बलिवैश्व का तत्त्वदर्शन
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अपनी कमाई में भगवान् का भाग है। चाहे वह बुद्धि, सम्पत्ति, शक्ति, नौकरी, व्यापार या खेती की कमाई क्यों नहीं हो परन्तु प्रत्येक मनुष्य के मन में उदारता और परमार्थ परायणता का भाव होना चाहिए। केवल अपने लिए नहीं परन्तु पिछड़े लोग, प्राणी, पक्षी, वृक्ष सबके लिए सोचना चाहिए तभी परमात्मा प्रसन्न रहता है। दूसरों के साथ वैसी उदारता रखो जैसी भगवान् ने आपके साथ रखी है।
आपको यह हमेशा याद रहे आप दूसरों की सेवा के लिए जिएँ इस हेतु नित्य बलिवैश्व करना पड़ता है। त्यागपूर्वक भोग किया हुआ अन्न हमारे अंदर बल और प्राण शक्ति को धारण कराता है। जल और वायु के बाद अन्न हमारे जीवन को परमात्मा से मिली सबसे बड़ी भेंट है। बलिवैश्व संक्षिप्त नाम है। पूर्ण शब्द बलिवैश्व देव है। हमारे ऋषियों ने इसमें तीन शब्दों को समाविष्ट किया है। ‘‘बलि- वैश्व इनका अर्थ इस प्रकार होता है। बलि अर्थात् बलिदान, त्याग, उपहार, भेंट, अनुदान। वैश्व समस्त विश्व के जड़- चेतन के लिए। देव अर्थात् देवताओं के लिए, दिव्य प्रयोजनों के लिए। बलिवैश्व देव अर्थात् समस्त विश्व के लिए उदारता से दिया गया अनुदान।
बलि वैश्व के महत्त्व की व्याख्या नहीं हो सकती फिर भी युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव इसका दर्शन बताते हैं कि दैनिक उपासना में अकेला गायत्री जप ही पर्याप्त नहीं है। जप की सार्थकता हेतु अग्निहोत्र भी साथ चलना चाहिए। हवन के लिए समय- सामग्री, शक्ति, क्लिष्ट कर्मकाण्ड और खर्च भी पड़ता है, इसलिए बलिवैश्व का महत्त्व समझा जाय और गायत्री परिवार के तथा अन्य घरों में उसे प्रचलित और पुनर्जीवित किया जाय। बलिवैश्व की सरल परन्तु महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया को लोग भूल गये हैं।
जामनगर (गुजरात) की राजकुवरबा, श्री खुमान सिंह झाला के राजपूत परिवार की इकलौती बेटी थी। उनका ब्याह १९७८ मई में कच्छ- भुज के श्री रुद्रदत्तसिंह जी जाड़ेजा के साथ खानदानी रियासत में संपन्न हुआ। राजकुवरबा को ज्ञात हुआ कि उनके पतिदेव अठंग शराबी हैं। उसने माता- पिता या सास ससुर से शिकायत नहीं की। दादाजी ने बताया था कि गायत्री जप से कैसी भी कठिन समस्या का हल होता है। वह एक लोटी में पानी रखकर ११ माला जप करती थी और वही पानी आटा गूथने में प्रयोग करती थी। परन्तु बहुत अधिक फर्क पतिदेव में नहीं हुआ।
राजकुवरबा अपने पिताजी के साथ १९७९ में शान्तिकुञ्ज आई और परम पूज्य गुरुदेव को घटना सुनाई। परम पूज्य गुरुदेव ने कहा बेटा गायत्री जप के साथ बलिवैश्व भी किया करें और यज्ञावशिष्ट (बचा हुआ प्रसाद) पतिदेव की थाली में भोजन के साथ परोस दिया करें। छः माह के पश्चात् राजकुवरबा अपने पति के साथ शान्तिकुञ्ज आई और परम पूज्य गुरुदेव को बताया की उन्होंने शराब छोड़ दी और गायत्री उपासना भी करते हैं एवं गायत्री परिवार का प्रचार- प्रसार कार्य भी करते हैं, यह है बलिवैश्व का प्रभाव।
प्राचीन समय में गाँवों में ग्राम देवता को वर्ष में एक दिन नैवेद्य लगाया जाता था। सभी घरों में मिष्ठान्न बनने का एलान किया जाता था। शाम संध्या समय लोग सकोरे में कोयला की अग्रि निकालकर पाँच ग्रास आहुति देते थे। मंत्र तो लोगों को मालूम नहीं होता था परन्तु क्रिया निश्चित करते थे। यह एक प्रकार से बलिवैश्व का स्वरूप ही था। अपने पूर्वज की विरासत को हम लोग भूल गये।
वैश्व देव विहीना ये अतिथ्येन बहिष्कृया। सर्वे ते नरकं यान्ति काक योनि व्रजन्ति च।। (पा० स्मृति १/४९)
जो बलिवैश्व नहीं करते और अतिथि सत्कार से विमुख रहते हैं, वे नरक में पड़ते हैं और कौए की योनि में जन्म लेते हैं। आपके घर में रसोई घर समेटने के पश्चात् अगर कोई अतिथि आ जाय तो मुँह मत बिगाड़ना और परेशान मत होना कि बिना जानकारी दिए लोग आ जाते हैं। अरे भई वही तो सच्चा अतिथि हैं।
काष्ठभार सहस्रेण घृत कुम्भ शतेन च। अतिथिर्यस्य भग्राशः तस्य होमो निरर्थकः।।
जिस गृहस्थ के घर से अतिथि भूखा, प्यासा और निराश होकर जाये वह यदि मणि काष्ठ या घड़े भरकर घी से यज्ञ करें तो भी वह निरर्थक है। जिस प्रकार नित्य कर्मों में भोजन, शयन, स्नान, शौच आदि को आवश्यक माना गया है, उसी प्रकार गायत्री दैनिक जप और बलिवैश्व को भी दैनिक धर्म कार्य मानते है।
गायत्री जप अर्थात् सद्ज्ञान की उपासना और बलिवैश्व यज्ञ अर्थात् सत्कर्म की उपासना। इस दोनों को जीवन का अनिवार्य अंग बनाने से किसी भी व्यक्ति को आध्यात्मिक और भौतिक सफलता सदैव मिलती रहती है। प्रत्येक परिवार में गायत्री जप और बलिवैश्व यज्ञ सम्पन्न होता रहे तो इसी को गायत्री माता और यज्ञ भगवान् की पूजा- अर्चना मानी जायेगी। इस छोटी क्रिया का परिणाम बहुत बड़ा है। दीपक का आर्थिक मूल्य और स्वरूप कितना ही स्वल्प क्यों न हो परन्तु रात्रि को सघन अंधकार में पथप्रदर्शन करता है। परम पूज्य गुरुदेव द्वारा स्थापित अखण्ड ज्योति पूरे विश्व का पथ−प्रदर्शन करती है। इस तरह यह छोटा सा बलिवैश्व यज्ञ जीवन की अशांति, अभाव और अशक्ति को निर्मूल करके व्यक्ति को आबाद कर देता है।
आपको यह हमेशा याद रहे आप दूसरों की सेवा के लिए जिएँ इस हेतु नित्य बलिवैश्व करना पड़ता है। त्यागपूर्वक भोग किया हुआ अन्न हमारे अंदर बल और प्राण शक्ति को धारण कराता है। जल और वायु के बाद अन्न हमारे जीवन को परमात्मा से मिली सबसे बड़ी भेंट है। बलिवैश्व संक्षिप्त नाम है। पूर्ण शब्द बलिवैश्व देव है। हमारे ऋषियों ने इसमें तीन शब्दों को समाविष्ट किया है। ‘‘बलि- वैश्व इनका अर्थ इस प्रकार होता है। बलि अर्थात् बलिदान, त्याग, उपहार, भेंट, अनुदान। वैश्व समस्त विश्व के जड़- चेतन के लिए। देव अर्थात् देवताओं के लिए, दिव्य प्रयोजनों के लिए। बलिवैश्व देव अर्थात् समस्त विश्व के लिए उदारता से दिया गया अनुदान।
बलि वैश्व के महत्त्व की व्याख्या नहीं हो सकती फिर भी युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव इसका दर्शन बताते हैं कि दैनिक उपासना में अकेला गायत्री जप ही पर्याप्त नहीं है। जप की सार्थकता हेतु अग्निहोत्र भी साथ चलना चाहिए। हवन के लिए समय- सामग्री, शक्ति, क्लिष्ट कर्मकाण्ड और खर्च भी पड़ता है, इसलिए बलिवैश्व का महत्त्व समझा जाय और गायत्री परिवार के तथा अन्य घरों में उसे प्रचलित और पुनर्जीवित किया जाय। बलिवैश्व की सरल परन्तु महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया को लोग भूल गये हैं।
जामनगर (गुजरात) की राजकुवरबा, श्री खुमान सिंह झाला के राजपूत परिवार की इकलौती बेटी थी। उनका ब्याह १९७८ मई में कच्छ- भुज के श्री रुद्रदत्तसिंह जी जाड़ेजा के साथ खानदानी रियासत में संपन्न हुआ। राजकुवरबा को ज्ञात हुआ कि उनके पतिदेव अठंग शराबी हैं। उसने माता- पिता या सास ससुर से शिकायत नहीं की। दादाजी ने बताया था कि गायत्री जप से कैसी भी कठिन समस्या का हल होता है। वह एक लोटी में पानी रखकर ११ माला जप करती थी और वही पानी आटा गूथने में प्रयोग करती थी। परन्तु बहुत अधिक फर्क पतिदेव में नहीं हुआ।
राजकुवरबा अपने पिताजी के साथ १९७९ में शान्तिकुञ्ज आई और परम पूज्य गुरुदेव को घटना सुनाई। परम पूज्य गुरुदेव ने कहा बेटा गायत्री जप के साथ बलिवैश्व भी किया करें और यज्ञावशिष्ट (बचा हुआ प्रसाद) पतिदेव की थाली में भोजन के साथ परोस दिया करें। छः माह के पश्चात् राजकुवरबा अपने पति के साथ शान्तिकुञ्ज आई और परम पूज्य गुरुदेव को बताया की उन्होंने शराब छोड़ दी और गायत्री उपासना भी करते हैं एवं गायत्री परिवार का प्रचार- प्रसार कार्य भी करते हैं, यह है बलिवैश्व का प्रभाव।
प्राचीन समय में गाँवों में ग्राम देवता को वर्ष में एक दिन नैवेद्य लगाया जाता था। सभी घरों में मिष्ठान्न बनने का एलान किया जाता था। शाम संध्या समय लोग सकोरे में कोयला की अग्रि निकालकर पाँच ग्रास आहुति देते थे। मंत्र तो लोगों को मालूम नहीं होता था परन्तु क्रिया निश्चित करते थे। यह एक प्रकार से बलिवैश्व का स्वरूप ही था। अपने पूर्वज की विरासत को हम लोग भूल गये।
वैश्व देव विहीना ये अतिथ्येन बहिष्कृया। सर्वे ते नरकं यान्ति काक योनि व्रजन्ति च।। (पा० स्मृति १/४९)
जो बलिवैश्व नहीं करते और अतिथि सत्कार से विमुख रहते हैं, वे नरक में पड़ते हैं और कौए की योनि में जन्म लेते हैं। आपके घर में रसोई घर समेटने के पश्चात् अगर कोई अतिथि आ जाय तो मुँह मत बिगाड़ना और परेशान मत होना कि बिना जानकारी दिए लोग आ जाते हैं। अरे भई वही तो सच्चा अतिथि हैं।
काष्ठभार सहस्रेण घृत कुम्भ शतेन च। अतिथिर्यस्य भग्राशः तस्य होमो निरर्थकः।।
जिस गृहस्थ के घर से अतिथि भूखा, प्यासा और निराश होकर जाये वह यदि मणि काष्ठ या घड़े भरकर घी से यज्ञ करें तो भी वह निरर्थक है। जिस प्रकार नित्य कर्मों में भोजन, शयन, स्नान, शौच आदि को आवश्यक माना गया है, उसी प्रकार गायत्री दैनिक जप और बलिवैश्व को भी दैनिक धर्म कार्य मानते है।
गायत्री जप अर्थात् सद्ज्ञान की उपासना और बलिवैश्व यज्ञ अर्थात् सत्कर्म की उपासना। इस दोनों को जीवन का अनिवार्य अंग बनाने से किसी भी व्यक्ति को आध्यात्मिक और भौतिक सफलता सदैव मिलती रहती है। प्रत्येक परिवार में गायत्री जप और बलिवैश्व यज्ञ सम्पन्न होता रहे तो इसी को गायत्री माता और यज्ञ भगवान् की पूजा- अर्चना मानी जायेगी। इस छोटी क्रिया का परिणाम बहुत बड़ा है। दीपक का आर्थिक मूल्य और स्वरूप कितना ही स्वल्प क्यों न हो परन्तु रात्रि को सघन अंधकार में पथप्रदर्शन करता है। परम पूज्य गुरुदेव द्वारा स्थापित अखण्ड ज्योति पूरे विश्व का पथ−प्रदर्शन करती है। इस तरह यह छोटा सा बलिवैश्व यज्ञ जीवन की अशांति, अभाव और अशक्ति को निर्मूल करके व्यक्ति को आबाद कर देता है।