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Books - भगवान के अनुदान किन शर्तों पर

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भगवान के अनुदान किन शर्तों पर

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गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

देवियों, भाइयों। अनुग्रह और मनुहार, इन दोनों का आपस में संबंध तो है और ये क्रम चलता भी है। इसको हम शाश्वत सिद्धांत महसूस कर सकते हैं। मनुहार, खुशामदें, मिन्नतें, प्रार्थनाएँ, आप इन्हें कीजिए, इनकी भी आवश्यकता है। यह क्रम भी इस दुनिया में चलता तो है। मैं यह तो नहीं कहता कि यह क्रम चलता नहीं है, पर क्या अनुग्रह मिलते भी हैं? हाँ, अनुग्रह भी मिलते रहते हैं। अनेक आदमी जीवित है, अपंग भी इसी पर जीवित हैं, अंधे भी इसी पर जीवित हैं, दुर्बल भी इसी पर जीवित हैं और सिद्धांत भी अनुग्रह के ऊपर जिंदा हैं। अनुग्रह दुनिया में में खत्म हो चला? नहीं बेटे ! खत्म होने की बात नहीं कहता, पर मैं यह कहता हूँ कि सिद्धांत और इसके आधार पर कोई बड़ी लंबी योजना नहीं बन सकती और कोई महत्त्वपूर्ण कार्य इसके आधार पर सिद्ध नहीं हो सकता।
मित्रो! अगर आप कहें कि अनुग्रह के आधार पर कृपा कीजिए, हमारी सहायता कीजिए, हमको ये दीजिए। लेकिन क्या ये चलेगा? चल तो सकता है, पर वहाँ तक शोभा नहीं देता, जहाँ तक आदमी स्वयं में समर्थ हो। जैसे बच्चा, बच्चा क्या करता है? बच्चा स्वयं में असमर्थ होता है, कुछ कमा नहीं सकता। इसलिए कुछ कमा सकने की स्थिति में न होने की वजह रो, असमर्थ होने की वजह से, माँ- बाप उसकी सहायता करते हैं। बच्चे को रोटी देनी चाहिए, कपड़े देने चाहिए, सहायता देनी चाहिए। बच्चे की मनःस्थिति माँगने की होती है, क्योंकि वह विकसित नहीं है


बालक जैसी मनःस्थिति

अविकसित जितने भी प्राणी हैं, खासतौर से मनुष्य, उनकी पहचान एक है। क्या पहचान है? ये पहचान है कि वे माँगते रहते हैं। माँगता हो तो आप क्या कहेंगे उसको? चाहे बड़ी उम्र का भी हो जाए तो भी क्या कहेंगे? तो मैं उसको बच्चा कहूँगा। बच्चा बड़ी उम्र का? हाँ बड़ी उम्र के भी बच्चे होते हैं। मनःस्थिति की दृष्टि से वे सब आदमी बच्चे हैं जो अपने पुरुषार्थ के ऊपर निर्भर नहीं हैं, दूसरों से माँगकर अपना काम चलाने के इच्छुक हैं। इसी से वे अपना गुजारा करते हैं। ये भौतिक दृष्टि से, भावनात्मक दृष्टि से बालक हैं। बालकों को मिलता है? हाँ बालकों को भी मिलता है। बालकों को क्या- क्या मिलता है बताइए जरा? बालकों को रबड़ की गुड़िया मिलती है और क्या मिलता है? गुब्बारा मिलता है और क्या मिलता है? लेमनचूस मिलता है और क्या मिलता है? टॉफी मिलती है और क्या मिलता है, झुनझुना मिलता है। नहीं साहब! बड़ी चीज बताइए।

बेटे! बड़ी चीजें नहीं मिलतीं। माँ- बाप बच्चों को प्यार करते हैं बहुत प्यार करते है, लेकिन कीमती चीजें? कीमती चीजें आपको नहीं मिल सकतीं, क्योंकि आप बच्चे हैं। मित्रो! बच्चों को कभी कीमती चीजें नहीं मिलती हैं। उनका मनोविनोद करने के लिए खेल- खिलौने, उनका मन रखने के लिए, तबियत बहलाने के लिए उनको जो कुछ चीजें दी जा सकती हैं, वे टिकाऊ नहीं होतीं तो क्या बड़ों को भी मिलती हैं? हाँ बड़ों को भी मिलती हैं। बड़ों को कब मिलती हैं? बड़ों को तब मिलती हैं, जब वे मुसीबत में फँसे हुए होते हैं। जैसे मान लीजिए कि वे दुर्घटनाग्रस्त हो गए हों, अकाल से पीडित हो गए हो, कोई दूसरी मुसीबतें आ गई हों, रेलवे में एक्सीडेंट हो गया हो। साहब ! मुसीबत में हमारी सहायता कीजिए। हम जरूर सहायता करेंगे आपकी, लेकिन कब तक? सवाल यह है कि कब तक सहायता करेंगे, हमेशा, जिंदगी भर? नहीं बेटे, जिंदगी भर नहीं कर सकते।

अच्छा तो कब तक करेंगे? सिर्फ उस समय तक करेंगे, जब तक अपने पैरों पर आप खड़े नहीं हो जाते, बस। बाद में? बाद में नहीं करेंगे। अगर आप कहेंगे कि हम मुसीबत में फँसे हुए हैं और सारी जिंदगीभर के लिए आप हमारा ठेका ले लीजिए, तो ये मुश्किल है। साहब ! हम पाकिस्तान से आए हैं, तो आप हमारा गुजारा कीजिए? हम तो शरणार्थी हैं। ठीक है आप शरणार्थी हैं, तो हम थोड़े दिन आपकी सहायता करेंगे। इनसान को इनसान की सहायता करनी चाहिए, पर आप इसे सिद्धांत बनाकर नहीं चल सकते। सिद्धांत मत बनाइए। सिद्धांत बना देंगे तो मुश्किल हो जाएगा।

मित्रो! बच्चा जब बड़ा हो जाता है तब माँ- बाप की त्योरियाँ बदलती देखी हैं कि नहीं आपने? वे कहते हैं कि तुझे शरम नहीं आती है, पच्चीस साल का हो गया है, मूछें निकल आई हैं कमाई के लायक हो गया है। पच्चीस साल में बी० ए० पास करा दिया है, एम० ए० पास करा दिया। अब कमाकर ला। नहीं पिताजी पैंट बनवा दीजिए, नहीं पिताजी सिनेमा देखने के लिए पैसे दे दीजिए, नहीं पिताजी ये दे दीजिए। सबके माता- पिता दे भी देते हैं, पर आपने देखा नहीं ! देते समय उनका चेहरा कैसे बदल जाता है, तेवर कैसे बदल जाते हैं। क्यों बदल जाते हैं? इसलिए कि ये अपने आप में कमाने लायक हो गया है। इसको अब हमारी मदद करनी चाहिए थी, जबकि ये उलटा हम से ही माँगता है। ये स्थिति किसकी कह रहा हूँ मैं? बच्चों की कह रहा हूँ। उन व्यक्तियों की कह रहा हूँ जो अनुग्रह के ऊपर और मनुहार के ऊपर जिंदा रहना चाहते हैं।

मनुहार पर नहीं पात्रता के विकास पर टिके

मित्रो! मनुहार किसे कहते हैं? खुशामद को कहते हैं। खुशामद भी एक सिद्धांत है। बिना माँगे किसी को क्या पता चलेगा कि आपको क्या जरूरत है? क्या आप जरूरत की बात नहीं कहेंगे? आप जरूरत की बात कहिए। जरूरत की बात कहेंगे तो चीजें मिल जाएँगी? हाँ चीजें तो मिल जाएँगी, लेकिन नुकसान हो जाएगा। क्या नुकसान हो जाएगा? जैसे ही चीज मिलेगी उससे ज्यादा कीमती चीज हाथ से चली जाएगी। क्या चला जाएगा? आपका स्वाभिमान चला जाएगा। आप किसी से बिना कीमत चुकाए, एहसान में कोई चीज ले लेते हैं, तो आपका सिर नीचे झुक जाएगा। आप नीचे हो जाएँगे और आप दूसरे दरजे के व्यक्ति हो जाएँगे और आपको दूसरे के आगे आँखें नीची करनी पड़ेगी। अगर आप कृतज्ञ हैं तो तुरत अपनी कृतज्ञता का इजहार कीजिए। 'थैंक्यू वैरी मच' कहिए। आपने हमको पानी पिला दिया, आपने हमको बतला दिया, एहसान है।

आदमी दूसरों की सहायता पाकर के लाभ तो उठा रुकता है, लेकिन दबता है। दबना? हाँ दबना। जहाँ तक मनुष्य के आध्यात्मिक स्तर का सवाल है, दबना आदमी के लिए खराब है। आदमी को दूसरों के एहसान से नहीं दबना चाहिए। दूसरों की दूसरी चीजों से दबना चाहिए जैसे प्यार से दब सकते हैं तो दबिए आप। दूसरों से प्यार करते हैं। माँ का आपसे प्यार है। माँ हम आपके बहुत एहसानमंद हैं। लेकिन आप पैसे के संबंध में और रोटी के संबंध में मत दबिए। रोटी भगवान ने आपको नहीं दी है? आप इज्जत वाले हैं, स्वाभिमानी हैं। आपसे कोई कहे खाना खा लें, हाँ साहब खाना खाकर आ रहे हैं। नहीं साहब रोटी खा लीजिए। नहीं खाई हो, शायद आपके घर में आजकल रोटी की तंगी हो, तो भी आपको कहना चाहिए कि नहीं साहब। कोई दिक्कत की बात नहीं है। भगवान की कृपा है। रोटी तो देर सबेर मिल ही जाती हैं, फिर आपके यहाँ क्यों खाएँगे? अच्छा जब न हो तो आप हमारे यहाँ खाइए। आपकी बड़ी कृपा हैं आपने पूछ लिया यही क्या कम हैं? आप खा लीजिए। आपको रोटी नहीं खानी चाहिए। ठीक है कोई आपका ऐसा निजी दोस्त है, जिगरी दोस्त है, जो आपके यहाँ खा जाता है ओर आप उसके यहाँ खा लेते हैं। उसकी वात नहीं कहता हूँ मैं, पर ऐसे सामान्य नियम की बात कहता हूँ कि आपको दूसरों की सहायता पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।

किसकी बात कह रहे हैं? लौकिक जीवन की। बेटे, सिद्धांत तो वही है। आज आप लौकिक जीवन में इसे व्यवस्थित कर लीजिए अथवा पारलौकिक जीवन में व्यवस्थित कर लीजिए। नहीं साहब ! आध्यात्मिकता में तो माँगना ही माँगना है। बेटे, माँगना नहीं है आध्यात्मिकता में, किसने कहा था आपसे? नहीं साहब, अध्यात्म में सारी प्रार्थना ही प्रार्थना भरी है। प्रार्थना का मतलब यह नहीं है, जो आपने समझा है कि आप माँगेंगे और मिलेगा। 'माँगेंगे और मिलेगा' का सिद्धांत, ये शायद आध्यात्मिकता की व्याख्या करने में बहुत गलती हो गई। यही कारण है कि आदमी आज स्वाभिमानी और स्वावलंबी कम होते जा रहे हैं। आध्यात्मिकता ने कितना फायदा किया है वर्तमान में, यह मैं नहीं जाता, पर रूहानी दृष्टि से आज की आध्यात्मिकता ने आदमी का नुकसान किया है। क्या नुकसान किया है? आदमी को परावलम्बी बना दिया है। परावलम्बन माने दूसरों की तरफ मुँह ताकने वाला, दूसरों से अपेक्षाएँ करने वाला, दूसरों से आशाएँ रखने वाला। किसके लिए? अपनी जिंदगी की नाव ढोने के लिए। इससे आपको दूसरों के ऊपर निर्भर रहना पड़ता है। इससे आपको क्या मिल गया? क्या मिला मैं नहीं जानता, लेकिन सबसे कीमती चीज जो आपकी 'शरम' थी वह आपने गँवा दी।

इस संबंध में मुझे एक घटना याद आ गई। क्या घटना याद आ गई? एक बार संत इमरसन के  पास एक आदमी आया। वह हट्टा- कट्टा था, जवान था। माँगने लगा, तो उनसे कुछ कहते तो नहीं बना, पर उन्होंने क्या किया कि एक कपड़ा उठाकर अपना मुँह ढक लिया। दूसरों ने कहा साहब आपको देना है तो दे दीजिए, नहीं देना तो इसे मना कर दीजिए। कपड़े से मुँह ढक लिया, ये क्या करते हैं आप? उन्होंने कहा, "मुझे देने में ऐतराज नहीं है, पर इस आदमी को देखने का मेरा मन नहीं।" क्यों? क्योंकि इस आदमी ने इनसान की इज्जत को गँवा दिया। हट्टा- कट्टा होते हुए भी, जवान आदमी होते हुए भी, अपने हाथ- पैर से, अपने पुरुषार्थ से अपना गुजारा करने में समर्थ होते हुए भी यह यहाँ हाथ पसारने आया है। इनसानियत को कलंकित कर दिया इसने। इसीलिए मुँह ढक लिया मैंने। मित्रो ! न जाने किसलिए, न जाने क्यों, न जाने कैसे हो गया कि आध्यात्मिकता का स्वरूप आज ऐसा बना दिया गया कि इनसे माँगना चाहिए।

किससे माँगना चाहिए? देवता से माँगना चाहिए। देवता को तो देना चाहिए- '' दानात् वा सा देवता।' देवताओं को सहायता करनी चाहिए। नहीं साहब, देवता से तो माँगना चाहिए। अच्छा बेटे और किसी माँगना चाहिए? संत पुरुषों से माँगना चाहिए, दिव्य पुरुषों से माँगना चाहिए, अमुक से माँगना चाहिए। नहीं बेटे। संत पुरुषों की सेवा करनी चाहिए, सिद्ध- पुरुषों की सहायता करनी चाहिए। आपको मालूम है कि मंदिर में जाने का एक नियम है। मंदिर में आप जाएँ, तो फल फूल लेकर के जाएँ। नहीं गुरुजी ! हम तो ऐसे ही दर्शन करेंगे। नहीं बेटे ! ऐसे दर्शन नहीं करना, देवता नाराज हो जाएँगे। यह प्राचीनकाल की परंपरा है, आज की तो मैं नहीं कह सकता। कहीं भी आप किसी देवमन्दिर में जाएँ तो पत्र -पुष्प लेकर जाना, फल लेकर के जाना, कुछ न कुछ लेकर के जाना और चढ़ाना, तब नमस्कार करना। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि आप कुछ देकर के आइए। आप लेकर के आएँगे? लेकर नहीं बेटे, देकर के आना। यह परंपरा आध्यात्मिकता की परंपरा है।

हमें देना आना चाहिए

जिस देवपरिवार में हम शामिल होते हैं, उस देवपरिवार में शामिल होने का मतलब है कि हमारे भीतर देवत्व का विकास होना चाहिए। देवत्व का विकास किस तरीके मे होता हैं? देवत्व का विकास इस मायने में होता है कि आदमी दिल से उदार हो जाता है। उदार होकर आदमी यह सीखता है कि हमको देना आना चाहिए। किसको देना चाहिए? सबको देना चाहिए, अपने शरीर को देना चाहिए, ताकि यह धन्य हो जाए और अपने दिमाग को देना चाहिए ताकि यह शांत हो जाए। हमारा मस्तिष्क बहुत अशांत रहता है, बहुत परेशान रहता है। दिमाग को कुछ ऐसी चीज देनी चाहिए, जिससे यह शांत रह सके, खुश रह सके। और क्या करना चाहिए है आपको अपने शरीर को देना चाहिए। शरीर को क्या देना चाहिए? शरीर बेचारा मुसीबत में फँसा हुआ है रोज- रोज बीमार पड़ जाता है, रोज- रोज कमजोर को जाता है, इसे कुछ देना चाहिए। इस शरीर के आप देवता हैं न? हाँ देवता हैं तो आप दीजिए कुछ इसको। नहीं साहब, हम क्या कर सकते हैं? आप सब कुछ कर सकते हैं। आप मुसीबत में फँसी हुई अपनी देह को निश्चित रूप से बीमारियों से छुट्टी दिला सकते हैं। निजात दिला सकते हैं।

बीमारियों से आप कैसे सहायता कर सकते हैं? चन्दगीराम पहलवान को टी० बी० की शिकायत थी। बाईस साल की उम्र में उनकी टी० बी० इस कदर हो गई थी कि फेफड़े में से खून आने लगा था और मरने के दिन नजदीक थे। किसी ने उनको यह सलाह दी कि हकीमों का इलाज कराने के साथ आप अपना इलाज स्वयं करिए। पहला इलाज क्या है? अपनी जीभ के ऊपर और अपनी इंद्रियों के ऊपर, आदतों के ऊपर कंट्रोल कीजिए। उन्होंने अपनी आदतों पर कंट्रोल करना शुरू कर दिया। वर्जिश की और बीमारी से छुटकारा पा लिया।

साथियों। जीभ जो आसमान से पाताल तक जाती है और आपकी पिटाई कराती है। आपकी पिटाई किसने कराई है बताना जरा? आपकी पिटाई जीभ ने कराई है। यह तो उलटा- सीधा कहकर लपालप मुँह में घुस जाती है और जूते आपके सिर पर पड़ते हैं। जहाँ जाते हैं यहीं जूते पड़ जाते हैं। किस- किस के पड़े? आपकी बीबी के पड़े, बीबी के पड़े? बीबी ने जूते- चप्पल तो नहीं मारे, पर आपके साथ ऐसा व्यवहार किया जो जूते से भी ज्यादा था। जीभ पर काबू नहीं है आपका। अल्लम−गल्लम बकते रहते हैं। मोहब्बत करना आता नहीं, शऊर है नहीं, तमीज है नहीं कि इनसान के साथ किन शब्दों में बात करें। इनसान की इज्जत की रखवाली करने के बाद में आदमी से सहानुभूति किस आधार पर माँगनी चाहिए, आपको मालूम ही नहीं है। हावी होते जाते हैं। जूते पड़ेंगे आपके, अभी और पड़ेंगे।

मित्रो। जीभ ने क्या कर दिया? जीभ ने आपकी सेहत खराब कर दी। सेहत को खराब करने को जिम्मेदारी एक आदमी की है। जिसने आपकी अच्छी- खासी तंदुरुस्ती को तबाह कर डाला है। ये कौन है? इसका नाम है जीभ। हकीम लुकमान सही कहते थे कि आदमी अपने मरने के लिए और दफन होने के लिए जो कब्र खेलता है, वह अपनी जीभ की नोक से खोदता है। यह सच है? हाँ यह बिलकुल सच है कि आदमी अपनी जीभ की नोक से अपनी कब्र खोदता है। आपने जो खाया है, जरा उसकी लिस्ट लाइए। क्या खाया है? आपने जहर खाया है और वो चीजें खाई हैं जो आपको नहीं खानी चाहिए थीं। आपने जिस तरीके से खाई हैं, उस तरीके से नहीं खानी चाहिए थीं। आपने चीजों को नहीं खाया है, वरन चीजों ने आपको खा लिया। अब आप क्या शिकायत करते हैं? आपने बदतमीजी से और बेहूदगी से चीजों को खाया है। अब बेहूदे तरीके से खाने की वजह से ये बेहूदी चीजें आपका सफाया करती हैं। यह कौन करती है? जीभ करती है।

मित्रों। अब आप क्या कर सकते है? आप सेहत की एक तरीके से सहायता कर सकते हैं। देवपरिवार में आकर, आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने के बाद में आपके लिए हम एक नीति तय कर देंगे। किसके लिए? जो भी हमारे नजदीक है उसके लिए। किसको देंगे? आप शरीर को दीजिए। आपका नजदीक घर, आपका सेवक, आपका स्वामिभक्त कुत्ता है- आपका शरीर, जो चौबीस घंटे आपके साथ रहता है। आपको उस पर दया नहीं आती, आपको करुणा नहीं आती। आप इसको दे सकते हैं। अगर दे सके तो चंदगीराम पहलवान की तरह से आप टी० बी० की बीमारी तक से निजात पा सकते है। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आप सेहत पा सकते हैं, बशर्ते आप पहले जीभ पर काबू पाइए, जीभ पर अंकुश रखिए, डंडे लगाइए ऐसी जीभ पर जिसने आपको खा लिया। अगर आप जीभ पर काबू पा सकते हैं और इंद्रियों पर काबू पा सकते हैं तो चंदगीराम पहलवान के तरीके से आप अपनी सेहत फिर पा सकते है। निश्चित रूप से? हाँ निश्चित रूप से।

सेहत देवता व हकीम नहीं दे सकते

मित्रों। सेहत कौन दे सकता है, देवता? देवता नहीं दे सकता। हकीम जी? हकीम जी भी नहीं दे सकते। क्यों साहब। हकीम जी के पास तो बहुत अच्छी- अच्छी दवाएँ हैं। बेटा बेकार की दवाएँ है। एक दिन हकीम जी से पूछा था कि क्यों साहब! आपके पास तो बहुत खारी दवाएँ हैं। क्या- क्या दवाएँ बेचते हैं? हम तो टॉनिक बेचते हैं। अहहा और क्या बेचते हैं? सब बीमारी की दवा बेचते हैं। अच्छा तो आप अपने खानदान वालों को खिलाकर दिखाइए। बीबी को क्या तकलीफ हो रही है? बीबी की साँस चल रही है। क्यों साहब ! इनको आपने पहलवानी की दवा नहीं दी। पहलवानी की दवा क्या होती है? पहलवानी की प्रोटीनाल, प्रोटिनेक्स, हारलिक्स और विटामिन बी कांपलैक्स, विटामिन बी १२ आदि पच्चीसों दवाइयाँ हैं। इनको खाकर पहलवान हो जाएँगे। आपने इन बच्चों को नहीं खिलाया? अरे साहब सबको खिलाते हैं, किंतु हम जानते हैं कि ये बिलकुल बेकार की चीजें हैं।

आप तो कह रहे थे कि इसमें इतनी ताकत है, इसमें इतनी प्रोटीन है, इसमें इतने विटामिन हैं। इसमें इतनी अधिक चीजें हैं, तो फिर आप बच्चों की क्यों नहीं खिला देते, आप तो गरीब है नहीं? गरीब तो नहीं हैं गुरुजी। इसमें कुछ है ही नहीं। ये तो प्रोटीन युक्त प्रोटीन्यूल है। दूध में मिलाकर खाते हैं और प्रोटीन मिल जाता है। ये भुना हुआ सोयाबीन का आटा है। विटामिन जी कांपलेक्स क्या है? यह कुछ भी नहीं है, गेहूँ का छिलका है। छिलकों को पानी में भिगोकर जो मसाला निकल जाता है, उसी को बना लेते हैं। गेहूँ का छिलका जो गायों को फेंक देते हैं, भैंस को डाल देते है? हाँ साहब वहीं छिलका है। तो क्या ये सब फ्राड है? किनका फ्राड है? दवाफरोशों का फ्राड है, जो लोगों को सब्जबाग दिखा करके ये चीजें बेचते रहते हैं और कहते हैं हम आपकी सेहत अच्छी कर देंगे, आपको तन्दुरुस्त बना देंगे। अगर तन्दुरुस्त बना देते तो एक भी हकीम की घरवाली कमजोर न पाई जाती।

अच्छा, हकीम जी, आप अपनी बीबी को पेश करिए हमारे सामने। अच्छा तो यही हैं आपकी धर्मपत्नी। इनकी सेहत अच्छी होती, पर इनकी तो मिट्टी पलीद हो रही है। दवाई भी खिलाते हैं। क्या दवाई खिलाएँगे, ये तो बहकाने की दवाई हैं? हाँ बेटा! ठीक है आपका कहना। दवा वाले अपना गुजारा कर रहे हैं, कैमिस्ट अपना गुजारा कर रहे हैं, कंपाउंडर अपना गुजारा कर रहे हैं। लेकिन अच्छी सेहत पानी है तो कौन दे सकता है? आप दे सकते हैं, आपके अलावा और कोई नहीं दे सकता। आपके अलावा कोई मरीज नहीं है और न आपके अलावा दुनिया के परदे पर आपके लिए कोई हकीम है। दूसरों के लिए तो हो भी सकते हैं पर आपके लिए आप ही हकीम हैं। कैसे हो सकते हैं? अगर आप ये निश्चय कर लें कि हमको इस शरीर को देना है। क्या देना है? इस शरीर को ख्याति देनी है, यश देना है, अजर अमर बनाना है। लोगों की निगाहों में इज्जतदार बनाना है, जिससे कि आपकी फोटो देखकर लोग आँखें नीची कर लिया करें। यह सब आप दे सकते हैं, कब? अगर आप देने को आदत सीख लें तब।

मित्रों! अगर आप देने की आदत सीख लें तब? तब आप अपने दिमाग को ऐसी चीजें दे सकते हैं कि आपका दिमाग कहे कि हमको लंबी जिंदगी जीने का मौका इन्होंने दिया। किसको? दिमाग को। दिमाग क्या है? दिमाग बेटे वो है जो हमारी भीतरी और बाहरी जिंदगी के ऊपर पूरी तरह से कंट्रोल करता है। दिमाग को आपने गरम कर डाला है। दिमाग बेशक जलता रहता है। कैसे जलता रहता है? जैसे श्मशान जलता रहता है और उस श्मशान में भूत और पिशाच जलते रहते हैं। इस तरह से हमारा बेहतरीन कंप्यूटर जलता रहता है। चिंताओं की वजह से, फिक्र की वजह से, द्वेष की वजह से, ईर्ष्या की वजह से, अमुक की वजह से। क्यों साहब! ये बात सही है, आवश्यक है? नहीं बेटे ! जरूरी नहीं है कि इन वजहों से ही आपका मस्तिष्क जलता रहता है। ये चीजें कतई जरूरी नहीं हैं। क्यों साहब! इन परिस्थितियों में हर कोई जलेगा? नहीं, इन परिस्थितियों में हम आपको ढेरों आदमी बता देते हैं, जो आप से भी गई- बीती परिस्थितियों में थे, लेकिन प्रसन्न थे, हँस सकते थे। कैसे? दिमाग पर कंट्रोल रखते थे। जिस मशीन से जिंदगी की हर चीज का काम निकालना है, उसी को आप असंतुलित कर देते हैं। फिर बताइए कैसे काम चलाएँगे? समस्याओं को कैसे हल करेंगे? जो चीज आपके काम की थी दिमाग, उसको तो आपने गरम कर डाला, जला डाला। आप चाहें तो अपने दिमाग पर रहम कर सकते हैं। दिमाग पर क्यों? आप चाहें तो उसे जलने से बचा सकते हैं, जो चौबीसों घंटे जलता रहता है। रहम अगर हो तो आप अपने घर में जलते हुए जानवरों को निकाल सकते हैं। अगर आपको रहम नहीं हो तो कहेंगे कि मरने दीजिए। रहम हो तो दूसरों के ऊपर भी दया कर सकते हैं। अगर आपके भीतर रहम है तो फिर आपके भीतर वह ताकत है, शक्ति है, जिससे निश्चित रूप से आप अपने दिमाग को राहत दे सकते हैं। यह बेहतरीन कंप्यूटर है और यह करोड़ों रुपए कीमत का कंप्यूटर है।

अपना कंप्यूटर आप ही ठीक को

मित्रो! आपने इसे गरम कर दिया। मशीन को ज्यादा गरम करने से तो हर चीज जल जाती है। पानी की मोटर जल जाती है, गाड़ी की मोटर जल जाती है। ज्यादा गरम कर देंगे, टेम्परेचर बढ़ा देंगे तो वे जल जाएँगी। आपने अपने दिमाग को जला दिया और जली हुई मोटर जिस तरीके से खड़बड़- खड़बड़ करती है और धुआँ देती है, आपका दिमाग भी उसी तरह से हर वक्त धुआँ देता रहता है। आप अगर चाहते तो आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करके देवत्व ग्रहण करते और अपने दिमाग पर रहम कर सकते थे। आप चाहते तो अपने शरीर पर रहम कर सकते थे। इसका फल जरूर मिलता, सैकड़ों में मिलता। फल? हाँ बेटे फल, अध्यात्म नकद धर्म है। आप सही तरीके से इसका इस्तेमाल तो कीजिए। आप सही तरीका ही नहीं जानते हैं, तो मैं क्या करूँगा? आपने एक ही चीज सीख रखी है, मनुहार और अनुग्रह। उसके सामने नाक रगड़ेंगे, इसके सामने मिन्नतें करेंगे, सब गोरखधंधा है। यही आध्यात्मिकता तो बताई गई है न आपको, बताइए नाक रगड़ना, मिन्नतें करना, मनुहार करना और अनुग्रह पाना।

मित्रो! आपका भगवत् भजन क्या है, आपकी संतोषी माँ की पूजा क्या है, आपका हनुमान चालीसा क्या है बताइए जरा? सारी की सारी धुरी का जब हम पोस्टमार्टम करते हैं, विश्लेषण करते हैं तो आज का अध्यात्म, पुरातन नहीं, पूरी तरह से इसी जंजाल में फँसा हुआ मिलता है। इसमें दो ही चीजें दिखाई पड़ती हैं एक मिन्नतें दिखाई पड़ती हैं, मनुहार दिखाई पड़ती है और दूसरा इस मिन्नत मनुहार के बदले में अनुग्रह पाने को इच्छा मालूम पड़ती है। ये कहाँ तक सही है, बेटे मालूम नहीं, पर मैं जानता हूँ किं यह कहीं भी शोभा देने लायक नहीं है। आप इस आधार पर कोई बड़ी चीज नहीं पा सकेंगे। कैसे बड़ी चीज नहीं प्राप्त कर सकेंगे? जैसे एक सेठ जी थे। उनके यहाँ एक पच्चीस- छब्बीस साल का लड़का आया। उसने कहा कुछ काम- धंधा नहीं है हमारे यहाँ और आज रोटी भी नहीं मिली, सेठ जी हमारी कुछ सहायता कीजिए। मुनीम जी, देखना इसकी कुछ सहायता कर देना। मुनीम जी ने एक रुपया दिया और कहा लो भाई बाजार से रोटी खा लेना। साहब एक रुपए में रोटी कैसे मिलेगी? आप तो जानते ही है कि आजकल तीन रुपए में थाली मिलती है। एक रुपए में पेट नहीं भरेगा। अच्छा मुनीम जी इनको कुछ और दे दीजिए। तो फिर क्या दे दें ?? दो रुपए दे दो। अच्छा दो रुपए ले। भगवान करे आपका कल्याण हो। सेठजी बड़े उदार हैं, मुनीम जी बड़े उदार है, यह कहते वह चला गया। क्या ले गया? दो रुपया। कितनी बार कहा, कितना दीन बना, धन्यवाद कहा, तब जाकर के सेठ जी की कृपा से, मुनीम जी की सिफारिश से दो रुपए ले करके गया और अपना पेट भर लिया।

मित्रो! थोड़ी देर में एक और लड़का आया। उसकी भी उम्र वहीं पच्चीस- छब्बीस साल थी, शक्ल- सूरत में भी बिलकुल वैसा ही मिलता- जुलता था। जब वह आया तो मुनीम जी उठकर खड़े हो गए सेठ जी भी उठकर खड़े हो गए। सेठ जी ने कहा, आइए, खैरियत तो हैं? बहुत दिन में आना हुआ। आइए बैठिए साहब ! सेठ जी ने अपना काम बंद कर दिया और नौकर से बोले, तू अख़बार ला, पंखा ला, चाय जल्दी ला, मिठाई ला। दो तीन दिन तक ऐसी खुशामद की, ऐसी इज्जत की कि क्या कहने? जब विदा हुए तब तरह तरह के उपहार दिए, पेंट सूट दिया, किराये के लिए सौ रुपए दिए। टिकट लाकर दिया। घर से गाड़ी में स्टेशन तक पहुँचाने के लिए गए। वह बार- बार कहता रहा कि आप क्यों कष्ट उठाते हैं ?? हमें इनकी क्या जरूरत है, रहने दीजिए। हम तो आपके बच्चे हैं। नहीं साहब ! ये सब तो आपको लेकर जाना पड़ेगा। वही सेठ और वही मुनीम जोर दे रहे थे, दबाव डाल रहे थे कि नहीं साहब लेना ही पड़ेगा।

बेटे ! लड़के दोनों ही थे, एक मिन्नतें कर रहा था खुशामदें कर रहा था, तब दोनों की सिफारिशों से दो रुपए लेकर गया था और पीछे आशीर्वाद देकर गया था, लेकिन दूसरे को जो चीजें मिलीं। साहब ये क्या फर्क है? सेठ जी वही हैं, लड़के वही हैं। दोनों बाहर के थे, पर दोनों में फर्क था। क्या फर्क था? ये लड़का जो पीछे आया था, सेठ जी का जँवाई था। जँवाई क्या होता है? जँवाई उसे कहते हैं जिसके साथ लड़की की शादी कर देते हैं। तो आपने इसको क्यों दिया? इसलिए दिया जिससे ये हमारी बेटी की सहायता करे। इसकी कमाई के ऊपर हमारी बेटी की जिंदगी निर्भर है। इससे प्यार मिलता है, इसकी संपदा का वह फायदा उठाएगी। अच्छा तो आपने बेटी के पक्ष में इसकी सहायता की है। आप बिलकुल सच कहते हैं। यह है तो एक लोकाचार, परंतु सही बात यह है कि सहायता प्राप्त करने की वजह से हमने इसको दिया है।

ये क्या कह रहे थे भिखारी और जँवाई की बात ?? हाँ बेटे, आपसे मैं इसलिए कह रहा हूँ कि आप शुरू से देखिए कि जिनसे आप मिन्नतें करते हैं जिनसे आप कुछ पाना चाहने हैं, उनके दरवाजे पर आप भिखारी होकर जाते हैं कि जँवाई होकर। जामाता के लिए जँवाई शब्द बड़ा खराब है पर आप मुझे कहने दीजिए। जब कोई और अच्छा शब्द मिल जाएगा तो मैं उसको इस्तेमाल करूँगा, अभी तो मेरे पास और कोई शब्द नहीं है। हाँ तो आप क्या चाहते हैं? बेशकीमती चीजें पाने के लिए, अच्छी चीजें पाने के लिए, इज्जत पाने के लिए आपको क्या करना चाहिए? आपको जँवाई बनना चाहिए। किनका जँवाई बनना चाहिए? भगवान जी का और किसका? साईं बाबा का और किसका आचार्य जी का हर एक का जँवाई बनना चाहिए। चल बदमाश कहीं का दरिद्र और भिखमंगे पहले अपनी हैसियत को ऊँची उठा। अपनी हैसियत को ऊँचा उठाए बिना, ऊँची चीजें- कीमती चीजें न कभी मिली हैं और न मिलने वाली हैं।

आज की बात समाप्त।
।। ॐ शांतिः।।

पात्रता विकसित करें उपलब्धियों पाएँ

बादल बरसते सभी जगह समान रूप से है, पर उनका पानी उतनी ही मात्रा में वहाँ जमा होता है, जहाँ जितनी गहराई या पात्रता होती है। वर्षा के अनुग्रह से व्यापक भू- क्षेत्र में हरियाली उगती और लहराती है; पर रेगिस्तान और चट्टानों में एक तिनका तक जमता दृष्टिगोचर नहीं होता है, उसमें बादल का पक्षपात नहीं, भूमि की अनुर्वरता ही प्रमुख रूप से उत्तरदायी है।

धुलाई के बिना रंगाई निखरती कहाँ है? गलाई के बिना ढलाई किसने कर दिखाई? मल- मूत्र से सने बच्चे को भी माता तब ही गोदी में उठाती है, जब उसे नहला- धुलाकर साफ- सुथरा बना देती है। मैला- गंदला पानी पीने के काम कहाँ आता है? मैले दर्पण में छवि कहाँ दीख पड़ती है? जलते अँगारे पर यदि राख की परत जम जाए, तो न उसकी गरमी का आभास होता है और न चमक का। बादलों से ढक जाने पर सूर्य- चंद्र तक अपना प्रकाश धरती तक नहीं पहुँचा पाते। कुहासा छा जाने पर दिन में भी लगभग रात जैसा अँधेरा छा जाता है और कुछ दूरी की वस्तुएँ तक सूझ नहीं पड़तीं।

इन्हीं सब उदाहरणों की देखते हुए अनुमान लगाया जा सकता है कि मनुष्य यदि लोभ की हथकड़ियों, मोह की बेड़ियों और अहंकार की जंजीरों में जकड़ा हुआ रहे, तो उसकी समस्त क्षमताएँ नाकारा बनकर रह जाएँगी। बँधुआ मजदूर रस्सी में बँधे पशुओं की तरह बाधित और विवश बने रहते हैं। वे अपना मौलिक पराक्रम गँवा बैठते है और उसी प्रकार चलने- करने के लिए विवश होते है, जैसा कि बाँधने वाला उन्हें चलने के लिए दबाता- धमकाता है। कठपुतलियाँ अपनी मरजी से न उठ सकती हैं, न चल सकती हैं, मात्र मदारी ही उन्हें नचाता कुदाता है।

अचंभा यही है कि सड़े नालों में पलने और बढ़ने वाले कीड़े, अपनी स्थिति को दयनीयता का अनुभव तक नहीं कर पाते। उससे किसी प्रकार छुटकारा पाकर इतनी भी सोच नहीं जुटा पाते कि यदि कीड़े की ही स्थिति में रहना था, तो फूलों पर उड़ने वाली तितलियों की तरह आकर्षक होने के सुयोग को चाहने और पाने के लिए तो मानस बनाया जाए। जब आकांक्षा तक मर गई, तो उत्कर्ष की पक्षधर हलचलें भी कहाँ से, जैसे उभर सकेंगी?

मानव जीवन का परम पुरुषार्थ- सर्वोच्च स्तर का सौभाग्य एक ही है, कि वह अपनी निकृष्ट मानसिकता से त्राण पाए। भ्रष्ट- चिंतन और दुष्ट- आचरण वाले स्वभाव- अभ्यास को और अधिक गहन करते रहने से स्पष्ट इनकार कर दें। भूल समझ में आने पर उलटे पैरों लौट पड़ने में भी कोई बुराई नहीं है। गिनती गिनना भूल जाने पर, दोबारा नए सिरे से गिनना आरंभ करने में किसी समझदार को संकोच नहीं करना चाहिए। जीवन सच्चे अर्थों में धरती पर रहने वाला देवता है। नर- कीटक, नर- पशु, नर- पिशाच जैसी स्थिति को उसने अपनी मनमरजी से स्वीकार की है। यदि वह कायाकल्प जैसे परिवर्तन की बात सोच सके, तो उसे नर- नारायण, महामानव बनने में भी देर न लगेगी। आखिर वह है तो ऋषियों, तपस्वियों, मनस्वियों और मनीषियों का वंशधर ही।



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