अपने लिए नहीं सबके लिए
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तीर्थयात्रा में सब लोग अपने- अपने भोजन के डिब्बे लेकर आते हैं। कई लोग स्वयं खाने का आनन्द लेते हैं। दो प्रकार के यात्री होते हैं। एक ऐसा उदारमना यात्री होता है जो सबको आग्रह करके प्रेम से अपना भोजन देता है और अपने लिए बचेगा कि नहीं उसकी चिंता कतई नहीं करता। स्वयं भोजन न करके औरों को भोजन कराने का आनन्द लेता है, जो कि श्रेष्ठ आनन्द है। इसलिए वह यात्री खुशी- खुशी सबको भोजन सामग्री देकर सबके हृदय में स्थान प्राप्त कर लेता है।
दूसरा एक ऐसा यात्री है जो एक कोने में बैठकर अपना डिब्बा खोलकर अकेला चुपचाप भोजन कर लेता है। यह जन्मजात संस्कार है। यही वह इक्कड़ पैसे वाला है जो अधिक घृणास्पद और धिक्कार का पात्र होता है। उदारता सर्वत्र प्रेम और पूजा का पात्र होती है।
ऊपर यह जो पाँच आहुति देते हैं वह पंच महायज्ञ है। गृहस्थ के घर में चूल्हा, चक्की, सुराही, ओखली और जल कक्ष इन पाँच में हिंसा होती है। यह हिंसा निवारण एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन हेतु पाँच दैनिक यज्ञ करते हैं। विधि छोटी है परन्तु पंच महायज्ञ नाम दिया है। क्यों? कौन से पाँच यज्ञ हैं? (1) ब्रह्मयज्ञ (2) देवयज्ञ (3) ऋषियज्ञ (4) नरयज्ञ (5) भूतयज्ञ।
ब्रह्मयज्ञ- बलिवैश्व यज्ञ करने से ब्रह्म अर्थात् परमात्मा प्रसन्न होते हैं और संस्कारित अन्न खाने वाले को ब्रह्मज्ञान प्रदान करते हैं जिससे आत्मा और परमात्मा का मिलन होता है। इसी को ब्रह्मयज्ञ कहते हैं।
देवयज्ञ- नित्य यज्ञ करने से देवता प्रसन्न होते हैं और मनुष्य देवत्व को उपलब्ध हो ऐसी बुद्धि, शक्ति और ज्ञान मिलता है। देवपूजन, हवन, उपासना, साधना को देवयज्ञ कहते हैं।
ऋषियज्ञ- ऋषियों को आहुति प्रदान करने से ऋषि जीवन जैसे गुण यानि ब्रह्मचर्य पालन, वेद का पठन- पाठन, साधारण जनता के लिए साधना के नियमों की शोध, सत्प्रवृत्ति और ज्ञान संवर्धन हेतु ग्रंथों का निर्माण करने की शक्ति होता को प्रदान करते है।
नरयज्ञ- पशु वृत्तियों, कुविचारों, दोष- दुर्गुणों, कुप्रथाओं को यज्ञ की आहुति के साथ हवन कर दें और सबके साथ प्रेम, मैत्रीभाव, करुणा और सेवा भाव का विकास करना यही नरयज्ञ है।
भूतयज्ञ- पशु, पक्षी, वृक्ष, वनस्पति, कीट- पतंग सबका पालन- पोषण और हमारी आत्मीयता और करुणा का सबके प्रति विस्तार करना यही भूतयज्ञ है। एक भैंस को मालिक ने चाबुक मारा उसके निशान परमहंस देव की पीठ पर उठ गये, वही है आत्मीयता का विस्तार। इसको कहते हैं भूतयज्ञ। अन्य प्राणी के दुःखों की अनुभूति स्वयं करना ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ अर्थात् भूतयज्ञ।
महिलाएँ बड़ी सरलता से बलिवैश्व की प्रक्रिया चलाती रह सकती हैं। इसमें अपनी महान सांस्कृतिक परंपरा का निर्वाह होता है। जिस घर में प्रतिदिन बलिवैश्व होता है उस घर के बालक निश्चित रूप से सुसंस्कारी बनते हैं। भारतीय संस्कृति में तो गौ और कुत्ते की रोटी सबसे पहले अलग निकालते हैं। बलिवैश्व के क्रिया कृत्य का स्वरूप कितना ही छोटा क्यों न हो उसके पीछे यही महान- प्रेरणाएँ भरी पड़ी हैं, जिन्हें अपनाने के कारण अपने देश के नागरिक देवमानव कहलाने का श्रेय- सौभाग्य प्राप्त करते रहे हैं।
बलिवैश्व यज्ञ से सुख, शान्ति और समृद्धि के द्वार खुल जाते हैं। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं यज्ञ करने वाला कभी भी दरिद्र नहीं रहता है। घर में महिला सबको भोजन कराती है। सब्जी नहीं बचती तो छाछ के साथ खा लेती है, यही है संवेदना की गंगोत्री। कभी भी भोजन- भेद नहीं करना। अपने पति को अच्छा और देवर को बिना घी वाला, यह भोजन भेद है। इससे अन्न देवता नाराज होते हैं। घर में लक्ष्मी नहीं रहती हैं।
परिवार के सदस्य जब भोजन करने बैठते हैं और थाली सामने आवे तो दाहिने हाथ में थोड़ा- सा जल लेकर उसके चारों तरफ फेर दो और एक मिनट तक आँखें बंद करते हुए मन ही मन प्रार्थना करो कि- ‘‘हे प्रभो यह भोजन आपको समर्पित है इसे पवित्र और अमृतमय बना दीजिए’’
एक मीठी प्यारी कहानी है कि भोजन का प्रभाव सामान्य मनुष्य पर भी क्या पड़ता है? श्री गुरु गोविंद सिंह महाराज के पास खूब अशर्फियाँ थीं, खजाना भरा पूरा था। फिर भी वह यवनों से युद्ध के समय अपने लड़ाकू शिष्यों को मुट्ठी भर चना देते थे। एक दिन एक योद्धा ने गुरु गोविंद सिंह जी की माताजी से जाकर कहा कि माताजी- हमें यवनों से लड़ना पड़ता है और गुरु गोविंद सिंह जी महाराज के पास अशर्फियों के खजाने भरे पड़ें हैं फिर भी वह हमें एक मुट्ठी चना देकर यवनों से लड़वाते हैं।
माताजी ने अपने बेटे गुरु गोविंद सिंह जी को अपने पास बैठा कर कहा कि- पुत्र यह तेरे शिष्य, तेरे पुत्र से अधिक हैं फिर भी तू इन्हें एक मुट्ठी चने देकर लड़वाता है, ऐसा क्यों करता है?
श्री गुरुगोविन्द सिंह जी ने माताजी को उत्तर दिया- माता क्या तू (मुझे) अपने पुत्र को कभी विष दे सकती है? माताजी ने कहा- कतई नहीं।
गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा- माता मेरे यहाँ अशर्फियों के खजाने भरे पड़े हैं पर पवित्र नहीं हैं। उनके खाने से वह शक्ति नहीं आयेगी, जो मुट्ठी भर चने खाने से इनमें है। जब शक्ति न रहेगी तो फिर वे लड़ नहीं सकेंगे।
ईमानदारी से प्राप्त किया हुआ अन्न ही मनुष्य में सद्बुद्धि उत्पन्न कर सकता है। जो लोग अनीति युक्त अन्न ग्रहण करते हैं उनकी बुद्धि असुरता की ओर ही प्रवृत्त होती है। परिश्रम और ईमानदारी से कमाए हुये अन्न से भगवद् भजन, साधना, कर्त्तव्यपालन और लोकसेवा आदि सात्विक कार्य हो सकते हैं।
दूसरा एक ऐसा यात्री है जो एक कोने में बैठकर अपना डिब्बा खोलकर अकेला चुपचाप भोजन कर लेता है। यह जन्मजात संस्कार है। यही वह इक्कड़ पैसे वाला है जो अधिक घृणास्पद और धिक्कार का पात्र होता है। उदारता सर्वत्र प्रेम और पूजा का पात्र होती है।
ऊपर यह जो पाँच आहुति देते हैं वह पंच महायज्ञ है। गृहस्थ के घर में चूल्हा, चक्की, सुराही, ओखली और जल कक्ष इन पाँच में हिंसा होती है। यह हिंसा निवारण एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन हेतु पाँच दैनिक यज्ञ करते हैं। विधि छोटी है परन्तु पंच महायज्ञ नाम दिया है। क्यों? कौन से पाँच यज्ञ हैं? (1) ब्रह्मयज्ञ (2) देवयज्ञ (3) ऋषियज्ञ (4) नरयज्ञ (5) भूतयज्ञ।
ब्रह्मयज्ञ- बलिवैश्व यज्ञ करने से ब्रह्म अर्थात् परमात्मा प्रसन्न होते हैं और संस्कारित अन्न खाने वाले को ब्रह्मज्ञान प्रदान करते हैं जिससे आत्मा और परमात्मा का मिलन होता है। इसी को ब्रह्मयज्ञ कहते हैं।
देवयज्ञ- नित्य यज्ञ करने से देवता प्रसन्न होते हैं और मनुष्य देवत्व को उपलब्ध हो ऐसी बुद्धि, शक्ति और ज्ञान मिलता है। देवपूजन, हवन, उपासना, साधना को देवयज्ञ कहते हैं।
ऋषियज्ञ- ऋषियों को आहुति प्रदान करने से ऋषि जीवन जैसे गुण यानि ब्रह्मचर्य पालन, वेद का पठन- पाठन, साधारण जनता के लिए साधना के नियमों की शोध, सत्प्रवृत्ति और ज्ञान संवर्धन हेतु ग्रंथों का निर्माण करने की शक्ति होता को प्रदान करते है।
नरयज्ञ- पशु वृत्तियों, कुविचारों, दोष- दुर्गुणों, कुप्रथाओं को यज्ञ की आहुति के साथ हवन कर दें और सबके साथ प्रेम, मैत्रीभाव, करुणा और सेवा भाव का विकास करना यही नरयज्ञ है।
भूतयज्ञ- पशु, पक्षी, वृक्ष, वनस्पति, कीट- पतंग सबका पालन- पोषण और हमारी आत्मीयता और करुणा का सबके प्रति विस्तार करना यही भूतयज्ञ है। एक भैंस को मालिक ने चाबुक मारा उसके निशान परमहंस देव की पीठ पर उठ गये, वही है आत्मीयता का विस्तार। इसको कहते हैं भूतयज्ञ। अन्य प्राणी के दुःखों की अनुभूति स्वयं करना ‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ अर्थात् भूतयज्ञ।
महिलाएँ बड़ी सरलता से बलिवैश्व की प्रक्रिया चलाती रह सकती हैं। इसमें अपनी महान सांस्कृतिक परंपरा का निर्वाह होता है। जिस घर में प्रतिदिन बलिवैश्व होता है उस घर के बालक निश्चित रूप से सुसंस्कारी बनते हैं। भारतीय संस्कृति में तो गौ और कुत्ते की रोटी सबसे पहले अलग निकालते हैं। बलिवैश्व के क्रिया कृत्य का स्वरूप कितना ही छोटा क्यों न हो उसके पीछे यही महान- प्रेरणाएँ भरी पड़ी हैं, जिन्हें अपनाने के कारण अपने देश के नागरिक देवमानव कहलाने का श्रेय- सौभाग्य प्राप्त करते रहे हैं।
बलिवैश्व यज्ञ से सुख, शान्ति और समृद्धि के द्वार खुल जाते हैं। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं यज्ञ करने वाला कभी भी दरिद्र नहीं रहता है। घर में महिला सबको भोजन कराती है। सब्जी नहीं बचती तो छाछ के साथ खा लेती है, यही है संवेदना की गंगोत्री। कभी भी भोजन- भेद नहीं करना। अपने पति को अच्छा और देवर को बिना घी वाला, यह भोजन भेद है। इससे अन्न देवता नाराज होते हैं। घर में लक्ष्मी नहीं रहती हैं।
परिवार के सदस्य जब भोजन करने बैठते हैं और थाली सामने आवे तो दाहिने हाथ में थोड़ा- सा जल लेकर उसके चारों तरफ फेर दो और एक मिनट तक आँखें बंद करते हुए मन ही मन प्रार्थना करो कि- ‘‘हे प्रभो यह भोजन आपको समर्पित है इसे पवित्र और अमृतमय बना दीजिए’’
एक मीठी प्यारी कहानी है कि भोजन का प्रभाव सामान्य मनुष्य पर भी क्या पड़ता है? श्री गुरु गोविंद सिंह महाराज के पास खूब अशर्फियाँ थीं, खजाना भरा पूरा था। फिर भी वह यवनों से युद्ध के समय अपने लड़ाकू शिष्यों को मुट्ठी भर चना देते थे। एक दिन एक योद्धा ने गुरु गोविंद सिंह जी की माताजी से जाकर कहा कि माताजी- हमें यवनों से लड़ना पड़ता है और गुरु गोविंद सिंह जी महाराज के पास अशर्फियों के खजाने भरे पड़ें हैं फिर भी वह हमें एक मुट्ठी चना देकर यवनों से लड़वाते हैं।
माताजी ने अपने बेटे गुरु गोविंद सिंह जी को अपने पास बैठा कर कहा कि- पुत्र यह तेरे शिष्य, तेरे पुत्र से अधिक हैं फिर भी तू इन्हें एक मुट्ठी चने देकर लड़वाता है, ऐसा क्यों करता है?
श्री गुरुगोविन्द सिंह जी ने माताजी को उत्तर दिया- माता क्या तू (मुझे) अपने पुत्र को कभी विष दे सकती है? माताजी ने कहा- कतई नहीं।
गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा- माता मेरे यहाँ अशर्फियों के खजाने भरे पड़े हैं पर पवित्र नहीं हैं। उनके खाने से वह शक्ति नहीं आयेगी, जो मुट्ठी भर चने खाने से इनमें है। जब शक्ति न रहेगी तो फिर वे लड़ नहीं सकेंगे।
ईमानदारी से प्राप्त किया हुआ अन्न ही मनुष्य में सद्बुद्धि उत्पन्न कर सकता है। जो लोग अनीति युक्त अन्न ग्रहण करते हैं उनकी बुद्धि असुरता की ओर ही प्रवृत्त होती है। परिश्रम और ईमानदारी से कमाए हुये अन्न से भगवद् भजन, साधना, कर्त्तव्यपालन और लोकसेवा आदि सात्विक कार्य हो सकते हैं।