। सेमी गवर्नमेंट और पूरी गवर्नमेंट दोनों को मिला करके हिंदुस्तान में चालीस लाख के लगभग कर्मचारी हैं, लेकिन धर्मसत्ता के पास छप्पन लाख कर्मचारी हैं। यह जनशक्ति इतनी बड़ी है कि उसको यदि किसी रचनात्मक कार्य में लगा दिया जाए, तो सरकार के द्वारा जितने भी रचनात्मक और नियंत्रणात्मक कार्य होते हैं, उन सबकी अपेक्षा धर्म में काम करने वाले ज्यादा काम कर सकते हैं। क्योंकि सरकार की मशीनरी में केवल वेतनभोगी लोग होते हैं, समय पर काम करने वाले होते हैं। जरा भी समय ज्यादा खरच हो जाए, तो वे ओवर टाइम माँगते हैं। उन्हें पेंशन देने की जरूरत पड़ती है और भी बहुत से खरचे करने पड़ते हैं, इसलिए वे कर्मचारी बहुत महँगे भी होते हैं। उनके जीवन का उद्देश्य सेवा नहीं होता। अधिकांश लोगों की इच्छा- उद्देश्य नौकरी करना, पेट पालना होता है।
लेकिन मित्रो! धर्म के लिए जिन्होंने आजीविका स्वीकार की है, उनके सामने तो लक्ष्य भी होना चाहिए। उनके पास तो समय भी ज्यादा होना संभव है। आठ घंटे ही काम करेंगे, यह क्या बात हुई! संत- महात्मा छह घंटे सो लिए, भिक्षा से रोटी मिल गई, बनी- बनाई रोटी मिल गई, दो घंटे नित्यकर्म के लिए लगा दिए, आठ घंटे हो गए। आठ घंटे के बाद सोलह घंटे उनके पास बच जाते हैं। यदि वे इस सारे- के समय को धर्मकार्यों में लगाना चाहें, तो उनमें से एक व्यक्ति दो आदमियों के बराबर काम कर सकता है। उनमें भावनाएँ होती हैं, निष्ठाएँ होती हैं, धर्म- विश्वास होता है, और भी बहुत- सी बातें होती हैं। तो ये छप्पन लाख व्यक्ति वस्तुतः इतनी बड़ी जनसंख्या है कि चाहें तो बुद्ध भगवान् के ढाई लाख शिष्यों की अपेक्षा दुनिया भर में तहलका मचा सकते हैं।
एक लाख व्यक्तियों ने फैलाया तीन- चौथाई दुनिया में धर्म
ईसाई मिशनरी के पास केवल एक लाख के करीब पादरी हैं और वे पादरी सारी दुनिया में छाए हुए हैं। उत्तरी ध्रुव से लेकर भारतवर्ष के नागालैण्ड और बस्तर तक में, जंगलों में और आदिवासियों के बीच काम करते हैं। उनका यह विश्वास है कि ईसामसीह का संदेश और ईसाईयत का संदेश घर- घर पहुँचाया जाना चाहिए। इस विश्वास के आधार पर अपनी सुविधाओं का ध्यान किए बिना पादरी लोग सारे विश्व भर में काम करते हैं। परिणाम क्या हुआ? केवल ईसाई धर्म को, भगवान् ईसा को जन्म लिए सिर्फ उन्नीस सौ सत्तर वर्ष के करीब हुए हैं। तीन सौ वर्ष तक, तो उनका सारा- का क्रियाकलाप अज्ञान ही बना रहा। सेंट-पॉल ने ईसा के लगभग तीन सौ वर्ष बाद ईसाई धर्म की खोज की और ईसा की खोज की, उनका जीवनचरित ढूँढ़ा, उनके उपदेशों को संकलित किया। तीन सौ वर्ष तो ऐसे ही निकल जाते हैं। केवल सोलह सौ वर्ष हुए हैं, लेकिन एक लाख व्यक्ति जो आज हैं, इससे पहले तो एक लाख भी नहीं थे। इन थोड़े से निष्ठावान, धार्मिक व्यक्तियों ने ईसाईयत का कितना प्रचार कर डाला कि दुनिया में एक- तिहाई मनुष्य अर्थात् एक अरब मनुष्य आज ईसाई हैं। तीन अरब की आबादी सारी दुनिया में है। मुसलमानों की बात अलग थी। उन्होंने तो तलवार के जोर से भी अपना धर्म फैलाया, लेकिन ईसाइयों ने जुल्म भी नहीं किया। कम- से प्रारंभ में तलवार के जोर से धर्म नहीं फैलाया। इतना होते हुए भी इस थोड़े से समय में सारे विश्व में इतनी बड़ी संख्या फैल गई। इसका क्या कारण है? कारण केवल उन एक लाख मनुष्यों का श्रम, उनकी भावनाएँ और प्रयत्न हैं, जिनकी वजह से उन्होंने ईसा को, बाइबिल के ज्ञान को दुनिया में फैलाया।
मित्रो! अगर अपने पास धर्म की शक्ति में लगे हुए व्यक्ति इस तरह की भावना को लेकर के चले होते कि हमको ऋषियों का, सभ्यता और संस्कृति का, भगवान् का संदेश जनमानस में स्थापित करना है। उससे लोक मानस को, जन- जन को प्रभावित करना है। हर व्यक्ति को धार्मिक बनाना है और एक ऐसा समाज बनाना है कि जिसमें धर्मप्रेमी लोग रहते हों। मर्यादाओं का पालन करने वाले, परस्पर स्नेह करने वाले और बुराइयों, अनीतियों से दूर रहने वाले व्यक्ति पैदा हों। बताइए तो उसका परिणाम कितना बड़ा हो गया होता! जरा विचार तो कीजिए। जिसके मन में भगवान् की, देश और धर्म की लगन लगी हुई हो, वह एक ही आदमी कितना बड़ा काम कर सकता है। हमने कल- परसों महात्मा गाँधी को देखा था, अकेले ही थे और सारे भारतवर्ष को जगा दिया। हमने कल- परसों बुद्ध भगवान् को देखा, एक ही महात्मा थे और सारे विश्वभर को जगा दिया। कल- परसों स्वामी रामतीर्थ एवं एक ही विवेकानन्द को हमने देखा, एक ही योगी थे। उनने वेदांत का संदेश भारतवर्ष से लेकर अन्य द्वीप- द्वीपांतरों तक पहुँचा दिया।
शिक्षा नहीं, भावना प्रधान
आप कहेंगे कि वे लोग तो पढ़े- लिखे और सुशिक्षित महात्मा थे और ये छप्पन लाख तो सुशिक्षित नहीं हैं। शिक्षा से और धर्म से कोई खास समझौता नहीं है। शिक्षित व्यक्ति भी उतना ही काम कर सकते हैं, जितना कि बिना शिक्षित और बिना शिक्षित धर्मप्रेमी भी उतना ही काम कर सकते हैं, जितना कि शिक्षित। संत रैदास बिना पढ़े थे और कबीर की शिक्षा भी नाम मात्र की थी। मीरा कौन ज्यादा पढ़ी- लिखी थी! नामदेव की शिक्षा क्या बढ़ी- चढ़ी थी! दादू से लेकर के अन्य महात्मा, जो भक्तिकाल में हुए हैं, उनको शिक्षा की दृष्टि से यदि तलाश किया जाए, तो उनकी योग्यता, उनकी विद्या और शिक्षा बहुत ही कम थी, लेकिन उन लोगों ने अपने- अपने समय पर कितने महत्त्वपूर्ण कार्य किए, आप सभी जानते हैं। समाज का संरक्षण और शिक्षण करने के लिए भावनाओं की जरूरत है, प्रभाव की जरूरत है, लगन और परिश्रम की जरूरत है। शिक्षा की उतनी जरूरत नहीं है।
भारतवर्ष में सात लाख गाँव हैं। यदि छप्पन लाख संत- महात्मा इस देश में काम करने के लिए खड़े हो गए होते, तो वह काम कर दिखाया होता कि हमने राष्ट्र का नया निर्माण ही कर लिया होता। कल्पना कीजिए कि आठ महात्मा एक गाँव के पीछे हैं, उनमें से कुछ तो पढ़े- लिखे होंगे ही। यदि कुछ भी पढ़े- लिखे नहीं हैं, तो भी अपने शारीरिक श्रम के द्वारा सारे गाँव की सफाई की व्यवस्था बना सकते हैं। अगर एक महात्मा झाड़ू लेकर चल पड़े, तो बाकी लोग उसका तमाशा देखते रहें, ऐसा तो नहीं हो सकता। गाँव के लोग भी श्रमदान के लिए चलेंगे, तो जहाँ गाँव की गलियों- कूचों में हर जगह गंदगी- ही दिखाई पड़ती है, वहाँ स्वच्छता दिखाई देने लगे। एक महात्मा पेशाबघर और चलते- फिरते शौचालय बनाने के लिए फावड़ा लेकर खड़ा हो जाए, तो गाँव वालों को शर्म नहीं आएगी क्या!
जरूर आएगी कि हम अपने गाँव में जहाँ- तहाँ गंदगी कर देते हैं। इसके लिए हमको एक कोने में छोटा- सा पेशाबघर और शौचालय बना लेना चाहिए। मैं छोटी- सी बात कह रहा था कि जापान ने अपने देश की खाद्य समस्या इसी प्रकार से हल कर ली है। वहाँ फर्टिलाइजर और दूसरे प्रकार के कारखाने नहीं हैं। मनुष्य के मल- मूत्र का ही उपयोग किया जाता है और उससे ही करोड़ों रुपए की खाद पैदा कर ली जाती है। अपने देहातों में मल- मूत्र का कोई उपयोग नहीं होता। गाँव के आस- पास ही लोग मल त्याग करके जगह खराब कर देते हैं। यदि हर गाँव में चलते- फिरते शौचालय, ड्रेनेज के शौचालय बना लिए गए होते, सारे गाँव के लोग उसी में शौच के लिए जाते, तो कितना खाद मिल सकता था। यदि महात्मा चाहते, तो इस छोटे से काम को अपने हाथ में ले करके राष्ट्र में करोड़ों मन अन्न पैदा करने और गाँव में स्वच्छता रखने का काम कर सकते थे।
आठ संत- महात्मा प्रति गाँव लग जाएँ तो....
मित्रो! शिक्षा को ही लें। आठ आदमियों में से एक भी पढ़ा- लिखा हो, तो गाँव में एक पाठशाला चला सकता है। प्रौढ़ पाठशाला, रात्रि पाठशाला चला सकता है। जिससे अपना आज का अर्द्ध निरक्षर देश थोड़े ही दिनों में साक्षर बन सकता है। कितनी सामाजिक कुरीतियाँ और व्यसन अपने देश भर में फैले हुए हैं। ब्याह- शादियों में होने वाला खरच हिंदुस्तान के सिर पर कलंक के तरीके से है। धन का कितना अपव्यय होता है। लोगों में गरीबी और बेईमानी पैदा करने के लिए मजबूर करता है। इससे सारे राष्ट्र की जड़ें खोखली हो गई हैं। यदि ब्याह- शादियों में इतना धन खरच न किया गया होता, तो किसी को अपने बच्चे और बच्चियाँ भारी नहीं पड़तीं। किसी पिता को अपने बच्चों के लिए चिंता करने की जरूरत न होती। इन बुराइयों को दूर करने के लिए आठ संत- महात्मा प्रार्थना के द्वारा, प्रचार के द्वारा भी जनमानस तैयार कर सकते थे। कोई ऐसे अवांछनीय जिद्दी व्यक्ति हों, जो दुराग्रह दिखाते हों, तो उनको सत्याग्रह करने से लेकर घिराव तक की और अनशन से लेकर दूसरे काम करने तक की धमकी दी जा सकती थी। उनको बलपूर्वक रोका जा सकता था। सरकार जिस काम को नहीं रोक सकती, उसको ये लोग रोक सकते थे।
नशाबाजी किस तेजी के साथ बढ़ती चली जाती है, आप देख रहे हैं न! बीड़ी- तंबाकू आज घर- घर का शौक बन गई है। इसमें दो करोड़ रुपया प्रतिदिन खरच होता है। इस हिसाब से सात सौ तीस करोड़ रुपया अपने भारत वर्ष के लोगों को प्रतिदिन खरच करना पड़ता है। यदि इस व्यसन को रोका जा सके, तो सात सौ तीस करोड़ रुपये की राष्ट्रीय बचत हो सकती है। यह बचत इतनी बड़ी है, जिसके सहारे सारे देश में उच्च श्रेणी की शिक्षा- व्यवस्था हम आसानी से बना सकते हैं। यदि हमने नशे को रोका होता और नशे के स्थान पर आवश्यक चीजों को उत्पन्न किया होता, वह पैसा उन कामों में खरच कराया होता, जो रचनात्मक हैं, तो मजा आ जाता और पैसे के अभाव में रुके हुए शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक के सारे- के काम कैसे बढ़िया बन गए होते। क्या कहा जाए! कुछ कह नहीं सकते, हमारी धर्मबुद्धि न जाने कैसी है! हम सब विचारशील लोगों को और बाहर के लोगों को भी हमारी धर्मबुद्धि पर हँसी आती है।
यह तो अध्यात्म नहीं है
मित्रो! भगवान् की प्रार्थना करें, पूजा करें, यह बात समझ में आती है, लेकिन डंडा लेकर भगवान् के पीछे ही पड़ जाएँ और कहें कि तुमको तो न हम खाने देंगे, न खाएँगे; न कुछ करेंगे, न करने देंगे; तो भगवान् भी कहेगा कि अच्छे चेलों से पाला पड़ा- ये न खाते हैं, न खाने देते हैं; न उठते हैं, न उठने देते हैं; न चलते हैं न चलने देते हैं; न कुछ करते हैं, न करने देते हैं। भगवान् बहुत परेशान होगा कि बाबा इनसे पिंड कैसे छुड़ाया जाए! लोगों के मन में यह ख्याल है कि भगवान् का ज्यादा नाम लो, उनके ऊपर ज्यादा पानी चढ़ाओ, उनको ज्यादा उबटन करो, तो क्या हो जाएगा कि भगवान मजबूर होकर मनोकामना पूरी कर देगा। मित्रो! भगवान् का नाम लेना साबुन लगाने के बराबर है। थोड़ी देर साबुन लगाया भी जा सकता है, लेकिन इसके बाद यदि भगवान् का नाम लिया जाए, तो उसके बराबर भगवान् का काम भी किया जाए। तभी एक बात पूरी होती है, अन्यथा बात कहाँ पूरी होती है! यह बात अगर लोगों को समझ में आ गई होती, तो ये छप्पन लाख व्यक्ति राष्ट्र का निर्माण और देश की सामाजिक, नैतिक और दूसरी समस्याओं का समाधान करने के लिए जुट पड़े होते। यह संख्या कितनी बड़ी है! जितने आदमी सरकार की मशीनरी चलाते हैं, उतनी ही बड़ी मशीनरी धर्मतंत्र के द्वारा चलाई जा सकती थी।
मित्रो! धन को ही लें, तो गवर्नमेंट जितना रेवन्यू वसूल करती है, टैक्स वसूल करती है, उससे ज्यादा धन जनता हमारे धर्मकार्यों के लिए दिया करती है। मंदिरों में कितनी बड़ी संपदा लगी हुई है। सरकार के खजाने में जितनी कुल पूँजी है और रिजर्व बैंक के पास जितना धन है, लगभग उतना ही धन मंदिरों और मठों के पास इमारतों के रूप में, नकदी के रूप में, जायदादों के रूप में अभी भी विद्यमान है। धर्मतंत्र की संपदा एक तरह का रिजर्व बैंक है। अगर धर्मतंत्र की संपदा भोग- प्रसाद लगाने, मिठाई बाँटने, पंडे- पुजारियों का पेट पालने, शंख- घड़ियाल बजाने और कर्मकाण्ड करने की अपेक्षा जनमानस को ऊँचा उठाने के लिए लगा दी गई होती, तो मजा आ जाता! मैं जहाँ मथुरा में रहता हूँ, वहाँ के दो मंदिरों की बात बताता हूँ। सबका जिक्र तो मैं नहीं कर सकता। वहाँ दो भगवान् दो मंदिरों में दो लाख रुपये मासिक का भोग खा जाते हैं।
क्या भगवान् यह सब चाहता है
ऐसे लगभग पाँच हजार मंदिर हैं। इसमें न्यूनाधिक मात्रा को लगाया जाए, तो मैं समझता हूँ कि रोज भगवान् के खाने- पीने का खरचा मथुरा- वृंदावन दो नगरों में पंद्रह लाख रुपये प्रतिदिन जा बैठता हो, तो कोई अचंभे की बात नहीं है। पंद्रह लाख प्रतिदिन से कितने करोड़ महीने के और कितने अरब साल भर के होते हैं, जरा हिसाब लगाइए न! यह सारा- का धन यदि भगवान् को भोग लगाने की अपेक्षा उन कामों में खरच किया जाता, जो व्यक्ति के भीतर से कुछ चेतना उत्पन्न करने में, उनकी मनःस्थिति को ऊँचा उठाने में समर्थ हैं, जैसे लोगों को धर्म- धारणा के प्रचार- प्रसार की व्यवस्था। जिस तरीके से पादरी काम करते हैं। ईसाई मिशन के लोग बाइबिल और दूसरी पुस्तकों को संसार की छह सौ भाषाओं में छापते हैं और घर- घर में एक- एक पैसे के मूल्य पर पहुँचाते हैं। जैसे- शिक्षा की व्यवस्था, ऐसे विश्वविद्यालय और विद्यालय स्थापित करने में पैसा खरच किया गया होता, जहाँ से समाज का नया निर्माण करने वाले व्यक्ति निकल सकें। उनकी शिक्षा- दीक्षा का समुचित प्रबंध किया जा सके, तो कितना काम आता। मित्रो! पंद्रह लाख रुपया केवल अपने मथुरा की बात मैंने बताई है। सारे हिंदुस्तान का यदि ब्यौरा लिया जाए, तो ये करोड़ों और अरबों रुपया प्रतिदिन के बीच जा बैठेगा। यदि धर्मतंत्र को सही दिशा देना संभव रहा होता, तो न केवल हिंदुस्तान, बल्कि सारी दुनिया को ठीक कर लिया गया होता। धर्मतंत्र को सही दिशा नहीं दी जा सकी, धर्म का उद्देश्य लोक- मंगल नहीं समझा गया, अपितु कर्मकाण्ड मात्र ही लोगों को बताया जा सका। जिसका परिणाम रचनात्मक न हो सका तथा व्यक्ति और समाज की कोई खास सेवा न हो सकी।
अत्यधिक अपव्यय धर्म के नाम पर
हिंदुस्तान में सोमवती अमावस्या के दिन गंगास्नान का बहुत महत्त्व है। कल्पना कीजिए कि हरिद्वार से लेकर गंगासागर तक स्नान करने वालों की संख्या कम- से कम हर सोमवती अमावस्या के दिन पचास लाख हो जाती है। एक आदमी के जाने- आने का, श्रम का, खाने- पीने का, दान- दक्षिणा आदि का खरच बीस रुपया आता हो और उसे पचास लाख से गुणा कर दिया जाए तो दस करोड़ रुपया प्रति सोमवती अमावस्या का खरच आता है। आप कल्पना कीजिए कि कम- से चार और ज्यादा से ज्यादा पाँच सोमवती अमावस्या हर वर्ष होती हैं। उनका खरचा लगा दिया जाए, तो पचास करोड़ रुपया खरच करने वालों से प्रार्थना की गई होती कि आप एक वर्ष स्नान करने की अपेक्षा गंगा का उपयोग, गंगा की महत्ता समाज में बनाए रखने के लिए विवेकपूर्वक विचार करें।
मित्रो! जिन शहरों की गंदी नालियाँ गंगा में डाली जाती हैं, वहाँ का पानी अपवित्र कर दिया जाता है। स्नान करने वाला उसी नाले के दूषित पानी मिले हुए गंगाजल को पीता है और उसी का आचमन करके चला जाता है। वह गंदा पानी यदि गंगा में डालने की अपेक्षा शहर की नालियों- ड्रेनेज के द्वारा शहर से बाहर निकाला गया होता और खेतों में, बगीचों में डाल दिया गया होता तो कितने एकड़ भूमि की सिंचाई हो जाती! गंगा में, यमुना में और दूसरी नदियों में जो गंदगी पैदा होती है, उनका पानी खराब होता है, जो कि स्नान करने और पीने के लायक भी नहीं रह जाता, बीमारियाँ और फैलाता है। वह पचास करोड़ रुपया यदि उस गंदे पानी का सदुपयोग करने और नदियों को साफ रखने में खरच किया गया होता, तो कैसा अच्छा होता, मजा आ जाता!
धर्मभावना नहीं, धर्मभीरुता
लेकिन क्या कहा जाए? इसे मैं धर्मभीरुता कहता हूँ, धर्मभावना नहीं कहता। अपने देश में सिर्फ धर्मभीरुता है, धर्मभावना नहीं है। धर्मभीरुता और धर्मभावना में जमीन- आसमान का फरक है। गाँव- गाँव में रामचंद्र जी की लीलाएँ और श्रीकृष्ण की लीलाएँ होती हैं। एक- एक लीला में बीस- बीस तीस- तीस हजार रुपया खरच हो जाता है। केवल मनोरंजन, तमाशा होता है। लोग तालियाँ बजाते हैं, मेला- ठेला तमाशा देखते हैं और चले जाते हैं। मित्रो! वह धन, जो अवांछनीय और अनावश्यक खेल- प्रसंगों में खरच किया जाता है, जिसको जनता पुण्य समझती है, उसके द्वारा हमने एक क्रमबद्ध रूप से अभिनय मंच बनाया होता, ऐसी थियेटरिकल कंपनियाँ बनाई होतीं, जो गाँव- गाँव में जाकर भगवान् राम और श्रीकृष्ण भगवान् के जीवन के उद्देश्यों का शिक्षण देने में समर्थ रही होतीं। उनके नाटक, प्रहसनों ने जनता के मन- मस्तिष्क को और जनता की दिशाओं को बदल दिया होता। जिससे उनमें नैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना उत्पन्न की जा सकती थी पर हम देखते हैं कि तमाशे के, उपहास के, मजाक के रूप में भगवान् को एक खिलौना बना देते हैं। भगवान् का सम्मान करने की बात न जाने कहाँ चली जाती है!
मित्रो! थोड़े दिन पहले पंजाब में गुरुनानक पर एक फिल्म बनाई जाने वाली थी, तो पंजाबियों ने घोर विरोध किया कि गुरुनानक को ड्रामे के रूप में नहीं दिखाया जा सकता। उनकी नकल बनाने के लिए कोई झूठा आदमी खड़ा नहीं किया जा सकता। नानक की महत्ता और श्रद्धा हमारे मन में है। उसे हम छोटे से कमजोर आदमी के लिए नष्ट नहीं कर सकते और कोई भी नानक का पार्ट अदा करने के लिए तैयार नहीं हुआ। मित्रो! भगवान का पार्ट अदा करने के लिए ऐसे छोकरे खड़े हो जाएँ, जिनमें न कोई विवेक है, न विचार है, न कोई दिशा है, न लक्ष्य है, तो इससे मनुष्यों की श्रद्धा में क्या कमी नहीं आएगी! केवल लकीर पीटने के लिए कितने आदमी कितना पैसा अनावश्यक रूप से खरच कर डालते हैं। यह पैसा कितनी विकृतियाँ पैदा करता है, यह किसी से छिपा नहीं है। जो भी आदमी हराम की कमाई खाएगा, उसका नाम चाहे ‘अ’ हो, चाहे ‘ब’, उसके आचरण अच्छे नहीं रह सकते। वह समाज के लिए उपयोगी व्यक्ति नहीं रह सकता।
दुरुपयोग रुके
साथियो! अपने देश की सांस्कृतिक, सामाजिक सेवा और नैतिक उत्कर्ष के लिए धन की जरूरत है। धन के बिना कुछ संस्थाएँ और प्रवृत्तियाँ बेमौत भूख से मर जाती हैं। पैसा ऐसे लोगों को दिया जाता है, जिनकी समझ में नहीं आता कि उसका क्या इस्तेमाल किया जाए? इस धर्मभीरु जनता को क्या कहा जाए? उनकी धर्मभीरुता को किस तरीके से धिक्कारा जाए? इतना समर्थ धर्मतंत्र जिसके पीछे छप्पन लाख व्यक्ति काम करते हैं। इतने मंदिरों, मठों, तीर्थों और कर्मकाण्ड, श्राद्ध- तर्पण और न जाने क्या- क्या करने में छप्पन करोड़ रुपया खरच हो जाता हो, तो जरा भी अचंभे की बात नहीं है। इतनी बड़ी पूजी एक गवर्नमेंट का बजट बनाने के लिए काफी है। इतनी बड़ी धन की शक्ति, भावनाओं की शक्ति, इतनी बड़ी जनशक्ति, जो कि आज बिखरी पड़ी है और अवांछनीय दिशा में प्रवाहित हो रही है। आवश्यकता इस बात की है कि नई पीढ़ी के समझदार- विवेकशील लोग इस धर्म के अपव्यय को रोकें। जिसे मैं दुरुपयोग कहता हूँ।
मित्रो! धर्म की भावना का बुरी तरह से दुरुपयोग हो रहा है। इसे उस दिशा में लगाया जाए, जिससे कि व्यक्ति का श्रेष्ठ निर्माण हो। मनुष्यों की विचारणा- भावनाओं में परिष्कार हो और समाज को अच्छे रास्ते पर चलने के लिए प्रकाश मिले। इसके लिए समझदार- विवेकशील लोगों को आगे आना ही चाहिए। जिस तरीके से राजनीति में धक्का- मुक्की करके लोग आगे बढ़ते चले जाते हैं। उसमें उनका सत्ता और पद का लोभ रहा होगा, लेकिन सेवा का जो स्तर अपने धर्मक्षेत्र में है, वह अन्य किसी क्षेत्र में नहीं है। इसलिए मैं आह्वान करना चाहता हूँ उन सब लोगों का, जिनके अंदर देशभक्ति और विश्वमानव की पीड़ा विद्यमान है, जो समाज का हित साधन करना चाहते हैं, जो लोकमंगल के लिए कदम बढ़ाना चाहते हैं; उनको धर्म के विकृत स्वरूप का समाधान करने, धार्मिक भावनाओं और जनशक्ति को ठीक दिशा देने के लिए कदम बढ़ाकर आगे आना ही चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो राष्ट्र और विश्व की प्रगति के लिए एक भारी अभाव बना ही रहेगा। इतनी बड़ी पूँजी, जनशक्ति और भावनाशक्ति का दुरुपयोग होता ही रहेगा। इसको ठीक करना अब राष्ट्र की महती आवश्यकता है।
एक जगह भगवान् बैठें, यह गलत अवधारणा
भगवान् के मंदिर जगह- जगह बनाए जाएँ, यह विचार उस समय उत्पन्न हुआ, जब भगवान् की विचारणा को जनमानस में स्थापित करने, भगवान् की प्रेरणाओं को सर्वत्र प्रकाशित करने की आवश्यकता अनुभव की गई। भगवान् सब जगह विराजमान हैं। पेड़- पत्तों से लेकर फूल- पौधों तक और मनुष्य के हृदय से लेकर के इस आसमान तक, कोई भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ वे विद्यमान न हों। फिर भगवान को एक स्थान पर बिठाने और खाना खिलाने की क्या जरूरत पड़ गई? यह विचारणीय प्रश्न है। भगवान तो बादलों को बरसाते हैं। जरूरत पड़े, तो जहाँ कहीं वर्षा हुआ करे, वहाँ जा बैठें और फुहारों का आनंद ले लें। नहाने की उनको क्या दिक्कत पड़ेगी? नदियाँ उनकी बहती हैं। जब कभी स्नान करना पड़े, घंटों नहा सकते हैं। उनको कोई रोकने वाला है क्या? फिर भगवान् को स्नान कराने की क्या जरूरत थी?
मित्रो,! भगवान् तो एक विचारणा है, भावना है, एक चेतना है। उनको एक जगह बिठाया जाए, ये कैसे मुमकिन हो सकता है? भगवान् की वृत्तियों और प्रवृत्तियों को हम लोग भूल गए हैं। उनको स्मरण दिलाने के लिए ही मंदिर, चेतना केन्द्र बनाए गए हैं, जिसके माध्यम से भगवान् की वृत्तियों को सर्वसाधारण के मनों तक पहुँचाना संभव हो सकेगा। गाँवों में देवालय इसीलिए बनाए गए हैं कि जो लोग भगवान् को भूल गए हैं, वे इस माध्यम से अपने जीवन लक्ष्य को पहचानें। लोग भगवान् का नाम तो जानते हैं कि भगवान् कृष्ण होते हैं, भगवान् राम होते हैं, हनुमान होते हैं। लेकिन सही बात यह है कि भगवान् के स्वरूप, उनके आदेश, उनकी शिक्षाओं और मानव जीवन से उनका संबंध इन सबको सौ फीसदी लोग भूल गए हैं। यदि वे भूले न होते, तो उनने अपने जीवन लक्ष्य को याद रखा होता और यह स्मरण रखा होता कि भगवान् ने इंसान को दुनिया में किसलिए भेजा है? उसके ऊपर क्या जिम्मेदारियाँ सौंपी हैं? भगवान् ने मनुष्य से क्या उम्मीदें की हैं।
मित्रो! भगवान् तो हृदय में, घट- घट में समाया हुआ है और वह मनुष्य के द्वारा अच्छी वृत्तियों को पूरा किया जाना देखना चाहता है। अगर ये बातें मनुष्य को याद नहीं हैं, उसे केवल किसी मंदिर की मूर्ति की शक्ल भर याद रहती है, तो कैसे कहा जाए कि इस आदमी को भगवान् याद है और वह भगवान् को भूला नहीं है? साथियो! लोग भगवान् को भूलते जा रहे थे और भूल रहे हैं। इसीलिए उनको स्मरण दिलाए रखने के लिए मंदिरों की स्थापना की गई, ताकि जब कभी भी आदमी उधर से निकले, तो प्रणाम करे, दंडवत करे और सुबह- शाम उनका दर्शन करे, ताकि उसे याद आए कि कोई भगवान् नाम की सत्ता भी है और वह मनुष्य के जीवन से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। मनुष्य जीवन के विकास के लिए, जीवन में सुख- शांति की स्थापना करने के लिए भगवान् की सहायता और भगवान् के सहयोग की नितांत आवश्यकता है। यह सिद्धांत और आवश्यकता मनुष्य को अनुभव होती रहे, इसलिए हर जगह मंदिर बनाए गए।
लोकशिक्षण जनजाग्रति हेतु बने थे मंदिर
मित्रों! उससे भी एक और बड़ा सामाजिक कारण यह था कि प्रत्येक गाँव और गली- मोहल्ले के लिए ऐसी आवश्यकता अनुभव की गई कि इन स्थानों पर सत्प्रवृत्तियाँ एवं सद्भावनाएँ फैलाने के लिए, रचनात्मक कार्यों को दिशा देने के लिए ऐसे स्थान होने ही चाहिए, जहाँ अनेकानेक प्रकार की प्रवृत्तियों का संचालन किया जा सके। उदाहरण के लिए कथा के द्वारा लोक- शिक्षण जितनी अच्छी तरह किया जा सकता है, उतना और किसी तरीके से नहीं। इसमें मनोरंजन भी है, इतिहास भी है और आनंद भी है। साथ- ही इसमें ऊँचे विचार एवं पूर्व शिक्षाएँ भी जुड़ी हुई हैं। इस तरह से कथाएँ कहकर के जनता को उत्साह और मनोरंजन के साथ सन्मार्गगामी बनाया जा सकता है।
प्राचीनकाल में मंदिरों में कथाएँ होती थीं, संगीत का शिक्षण होता था और वह कीर्तन के माध्यमों से लोकगायन और लोक- मंगल की शिक्षाओं के केन्द्र बने रहते थे। मंदिरों के साथ पाठशालाएँ जुड़ी रहती थीं, पुस्तकालय जुड़े रहते थे। मंदिरों में सत्संग की व्यवस्था होती थी। मंदिरों के आस- पास व्यायामशालाओं की भी व्यवस्था थी। कहने का अर्थ यह है कि असंख्य रचनात्मक प्रवृत्तियों का एक ही केन्द्र उस जमाने में था, जिसको हम कहते हैं- मंदिर उन दिनों मंदिरों में जो कार्यकर्ता काम करते थे, वे बड़े प्रभावी, लोकसेवी होते थे। लोकसेवियों को जीविका की भी आवश्यकता है। लोकसेवी काम करे और खाने का प्रबंध न हो सके, तो काम कैसे चलेगा? इसी तरह यदि खाने का प्रबंध और गुजारे की व्यवस्था किसी को वेतन के रूप में लोग दें, तो लेने वाले का भी असम्मान होता है और देने वाले को अहंकार पैदा होता है।
इसलिए मित्रो! विचार ये किया गया कि उस गाँव में काम करने वाले लोकसेवियों को गुजारा निर्वाह करने की व्यवस्था के लिए भगवान का भोग लगाया जाए। थाली भरकर सवेरे का भोग लगा दिया और थाली भरकर शाम को भोग लगा दिया। एक आदमी के गुजारे का प्रबंध हो गया। दोनों वक्त का भोजन मिल गया। लोगों ने यह समझा कि हमने भगवान् को खाना खिलाया और सेवा करने वाले व्यक्ति ने समझा कि हमारे गुजारे का प्रबंध हो गया। असम्मान भी नहीं हुआ और किसी के ऊपर प्रत्यक्ष रूप से दबाव भी नहीं पड़ा। इस तरीके से मंदिरों में भगवान् के जो खाने- पीने की व्यवस्था थी, वास्तव में वह वहाँ के कार्यकर्ता के लिए भोजन की व्यवस्था थी। लोग भगवान् के पास दक्षिणा चढ़ाया करते थे, पैसा चढ़ाया करते थे। वे चढ़ावे की चीजें सिर्फ एक ही काम आती थीं कि उस क्षेत्र में सेवाकार्य करने वाले लोगों के गुजारे तथा मंदिर की देख- भाल का प्रबंध इस तरीके से हो जाता था।
लोकसेवियों की आवश्यकता पूर्ति था एक प्रयोजन
साथियो! लोकसेवी तो हर जगह होने ही चाहिए। लोकसेवियों के बिना सत्प्रवृत्ति का विकास कैसे हो सकता है? इसलिए पहले हर गाँव में कितने ही लोकसेवी रहते थे और एक- दूसरे के गाँव में परिभ्रमण करते रहते थे। परिभ्रमण करने वाले ऐसे लोकसेवियों को संत- महात्मा भी कहा जा सकता है, विद्वान भी कहा जा सकता है। वे जब कभी भी आते थे, तो उनके ठहरने के लिए डाक- बंगला चाहिए, धर्मशाला चाहिए। यह कहाँ से आए? इसलिए मंदिरों में इतनी गुंजाइश रखी जाती थी कि कभी दस- पाँच आदमी बाहर से आ जाएँ, तो उनके भी ठहराने और खाने- पीने का प्रबंध कर दिया जाए। इस तरीके से किसी जमाने में सत्प्रवृत्तियों के केन्द्र मंदिर थे। मंदिरों को इसीलिए बनाया गया था। भगवान् की पूजा- अर्चना भी हो जाती थी, साथ ही भगवान् को याद करने के बहाने से आस्तिकता का प्रचार भी होता था।
मित्रो,! ये सब बातें ठीक हैं, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवान् को उन सब चीजों की आवश्यकता थी, उनके बिना भगवान् का कोई काम रुका पड़ा था। आरती अगर न उतारी जाए, तो भगवान नाखुश हो जाएँ, या उनका काम हर्ज हो जाए, ये कैसे हो सकता है? सूर्यनारायण और चंद्रमा भगवान् की हर वक्त आरती उतारते रहते हैं। नवग्रहों से लेकर के तारामंडलों द्वारा हर क्षण उनकी आरती होती रहती है। फिर हमारे छोटे- से दीपक की क्या कीमत हो सकती है? फूल सारे विश्व में उन्हीं के उगाए हुए हैं, चंदन के पेड़ उन्हीं ने उगाए हैं। फूल और चंदन अगर भगवान् को नहीं मिलते, तो भगवान का क्या हरज था? मिठाई या खाना- भोग भगवान् को नहीं मिलता, तो क्या हर्ज था? राई के बराबर भी कुछ हर्ज नहीं था। भगवान् को खाने- पीने की और पहनने- ओढ़ने की वास्तव में कतई जरूरत नहीं है।
ये सब चीजें भगवान् को मंदिरों के माध्यम से जो भगवान् के निमित्त चढ़ाई जाती हैं, उनके पीछे सिर्फ एक ही उद्देश्य छिपा था कि लोकसेवी को, जो एक तरीके से भगवान् के प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की तिलाञ्जलि दी और अपनी व्यक्तिगत सुविधाओं को ताक पर रख दिया, जिन्होंने केवल लोकमंगल का ही ध्यान रखा, केवल भगवान् के संदेशों का ही ध्यान रखा, भगवान् का प्रतिनिधि न कहें तो क्या कहें? भगवान् के प्रतिनिधियों को जीवनयापन करने के लिए निवास से लेकर भोजन, वस्त्र तक और दूसरी चीजों के खरच की आवश्यकता के लिए मंदिरों को बनाया गया। यह एक मुनासिब क्रम था।
मंदिर वस्तुतः जन- जागरण के केन्द्र थे। इसकी पुनरावृत्ति एक बार फिर बढ़िया ढंग से की गई। सिक्खों के गुरुद्वारों को आप देखते हैं। किसी जमाने में जब मुसलमानों का दबदबा बहुत ज्यादा था, अत्याचार भी बहुत होते थे, तब सिक्खों के गुरुद्वारे में जहाँ एक ओर भगवान् की भक्ति की बात होती थी, वहीं दूसरी ओर इस बात को भी स्थान दिया गया कि एक हाथ में माला और दूसरे हाथ में भाला लेकर के सिख धर्म के अनुयायी खड़े हों और समाज में जो अनीति फैली हुई है। उसका मुकाबला करें। मंदिर थे, गुरुद्वारे थे, पर तब उनमें लोकसेवा की, लोकमानस के परिष्कार की कितनी तीव्र प्रक्रिया विद्यमान थी।
मित्रो! समर्थ गुरु रामदास ने भी यही किया था। जब अपना देश बहुत दिनों तक पराधीन हो गया, तो उन्होंने देखा कि जनता को संघबद्ध करने के लिए, जनता को दिशा देने के लिए और जन- सहयोग का केन्द्रीकरण करने के लिए कोई बड़ा काम किया जाना चाहिए। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र भर में घूम- घूमकर सात सौ महावीर मंदिर बनाए। वे मंदिर केवल हनुमान जी को मिठाई या चूरमा- लड्डू खिलाने के लिए नहीं बनाए गए थे। हनुमान जी तो पेड़ पर चढ़कर भी अपना फल, लड्डू- चूरमा खा सकते हैं। उन्हें क्या गरज पड़ी है कि वे किसी का चूरमा और लड्डू खाएँ? वे तो अपने हाथ- पाँव से मेहनत करके खुद खा सकते हैं और सैकड़ों बंदरों को भी खिला सकते हैं। वे किसी का लड्डू और चूरमा खाने के लिए भूखे कहाँ थे? लेकिन महावीर स्थान, जो जगह- जगह सारे महाराष्ट्र में समर्थ गुरु रामदास के द्वारा बनाए गए, उसका एक ही उद्देश्य था कि इनमें जो काम करने वाले व्यक्ति हैं, वे जनता से सीधा संपर्क बनाएँ। उन सात सौ महावीर मंदिरों में ऐसे तीखे और भावनाशील पुजारी रखे गए, जिन्होंने गाँव को ही नहीं, पूरे इलाके को जगा दिया। वह सात सौ इलाकों में बँटा हुआ महाराष्ट्र एक तरीके से संगठित होता हुआ चला गया।
समर्थ के मंदिर व्यायामशालाएँ
साथियो! समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी के सिर पर हाथ रखा और कहा कि भारतीय स्वाधीनता के लिए, भारतीय धर्म की रक्षा करने के लिए तुम्हें बढ़- चढ़कर काम करना चाहिए। शिवाजी ने कहा कि मेरे पास वैसी साधन- सामग्री कहाँ है? मैं तो छोटे से गाँव का एक अकेला छोकरा, इतने बड़े काम को कैसे कर सकता हूँ। समर्थ गुरु रामदास ने कहा, ‘‘मैंने पहले से ही उसकी व्यवस्था सात सौ गाँवों में महावीर मंदिर के रूप में बनाकर के रखी है। जहाँ जनता में काम करने वाले बड़े प्रकाण्ड, समझदार एवं मनस्वी लोग काम करते हैं। पुजारी पद का अर्थ मरा हुआ आदमी, बीमार, बुड्ढा, निकम्मा, बेकार आदमी नहीं है। पुजारी का अर्थ- जिसे भगवान् का नुमाइन्दा या भगवान् का प्रतिनिधि कहा जा सके। जहाँ ऐसे समर्थ व्यक्ति हों, समझना चाहिए, वहाँ पुजारी की आवश्यकता पूरी हो गई।’’
मित्रो! किसी आदमी को खाना दिया जाए और वह भी आधा- अधूरा सड़ा- बुसा हुआ दिया जाए, तो उससे खाने वाले को भी नफरत होगी और उसके स्वास्थ्य की रक्षा भी नहीं होगी। इसी तरीके से भगवान् की सेवा करने के लिए लंगड़ा- लूला काना- कुबड़ा मरा, अंधा, बिना पढ़ा, जाहिल- जलील गंदा आदमी रख दिया जाए, तो वह क्या कोई पुजारी है? पुजारी तो भगवान् जैसा ही होना चाहिए। भगवान् राम के पुजारी कौन थे? हनुमान जी थे। अतः कुछ इस तरह का पुजारी हो, तो कुछ बात भी बने। इसी तरह के पुजारी समर्थ गुरु रामदास ने सारे- के महाराष्ट्र में रखे थे। इन सात सौ समर्थ पुजारियों ने उस इलाके में जो फिजा, वो परिस्थितियाँ पैदा कीं कि छत्रपति शिवाजी के लिए जब सेना की आवश्यकता पड़ी, तो उन्हीं सात सौ इलाके से बराबर उनकी सेना की आवश्यकता पूरी की जाती रही।
इसी प्रकार जब उनको पैसे की आवश्यकता पड़ी, तो उन छोटे- से देहातों से, जिनमें कि महावीर मंदिर स्थापित किए गए थे, वहाँ से पैसे की आवश्यकता को पूरा किया गया। अनाज भी वहाँ से आया। उसी इलाके में जो लोहार रहते थे, उन्होंने हथियार बनाए। इस तरह जगह- जगह से छिटपुट हथियार बनते रहे। अगर एक जगह पर हथियार बनाने की बड़ी फैक्ट्री होती, तो शायद विरोधियों को पता चल जाता और उन्होंने उस स्थान को रोका होता। वे सावधान हो गए होते। मिलिट्री एक ही जगह रखी गई होती, तो विरोधियों को पता चल जाता और उसे रोकने की कोशिश की गई होती। लेकिन सात सौ गाँवों में पुजारियों के रूप में एक अलग तरह की छावनियों पड़ी हुई थीं। हर जगह इन सैनिकों को ट्रेनिंग दी जाती थी। हर जगह इन छावनियों में १०- २० वालंटियर आते थे और वहीं से पैसा धन व अनाज आता था। इस तरीके से मंदिरों के माध्यम से समर्थ गुरु रामदास ने छत्रपति शिवाजी को आगे करके इतना बड़ा काम कर दिखाया।
मूल उद्देश्य हम भूल गए
मित्रो! मंदिर जन- जागरण के केन्द्र बनाए जा सकते हैं। मंदिरों का उपयोग लोकमंगल के लिए किया जा सकता है। क्योंकि उसके पास इमारत होती है। इमारत तो हर सेवा केन्द्र के पास होनी चाहिए, परंतु इसके अलावा वह व्यवस्था भी होनी चाहिए, जिससे कि उस क्षेत्र के कार्यकर्ताओं का, निवासियों का, गुजारे का प्रबंध किया जा सके। इस गुजारे का प्रबंध तभी हो सकता है, जब आजीविका के स्रोतों से जनता, इसके लिए त्यागवृत्ति पैदा की जा सके। मनुष्य में यह भावना पैदा की जा सके कि हमने भगवान् को दिया है, तुमको नहीं। इससे आदमी का मन हलका होता है। त्याग और सेवा की वृत्ति पैदा होती है। वह धन का एक केन्द्र पर इकट्ठा होने से समाज के लिए उससे उपयोगी काम किए जा सकते हैं।
प्राचीनकाल में मंदिर इसी उद्देश्य से बनाए गए थे। समाज में सत्प्रवृत्तियों का विकास वास्तव में भगवान् की सेवा का एक बहुत बड़ा काम है। लेकिन आज मैं क्या कहूँ! मंदिरों को देखकर रोना आता है। आज मंदिर पर मंदिर बनते चले जा रहे हैं। करोड़ों रुपया खरच होता है। क्या ऐसा संभव नहीं था कि करोड़ों रुपयों से बनने वाली इमारतों को इस ढंग से बनाया गया होता कि वहाँ लोकसेवा की प्रवृत्तियों के लिए गुंजाइश रहती और भगवान् के निवास की भी, एक छोटी- सी जगह बना दी गई होती। अब तो सारी- की इमारतें इस काम के लिए बनाई जाती हैं कि उसमें केवल भगवान् ही बैठें। भगवान् को इतनी जगह की क्या जरूरत है? भगवान् को चाहो, तो एक कोने में बिठा दो, तो भी वे मौज करेंगे। भगवान् को इतने बड़े भव्य निर्माण से क्या लेना- देना उनके लिए तो इतना बड़ा आसमान विद्यमान है।
लोकसेवा की प्रवृत्तियों का केन्द्र हो मंदिर
मित्रो! मंदिरों की इमारतों को अगर इस ढंग से बनाया गया होता कि जिनमें मंदिर के साथ- साथ पाठशाला, प्रौढ़ पाठशाला, संगीत विद्यालय, वाचनालय और कथा- कीर्तन का कक्ष भी बना होता; उसके आस- पास व्यायामशाला भी होती और थोड़ी- सी जगह में चिकित्सालय का भी प्रबंध होता; बच्चों के खेलने की भी जगह होती। इस तरीके से लोकमंगल की, लोकसेवा की अनेक प्रवृत्तियों का एक केन्द्र अगर वहाँ बना दिया गया होता और वहीं एक जगह भगवान की भी स्थापना होती, तो जो धन मंदिरों में चढ़ाया जाता है, उसका ठीक तरीके से उपयोग होता। ऐसी स्थिति में मंदिरों के द्वारा कितना बड़ा लाभ होता।
साथियो! आपने गिरजाघरों को देखा है। गिरजाघरों में भगवान् के लिए कोई गुंजाइश नहीं है क्या? वहाँ कहीं- कहीं मरियम की मूर्ति लगी रहती है, तो कहीं- कहीं ईसा की प्रतिमा लगी रहती हैं। एक छोटा- सा प्रार्थनाकक्ष होता है। कहीं इसमें अस्पताल या दवाखाने वाला हिस्सा होता है। कहीं पादरियों के रहने का हिस्सा होता है। कहीं एक छोटा- सा दफ्तर बना होता है। इस तरह भगवान् का एक छोटा- सा केन्द्र बनाने के बाद में बाकी सारी- की इमारत, सारा स्थान लोकमंगल के लिए होता है। पहले भारतवर्ष में भी ऐसा ही किया जाता था और किया भी जाना चाहिए, लेकिन आज तो मंदिरों की दशा देखकर हँसी आती है और क्रोध भी। आज मंदिरों का सारा- का धन कुछ चंद लोगों के निहित स्वार्थ के लिए खरच हो जाता है। जो कुछ भी चढ़ाया या दान आया, कुछ निहित स्वार्थ के लिए मठाधीशों और मंदिरों के स्वामी और दूसरे महंतों के पेट में चला गया।
अनाचार एवं अज्ञान के केन्द्र हैं ये
मित्रो! वह अनावश्यक धन, हराम का धन जब उन लोगों के पास आया तो उन्होंने क्या- क्या किया? आप नहीं जानते, मैं जानता हूँ। पंडा- पुजारियों महंतों और मठाधीशों की हकीकत मुझे मालूम है, आपको नहीं मालूम है। आप तो केवल उनकी बाहर की शकल जानते हैं। मुझे उनके पास रहने का मौका मिला है। मैं जानता हूँ कि समाज में खराब- से किस्म के तबके अगर हैं, तो उनमें से एक तबका इन लोगों का भी है, जो धर्म का कलेवर या धर्म का दुपट्टा ओढ़े हुए हैं। धर्म का झंडा गाड़े हुए हैं और धर्म का तिलक लगाए हुए हैं। धर्म की पोशाक और धर्म का बाना पहने हुए बैठे हैं। ये क्या- क्या अनाचार फैलाते हैं और क्या- क्या दुनिया में खुराफातें पैदा करते हैं, इनके निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए आज का धर्मतंत्र है- मंदिर तो क्या मंदिर सिर्फ इसी काम के लिए हैं? क्या इन परिस्थितियों को बदला नहीं जाना चाहिए? हाँ, अगर हमको समाज में ढोंग, अनाचार और अज्ञान फैलाना हो, तो मंदिरों का यही रूप बना रहने देना चाहिए। हाँ, अगर हमको समाज में ढोंग, अनाचार और अज्ञान फैलाना हो, तो मंदिरों का यही रूप बना रहने देना चाहिए। अगर हमको यह ख्याल है कि जनता का इतना धन, जनता की इतनी श्रद्धा, जनता का इतना पैसा- इन सब चीजों का ठीक तरीके से उपयोग किया जाए, तो आज के जो मंदिर हैं, उनकी व्यवस्था पर नए ढंग से विचार करना पड़ेगा। जिन लोगों के हाथ में उनका नियंत्रण है, उनको समझना पड़ेगा और कहना पड़ेगा कि लोगों की उपयोगिता के लिए आप इनका इस्तेमाल क्यों नहीं करते? ट्रस्टियों को समझाया जाना चाहिए। अगर उनकी समझ में यह बात आ जाए कि मंदिर में जितना धन लगा हुआ है, इसमें से थोड़े पैसे से भगवान् की पूजा आसानी से की जा सकती है। एक पुजारी ने आधा घंटे सुबह और आधा घंटे शाम को पूजा कर ली। एक घंटे के बाद तेईस घंटे बच जाते हैं। नहीं साहब! तेईस घंटे पुजारी पंखा लिए खड़े रहेंगे। जब भगवान् सो जाएँगे, तो वे वहाँ से हटेंगे और जब भगवान् उठ जाएँगे, तो फिर पंखा डुलाते रहेंगे। यह कोई तरीका है?
जनश्रद्धा का दुरुपयोग न हो
मित्रो! हम अपने ढंग से भगवान् को बेकार आदमी जैसा बनाते हैं। अगर भगवान् सोया करेंगे, तो सूरज, चाँद कैसे उगेगा? हवाएँ कैसे चलेंगी? जीव- जंतु पेड़- पौधे कैसे पैदा हो जाएँगे? भगवान् सो नहीं सकता, हवा सो नहीं सकती, गरमी सो नहीं सकती। जो इस तरह की विश्वव्यापी चेतनाएँ हैं, उनको सोने से क्या मतलब! इसलिए सोने- जागने वाला जो कृत्य है, वह बच्चों का मनबहलाव जैसा है। मनबहलाव का थोड़ा- सा काम रखा जाए, तो क्या हर्ज है! लेकिन उस कार्य के लिए जो धन, पैसा, श्रम लगा हुआ है, जो व्यक्ति लगे हुए हैं, उन सभी को लोकमंगल के लिए खरच किया जाना चाहिए। मंदिरों के जो कमेटी वाले हैं, महंत हैं, उनको विवेकशील लोगों की एक कमेटी बनाकर समझाया जाना चाहिए। अगर वे समझते नहीं हैं, तो उन्हें मजबूर किया जाना चाहिए कि मंदिर में धन तो आपने लगाया है, पर अब वह जनता का है। मंदिर का ट्रस्ट बनाने का मतलब है कि उसका स्वामित्व जनता के हाथ में चला जाता है। मंदिरों के ये न्यासी प्रबंधक होते हैं, स्वामी नहीं होते। वह संपत्ति जनता की मानी जाती है। जो देवालय बन गया, उसकी स्वामी जनता हो जाती है और उसका हक है कि उन लोगों को मजबूर करे और कहे कि आप इस तरीके से इस धन का अपव्यय नहीं कर सकते। जनता की श्रद्धा का गलत उपयोग नहीं किया जा सकता।
मित्रो! अपने देश में अरबों रुपया मंदिरों के नाम पर लगा हुआ है। मैं इसको अपव्यय ही नहीं, दुरुपयोग कहता हूँ और यह कहता हूँ कि उन पुजारियों को, महंतों को यह कहा जाना चाहिए कि आप अगर अपनी श्रद्धा को कायम रखना चाहते हैं, जनता के मन पर अपनी छाप को कायम रखना चाहते हैं, तो आप लोकसेवी के तरीके से जिएँ और इस मंदिर को लोकसेवा का केन्द्र बनाएँ। न तो आप भगवान के वकील हैं, न एजेंट हैं और न ही नुमाइन्दे हैं। आप हमारे जैसे पुजारी और एक सामान्य व्यक्ति हैं।
प्रगतिशील मंदिरों की आवश्यकता
मित्रो! अब समय आ गया है, जबकि मंदिरों का स्वरूप बदल दिया जाए। नमूने के लिए अब ऐसे मंदिर बनाए जा सकते हैं, जिनमें प्रयोगशाला के तरीके से लोग देख पाएँ कि मंदिरों का सही इस्तेमाल क्या हो सकता है और क्या होना चाहिए? हमने गायत्री तपोभूमि का मंदिर लोगों के सामने एक नमूना पेश करने की खातिर बनाया है। यों तो अपने देश में इतने सारे मंदिर हैं। भगवान् तो एक ही है। उनको ही शंकर कह दीजिए, गणेश कह दीजिए, हनुमान जी कह दीजिए। अनेक भगवान् नहीं हो सकते, हाँ उनके नाम अनेक हो सकते हैं। मंदिर में मूर्ति रख देना ही काफी नहीं है, वरन् मूर्ति के साथ- साथ उन भगवान् से संबंधित वृत्तियों को आगे बढ़ाया जाना और फैलाया जाना भी आवश्यक है। अपने यहाँ यही तो होता है। कितने कार्य होते हैं- विद्यालय वहाँ चलता है, प्रकाशन वहाँ होता है, देश भर के लिए कार्यकर्ता वहाँ से भेजे जाते हैं और न जाने क्या- क्या किया जाता है। लेकिन उस मंदिर तक ही हम सीमाबद्ध नहीं हैं। यदि सीमाबद्ध हो जाते, तो उसको प्रगतिशील मंदिर नहीं कहा जा सकता था। अब हमको प्रगतिशील मंदिरों की स्थापना की आवश्यकता है। समाज का नया निर्माण करने के लिए नए- नए रचनात्मक केन्द्र खोले जाने चाहिए।
अध्यात्म- चेतना के विस्तार में नियोजन हो
साथियो! मंदिरों के नाम पर करोड़ों- अरबों रुपये की संपत्ति को ऐसे ही पड़ा रहने दें, यह कैसे हो सकता है! इस संपत्ति को ठीक तरीके से इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उसके लिए समझदार लोगों को, धार्मिक लोगों को आगे आना चाहिए और इस आवश्यकता को महसूस करना चाहिए कि यदि धर्म को जिंदा रहना है, तो वह ढोंग के रूप में नहीं जिएगा। वह केवल कर्मकाण्ड के रूप में जिंदा नहीं रहेगा। बेशक धर्म के साथ में कर्मकाण्डरूपी कलेवर जिंदा रहे, लेकिन कर्मकाण्डों के साथ- साथ उन सत्प्रवृत्तियों को भी जीवित रखा जाना चाहिए, जिनसे लोक- मंगल की और समाज की आवश्यकताएँ पूरी होती हैं। धर्म केवल कर्मकाण्ड नहीं है। धर्म केवल आडम्बर नहीं है। धर्म केवल पूजा- पाठ की प्रक्रिया नहीं है, वरन् इस पूजा- पाठ की प्रक्रिया और धार्मिक क्रिया- कृत्यों के पीछे और साथ- साथ में एक महती आवश्यकता जुड़ी हुई है कि हम व्यक्ति के अंतरंग को, उसकी भावनाओं को कैसे ऊँचा उठाएँ। समाज के अंदर फैली हुई धार्मिक वृत्तियों को कैसे बढ़ाएँ। यह सारे- के क्रियाकलाप जिस माध्यम से और जिस आधार पर पूरे किए जा सकते हैं, उसके लिए कोई केन्द्र या एक स्थान होना ही चाहिए। वह जगह हमारे मंदिर ही हो सकते हैं।
इन मंदिरों में पुजारी के रूप में सिर्फ लोकसेवियों की नियुक्ति हो, जिनके मन में समाज के लिए दर्द है और जो समाज को ऊँचा उठाना चाहते हैं। जो मनुष्य के भीतर धर्मवृत्तियाँ पैदा करना चाहते हैं, उसी तरह के पुजारी वहाँ रहें। वे अपने पूजा- पाठ का एक- दो घंटा पूरा करने के बाद, अपने गुजारे की व्यवस्था करने के बाद जो समय उनके पास बच जाता है, उसका इस्तेमाल इस तरह से करें, जिससे कि हमारी सामाजिक और राष्ट्रीय एवं व्यक्तिगत चरित्र की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। मंदिरों में जहाँ दूसरी तरह के खरच होते हैं- कभी बँगले बनते हैं, कभी उत्सव होते हैं, कभी झाँकी बनती है, कभी क्या बनता है और उसी में लाखों रुपये खरच हो जाता है। उन सारे- के क्रियाकलापों में आंशिक किफायत की जा सकती है और इससे जो पैसा बचता है, उसको लोकमंगल की अनेक प्रवृत्तियों को आगे बढ़ाने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है और करना भी चाहिए। इस तरीके से धन की आवश्यकता, इमारतों की आवश्यकता, जनसहयोग की आवश्यकता मंदिरों के आधार पर ठीक तरीके से पूरी की जा सकती है।
यह सोच भी बदलें
मित्रो! जो व्यक्ति ऐसा ख्याल करते हैं कि भगवान् निराकार हैं, उसकी मूर्तिपूजा की जरूरत नहीं है, उन लोगों से भी मेरी यह प्रार्थना है कि वे उस शक्तिशाली माध्यम की उपेक्षा नहीं करें। ये मंदिर हिंदू धर्म की श्रद्धा के केन्द्र हैं। उनको अब दिशा दी जानी चाहिए, नया मोड़ दिया जाना चाहिए। अब उनका विरोध करने की जरूरत नहीं रही। अब उनका खंडन करने की जरूरत नहीं रही। किसी जमाने में ऐसा रहा होगा कि लोगों के मनों में मूर्तिपूजा की बात, जो गहराई तक जम गई थी, उसको कमजोर करने के लिए संभव है, किसी ने मंदिर का विरोध किया हो और यह कहा हो कि इसमें मूर्तिपूजा की जरूरत नहीं है। उस आधार पर धन खरच करने की जरूरत नहीं है। हो सकता है, किसी जमाने में धर्म सुधारकों ने अपनी बात समय के अनुरूप कही हो, लेकिन मैं अब यह कहता हूँ कि हिंदुस्तान में गाँव- गाँव में छोटे- बड़े मंदिर बने हुए हैं। उनको आप उखाड़िएगा क्या? भगवान् राम और भगवान् श्रीकृष्ण, जिनको हमारी असंख्य जनता श्रद्धापूर्वक प्रणाम करती है, क्या उनका आप विरोध करेंगे? निंदा करेंगे क्या? नहीं, अब यह गलती नहीं करनी चाहिए।
साथियो! ठीक है, जैसा भी अब तक चला आ रहा है, उसे अब हमें सुधार की दिशा में मोड़ देना चाहिए। यह एक बहुत बड़ा काम है। विरोध करके नई चीज को खड़ा करना कितना मुश्किल है। एक चीज को गिराया जाए और फिर एक नई इमारत बनाई जाए, इसकी अपेक्षा यह क्या बुरा है कि जो बनी- बनाई इमारत है, उसको हम ठीक तरीके से इस्तेमाल करना सीख लें और उसी को काम में लाएँ। मंदिरों को अगर ठीक तरीके से काम में लाया जा सकता हो और उनमें लगी पूँजी को ठीक तरीके से इस्तेमाल किया जाता रहा हो और इन दोनों का उपयोग लोकमंगल के लिए किया जाता रहा हो। उनमें ऐसे पुजारियों की, कार्यकर्ताओं की नियुक्ति की जा सकती हो, जो अपना एक- दो घंटे का समय पूजा- पाठ में लगाने के बाद बचा हुआ सारा समय समाज को ऊँचा उठाने में लगाएँ, तो मैं यह विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि सरकार और दूसरी संस्थाओं के द्वारा जो लंबे- लंबे प्लान, योजनाएँ बनती हैं, धन लगाती हैं, कार्यकर्ता नियुक्त करती हैं, फिर भी सारी योजनाएँ असफल हो जाती हैं, उसकी तुलना में यह योजना इतनी बड़ी, इतनी महत्त्वपूर्ण, इतनी मार्मिक और सार्थक है कि हम राष्ट्र को पुनः उसके शिखर पर पहुँचा सकते हैं।
राष्ट्र का कायाकल्प कर सकते हैं ये देवालय
इसके लिए हमें केवल मंदिरों की दिशाएँ मोड़ने की जरूरत है। लोगों को समझाने की जरूरत है, प्रचार करने की जरूरत है, धमकाने की जरूरत है। अगर ये काबू में न आते हों, तो घिराव करने से लेकर बहिष्कार करने तक की जरूरत है और यह समझाने की जरूरत है कि इस धन का और इमारतों का हम अपव्यय नहीं होने देंगे। मंदिरों को हम अंधश्रद्धा का केन्द्र नहीं बनने देंगे। हम धर्मभीरुता का पोषण करने वाले केन्द्र के रूप में नहीं, वरन् इन्हें धर्म की स्थापना का केन्द्र बनाएँगे। यदि इन मंदिरों को धर्म की स्थापना का केन्द्र बनाया जा सका, तो राष्ट्र की महती आवश्यकता पूरी की जा सकती है। तब नया युग लाने में, नया समाज बनाने में समाज की विकृतियों को दूर करने में और एक समर्थ राष्ट्र- समर्थ समाज बनाने के लिए इतने बड़े साधन हमारे हाथ सहज ही लग सकते हैं। इन बने- बनाए साधनों को विवेकशीलों को अपने अधिकार में, कब्जे में लेना ही चाहिए और उनको वह दिशा देनी चाहिए, जिससे कि भगवान् वास्तव में प्रसन्न हों।
भगवान् की जो सद्वृत्तियाँ इस विश्व में फैली हुई हैं, जिनसे कि शांति आती है और धार्मिक- भावना की वृद्धि होती है और समाज समृद्ध होता है, उन भावनाओं को आगे बढ़ाने के लिए मंदिरों को केन्द्र बनाया ही जाना चाहिए। ताकि वास्तविक भगवान् अपनी वास्तविक पूजा को देखकर प्रसन्न हो जाए और भक्ति करने, पूजा- पाठ करने का उद्देश्य लोगों को प्राप्त हो सके और लोग उसका समुचित फायदा उठा सकें। यह करने की बहुत अधिक आवश्यकता है और हमको करना चाहिए। मंदिरों को जन- जागरण का केन्द्र बनाया जाना चाहिए, उनका कायाकल्प किया जाना चाहिए। इतना करना यदि संभव हो गया, तो समझना चाहिए कि हमने लोक- मंगल के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी मंजिल पूरी कर ली और बहुत बड़े साधनों को हमने अपने आप में इकट्ठा कर लिया।
आज की बात समाप्त।
ॐ शान्ति