
ध्यान का अगला चरण है—समर्पण
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जीवन को असल अर्थ देने वाली अन्तर्यात्रा विज्ञान के प्रयोग सूक्ष्म हैं। इनकी विधि, क्रिया एवं परिणाम योग साधक की अन्तर्चेतना में घटित होते हैं। इस सम्पूर्ण उपक्रम में स्थूल क्रियाओं की उपयोगिता होती भी है, तो केवल इसलिए ताकि साधक की भाव चेतना इन सूक्ष्म प्रयोगों के लिए तैयार हो सके। एक विशेष तरह की आंतरिक संरचना में ही अन्तर्यात्रा के प्रयोग सम्भव बन पड़ते हैं। बौद्धिक योग्यता, व्यवहार कुशलता अथवा सांसारिक सफलताएँ इसका मानदण्ड नहीं हैं। इन मानकों के आधार पर किसी को साधक अथवा योगी नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए महत्त्वपूर्ण है—चित्त की अवस्था विशेष, जो अब निरुद्ध होने के लिए उन्मुख है। चित्त में साधना के सुसंस्कारों की सम्पदा से मनुष्य में न केवल मनुष्यत्व जन्म लेता है, बल्कि उसमें मुमुक्षा भी जगती है।
पवित्रता के प्रति उत्कट लगन ही व्यक्ति को अन्तर्यात्रा के लिए प्रेरित करती है। और इस अन्तर्यात्रा के लिए गतिशील व्यक्ति धीरे- धीरे स्वयं ही पात्रता के उच्चस्तरीय सोपानों पर चढ़ता जाता है। उसे अपने प्रयोगों में सफलता मिलती है। अन्तस् में निर्मलता, पवित्रता का एक विशेष स्तर हो, तभी प्रत्याहार की भावदशा पनपती है। इसके प्रगाढ़ होने पर ही धारणा परिपक्व होती है। और तब प्रारम्भ होता है ध्यान का प्रयोगात्मक सिलसिला। मानसिक एकाग्रता, चित्त के संस्कारों का परिष्कार, अन्तस् की ग्रन्थियों से मुक्ति के एक के बाद एक स्तरों को भेदते हुए अन्तिम ग्रन्थि भेदन की प्रक्रिया पूरी होती है। इसी बीच योग साधक की अन्तर्चेतना में ध्यान के कई चरणों व स्तरों का विकास होता है। सबीज समाधि की कई अवस्थाएँ फलित होती हैं। महर्षि पतंजलि के पिछले सूत्र में भी इसी की एक अवस्था का चिन्तन किया गया था। इस सूत्र में कहा गया था कि सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है, उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियाँ भी स्पष्ट होती हैं। लेकिन सविचार एवं निर्विचार समाधि की इन उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते जाते हैं। ध्यान की इस सूक्ष्मता के अनुसार ही ध्यान की प्रभा और प्रभाव दोनों ही बढ़ते जाते हैं। इसी के अनुसार साधक की मानसिक एवं परामानसिक शक्तियों का विकास भी होता है। परन्तु आध्यात्मिक प्रसाद अभी भी योग साधक से दूर रहता है। इसके लिए अभी भी अन्तर्चेतना की अन्तिम निर्मलता अनिवार्य बनी रहती है।
महर्षि पतंजलि ने अपने इस नए सूत्र में इन्हीं पूर्ववर्ती अवस्थाओं का समावेश करते हुए कहा है-
ता एव सबीजः समाधिः ॥ १/४६॥
शब्दार्थ- ता एव = वे सब की सब ही; सबीजः= सबीज; समाधिः = समाधि हैं।
भावार्थ- ये समाधियाँ जो फलित होती हैं, किसी विषय पर ध्यान करने से वे सबीज समाधियाँ होती हैं।
इन सभी सबीज समाधियों में क्रमिक रूप से मानसिक विकास भी होता है और परिष्कार भी, परन्तु मन तो रहता है। चित्त में निर्मलता आती है, परिशोधन भी होता है, परन्तु चित्त का विलय बाकी बचा रहता है। जीव और शिव में भेद करने वाली अहं की अन्तिम गाँठ अभी भी नहीं खुल पाती। यौगिक शक्तियाँ एवं सिद्धियाँ तो इन सभी समाधियों में क्रमिक रूप से स्फुरित होती हैं, परन्तु इन सिद्धियों एवं शक्तियों का प्रकृति लय अभी भी बचा रहता है। इन समाधियों में आत्मतत्त्व की झलकियाँ तो मिलती हैं, पर आध्यात्मिक साम्राज्य की प्रतिष्ठा होनी अभी भी बाकी रहती है।
इस गूढ़ रहस्य को अपनी सहज अनुभूति के स्वरों में ढालते हुए युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि ध्यान कितना भी और कैसा भी क्यों न हो पर वह मानसिक क्रिया के अलावा और क्या है? इस ध्यान की परिणति जिस समाधि में होती है, उससे चित्त का परिष्कार होता है, चक्रों को पार करते हुए आज्ञाचक्र में अवस्थित हो गयी।
उनके ध्यान में महिमामयी माँ काली की दिव्य लीलाएँ विहरने लगी। भाव विह्वल श्रीरामकृष्ण देव की समाधि प्रगाढ़ हो गयी। परन्तु साकार से निराकार, सबीज से निर्बीज तक पहुँचना अभी भी बाकी था। तोतापुरी ने निर्देश दिया- आगे बढ़ो। श्रीरामकृष्णदेव ने कहा- माँ को छोड़कर? तोतापुरी ने कहा- हाँ, ज्ञान की तलवार लेकर काली के शतखण्ड करो और अखण्ड निराकार के धाम में प्रवेश करो। अनेकों प्रयास के बावजूद श्रीरामकृष्ण यह न कर सके। उनका निर्मल चित्त भी ध्यान की उच्चस्तरीय सूक्ष्मता से मुक्ति न पा सका। मनोलय न सध सका। मन के आँगन में, चित्त के अन्तःप्रकोष्ठ में चित्शक्ति की लीलाएँ चलती रहीं।
और तोतापुरी ने अपने हाथों में एक नुकीले पत्थर का टुकड़ा लिया और उससे भ्रूमध्य में आज्ञाचक्र को तीव्रतापूर्वक दबाया- और साथ ही उन्हें निर्देश दिया- पार करो अन्तिम बाधा, उठाओ ज्ञान की तलवार और भेदन करो चित्शक्ति, खोलो ब्रह्म की अनन्तता के द्वार। इस बार का निर्देश श्रीरामकृष्ण के अस्तित्व में व्याप गया। और फिर पल भर में सब कुछ घटित हो गया, वे परमहंस हो गए। शुद्ध, बुद्ध, नित्य-निरंजन, महामाया ने अपनी माया समेट कर उन्हें निर्बीजता में प्रवेश दे दिया।
पवित्रता के प्रति उत्कट लगन ही व्यक्ति को अन्तर्यात्रा के लिए प्रेरित करती है। और इस अन्तर्यात्रा के लिए गतिशील व्यक्ति धीरे- धीरे स्वयं ही पात्रता के उच्चस्तरीय सोपानों पर चढ़ता जाता है। उसे अपने प्रयोगों में सफलता मिलती है। अन्तस् में निर्मलता, पवित्रता का एक विशेष स्तर हो, तभी प्रत्याहार की भावदशा पनपती है। इसके प्रगाढ़ होने पर ही धारणा परिपक्व होती है। और तब प्रारम्भ होता है ध्यान का प्रयोगात्मक सिलसिला। मानसिक एकाग्रता, चित्त के संस्कारों का परिष्कार, अन्तस् की ग्रन्थियों से मुक्ति के एक के बाद एक स्तरों को भेदते हुए अन्तिम ग्रन्थि भेदन की प्रक्रिया पूरी होती है। इसी बीच योग साधक की अन्तर्चेतना में ध्यान के कई चरणों व स्तरों का विकास होता है। सबीज समाधि की कई अवस्थाएँ फलित होती हैं। महर्षि पतंजलि के पिछले सूत्र में भी इसी की एक अवस्था का चिन्तन किया गया था। इस सूत्र में कहा गया था कि सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है, उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियाँ भी स्पष्ट होती हैं। लेकिन सविचार एवं निर्विचार समाधि की इन उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते जाते हैं। ध्यान की इस सूक्ष्मता के अनुसार ही ध्यान की प्रभा और प्रभाव दोनों ही बढ़ते जाते हैं। इसी के अनुसार साधक की मानसिक एवं परामानसिक शक्तियों का विकास भी होता है। परन्तु आध्यात्मिक प्रसाद अभी भी योग साधक से दूर रहता है। इसके लिए अभी भी अन्तर्चेतना की अन्तिम निर्मलता अनिवार्य बनी रहती है।
महर्षि पतंजलि ने अपने इस नए सूत्र में इन्हीं पूर्ववर्ती अवस्थाओं का समावेश करते हुए कहा है-
ता एव सबीजः समाधिः ॥ १/४६॥
शब्दार्थ- ता एव = वे सब की सब ही; सबीजः= सबीज; समाधिः = समाधि हैं।
भावार्थ- ये समाधियाँ जो फलित होती हैं, किसी विषय पर ध्यान करने से वे सबीज समाधियाँ होती हैं।
इन सभी सबीज समाधियों में क्रमिक रूप से मानसिक विकास भी होता है और परिष्कार भी, परन्तु मन तो रहता है। चित्त में निर्मलता आती है, परिशोधन भी होता है, परन्तु चित्त का विलय बाकी बचा रहता है। जीव और शिव में भेद करने वाली अहं की अन्तिम गाँठ अभी भी नहीं खुल पाती। यौगिक शक्तियाँ एवं सिद्धियाँ तो इन सभी समाधियों में क्रमिक रूप से स्फुरित होती हैं, परन्तु इन सिद्धियों एवं शक्तियों का प्रकृति लय अभी भी बचा रहता है। इन समाधियों में आत्मतत्त्व की झलकियाँ तो मिलती हैं, पर आध्यात्मिक साम्राज्य की प्रतिष्ठा होनी अभी भी बाकी रहती है।
इस गूढ़ रहस्य को अपनी सहज अनुभूति के स्वरों में ढालते हुए युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव कहा करते थे कि ध्यान कितना भी और कैसा भी क्यों न हो पर वह मानसिक क्रिया के अलावा और क्या है? इस ध्यान की परिणति जिस समाधि में होती है, उससे चित्त का परिष्कार होता है, चक्रों को पार करते हुए आज्ञाचक्र में अवस्थित हो गयी।
उनके ध्यान में महिमामयी माँ काली की दिव्य लीलाएँ विहरने लगी। भाव विह्वल श्रीरामकृष्ण देव की समाधि प्रगाढ़ हो गयी। परन्तु साकार से निराकार, सबीज से निर्बीज तक पहुँचना अभी भी बाकी था। तोतापुरी ने निर्देश दिया- आगे बढ़ो। श्रीरामकृष्णदेव ने कहा- माँ को छोड़कर? तोतापुरी ने कहा- हाँ, ज्ञान की तलवार लेकर काली के शतखण्ड करो और अखण्ड निराकार के धाम में प्रवेश करो। अनेकों प्रयास के बावजूद श्रीरामकृष्ण यह न कर सके। उनका निर्मल चित्त भी ध्यान की उच्चस्तरीय सूक्ष्मता से मुक्ति न पा सका। मनोलय न सध सका। मन के आँगन में, चित्त के अन्तःप्रकोष्ठ में चित्शक्ति की लीलाएँ चलती रहीं।
और तोतापुरी ने अपने हाथों में एक नुकीले पत्थर का टुकड़ा लिया और उससे भ्रूमध्य में आज्ञाचक्र को तीव्रतापूर्वक दबाया- और साथ ही उन्हें निर्देश दिया- पार करो अन्तिम बाधा, उठाओ ज्ञान की तलवार और भेदन करो चित्शक्ति, खोलो ब्रह्म की अनन्तता के द्वार। इस बार का निर्देश श्रीरामकृष्ण के अस्तित्व में व्याप गया। और फिर पल भर में सब कुछ घटित हो गया, वे परमहंस हो गए। शुद्ध, बुद्ध, नित्य-निरंजन, महामाया ने अपनी माया समेट कर उन्हें निर्बीजता में प्रवेश दे दिया।