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Books - बच्चे बढ़ाकर अपने पैरों कुल्हाडी़ न मारें

Media: TEXT
Language: HINDI
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विनाश संकट के गहराते बादल

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संसार में जो भी जातियां अधिक प्रजनन वाली रहीं वह अविकसित और पददलित ही नहीं हुईं, नेस्तनाबूद भी हो गईं। योरोप में पाई जाने वाली ‘डायनोसरस’ और ब्रान्टोसरान’ जातियां जिनके पहले राज्यों के राज्य बसे थे, अब उनका एक भी आदमी संसार में देखने को भी नहीं मिलता। उनकी स्त्रियों को दूसरी समर्थ जातियों ने हड़प लिया और वे आपस में ही खाने-पहनने के नाम पर लड़-झगड़ कर नष्ट हो गईं। जबकि थोड़े-से संयमी इजरायल और कजाख संख्या में थोड़े होने पर भी संसार में गौरवपूर्ण स्थान बनाये हैं। ‘जनसंख्या नहीं—समर्थता जिन्दा रहती है’ के सिद्धान्त को इन उदाहरणों द्वारा अनुभव किया जा सकता है। अभी युद्ध हुआ और इजराइल जिनकी संख्या कुछ लाख ही है, ने कई करोड़ अरबों को 7 दिन में परास्त करके रख दिया।

सूअर सबसे अधिक बच्चे देने वाला जानवर है। इसे अपना उदर-पोषण घृणित साधनों से ही करना पड़ता है। स्वयं भी बहुत कमजोर होता है दूसरी ओर ‘शेर’ बहुत ही कम बच्चे देता है, उसकी शारीरिक क्षमता इतनी प्रचण्ड होती है कि जब दहाड़ता है तो अगले पंजों से पृथ्वी को जकड़ लेता है तब दहाड़ता है। किंवदन्ती है कि उसे आशंका रहती है कि मेरी दहाड़ से कहीं पृथ्वी न फट जाये। इस विशेष दहाड़ को ‘नाकी’ कहते हैं—जब वह दहाड़ भरता है तो उस क्षेत्र के सारे पेड़-पौधे और पृथ्वी तक कांप जाती है। भारतीयों की संख्या तब थोड़ी ही थी पर हमने संयमित और ब्रह्मचर्यपूर्ण जीवन के कारण वह शक्ति पाई थी हिमालय पर खड़े होकर दहाड़ते थे तो सारा एशिया कांप जाता था। हमारी वाहिनियां अमेरिका तक चली जाती थीं और उन्हें जीतकर लौटती थी। अधिक सन्तान वाली जातियां होती हैं वे तो (1) जल्दी ही समाप्त हो जाती हैं (2) कमजोर होती हैं (3) अव्यवस्थित होती हैं इसलिये ये संघर्ष और प्रतिस्पर्धा में सबसे पिछड़ी रहती हैं।

उपहासास्पद बात यह है कि एक ओर जनसंख्या वृद्धि का यह ‘डायनासोर’ निगलने दौड़ा आ रहा है, दूसरी ओर मनुष्य जाति शुतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह छुपाकर संकट टल जाने की कल्पना कर रही है। यह इसी तथ्य से स्पष्ट है कि अनेकानेक चेतावनियों के बावजूद प्रतिवर्ष आबादी की वृद्धि दर यथावत बरकरार रहती है। एक ओर दुनिया की बढ़ती हुई आबादी से सर्वत्र चिन्ता है और उस पर अंकुश करने की बात सर्वत्र सोची जा रही है तो कुछ देश ऐसे भी है जो अपनी जनसंख्या बढ़ाने के लिये प्रयत्नशील हैं। ऐसे देशों में बुल्गारिया की कहानी सर्वथा विचित्र है वहां दो बच्चों को जन्म देना तो प्रत्येक महिला के लिये आवश्यक है ही आगे के लिये उन्हें विधिवत् प्रोत्साहन पुरस्कार दिया जाता है। दो बच्चों पर सौ, प्रति मान अनुदान मिलता है, पर यदि एक बच्चा और आकर तीन हो जायें तो सहायता तुरन्त दो सौ, बढ़ाकर तीन सौ रुपये प्रतिमास कर दी जाती है। यदि कोई दम्पत्ति जुड़वा बच्चे पैदा करें तो उन्हें एक आरामदेह मकान मुफ्त दिया जाता है। साथ ही रेलगाड़ी से सारे देश की कहीं भी यात्रा करने का निःशुल्क पास भी मिल जाता है।

इस मूढ़ मान्यताओं नियमों, प्रचलनों को क्या कहा जाय कि जब जनसंख्या वृद्धि से एक ओर मनुष्य के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लग रहा है। दूसरी ओर इस तथ्य की ओर गम्भीरता से ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है। ध्यान देकर तुरन्त यदि इस दिशा में प्रयास किये जायें तब जनसंख्या वृद्धि और वैज्ञानिक प्रगति के वर्तमान उत्साह पर अधिक नियन्त्रण अगले दिनों न हो सकेगा। हां, इतना प्रयत्न अवश्य किया जायेगा कि कम से कम सौ वर्ष तक मानव-जाति को जीवित रहने के लिये मार्ग निकाल लिया जाय। इसके लिये अभी से प्रयास चल पड़े हैं और सन् दो हजार से सन् इक्कीस तक की अवधि में जो किया जाना है, जो होना है, जो बनना है—आज उस की रूपरेखा सबके सामने स्पष्ट रहे और उसे पूरा करने के लिये आवश्यक प्रयास समय रहते आरम्भ कर दिये जायें।

घास खाकर रहना पड़ेगा

इसके उपरान्त भी यदि जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए समुचित प्रयास नहीं किये गये तो अगले दिनों खाद्य संकट से लेकर विविध विध संकट उत्पन्न हो जायेंगे।

नृतत्व विज्ञानी डा. एस. सिम्पसन और वनस्पति विशेषज्ञ प्रो. डरमोकेनिंग ने बढ़ती हुई जनसंख्या से उत्पन्न समस्याओं के कुछ समाधान विषय अपने निष्कर्ष निबन्ध प्रकाशित कराये हैं—उनमें से कुछ तथ्यों का सारांश इस प्रकार है—

‘इन दिनों संसार की जनसंख्या प्रतिवर्ष 7 करोड़ की दर से बढ़ रही है। चक्रवृद्धि क्रम के अनुसार अगले दिनों इस संख्या में और भी वृद्धि होगी। नई सन्तानों में से कन्यायें औसतन 19 वर्ष की उम्र में और लड़के 21 वर्ष की आयु में नई पीढ़ी उत्पन्न करना शुरू कर देते हैं। इस तरह जनसंख्या वृद्धि की वार्षिकी बढ़ोत्तरी में आश्चर्यजनक वृद्धि होने लगती है। वर्तमान गतिविधि में यदि कोई असाधारण अवरोध उत्पन्न न हुआ तो सन् 80 में यह संख्या 10 वार्षिक तक जा पहुंचेगी। यों कहा तो यह भी जाता है कि सन् दो हजार में यह स्थिति उत्पन्न हो जायेगी कि यदि महायुद्ध न छिड़ा तो बढ़ती जनसंख्या संसार में मनुष्यों का निर्वाह अशक्य बना देगी और धरती के साधन सीमित रह जाने से बढ़ी हुई आबादी को भुखमरी अथवा महामारी ही सन्तुलित करेंगी।

जनसंख्या की बढ़ोत्तरी रोकने के लिये विचारशील स्तर का हर व्यक्ति चिन्तित है। उन वज्र मूर्खों की बात नहीं जो इस स्थिति में भी सन्तान न होने को दुर्भाग्य समझते हैं और बच्चे उत्पन्न करने के लिये लालायित फिरते हैं। सिद्धांततः अब हर जगह यह माना जाने लगा है कि व्यक्ति और समाज का हित इसी में है कि वर्तमान स्थिति में सन्तान वृद्धि को मानव द्रोह समझा जाय और उससे जितना बचा जा सके बचा जाय।

सरकार जनसंख्या पर अंकुश करने के लिये तरह-तरह के प्रचार कर रही है और साधन जुटा रही है फिर भी इस बाढ़ पर नियन्त्रण, आशा एवं आवश्यकता से बहुत ही कम मात्रा में हो रहा है। दुनिया में अशिक्षित और पिछड़े वर्ग की बहुलता है, वह अभी भी सन्तानोत्पादन की अनावश्यक अभिवृद्धि के दुष्परिणामों से परिचित नहीं हो पाया है, और इस बढ़ोत्तरी में स्वेच्छाचार बरत रहा है, भले ही उसका परिणाम कुछ भी किसी को भी, कितना भी क्यों न भुगतना पड़े।

बढ़ती हुई आबादी के लिये सबसे बड़ा संकट अगले दिनों खाद्य पदार्थों की कमी का होगा। संसार में जितना अन्न अब पैदा होता है उससे बड़ी कठिनाई में ही पेट भरा जाता है। उत्पादन के बहुमुखी प्रयत्न बढ़ती आबादी की तुलना में पीछे ही रह जाते हैं और अन्न उत्पादन के सारे प्रयत्नों का परिणाम भी अपर्याप्त रहता है।

मांसाहार की आदत बढ़ाने में अन्न की खपत में कुछ राहत मिलने की बात सोची जाती रही है। पर मनुष्यों की बढ़ोत्तरी के कारण पशुओं के लिए निवास और चारे की समस्या जटिल होती जा रही है। चमड़े और मांस की खपत को बूचड़खाने पूरा नहीं कर पा रहे अस्तु संसार में पशुओं का अनुपात तेजी से घटता जा रहा है। और दूध, घी, मां आदि पदार्थों की कमी और महंगाई सामने आती जा रही है। कुछ ही समय में मनुष्यों की प्रतिद्वंद्विता में पशुओं को अपना अस्तित्व गंवा बैठने के लिए विवश होना पड़ेगा। स्थिति की गम्भीरता समझने वाले कहते हैं कि अगले दिनों न गाय बचेगी न बकरे। जंगल साफ हो जाने के कारण जंगली पशुओं का मांस भी अप्राप्य हो जावेगा। बड़े नगरों के कारखानों के विषाक्त जल को नदियां जिस तेजी से समुद्र में फेंक रही हैं और अणुशक्ति उत्पादन से बची भस्म सागर में जिस मात्रा में डाली जा रही है उसे देखते हुए मछलियों का जीवन भी असम्भव हो जायेगा, तब न मछलियों का मांस मिलेगा न पालतू अथवा जंगली पशुओं का।

महायुद्ध, महामारी के महाप्रलय जैसे दैवी अस्त्र यदि न चले तो मनुष्य की बढ़ती हुई आबादी के लिए खाद्य पदार्थों की तो चिन्ता करनी ही पड़ेगी और कम से कम इतना मार्ग तो ढूंढ़ना ही पड़ेगा कि भूख से तड़प-तड़प के मरने के हृदय विदारक दृश्य देखने नहीं पड़ें।

खाद्य समस्या का हल करने के लिये दूरदर्शी विचारक यह सोच रहे हैं कि अन्न या दूध या मांस की उपलब्धि में प्रस्तुत संकट को देखते हुए आहार का प्रमुख माध्यम ‘घास’ को बनाया जाय। जब कि असंख्य पशु घास खोकर जीवन-यापन करते हैं तो मनुष्य को ही उस पर निर्भर रहने में क्या और क्यों कठिनाई अनुभव करनी चाहिए? मनुष्यों की बढ़ी हुई आबादी के लिए निवास, कृषि, उद्योग, परिवहन, यातायात, शिक्षा, शासन, चिकित्सा आदि की व्यवस्था जुटाने में वर्तमान भूमि में से हरियाली उत्पन्न करने वाला भाग बेतरह घट जायेगा। तब पशुओं को इस धरती पर से अपना अस्तित्व समाप्त करना पड़ेगा। गाय, भैंस, घोड़ा, गधा, भेड़, बकरी किसी के भी दर्शन न होंगे। ऐसी दशा में कृषि उत्पादन से बचा हुआ घास भूसा मनुष्यों के निर्वाह का माध्यम बनेगा। पेड़ जाते रहने से लकड़ी नहीं मिलेगी। घास-भूसे की लुगदी को विशेष रासायनिक क्रियाओं द्वारा लकड़ी के रूप में बदल दिया जायेगा। कपड़े कागज आदि की जरूरतें भी घास से ही पूरी करनी पड़ेंगी। इसी में से जितना अंश मनुष्योपयोगी होगा वह खाद्य पदार्थों के रूप में बदल लिया जायेगा। अभ्यास न होने के कारण सम्भवतः पशुओं की तरह घास खाने में लोगों को कठिनाई पड़ेगी। दांत उसे ठीक तरह चबा नहीं सकेंगे, पेट उसे कच्चे रूप में हजम नहीं कर सकेगा। ऐसी दशा में यह उपाय वैज्ञानिक वर्ग ने सोचा है कि घास को ऐसी शक्ल में बदल दिया जाय जिसे वर्तमान खाद्य-पदार्थों की शक्ल और स्वाद प्राप्त हो जाय।

यह मात्र कल्पना या योजना नहीं वरन् एक तथ्य है जिसे व्यावहारिक रूप देने के लिये इन दिनों तेजी से प्रयत्न किये जा रहे हैं और उनमें आशाजनक सफलता भी मिल रही है।

आहार में प्रोटीन की आवश्यकता सबसे अधिक मानी जाती है। पिछले दिनों तेल के बीजों के माध्यम से उसे प्राप्त करने का प्रयत्न किया गया है और उसमें जो पदार्थ बने हैं उनमें घी, दूध, अंडे, मांस, मेवा आदि का स्थानापन्न खाद्य सामग्री बनाई गई हैं। तिल, मूंगफली, अलसी, सरसों, सोयाबीन जैसे पदार्थों को आटे में मिलाकर बिस्कुट, डबलरोटी, मिठाई, पकवान आदि बनाये जा रहे हैं इससे जहां अन्न की कमी पूरी होती है वहां पौष्टिक तत्व भी मिल जाते हैं। तेल निकालने के बाद जो खली बचती है वह अब तक प्रायः पशुओं को पौष्टिक आहार के रूप में खिलाई जाती रही है पर अगले दिन न पशु रहेंगे और न उनके लिये खली आदि का खर्च करना होगा। तब उस खली को आटे में मिलाकर सस्ती रोटियां बनाली जाया करेंगी और नई पीढ़ी उन्हें अपने सौभाग्य का चिन्ह मानकर स्वाद पूर्वक खाया करेंगी।

पर यह भी झंझट को ही बात है जब अन्न तक दुर्लभ होगा तो तेल वाली फसलें ही इतनी कहां से पैदा होंगी जिनसे उस बढ़ी हुई जनसंख्या का काम चल सके। इसलिए सस्तेपन और बाहुल्य को ध्यान में रखते हुए बात आकर ‘घास’ पर ही जमेगी। इन दिनों पशुओं द्वारा खाई जाने वाली घास, अनाज के पौधे का भूसा तब मानवी खाद्य समस्या का हल करने के लिए प्रयुक्त होंगे। पता लगाया गया है कि एक टन खास में एक हडरवेट तक प्रोटीन प्राप्त की जा सकती है। घास की लुगदी बनाकर उसमें से हरे रंग का प्रोटीन पाउडर निकला करेगा। उसकी तीन चौथाई मात्रा और अन्न का आटा एक चौथाई मिलाकर लगभग उसी शकल और स्वाद के खाद्य पदार्थ बना लिए जायेंगे जैसे कि आजकल प्रयोग में आते हैं।

इन दिनों दूध हर मनुष्य के भाग्य में तो नहीं रहा—पर बच्चों के लिए—बीमारों के लिए—चाय को उसकी आवश्यकता अभी भी समझी जाती है। अगले दिनों पशु नहीं रहेंगे तो असली दूध घी के भी दर्शन नहीं होंगे। ऐसी दशा में बीज तथा वनस्पतियों से ही दूध की शकल सूरत का एक ऐसा पदार्थ बना दिया जायेगा जो कम से कम मन बहलाने और समय की मांग का प्रयोजन पूरा करदे। मूंगफली और सोयाबीन को पीसकर अब भी उसी स्तर की एक चीज बनने लगी है—पर अगले दिनों तो अमुक घासों का गूदा ही रासायनिक पदार्थों की सहायता से सफेद और पतला बना दिया जायेगा और दूध जैसी रासायनिक सुगन्ध की कुछ बूंदें डालकर ऐसी बनादी जायगी जो दूध के अभ्यस्त लोगों के लिए मन बहलाने का माध्यम बन सके। नकली घी से, वनस्पति घी से तो भी बाजार भरा पड़ा है, पर उसमें एक कठिनाई यह है कि बिनौला, नारियल, मूंगफली आदि भविष्य में दुर्लभ बनते जा रहे हैं। बीजों में उनमें प्रयुक्त होने वाला तेल बनता है। भविष्य में अन्न, तेल आदि खाद्य पदार्थ आज के मेवा मिष्ठान्न जैसे महंगे होंगे अस्तु उनका उपयोग सर्वसाधारण के लिए सम्भव न होगा। घास से ही घी जैसी चिकनाई भी बन जायेगी। चीड़, देवदार आदि के दरख्तों में तेल रहता है। ऐसी ही किसी सस्ती वनस्पति पर चिकनाई के लिए निर्भर रहना पड़ेगा। वैसे उसकी कुछ बहुत जरूरत भी नहीं पड़ेगी। कमजोर हाजमा वाले लोग स्वतः चिकनाई से परहेज करेंगे और उसके उपयोग को अनावश्यक समझेंगे।

घास से बने खाद्य पदार्थों में जो कमी रह जायगी उसे गन्ना, महआ, चावल, जौ आदि को सड़ाकर उससे उठाये गये खमीर को उसमें डालकर पूरा किया जायेगा तब घास की बनी डबल रोटियां—आजकल की पाकशालाओं के पिछड़ेपन का उपहास उड़ाया करेंगी। खमीर और घास के सम्मिश्रण से बनी डबल रोटियां महीनों काम दिया करेंगी। रोज-रोज बनाने का झंझट न रहेगा। अनुमान है कि आज से लगभग तीस वर्ष बाद जबकि बढ़ी हुई जनसंख्या के कारण घास ही मनुष्यों का प्रधान आहार रह जायेगा—नित्य भोजन पकाने के लिए चूल्हा फूंकना कोई पसन्द न करेगा। महिलाएं तो इतना झंझट मोल लेकर ही यदि गृहस्थी बसानी पड़ती हो तो उससे दो टूक इनकार कर देगी।

अब से तीस वर्ष बाद जबकि आबादी अब की अपेक्षा तीन गुनी बढ़ी हुई होगी, मनुष्य जाति को अगणित समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। उनमें से एक खाद्य समस्या का धुंधलासा हल पेट भरने के लिए घास पर निर्भर होने के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वनस्पति, विज्ञानी और सरकारी संस्थानों का ध्यान इस सन्दर्भ में अधिक कारगर शोधें करने में लगा है। घास को खाद्यान्न में भली प्रकार बदल सकने योग्य यन्त्र तथा रासायन सामने लाये जा रहे हैं। अनुमान है कि सन् 90 तक आज की चेष्टा का स्वरूप विशालकाय उत्पादन का रूप धारण कर लेगा और भूख से तड़प कर मरने की आशंका से राहत प्राप्त करली जायेगी। वनस्पति उत्पादन की भूमि तक विकसित किस्म को घासें उगाने को प्रधानता देगा और उसकी कई-कई फसलें काटकर लोग किसी तरह उदर पूर्ति कर लिया करेंगे।

फिर भी स्थान की कमी का सवाल बना ही रहेगा। बड़ी शहरों में दुमंजिली, तिमंजिली बसें चल रही हैं। रेलें भी अगले दिनों दुमंजिली ही बनेंगी। बहुत मंजिली इमारतें ही बनाई जायेंगी। खेती के ऊपर खेत भी शायद इसी प्रकार बनें। जमीन के नीचे रेलें, सड़कें, ही नहीं बस्तियां भी बसेगी। वर्षा के पानी की एक-एक बूंद समुद्र में जाने से रोककर उसे प्यास बुझाने के—सिंचाई के तथा कल-कारखानों के काम में लाया जाया करेगा। शिक्षा के लिए घरों पर ही टेलीविजन और रेडियो से पढ़ाई हुआ करेगी। स्कूल कालेजों में घिरने वाली जगह को बचाने के लिए यही तरीका सरल पड़ेगा। यातायात के लिये वायुयानों अथवा लोहे के रस्सों पर झूलते हुए विशालकाय डिब्बे काम में लाया करेंगे। धरती पर रेंगने वाली भीड़ कुचलकर न मर जाय उसके लिये ऐसे ही कुछ उपाय काम में लाने पड़ेंगे।

खाद्य की, मनुष्यों को, घिचपिच और जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए चलने वाले कल-कारखानों का धुंआ यह दोनों संकट बढ़ती हुई जनसंख्या के सबसे बड़े अभिशाप होंगे हवा में इन दिनों भी प्रदूषण चिन्ताजनक गति से बढ़ रहा है। कारखाने, नदियों से लेकर समुद्र तक का पानी विषैला बनाने में बेतरह लगे हुए हैं।

प्रजनन के पक्ष में लचर दलीलें

इन विभीषिकाओं को देखते हुए अन्धाधुन्ध प्रजनन को सर्वथा अवांछित समझना चाहिए पर कई लोग हैं जो इसके पक्ष में बड़े विचित्र और अजीबोगरीब तथ्य देते हैं। कई बार तो ऐसी लचर दलीलें पेश की जाती हैं जो एक बार तो सारगर्भित भी प्रतीत होती हैं पर जब गहरी दृष्टि से देखते हैं तो प्रतीत होता है कि इनमें भावी परिस्थितियों की कल्पना कर सकने की असमर्थता ही झांकती दिखाई पड़ती है।

यह कहा जाता है कि पिछड़े हुए लोग जनसंख्या की वृद्धि अधिक करते हैं। उन्हें नियन्त्रण की बात समझ नहीं आती समझदार लोग ही इस प्रकार कस संयम करते हैं। फलतः अच्छे लोगों की संतानें घटती जायेंगी और पिछड़े लोग बढ़ जायेंगे फलस्वरूप भविष्य में उन्हीं का बहुमत हो जायेगा। यह आशंका इसलिये निरर्थक है कि जो समझदार लोग समाज हित को ध्यान में रखकर सन्तानोत्पादन से हाथ खींचेंगे वे अपनी क्षमता को समाजहित में ही लगावेंगे और पिछड़े वर्ग को सुविकसित बनाने में लगेंगे ऐसी दशा में कोई पिछड़ा रहेगा ही नहीं। विद्वान, धनवान, गुणवान, प्रतिभावान वर्ग के लोग आज तो अपने और अपने बाल-बच्चों के लिए ही अपनी समस्त क्षमता खर्च करते रहते हैं जब वे संकीर्णता की परिधि से ऊपर उठकर समाज हित की बात सोचने लगेंगे और प्रजनन पर नियन्त्रण स्वीकार करेंगे तो स्वभावतः उनमें उतनी उदारता भी जगेगी कि अपनी विभूतियों को पिछड़े हुए लोगों का पिछड़ापन दूर करने में नियोजित करें। ऐसी दशा में देश के सभी बच्चे उनके अपने बच्चे होंगे और यदि उन पर उच्च वर्ग का ध्यान बना रहा तो फिर वे बालक उसी भूमिका को सम्पन्न करेंगे जो उच्च परिवारों में उत्पन्न हुए—साधन सुविधाओं में पले बालक कर सकते हैं। सच तो यह है कि अमीरी में जन्मे बालकों  की अपेक्षा गरीबी में जन्मने वालों को यदि अवसर मिले तो वे कहीं अधिक तीव्रगति से प्रगति कर सकते हैं।

इसी प्रकार यह सोचना भी बेतुका है कि हिन्दु लोग ही संतानोत्पादन सीमित करने की बात पर ध्यान देते हैं। मुसलमान इस आन्दोलन में उतना उत्साह नहीं दिखाते। ऐसी दशा में मुसलमानों की संख्या बढ़ती जायेगी, हिन्दू उनकी तुलना में घटते जायेंगे फलस्वरूप कुछ दिनों में आबादी के अनुपात से हिंदुस्तान को मुस्लिमस्तान बनने का खतरा उत्पन्न हो जायेगा।

यह आशंका बालिग मताधिकार के वर्तमान चुनाव ढांचे को  देखते हुए की जाती है। निकट भविष्य में न तो यह प्रजातन्त्री ढांचा रहेगा और न वर्तमान साम्प्रदायिक कट्टरता के लिये कोई आधार शेष रह जायेगा। बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्रान्ति के कारण विभेद की अनेक दीवारें विस्मार होने जा रही हैं उनमें विभेद उत्पन्न करने वाला आज का सम्प्रदायवाद भी नष्ट होकर ही रहेगा। भोजन, वस्त्र में भिन्न रुचि के कारण परस्पर कोई द्वेष दुर्भाव पैदा नहीं होता, ठीक इसी प्रकार धर्म-भेद भी सामाजिक वर्ग भेद पैदा कर सकने जैसा विषाक्त न रहेगा उसके विषदन्त तब तक पूरी तरह टूट चुके होंगे। वैसे पूरी सम्भावना एक विश्व धर्म की ही की जाने चाहिए। वर्तमान सम्प्रदायों की तो तब मात्र झांकी ही रह सकती है। जिस द्वेष, दुर्भाव को देखते हुए आज किसी धर्मवालों की वृद्धि की बात सोची जाती है उस दुष्टता के लिए अगले दिनों कहीं कोई स्थान न होगा। सभी, मनुष्य मात्र बनकर रहेंगे और देश की सीमित भूमि सीमा को तोड़कर विश्व राष्ट्र में सभी लोग विश्व नागरिक बनकर रहेंगे। इसके अतिरिक्त नई वैज्ञानिक एवं आर्थिक प्रगति साथ उत्पन्न हुई समस्याओं का और कोई हल ही नहीं है। हमें अगले दिनों की सुनिश्चित सम्भावना को ही ध्यान में रखना चाहिए कि आज के विषदंश वाले सम्प्रदायवाद के भविष्य में भी इसी डडडडडड में बने रहने की आशंका को मन में से पूरी तरह निकाल देना चाहिये।

संसार में बहुमत सदा पिछड़े और मूर्ख लोगों का रहा है। यदि आज के बालिग मताधिकार वाला प्रजातन्त्र आगे भी बना रहा तो कभी भी समझदार लोगों की सरकार नहीं बन सकेगी। अच्छी सरकार के लिए अच्छे मतदाता होने चाहिये। ऐसे लोग जो राष्ट्रीय उत्तरदायित्व को ठीक तरह समझ सकें और निवाह सकें आगे भी अब की ही तरह अल्प मात्रा में अल्प मत में होंगे। अगले दिनों प्रजातन्त्र भले ही रहे पर उसकी चुनाव पद्धति में ऐसा हेर-फेर होगा कि उत्तरदायित्व को समझने और सम्भाल करने वाले लोग ही मतदान करें अथवा प्रत्याशी बनें। इसके लिए कसौटियां निर्धारित करनी पड़ेंगी। तभी कोई आदर्श सरकार बन सकेंगी अन्यथा भीड़ का राज्य जैसा हो सकता है वैसा ही बना रहेगा। आज भले ही यह कुछ अटपटा लगे पर यदि प्रजातन्त्र को सफल होना है तो उसे इस प्रकार का सुधार परिवर्तन करना ही पड़ेगा। इस स्थिति में यह आशंका निर्मूल सिद्ध होगी कि द्वेष दुर्भाव रखने वाले लोग बहुमत में आकर सामाजिक न्याय में विग्रह विद्वेष उत्पन्न करेंगे। अगले दिनों हर व्यक्ति साम्प्रदायिक स्वार्थों से ऊंचा उठा हुआ होगा और उस प्रकार सोच कर करने का अभ्यासी बनेगा जिससे न्याय या विवेक के टकराने की किसी को भी सुविधा न रहे। तब अमुक सम्प्रदाय के लोग घटेंगे बढ़ेंगे नहीं जनसंख्या में धर्म−संप्रदाय का उल्लेख भी नहीं होगा। सभी मनुष्य होंगे। उस परिवर्तन को लाये बिना तो आज का बहुमत अल्पमत ज्यों का त्यों बना रहे तब भी शान्ति नहीं आ सकती। जब पाकिस्तान बना था तब तो मुसलमानों की संख्या और भी कम थी हिन्दू और भी अधिक बहुमत में थे। तब भी विग्रह विद्वेष फूट ही पड़ा था। योरोप के देश प्रायः सभी ईसाई हैं तो भी इनमें आये दिन युद्ध ठनते और विग्रह उत्पन्न होते रहते हैं।

जनसंख्या नियन्त्रण की विश्व विभीषिका का सामना करने में हमें इस विकृति को, आशंकाओं को, ध्यान में रखकर असमंजस में पड़ने की जरूरत नहीं है। इन्हें तो अगला समय दूध में से मक्खी की तरह निकालकर फेंकने ही वाला है।

अपनी भी देखें जानें

जनसंख्या वृद्धि की दृष्टि से भारत को भी अगले दिनों भयंकर संकटों का सामना करना पड़ सकता है। भारत में हर महीने 10 लाख नये बच्चे पैदा होते हैं। दुनिया में अन्यत्र वार्षिक जन्म दर दो प्रतिशत बढ़ रही है, पर भारत अन्य किसी मामले में न सही बच्चे पैदा करने में सबसे अग्रणी है। उसकी दर पिछली दशाब्दियों में तीन प्रतिशत थी, अब साढ़े तीन प्रतिशत हो गई है और एक-दो वर्ष में चार प्रतिशत हो जाने की आशा है अर्थात् भारत अब यह कहने की स्थिति में पहुंच गया है कि दुनिया को चुनौती देकर कह सके कि वह किसी भी देश से इस क्षेत्र में दूरी प्रगति कर रहा है।

एक प्रतिशत वृद्धि का परिणाम आबादी का 70 वर्ष में दूना हो जाना होता है। यदि वह दर दो प्रतिशत हो जाय तो 35 वर्ष में वह संख्या दूनी हो जायेगी। साढ़े तीन या चार प्रतिशत की वृद्धि का अर्थ है 20 वर्ष से भी कम में दूना हो जाना। इस दृष्टि से भारत सन् 2000 में 100 करोड़ की संख्या पार कर चुका होगा। अब हम 55 करोड़ के करीब है। 20 वर्ष में आबादी दूनी होती है तो सन् 2000 तक अभी 25 वर्ष पार करने हैं। इस प्रकार कीर्तिमान 125-150 करोड़ तक भी पहुंच सकता है। जन्मदर अब बढ़ ही रही है तो तीन से साढ़े तीन, साढ़े तीन से चार और चार से पांच-छह होने में भी क्या हर्ज है? गर्म देशों में तेरह-चौदह वर्ष की लड़कियां और सत्रह-अठारह वर्ष के लड़के सन्तान पैदा करने लगते हैं। उत्साह अब जैसा ही बना रहा तो जन्म दर जितनी भी बढ़ जाय उतनी ही कम है। चक्रवृद्धि क्रम से तो वह सहज ही स्वल्पकाल में अत्यधिक बढ़ जाती है।

समर्थता का कोई संकट नहीं

जनसंख्या कम होने के कारण कोई जाति या देश कमजोर हो जायेगा, इस तर्क में कोई दम नहीं है। उल्टे जनसंख्या वृद्धि के कारण तो सम्बन्धित जाति या देश कमजोर तथा अशक्त बनाते हैं। अपने देश की आबादी इन दिनों 66 करोड़ है जो संसार की आबादी का 22 प्रतिशत है। इधर भूमि की दृष्टि से विश्व की तुलना में हमारा प्रतिशत कुल 2.4 प्रतिशत ही है। जमीन थोड़ी और खाने वाले बहुत तब हमारी स्थिति भी ओपोसम और मछली की सी हो जाय तो कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिये।

यहां प्रति सेकेण्ड एक बच्चा पैदा हो जाता है, प्रतिवर्ष दो करोड़ नये बच्चे जन्म ले लेते हैं। इनमें से 80 लाख तो अच्छी परवरिश के अभाव में ही मर जाते हैं। जो रहते भी हैं वे स्वास्थ्य, खाद्य समस्या, शिक्षा, रोजगार और सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से भार हो जाते हैं। यदि यह बाढ़ रोकी न गई तो अगले 25 वर्षों में भारतवर्ष की आबादी 1 अरब हो जायेगी जबकि खाद्य-उत्पादन की स्थिति वहीं की वहीं रहेगी। उस समय की अवस्था का अनुमान ऊपर के दो उदाहरणों से किया जा सकता है।

 

इसके विपरीत समर्थता किस प्रकार विजयी होती है उसका सबसे अच्छा उदाहरण इंग्लैंड है। इस छोटे से देश का क्षेत्रफल कुल 94511 वर्गमील है, इसकी आबादी कुल 52700000 है जबकि जब अंग्रेज जाति विश्व विजय के लिये निकली तब उसकी संख्या और भी कम रही होगी अपनी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सामर्थ्य के द्वारा इन थोड़े से आदमियों ने संसार में अपनी विजय पताका फहरा कर इस धारणा को निर्मूल सिद्ध कर दिया कि प्रभुत्व बनाये रखने के लिये जनसंख्या आवश्यक है। यदि ऐसा रहा होता तो इंग्लैंड से भी बड़ा 294364 वर्ग किमी. और 2 करोड़ अधिक 74000000 आबादी वाला उत्तरप्रदेश ही इंग्लैंड से कहीं बढ़कर काम दिखा सका होता पर उल्टे यह प्रदेश और भी समस्याओं से ग्रस्त पड़ा है।

थोड़े लोगों की परवरिश, शिक्षा-दीक्षा जितनी अच्छी हो सकती है अधिक लोगों की उतनी अच्छी नहीं, इसीलिये थोड़े लोग बलवान् हो जाते हैं और सैकड़ों कमजोरों को दबाये रखते हैं शेर और बाघ कम प्रजनन वाले जन्तु हैं इनके बच्चे दो वर्ष तक मां का दूध पीते हैं। गैंडा का बच्चा अपनी मां के पास 6 वर्ष तक अकेला रहता है और दूध पीकर मोटा-ताजा हो जाता है उससे लड़ने की हिम्मत शेर-चीते भी नहीं करते। ह्वेल मछली का समुद्र में आतंक रहता है उसके बच्चे मां का दूध 6 माह तक पीते हैं। समुद्री बीवर और ओटर का 1 वर्ष तक माता का संरक्षण मिलता है इतना पोषण प्राप्त किये बच्चे ही जब समुद्र में निकलते हैं तो आयु में अधिक किन्तु कमजोर दूसरे जीव उनका आदाब झुकाते हैं और डरकर एक ओर खड़े हो जाते हैं।

यह उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि शक्तिशाली होकर थोड़े होना अच्छा। रोगी, दुर्बल और समस्याग्रस्त लोगों की भीड़ बढ़ाकर एक समर्थ जाति का स्वप्न देखना कोरी मूर्खता है। जनसंख्या वृद्धि के जो भी दुष्परिणाम हैं उनसे मनुष्य जाति का बचना सम्भव नहीं है। इस दृष्टि से विश्व की सर्व प्रमुख समस्या जनसंख्या वृद्धि कही जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। 

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