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Books - बच्चे बढ़ाकर अपने पैरों कुल्हाडी़ न मारें

Media: TEXT
Language: HINDI
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विलासिता कहां ले जाकर छोड़ेगी

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विलासिता और क्षणिक आनन्द की प्राप्ति के लिए पहले ही मनुष्य अपने स्वभाव की कमजोरियों से प्रेरित होकर न जाने क्या-क्या करता रहा है। संतति निरोधक उपलब्ध कृत्रिम साधनों से तो मनुष्य में और भी उच्छृंखलता बढ़ने की सम्भावना बनी है। इस उच्छृंखलता के लिए केवल संतति निरोध कृत्रिम साधनों को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, फिर भी ये साधन एक सीमा तक तो उच्छृंखलता बढ़ाने में योग देते ही हैं।

सन्तान के जन्म को रोकने, काम तृप्ति के शारीरिक परिणाम गर्भधारण और उनसे उत्पन्न होने वाली सामाजिक कठिनाइयों से बचने में जब से सफलता प्राप्त की गयी है तब से कामुक विलासिता और भी नंगा नाच दिखाने लगी है। विलासिता को प्रसाधनों और तुरन्त प्रसन्नता पाने के लिए नशेबाजी की आदतों के कारण लोगों में कामोपयोग की लालसा और भी अत्यन्त उग्र हो उठी है। इस आग में घी डालने के लिए संतति निरोध के कृत्रिम उपाय सहायक ही हुए हैं। पाश्चात्य देशों में कामोपयोग की दृष्टि से एक नई विचारधारा अत्यन्त प्रबल वेग से यह उठी है कि यौनचर्या को भावनात्मक न बनने दिया जाय और दाम्पत्य-जीवन को यौन सदाचार के बन्धनों में न बांधा जाय। घर-परिवार चलाने के लिए विवाह किये जायें पर पति-पत्नी दोनों को ही रतिक्रिया करने की अन्यत्र उपभोग करने की पूरी छूट रहे। इसमें कोई किसी का बाधक न बने वरन् एक दूसरे की सहायता करके उसके मनोरंजन को अधिक सुविधा प्रदान करते हुए विश्वस्त मित्रता का परिचय दे।

अमेरिका में इन दिनों ‘‘क्लब 101’’ नामक ऐसे सहस्रों संस्थान हैं जहां नर-नारी स्वच्छन्द यौनाचार की तृप्ति के लिए नित नये साथी सहज ही प्राप्त करते रहते हैं। इस मान्यता वाले व्यक्तियों को ‘स्विंगर्स’ कहा जाता है। कहते हैं कि इस वर्ग के नर-नारियों की संख्या वहां लाखों से बढ़कर करोड़ों तक पहुंच गई है।

‘स्विंगर्स’ अब पाश्चात्य देशों में कोई अनैतिक वर्ग नहीं रहा वरन् उसका अपना एक दर्शन है। नृतत्व शास्त्री गिलवर्ट वारटैल की ‘ग्रुप सैक्स’ (सामूहिक भोग) पुस्तक एक करोड़ से अधिक बिकी है। कैलीफोर्निया के मनोवैज्ञानिक जेम्स ग्रोल्ड ने उस आन्दोलन को एक लोक मान्यता प्राप्त प्रचलन बताया है और कहा है कि प्रायः 20 लाख विवाहित और अविवाहित नर-नारी ‘क्लब 101’ विनोद गृहों की सदस्यता स्वीकार कर चुके हैं। इस विषय पर प्रायः 50 पत्र-पत्रिकाएं लेख और विज्ञापन छापती हैं।

पाश्चात्य देशों में ‘दी सेक्स बुक’ की 30 लाख प्रतियां पिछले ही वर्ष बिकी हैं। जर्मनी के लूथरिन युवा केन्द्रों ने इसे अपनी पाठ्यपुस्तक बनाया है। जे. हरवले ने इसका अमेरिकी संस्करण तैयार किया है और विलमैक ब्राइड ने इसे चित्रों से सजाया है जिसमें रति-क्रिया का प्रत्यक्ष चित्रण किया गया है और समलिंगी मैथुन एवं आत्म रति को निरापद बताया गया है। कामोपभोग को अधिक समय तक अधिकाधिक उत्साहवर्धक अधिक कौतुक कौतूहलपूर्ण कैसे बनाया जा सकता है यही सुविस्तृत शिक्षण इन पुस्तकों में है। वे यह भी कहते हैं, यौनाचार को समस्त कानूनी और सामाजिक बन्धनों से हटाकर उसे अन्न, जल, वायु की तरह स्वच्छन्द उपयोग की प्रक्रिया बना दिया जाना चाहिए।

यही बात स्वादिष्ट व्यंजनों के आहार से जिह्वा की स्वाद तृप्ति के बारे में कही जा रही है। प्रकृति प्रेरणा के अनुरूप आहार-विहार के आचरण को दकियानूसी बताया जा रहा है और आहार-विहार को प्रत्येक प्रतिबन्ध से मुक्त, मात्र प्रसन्नता वृद्धि के लिए प्रयुक्त करने की बात का जोरों से समर्थन हो रहा है। साथ ही साथ इस उद्धत उच्छृंखलता के दुखद परिणाम भी सामने आ रहे हैं।

अमेरिका की राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य समिति की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि उस देश में 17 में से 1 व्यक्ति मानसिक रोगों से पीड़ित है। इनमें से आधे अस्पतालों में पड़े रहते हैं और आधे अपने घरों में ही सनकते रहते हैं। दांतों की खराबी के सम्बन्ध में तो स्थिति और भी अधिक दयनीय है प्रायः आधी जनता के दांत खराब हैं। इस संकट के सन्दर्भ में रिपोर्ट में कहा गया है कि इस मानसिक रुग्णता और दांतों की खराबी का कारण है, अमेरिकनों की आर्थिक समृद्धि। जिसका सही उपयोग न जानने के कारण वे ठूंस-ठूंस कर खाते हैं—भरपेट शराब पीते हैं और अन्धाधुन्ध दवाइयां खाते हैं।

अमेरिका में 3 करोड़ 60 लाख व्यक्ति मानसिक तनाव के अभ्यस्त रोगी हैं। उन्हें निद्रा लाने एवं तनाव घटने के लिए मनःशान्ति प्रदायक नशीली गोलियां खानी पड़ती हैं। इस प्रकार की 50 गोलियों की कीमत प्रायः 30 रुपये के बराबर होती है। यह गोलियां हर दिन कई-कई खानी पड़ती हैं अस्तु उन पर उस देश में प्रायः 1 अरब रुपया हर साल खर्च होता है। स्वार्थपूर्ण व्यक्तिवाद और अनियन्त्रित इन्द्रिय भोगों के फल आर्थिक बर्बादी, मानसिक असन्तुलन और असामाजिक एकाकी जीवन के रूप में सामने आना ही चाहिए सो क्रमशः आता ही जा रहा है।

विलासिता मार ही डालेगी

1673 विवाह के पीछे अधिक से अधिक 1 तलाक। यह स्थिति 1890 की संयुक्त राज्य अमेरिका की है। इस वर्ष यहां 530937 नये विवाह हुये इनमें से 31735 का सम्बन्ध विच्छेद (तलाक) हुआ। इसके बाद भौतिक सुख-सुविधाओं में तेजी से वृद्धि हुई, इस वृद्धि से भी तीव्रगति पारिवारिक जीवन में अशान्ति की रही। 1967 में अमेरिका में 1913000 नये विवाह सम्बन्ध विच्छेद हुये जिसमें से लगभग 1 तिहाई अर्थात् 534000 लोगों के सम्बन्ध विच्छेद हुये। नये विवाहों की प्रतिशत वृद्धि जहां 260 प्रतिशत थी वहां तलाकों में 1600 प्रतिशत की वृद्धि यह सोचने को विवश करती है कि बढ़ती हुई भौतिकता जन-जीवन के लिये भूखे रहने से भी बढ़कर उत्पीड़क है।

बढ़ती हुई यान्त्रिकता और भौतिकता ने मनुष्य को इतना विलासी बना दिया है कि उसे यौन-सुख के अतिरिक्त भी संसार में कोई सुख, कुछ कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व हैं, यह सोचने को भी समय नहीं मिलता। अनियन्त्रित भोग-वासना ने योरोप के सारे समाज को चरित्र भ्रष्ट कर दिया है। कोई भी पति-पत्नी पर और पत्नी पति पर यह विश्वास नहीं कर सकती कि वह कब किस नये साथी का चुनाव कर लेगा। सौन्दर्य और शरीर के आकर्षणों के पीछे धुत मनुष्य गुणों की, चरित्र की बात सोच ही नहीं पाता। उसी का परिणाम है कि आज अकेले अमेरिका में 30 लाख महिलायें ऐसी हैं जिन के विवाह सम्बन्ध हो गये हैं, पर या तो उन्होंने स्वयं या उनके पतियों ने उन्हें छोड़ दिया है।

दाम्पत्य जीवन में जहां निष्ठा नहीं होती उस समाज के युवक युवतियां दिग्भ्रांत होते हैं। उनकी दिग्भ्रान्ति उद्दंडता, अराजकता, विद्रोह और तोड़-फोड़ के रूप में प्रकट होती है। वह स्थिति दुखान्त नहीं होती, जितनी मानसिक शान्ति के नाम पर परस्पर आकर्षण का भ्रम। प्रौढ़ पीढ़ी के प्रति कोई श्रद्धा उनमें होती नहीं, फलतः सांसारिक अनुभवों का लाभ प्राप्त करने की अपेक्षा पानी की बाढ़ की तरह उन्हें जो अच्छा लगता है उधर ही दौड़ पड़ते हैं। अनैतिक सम्बन्धों की बाढ़ आज उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह आंधी अभी दूसरे देशों में अधिक है, पर कोई सन्देह नहीं यदि अपने देश में बढ़ रहे पाश्चात्य प्रभाव के कारण वह स्थिति यहां भी न बन जाये।

सोवियत रूस को अपने चरित्र और नैतिकता का बड़ा गर्व रहता है। वहां भी 9 बच्चों में से 1 बच्चा निश्चित अवैध सम्बन्ध से जन्मा होता है। न्यूजीलैंड में 8 के पीछे 1, इंग्लैंड में 13 में 1, आस्ट्रेलिया में 12 में 1, अमेरिका में 14 में 1 बच्चा ऐसा होता है, जिसके माता-पिता विवाह से पूर्व ही यौन सम्बन्ध स्थापित कर चुके होते हैं। इस तरह की अवैध सन्तानों की संख्या अकेले अमेरिका में ही 3 लाख से भी अधिक है।

वर्तमान पीढ़ी की विलासी प्रवृत्ति आने वाली सन्तानों के लिए किसी तरह घातक बनती जा रही है, उस पर दृष्टि दौड़ायें तो स्थिति कुछ ऐसी विस्फोटक और चौंकाने वाली दिखेगी कि हर व्यक्ति यही सोचेगा कि सौ वर्ष के पीछे इस संसार में पाये जाने वाले सभी मनुष्य शंकरजी की बारात की तरह टेढ़े, काने, कुबड़े, अन्धे, लूले, लंगड़े, किसी का पेट निकला हुआ, किसी का आवश्यकता से अधिक पिचका हुआ हो तो कोई आश्चर्य नहीं, तो वह सिद्ध-महात्माओं की तरह पूज्य और सबका नेता हुआ करेगा। यदि आज का संसार अपनी तथाकथित प्रगति के पांव रोकता नहीं तो क्या अमेरिका, क्या भारत इस स्थिति के लिये सबको तैयार रहना चाहिये।

विलासिता का एक दुर्गुण यह भी है कि वह भोग से बढ़ती है शान्त नहीं होती। वासना की भूख न केवल अनैतिक आचरण करने को बाध्य करती है, वरन् शरीर को विषैले पदार्थों से उत्तेजित कर और अधिक भोग का आनन्द लूटने को दिग्भ्रान्त करती है। अमेरिका में आज 15 करोड़ व्यक्ति चरस, गांजा, कोकीन आदि में से किसी न किसी का नशा अवश्य करते हैं, फ्रांस में अब गणना उल्टी अर्थात् यह पूछा जाता है कि कितने प्रतिशत लोग नशा नहीं करते। यह औसत 5 से अधिक नहीं बढ़ता। पश्चिम जर्मनी में स्त्री-पुरुषों में होड़ है, कौन अधिक चरस पिये, वहां के 4 लाख व्यक्ति नशेबाज हैं तो स्त्रियां दो लाख, रूस के लोग प्रति वर्ष साठ अरब रुपये की शराब पी जाते हैं।

इसका उनके स्वास्थ्य पर पड़ा प्रभाव उतना घातक नहीं जितना आने वाली पीढ़ी पर पड़ता है। मनुष्य शरीर में प्रजनन कोश (जेनेटिक सेल्स) सबसे अधिक कोमल होते हैं, इन्हीं में बच्चों के शरीर और मन को निर्धारित करने वाले क्रोमोसोम (संस्कार कोश) पाये जाते हैं। नशों के कारण यह गुण सूत्र अस्त-व्यस्त हो जाते हैं उसी का कारण होता है कि बच्चे काने, कुबड़े, लूले, लंगड़े पैदा होते हैं। इंग्लैंड में 40 बच्चों के पीछे एक बच्चा अनिवार्य कुरूप होता है। आस्ट्रेलिया में 50 में 1, स्पेन में 70 के पीछे 1 और हांगकांग में 85 में से 1 लंगड़ा अपाहिज पैदा होता है। अमेरिका में प्रति वर्ष 2 लाख 50 हजार बच्चे ऐसे पैदा होते हैं जिनके शरीर का कोई न कोई अंग विकृत अवश्य होता है। इस समय वहां के विभिन्न अस्पतालों तथा घरों में 1 करोड़ 10 लाख बच्चे ऐसे हैं जिन्हें किसी न किसी रूप में विकलांग कहा जा सकता है, वह न तो किसी मोटर दुर्घटना का परिणाम होगा, न मोच या चोट का। स्पष्ट है कि यह सब लोगों के आहार-विहार और जीवन पद्धति का दोष है, जो आगामी पीढ़ी का यों दोषी बना रहा है।

यौन सुख की अनियन्त्रित बाढ़ आज के भौतिकतावाद की भयंकर देन है। वह लोगों के स्वास्थ्य किस बुरी तरह से नष्ट कर रही है, इसका सही अनुमान तो योरोप के अस्पतालों में जाकर ही हो सकता है, पर यदि किसी को उसकी जानकारी देनी ही हो तो यह कहना ठीक होगा कि जिस तरह अपने देश के अशिक्षित लोगों में अन्ध-विश्वास की बहुतायत है। उसी तरह योरोपीय देशों में अधिकांश व्यक्ति यौन रोगों से पीड़ित मिलेंगे। ‘न्यूजवीक’ साप्ताहिक ने अपने 10 अक्टूबर 68 के अंक में लिखा है कि योरोप में 40 हजार महिलायें ऐसी हैं जो इसी कारण कैंसर से बीमार हैं और उनकी कोई चिकित्सा नहीं है। इसी प्रकार अमेरिका के डाक्टरों ने भी यौन रोगों को रोक सकने की अपनी सामर्थ्य से हाथ ढीले कर दिये हैं।

यह तूफानी झंझा भौतिकतावाद की चलाई हुई है, मनुष्य उससे बचना चाहता है तो वह आध्यात्मिकता का आश्रय ले इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं। आध्यात्मिकता ही स्वास्थ्य, सदाचार, शांति और नैतिक मूल्य स्थिर रख सकती है।

 

वेषभूषा, फैशन और विलास

भौतिकवाद-भोगवाद की चलाई हुई यह झंझा मुक्त यौनाचार के रूप में तो एक परिणिति मात्र है। अन्यथा वेषभूषा, रहन-सहन, आचार-विचार और सामाजिक जीवन तक में इसने अनेकानेक रूप धारण किये हैं। वेषभूषा को ही लें, उद्धतता प्रदर्शन और तड़क भड़क के लिये अपनाया जाने वाला वेश विन्यास शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह बर्बाद करता है।

आधुनिक फैशन और मॉर्डन रहन-सहन शरीर स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव डालता है, यह जानने के लिए पश्चिमी देशों के कई मनीषियों ने शोध की है। इस सम्बन्ध में गहन अध्ययन, निरीक्षण और परीक्षण के बाद अमेरिकन मेडिकल एसोसियेशन के डा. लिंडा एलेन ने लिखा है—मुझे बड़ा कौतूहल हुआ जब मैंने त्वचा रोग की चिकित्सा के आंकड़ों पर दृष्टि दौड़ाते हुए पाया कि वह अधिकांश किशोरों तथा युवा युवतियों को ही अधिक मात्रा में हो रहे हैं। यह बिलकुल उलटी बात थी। इस विस्मय ने मुझे इस पर गम्भीरता से जांच करने की प्रेरणा दी।

डा. एलेन की जांच के निष्कर्ष फैशन की अन्धी दौड़ दौड़ाने वालों को चौंका देने वाले हैं। उनका कहना है कि शरीर को छूती तंग पोशाकें पहनने के कारण किशोरों तथा युवक युवतियों के शरीर में रक्त त्वचा, पपड़ीदार त्वचा शोथ, विन्टर इच तथा खुजली जैसे त्वचा रोग तेजी से बढ़ रहे हैं उन्होंने यह भी चेतावनी दी है कि यदि युवक-युवतियों ने तंग पोशाकें पहननी न छोड़ी तो आगे त्वचा रोग एक भीषण समस्या बन सकता है, कुछ रोग तो असाध्य और वंशानुगत तक हो सकते हैं।

वस्त्र पहनने में स्वच्छता, सफाई और कला का ध्यान रखा जाये इसमें कुछ हानि नहीं, वरन् यह एक प्रकार से आवश्यक है पर उसके साथ ही स्वास्थ्य सामाजिकता के विवेक पूर्ण पहलू भी उपेक्षित नहीं किये जाने चाहिये। वस्त्र पहनने का उद्देश्य जहां शरीर के उन अंगों को ढकना है जो लोगों की मनोवृत्ति दूषित कर सकते हैं वहां यह भी ध्यान रखा जाना चाहिये कि स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन न हो अर्थात् मौसम का प्रभाव सारे शरीर पर पड़ता रहना चाहिये। जिन शरीरों में ताजी हवा का स्पर्श नहीं बना रहता वे मौसम के थोड़े से भी परिवर्तन सहन नहीं कर पाते। थोड़े से ही परिवर्तन से शरीर गड़बड़ करने लगता है। भारतीय वेष-भूषा का निर्धारण इन बातों को ध्यान में रखने के साथ-साथ कला की दृष्टि से भी उच्चकोटि का है किन्तु आज का फैशन उसे नष्ट कर देने पर तुल गया है। अब जो तंग कपड़े पहने जाते हैं वह शरीर में इस तरह मढ़े होते हैं कि उनसे काम-अंगों के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ता है लोगों में मनोविकार उत्पन्न होते हैं साथ ही उनसे स्वास्थ्य में भी बुरा असर पड़ता है। डा. एलेन का कहना है कि इन तंग कपड़ों के यांत्रिक दबाव और शरीर की रगड़ से ही त्वचा रोग पैदा होते हैं। यह पहलू ही कम चिन्ताजनक नहीं है।

इन दिनों आस्ट्रेलिया में प्रेक्टिस कर रहे अंग्रेज डा. लैंडन कोटिने ने भी फैशन शास्त्र पर खोज की और बताया कि मिनी स्कर्ट तथा दूसरे अस्वाभाविक वस्त्र पहनना न केवल शारीरिक विकास में बाधा उत्पन्न करता है वरन् उसके कारण मस्तिष्क में घबराहट और स्नायविक तनाव बढ़ता है, जो उभरती पीढ़ी के लिए एक प्रकार का अभिशाप है इससे किशोरों का बौद्धिक तथा भाव विकास रुकता है।

उन्होंने बताया कि मिनी स्कर्ट पहनने वाली लड़कियों को सार्वजनिक स्थानों ट्रेनों, बसों में एक टांग के ऊपर दूसरी टांग चढ़ाकर बैठना पड़ता है अधिक क्रासिंग के कारण ऐबडक्टर पेशियां सिकुड़ जाती है जिससे कद छोटा हो जाने की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं साथ ही इस तरह की अस्वाभाविक पोशाक पहनने वालों का अपने ही ऊपर ध्यान बना रहता है हर आगन्तुक के प्रति उनमें घबराहट सी होती है जो उनमें स्नायविक दुर्बलता पैदा करती है। यदि नई पीढ़ी को इन दोषों से बचाना है तो फैशन की बाढ़ को रोकना पड़ेगा। उसकी आज्ञा, संस्कृति ही नहीं विज्ञान भी नहीं देता।

वेषभूषा की मनोवैज्ञानिक कसौटी

एक दो नहीं, सम्पूर्ण 6 वर्ष तक उसने पार्कों, थियेटरों, छविग्रहों और दूसरे-दूसरे सार्वजनिक स्थानों के चक्कर काटे। एक नहीं हजारों फोटोग्राफ लिये और जिस-जिस के फोटोग्राफ लिये उन-उनके व्यक्तिगत जीवन का परिचय और अध्ययन किया। सोचते होंगे होगा कोई व्यर्थ के कामों में समय गंवाने वाला फक्कड़ पर नहीं वह हैं लन्दन के एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक श्री नेक हेराल्ड जिन्होंने इतने वर्ष के अध्ययन से महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह निकाला कि वेश-भूषा का मनुष्य के चरित्र, स्वभाव, शील और सदाचार से गहनतम सम्बन्ध है।

पुरुषों की तरह की वेषभूषा धारण करने वाली नवयुवतियों का मानसिक चित्रण और उनके व्यवहार की जानकारी देते हुए श्री हेराल्ड लिखते हैं—ऐसी युवतियों की चालढाल, बोलचाल, उठने-बैठने के तौर-तरीकों में भी पुरुष के से लक्षण प्रकट होने लगते हैं। वे अपने आप को पुरुष-सा अनुभव करती हैं जिससे उनके लज्जा आदि नारी सुलभ गुणों का ह्रास होने लगता है। स्त्री जब स्त्री न रहकर पुरुष बनने लगती है तब वह न केवल पारिवारिक उत्तरदायित्व निबाहने में असमर्थ हो जाती है वरन् उसके वैयक्तिक जीवन की शुद्धता भी धूमिल पड़ने लगती है। पाश्चात्य देशों में दाम्पत्य जीवन में उग्र होता हुआ अविश्वास उसी का एक दुष्परिणाम है।

श्री हेराल्ड ने अपना विश्वास व्यक्त किया कि भारतीय आचार्यों ने वेशभूषा के जो नियम और आचार बनाये वह केवल भौगोलिक अनुकूलता ही प्रदान नहीं करते वरन् स्त्री-पुरुषों की शारीरिक बनावट का दर्शक पर क्या प्रभाव पड़ता है उस सूक्ष्म विज्ञान को दृष्टि में रखकर भी बनाये गये हैं वेशभूषा का मनोविज्ञान के साथ इतना बढ़िया सामंजस्य न तो विश्व के किसी देश में हुआ न किसी संस्कृति में, यह भारतीय आचार्यों की मानवीय प्रकृति के अत्यन्त सूक्ष्म अध्ययन का परिणाम था।

आज पाश्चात्य देशों में अमेरिका में सर्वाधिक भारतीय पोशाक साड़ी का तो विशेष रूप से तेजी से आकर्षण और प्रचलन बढ़ रहा है दूसरी ओर अपने देश के नवयुवक और नवयुवतियां विदेशी और सिनेमा टाइप वेशभूषा अपनाती चली जा रही हैं यह न केवल अन्धानुकरण की मूढ़ता है वरन् अपनी बौद्धिक मानसिक एवं आत्मिक कमजोरी का ही परिचायक है।

यदि इसे रोका न गया और लोगों ने पैंट, कोट, बूट, हैट, स्कर्ट, चुस्त पतलून सलवार आदि भद्दे और भोंड़े परिधान न छोड़े तो और देशों की तरह भारतीयों का चारित्रिक पतन भी निश्चित ही है। श्री हेराल्ड लिखते हैं कि सामाजिक विशेषताओं को इस सम्बन्ध में अभी विचार करना चाहिये अन्यथा वह दिन अधिक दूर नहीं जब पानी सिर से गुजर जायेगा।

भौतिक समृद्धि ही सब कुछ नहीं

अमेरिका आज संसार का सबसे धनी देश है। उसके पास अपार धनराशि है। धन के साथ-साथ यहां शिक्षा, विज्ञान एवं सुख-साधनों का प्रचुर मात्रा में अभिवर्धन हुआ है। उपार्जन की तरह उन लोगों ने उपभोग की कला भी सीखी है। इसलिये वहां के निवासी हमें धनाधिप देवपुरुषों की तरह साधन सम्पन्न और आकर्षक दिखाई पड़ते हैं। हर तीन में से एक के पीछे एक कार है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिस परिवार में स्त्री, पुरुष और एक बच्चा होगा वहां एक कार का औसत आ जायेगा। टेलीविजन, रेफ्रिजरेटर, हीटर, कूलर, टेलीफोन तथा दूसरे सुविधाजनक घरेलू यन्त्र प्रायः हर घर में पाये जाते हैं। विलासिता के इतने अधिक साधन मौजूद हैं जिनके लिए भारत जैसे गरीब देशों के नागरिक तो कल्पना और लालसा ही कर सकते हैं।

इतने पर भी उस देश की भीतरी स्थिति बहुत ही खोखली है। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से वे खोखले बनते जा रहे हैं। संयुक्त कुटुम्ब, दाम्पत्य निष्ठा, सन्तान सद्भाव एवं सामाजिक सहयोग क्रमशः घटता ही चला जा रहा है। बढ़ती हुई व्यस्तता एवं औपचारिकता के कारण हर व्यक्ति एकाकी बनता चला जा रहा है। किसी को किसी पर न तो भरोसा है और न कठिन समय में किसी विश्वस्त सहयोग का विश्वास। नशा पीकर अथवा नग्न यौन उत्तेजना के मनोरंजन देखकर अथवा इन्द्रिय तृप्ति के साधन अपनाकर किसी प्रकार गम गलत करते रहते हैं। भीतर एकाकीपन और खोखलापन उन्हें निरन्तर कचोटता रहता है।

अमेरिकन पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों, सरकारी तथा गैर-सरकारी रिपोर्टों के आधार पर उस देश के निवासियों की जो भीतरी स्थिति सामने आती है वह वस्तुतः बड़ी करुणा उत्पादक है। कभी-कभी तो यहां तक सोचना पड़ता है कि उन सुसम्पन्न लोगों की तुलना में हम निर्धन अशिक्षित कहीं अच्छे हैं जो किसी प्रकार सन्तोष की रोटी खा लेते हैं और चैन की नींद सो लेते हैं।

स्वास्थ्य रिपोर्टों के अनुसार अमेरिका में प्रायः 1 करोड़ व्यक्ति 15 में से 1 व्यक्ति मानसिक रोगों से ग्रसित है। 15 लाख व्यक्ति 1 प्रतिशत पागलपन के शिकार हैं। प्रायः डेढ़ करोड़ व्यक्ति सनकी हैं। 12 बच्चों में से एक मानसिक रोगी पाया जाता है। अस्पतालों की रिपोर्टों के अनुसार अबसे सौ वर्ष पूर्व जितना मानसिक रोगों का प्रचार था अब उसका अनुपात 12 गुना अधिक बढ़ गया है।

द्वितीय महायुद्ध में एक करोड़ 40 लाख व्यक्तियों की जांच कराई गई थी कि इतनों में से सेना में भर्ती होने योग्य स्वास्थ्य कितनों का है उनमें से सिर्फ 20 लाख व्यक्ति काम के निकले और शेष ‘अलफिट’ ठहरा दिये गये।

संसार में पागलों की सबसे अधिक संख्या वाला देश अमेरिका वहां प्रति दो सौ व्यक्ति पीछे एक पागल है। सबको तो अस्पतालों में जगह नहीं मिलती, पर जो इलाज के लिये दाखिल होते हैं उन्हीं पर 75000 करोड़ डालकर की गगनचुम्बी धनराधि सरकार को खर्च करनी पड़ती है।

इन दिनों वहां ढाई करोड़ व्यक्ति अर्थात् जनसंख्या का छठा भाग किसी न किसी शारीरिक रोग से ग्रसित है। इनमें से 70 लाख तो अस्पतालों की चारपाई ही पकड़े रहते हैं। कैंसर तो गजब की गति से बढ़ा है। 55 साल की उम्र के बाद पुरुषों में से हजार पीछे आठ के और महिलाओं में से 14 की मृत्यु केन्सर से होती है। दमा, मधुमेह, रक्तचाप, हृदय रोग, अनिद्रा, अपच यह पांच अब सभ्यता के आवश्यक अंगों में जुड़ गये हैं। प्रायः हर परिवार में इन बीमारियों में प्रयुक्त होने वाली दवाएं मौजूद मिलेंगी।

गर्भ निरोध के उपकरणों से प्रायः प्रत्येक वयस्क नर-नारी परिचित और अभ्यस्त है फिर भी गर्भ धारण होते रहते हैं और गर्भपात कराने पड़ते हैं। आमतौर से गर्भपात के लिये कुनैन स्तर की दवाएं दी जाती हैं जिनका प्रभाव प्रजनन संस्थान पर चिरकाल तक बना रहता है और जो भी बच्चे जन्मते हैं वे उन दवाओं के असर का कुछ न कुछ भाग अपने शरीर में लेकर आते हैं। सिर दर्द की एक दवा ‘एस्पिरीन’ अकेली ही एक करोड़ चालीस लाख पौंड वजन की बिक जाती है। नींद लाने वाली दवाएं छह लाख पौंड वजन की खपती हैं। कब्ज तो तीन चौथाई लोगों को रहता है। इसलिए उसकी दवाएं तो इन सबसे अधिक मात्रा में होती हैं। सिनेमा, टेलीविजन के व्यसन ने आंखों की रोशनी इस कदर घटा दी है कि चश्मा भी कोट-पेण्ट की तरह एक आवश्यक परिधान बन गया है। दांत तो पचास फीसदी के खराब हैं। शराब के आदी वयस्कों में से आधे लोग हैं। सिगरेट तो 75 प्रतिशत लोग पीते हैं। उससे प्रायः बालक ही बचे होते हैं और कुछ प्रतिशत महिलाएं भी नहीं पीती।

होने वाले विवाहों में से प्रतिवर्ष तीन के पीछे एक तलाक का औसत आता है। हर वर्ष प्रायः ग्यारह लाख पचास हजार गम्भीर अपराध होते हैं, उन्तीस हजार आत्म-हत्याएं करते हैं, 7 से 17 वर्ष की आयु वाले अल्प वयस्कों में से दो लाख पैंसठ हजार को गिरफ्तार करके पुलिस अदालतों के समक्ष प्रस्तुत करती है।

उस देश में ‘एस्पीरिन’ नवा का अब इतना अधिक प्रचलन हो गया है कि वह गांव-गांव और घर-घर जा पहुंची है। सिर दर्द या दूसरे दर्द अनुभव में न आयें इसके लिये उसका प्रयोग होता है। अकेले अमेरिका में उसकी वार्षिक खपत 27,000,000 पौंड है। मानसिक उद्वेगों ने धीरे-धीरे उस देश में सिरदर्द के एक चिरस्थायी मर्ज के रूप में अपने पैर जमा लिये हैं। नींद लाने की गोलियां भी उस देश में अब एक दैनिक आवश्यकता की वस्तु बन गई हैं।

यह तथ्य बताते हैं कि भोगवाद से प्रेरित भौतिक समृद्धि को ही बढ़ाते रहना एकांगी तथा हानिकारक है। शिक्षा, विज्ञान, विचार, साहित्य, उद्योग, व्यवसाय और साधन सुविधाओं का विकास करना तथा समृद्धि बढ़ाना अच्छी बात है लेकिन यदि यहीं तक सीमित रह जाया गया तो उससे लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक है। इन साधनों के साथ मनुष्य का नैतिक और चारित्रिक स्तर भी बढ़ाते चलना मनुष्य समाज के लिए हितकर होगा। इस ओर ध्यान दिये बिना मात्र भौतिक समृद्धि को बढ़ाते रहने, विलासिता के साधनों में अभिवृद्धि करते रहने से मनुष्य के अस्तित्व पर मंडराता यह विनाश का संकट बढ़ेगा ही, घटेगा नहीं

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