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Books - चेतना का सहज स्वभाव स्नेह सहयोग

Media: TEXT
Language: HINDI
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भावनाओं की सम्पदा अन्य प्राणियों के पास भी

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भावनाओं पर मनुष्य का ही एक आधिपत्य नहीं है। बुद्धि, साधन, सुविधा, सम्पत्ति और अधिकार की दृष्टि से प्रकृति ने मनुष्य के साथ भले ही कोई विशेष छूट दी हो पर उसने भावनाओं की सम्पत्ति प्राणि मात्र को मुक्त हस्त से बांटी है ताकि वे एक दूसरे के सहयोगी, परस्पर सद्भाव सम्पन्न और प्रकृति के सन्तुलन को स्थिर बनाये रह सकें।

ज्ञान के अंकुर भी अन्य जीवधारियों में एक सीमा तक ही देखने को मिलते हैं परन्तु भावनाओं की सम्पदा सभी जीवधारियों में प्रचुर रूप से विद्यमान है। यह बात और है कि वे इन भावनाओं की अभिव्यक्ति किसी और ढंग से करते हैं लेकिन भाव सम्पदा की दृष्टि से वे दरिद्र नहीं है। उनकी भावाभिव्यक्ति को जहां तक समझा जा सका है वे उसी स्तर और शैली की है जैसी मनुष्य समझता और व्यक्त करता है। उस दृष्टि से भी यही सिद्ध होती है कि भावुकता पर मनुष्य का ही एक मात्र अधिकार नहीं है, वह अन्य जीवों में भी पाई जाती है और अवसर मिलने पर वह विकसित भी होती है।

टारजन—प्रख्यात वन मानव की कथा प्रसिद्ध है। वह मात्र गप्प नहीं है, उसमें यथार्थता का बहुत बड़ा भाग विद्यमान है। एक 11 वर्ष का अंग्रेज बालक एक जहाज से बिछुड़ कर अफ्रीका के जंगलों में जा फंसा, वहां उसे वानरों ने पाल लिया। अन्य पशुओं का भी उसे भावनात्मक सहयोग मिला और लगातार पन्द्रह वर्ष तक उनके बीच रहकर वह वन परिवार के प्राणियों का परिचित ही नहीं स्नेह-भाजन भी बन गया।

वन प्रदेशों में तप साधना करने वाले तपस्वियों के पास सिंह व्याघ्र निर्भय ही आते-जाते रहते हैं। उन्हें कष्ट देना तो दूर उलटे सहायता करते हैं। सिंह गाय का तपोवनों में जाकर एक घाट पानी पीना, इस बात का प्रमाण है कि उन्हें आव-शून्य न समझा जाय, अवसर मिलने पर उनकी भावुकता मनुष्य से भी आगे बढ़ सकती है। उत्तर प्रदेश आगरा जिले के खन्दौली कस्बे के पास जंगलों में एक मादा भेड़िया ने मनुष्य के बच्चे को उठा लिया था पर करुणावश उसे मारा नहीं वरन् उसे दूध पिलाकर पाल लिया जब वह 6 वर्ष का हो गया तब शिकारियों ने इस बालक को भेड़ियों की मांद से पकड़ा था।

बंगाल के मालदा इलाके में राबर्ट वैसी नामक शिकारी ने अपने शिकार वर्णन में एक ऐसे अन्धे चीते का जिकर किया है जिसकी मित्रता एक बन्दर से थी और वह बन्दर ही अपनी आहट तथा आवाज के सहारे चीते को साथ ले जाकर शिकार कराता था। उक्त शिकारी ने जब उस चीते को मारा तो बन्दर लड़ने आया और जब उसे भी गोली लगी तो मरे हुए चीते की लाश तक दौड़ता हुआ पहुंचा और उसी से लिपट कर प्राण त्यागे।

सिन डिगो में (अमेरिका) के चिड़ियाघर निर्देशक एम. बेले वेन्शली ने अपने एक प्रयोग की चर्चा करते हुए लिखा है—चिड़ियाघर में एक भालू के नवजात शिशु को सुअर के नये जन्में बच्चे के साथ रखा गया। दोनों में भारी मित्रता हो गई। दोनों साथ-साथ घूमने घर से निकलते और शाम को साथ-साथ वापिस आते। भालू के बच्चे का नाम रखा गया—गागिला। सुअर के बच्चे का कोशे। कोशे बड़ा हो गया तो कुछ उच्छृंखलता बरतने लगा और मनमौजी की तरह जाकर कहीं पड़ा रहा। शाम को चिड़ियाघर के अधिकारियों ने कोशे को गैर-हाजिर पाया। तलाश किया तो मिला नहीं। ढूंढ़ने की एक युक्ति निकाली गई। रीछ के बच्चे गागिल को कटघरे से बाहर ले जाकर अन्धेरे में छोड़ दिया गया। वह अन्धेरे से डरकर चिल्लाने लगा। आवाज सुनते ही कोशे से न रहा गया और जहां छिपा था वहां से निकलकर सीधा गागिल के पास आया और उसे पकड़ लिया गया।

आरा (बिहार) जिले के एक गांव में एक कुतिया ने बन्दर के मातृ-विहीन बच्चे को अपना दूध पिलाकर पाला था। बच्चा अपनी सुरक्षा के लिये कुतिया की पीठ पर बैठा फिरता था। कुतिया अपने अन्य बच्चों के साथ उसे लेकर एक जगह सोती थी।

सीधी (मध्यप्रदेश) में एक राजपूत का कुत्ता अपने मालिक को अतिशय प्यार करता था। मालिक की मृत्यु हो गई। लाश को जलाया गया। कुत्ता देखता रहा। सब लोग घर चले गये पर वह नहीं गया। चिता के पास ही बैठा रहा। लोगों ने उसे हटाने की बहुत कोशिश की पर हटा नहीं। खाने को दिया पर खाया नहीं। आंसू बहाता और कराहता रहा। इसी स्थिति में तेरहवे दिन उसकी मृत्यु हो गई। उसे भी मालिक के पास ही चिता पर जलाया गया।

अल्बर्ट श्वाइत्जर जहां रहते थे, उनके समीप ही बन्दरों का एक दल रहता था। दल के एक बन्दर और बन्दरिया में गहरी मित्रता हो गई। दोनों जहां जाते साथ-साथ जाते, एक कुछ खाने को पाता तो यही प्रयत्न करता कि उसका अधिकांश उसका साथी खाये। कोई भी वस्तु उनमें से एक ने कभी भी अकेले न खाई। उनकी इस प्रेम भावना ने अल्बर्ट श्वाइत्जर को बहुत प्रभावित किया। वे प्रायः प्रतिदिन इन मित्रों की प्रणय-लीला देखने जाते और एकान्त स्थान में बैठकर घन्टों उनके दृश्य देखा करते। कैसे भी संकट में उनमें से एक ने भी स्वार्थ का परिचय न दिया। अपने मित्र के लिये वे प्राणोत्सर्ग तक के लिये तैयार रहते, ऐसी थी उनकी अविचल प्रेम-निष्ठा।

विधि की विडम्बना—बन्दरिया कुछ दिन पीछे बीमार पड़ी, बन्दर ने उसकी दिन-दिन भर भूखे-प्यासे रहकर सेवा-सुश्रूषा की पर बन्दरिया बच न सकी, मर गई। बन्दर के जीवन में मानो वज्राघात हो गया। वह गुमसुम जीवन बिताने लगा।

बन्दर एक स्थान पर बैठा रहता। अपने कबीले या दूसरे कबीले—कोई अनाथ बन्दर मिल जाता तो वह उसे प्यार करता खाना खिलाता, भटक गये बच्चे को ठीक उसकी मां तक पहुंचा कर आता, लड़ने वाले बन्दरों को अलग-अलग कर देता, इसमें तो कई बार अति उग्र पक्ष को मार भी देता था पर तब तक चैन न लेता जब तक उनमें मेल-जोल नहीं करा देता। उसने कितने ही वृद्ध, अपाहिज बन्दरों को पाला, कितनों ही का बोझ उठाया। बन्दर की इस निष्ठा ने ही अल्बर्ट श्वाइत्जर को एकान्तवादी जीवन से हटाकर सेवा भावी जीवन बिताने के लिये अफ्रीका जाने की प्रेरणा दी। श्वाइत्जर बन्दर की इस आत्म-निष्ठा को जीवन भर नहीं भूले।

फैजाबाद डिवीजन के सुल्तानपुर जिला स्थित अस्पताल में एक बालक इलाज के लिये भर्ती किया गया है। इस बालक का 9 वर्ष पूर्व सियारों द्वारा अपहरण कर लिया गया था। नन्हें जीव के प्रति उनकी सहज करुणा-प्रेम उमड़ा होगा तभी तो उन्होंने उसे खाने की अपेक्षा पाल लेना उचित समझा होगा। बहुत सम्भव है सियारों में उसको खाने के लिये संघर्ष भी हुआ हो पर जीत इस दिव्य शक्ति की हुई सियारों ने बच्चे को पाल लिया। उसे अपनी तरह चलना-फिरना, बोलना और खाना तक सिखाकर यह सिद्ध कर दिया कि आत्म-चेतना शरीर नहीं शरीर से भिन्न तत्व है वही समस्त जीवों में प्रतिभासित हो रहा है इस मूल की ही सन्तुष्टि जीवन की सच्ची उपासना है।

लन्दन के शाही बाग के पक्षियों में वहां हंस और बत्तखों की कई जातियों ने अपनी अपनी जातीय संकीर्णतायें तोड़कर अन्य जाति के हंस और बत्तखों से प्रेम सम्बन्ध स्थापित किया है, यह क्रम अधिकांश पक्षियों पर चल पड़ने और पक्षियों द्वारा अन्तर्जातीय प्रेम प्रदर्शित करने के कारण वहां के अधिकारी चिन्तित हो उठे हैं कि नस्लों की शुद्धता को किस प्रकार सुरक्षित रखा जाये। श्री आर्थर को अब उसके लिये जीव शास्त्रियों की मदद लेनी पड़ रही है क्योंकि वे पक्षियों के इस अन्तर्जातीय प्रेम को रोक सकने में असमर्थ रहे हैं।

इस तरह का मुक्त प्रेम जो शारीरिक सुखों, इन्द्रियों के आकर्षणों जाति वर्ण और देश की सीमाओं से परे हो वही सच्चा प्रेम है। ऐसा प्रेम ही सेवा, मैत्री, करुणा, दया, उदारता और प्राणि मात्र के प्रति आत्मीयता का भाव जागृतकर तुच्छ जीवात्मा को परमात्मा से मिलाता है हमारे प्रेम का दायरा संकुचित न रहकर समस्त लोक-जीवन के प्रति श्रद्धा के रूप में फूट पड़े तो आज जो भावगत अनुभूतियां दुःसाध्य जान पड़ती हैं कल वही कांच के स्वच्छ दर्पण में अपने साफ प्रतिबिम्ब की तरह झलकने लग सकती हैं।

‘जन्तु और मानव’ पुस्तक के लेखक कार्लहैगेनबैक ने अपने निजी अनुभव की चर्चा करते हुए लिखा है—एकबार उनने एक युवा बाघ का जोड़ा खरीदा वह बीमार पड़ा तो उनने स्वयं उसके पास जाकर चिकित्सा और परिचर्या की। यह जोड़ा उनसे इतना हिल-मिल गया था कि नजदीक आने पर प्यार से विह्वल हो उठता और प्यार से घुरघुराता। पीछे उन्होंने उस जोड़े को वर्लिन की जन्तुशाला को दे दिया। जब कभी वे उससे मिलने जाते तो यह बाघ जोड़ा उनसे पहले की तरह ही प्यार करता और लिपटने की कोशिश करता।

एक कुवियर ने एक पालतू भेड़िये की चर्चा करते हुए लिखा है—बचपन में उसे एक व्यक्ति ने पाला था पर बड़ा होने पर उसे जन्तुशाला को दे दिया। वह व्यक्ति जब भी जन्तुशाला में गया तो भेड़िये ने उससे मिलने की आतुरता दिखाई और यदि पास आने का तनिक भी अवसर मिला तो उसने भरपूर प्रेम प्रदर्शित करने की चेष्टा की। ‘जन्तुओं की कथा’ पुस्तक में एन्ड्रयू लैग ने उस बढ़ई का विवरण छापा है जिसने एक बाघ के बच्चे को पाला था और बड़ा होने पर उसे चिड़िया घर को दे दिया था। एक बार वह बढ़ई चिड़िया घर गया तो उसने बड़े प्रयत्न पूर्वक यह स्वीकृति प्राप्त की कि वह कटघरे में अपने पूर्व परिचित बाघ के पास जा सके। वह गया तो बाघ ने उसके हाथों को चाटा, अपना सिर उसके कन्धों से रगड़ा कई घण्टे उसके साथ रहा और बढ़ई जब कटघरे से बाहर जाने लगा तो उसने उसे बार-बार जाने से रोका।

जन्तुओं के मित्र पत्रिका में आडाऊ (ब्रिटेन) के कप्तान वाटसन ने अपने घोड़े की और एस.एन. पेज ने एक राजहंस की कथा छापी है जिन्होंने मनुष्यों से कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही अपनी प्रेम भावना का परिचय दिया था।

यदि हम अपने भीतर सच्ची प्रेम भावना पैदा करें तो देखेंगे कि उसके प्रकाश में हर कोई अपना प्रियपात्र बनता चला जा रहा है और हर ओर से प्रेम की वर्षा हो रही है।

प्रेम स्नेह की अधीनता सब को स्वीकार

सेन्टियागो की धनाढ्य महिला श्रीमती एनन ने पारिवारिक कलह से ऊबकर जी बहलाने के लिये एक भारतीय मैना पाल ली। मैना जब से आई तभी से उदास रहती थी। एनन की बुद्धि ने प्रेरणा दी सम्भव है उसे भी अकेलापन कष्ट दे रहा हो। सो दूसरे दिन एक और तोता मोल ले लिया। तोता और मैना भिन्न जाति के दो पक्षी भी पास आ जाने पर परस्पर ऐसे घुल-मिल गये कि एक के बिना दूसरे को चैन ही न पड़ता।

प्रातःकाल बिना चूक मैना तोता को ‘‘नमस्ते’’ कहती। तोता बड़ी ही मीठी वाणी में उसके अभिवादन का कुछ कहकर उत्तर देता। पिंजड़े पास-पास कर दिये जाते फिर दोनों में वार्तायें छिड़ती, न जाने क्या मैना कहती न जाने क्या तोता कहता पर उनको देखकर लगता यह दोनों बहुत खुश हैं। दोनों का प्रेम प्रतिदिन प्रगाढ़ होता चला गया चोंच से दबाकर अपनी चीजें बांट कर खाते।

कुछ ऐसा हुआ कि श्रीमती एनन की एक रिश्तेदार को तोता भा गया, वे जिद करके उसे मांग ले गईं ठीक उसी दिन मैना बीमार पड़ गई और चौथे दिन सायंकाल 5 बजे उसने अपनी नश्वर देह त्याग दी। तोता कृतघ्न नहीं था। वह बन्दी था चला तो गया पर आत्मा को बन्दी बनाना किसके लिए सम्भव है वह भी मैना की याद में बीमार पड़ गया और ठीक चौथे दिन सायंकाल 5 बजे उसने भी अपने प्राण त्याग दिये। पता नहीं दोनों की आत्मायें परलोक में कहीं मिली या नहीं, पर इस घटना ने श्रीमती एनन का स्वभाव ही बदल दिया। अब उनके स्वभाव में सेवा और मधुरता का ऐसा प्रवाह फूटा कि वर्षों से पारिवारिक कलह में जलता हुआ दाम्पत्य सुख फिर खिल उठा। पति-पत्नी में कुछ ऐसी घनिष्ठता हुई कि मानो उनके अन्तःकरण में तोता मैना की आत्मा ही साक्षात् उतर आई हों। उनकी मृत्यु भी वियोगजन्य परिस्थितियों में एक ही दिन एक ही समय हुई।

तोता, मैना, बन्दर छोटे-छोटे सौम्य स्वभाव जीवों का कौन कहे प्रेम की प्यास तो भयंकर खूंखार जानवरों के हृदय में भी होती है। एफ. कुवियर के एक मित्र को भेड़िया पालने की सूझी। कहीं से एक बच्चा भेड़िया मिल गया। उसे वह अपने साथ रखने लगे। भेड़िया कुछ ही दिनों में उनसे ऐसा घुल-मिल गया मानो उनकी मैत्री इस जन्म ही नहीं कई जन्मों की हो।

कुछ ऐसा हुआ कि एक बार उन सज्जन को किसी काम से बाहर जाना पड़ गया। वह भेड़िया एक चिड़ियाघर को दे गये। भेड़िया चिड़ियाघर तो आ गया पर अपने मित्र की याद में दुःखी रहने लगा। मनुष्य का जन्म-जात बैरी मनुष्य के प्रेम के लिये पीड़ित हो यह देखकर चिड़ियाघर के कर्मचारी बड़े विस्मित हुये। कोई भारतीय दार्शनिक उनके पास होता और आत्मा की सार्वभौमिक एकता का तत्त्व दर्शन उन्हें समझाता तो सम्भव था ये भी जीवन को एक नई आध्यात्मिक दिशा में मोड़ने में समर्थ होते उनका विस्मय चर्चा का विषय भर बनकर रह गया।

भेड़िये ने अपनी प्रेम की पीड़ा शान्त करने के लिये दूसरे जीवों की ओर दृष्टि डाली। कुत्ता—भेड़िये का नम्बर एक का शत्रु होता है पर आत्मा किसका मित्र किसका शत्रु क्या तो वह कुत्ता क्या भेड़िया—कर्मवश भ्रमित अग-जग आत्मा से एक है यदि यह तथ्य संसार जान जाये तो फिर क्यों लोगों में झगड़े हों, क्यों मन-मुटाव, दंगे-फसाद, भेद-भाव, उत्पीड़न और एक दूसरे से घृणा हो। विपरीत परिस्थितियों में भी प्रेम जैसी स्वर्गीय सुख की अनुभूति आत्मदर्शी के लिये ही सम्भव है इस घटना का सार-संक्षेप भी यही है। भेड़िया अब कुत्ते का प्रेमी बन गया उसके बीमार जीवन में भी एक नयी चेतना आ गई। प्रेम की शक्ति इतनी वरदायक है कि वह निर्बल और अशक्तों में भी प्राण की गंगोत्री पैदा कर देती है।

दो वर्ष पीछे मालिक लौटा। घर आकर वह चिड़िया घर गया अभी वह वहां के अधिकारी से बातचीत कर ही रहा था कि उसका स्वर सुनकर भेड़िया भगा चला आया और उसके शरीर से शरीर जोड़कर खूब प्यार जताता रहा। कुछ दिन फिर ऐसे ही मैत्रीपूर्ण जीवन बीता।

कुछ दिन बाद उसे फिर जाना पड़ा। भेड़िये के जीवन में लगता है भटकाव ही लिखा था फिर उस कुत्ते के पास जाकर उसने अपनी पीड़ा शान्त की। इस बार मालिक थोड़ा जल्दी आ गया। भेड़िया इस बार उससे दूने उत्साह से मिला पर उसका स्वर शिकायत भरा था बेचारे को क्या पता था कि मनुष्य ने अपनी जिन्दगी ऐसी व्यस्त जटिल सांसारिकता से जकड़ दी है कि उसे आत्मीय-भावनाओं की ओर दृष्टिपात और हृदयंगम करने की कभी सूझती ही नहीं। मनुष्य की यह कमजोरी दूर हो गई होती तो आज संसार कितना सुखी और स्वर्गीय परिस्थितियों से आच्छादित दिखाई देता।

कुछ दिन दोनों बहुत प्रेमपूर्वक साथ-साथ रहे। एक दूसरे को चाटते, थपथपाते, हिलते-मिलते, खाते-पीते रहे और इसी बीच एक दिन उसके मालिक को फिर बाहर जाना पड़ा। इस बार भेड़िये ने किसी से न दोस्ती की न कुछ खाया पीया। उसी दिन से बीमार पड़ गया और प्रेम के लिये तड़प-तड़प कर अपनी इहलीला समाप्त कर दी। उसके समीपवर्ती लोगों के लिये भेड़िया उदाहरण बन गया। वे जब कभी अमानवीय कार्य करते भेड़िये की याद आती और उनके सिर लाज से झुक जाते।

बर्लिन की एक सर्कस कम्पनी में एक बाघ था। नीरो उसका नाम था। इस बाघ को लीरिजग के एक चिड़ियाघर से खरीदा गया था। जिन दिनों बाघ चिड़ियाघर में था उसकी मैत्री चिड़ियाघर के एक नौकर से हो गई। बाघ उस मैत्री के कारण अपने हिंसक स्वभाव तक को भूल गया।

पीछे वह क्लारा हलिपट नामक एक हिंसक जीवों की प्रशिक्षिका को सौंप दिया गया। एक दिन बाघ प्रदर्शन से लौट रहा था तभी एक व्यक्ति निहत्था आगे बढ़ा—बाघ ने उसे देखा और घेरा तोड़कर भाग निकला। भयभीत दर्शक और सर्कस वाले इधर-उधर भागने लगे पर स्वयं क्लारा हलिपट तक यह देखकर दंग रह गई कि बाघ अपने पुराने मित्र के पास पहुंच कर उसे चाट रहा और प्रेम जता रहा है। उस मानव-मित्र ने उसकी पीठ खूब थपथपायी, प्यार किया और कहा अब जाओ समय हो गया। बाघ चाहता तो उसे खा जाता भाग निकलता पर प्रेम के बन्धनों में जकड़ा हुआ बेचारा बाघ अपने मित्र की बात मानने को बाध्य हो गया। लोग कहने लगे सचमुच प्रेम की ही शक्ति ऐसी है जो हिंसक को भी मृदु, शत्रु को भी मित्र और संताप से जलते हुये संसार सागर को हिम खण्ड की तरह शीतल और पवित्र कर सकती है।

प्रेम की न सीमा न बंधन

सजातीय प्राणियों से प्रेम तो आम बात है परन्तु ऐसे उदाहरण भी देखने में आये हैं जहां दूसरे प्राणियों के बीच भी घनिष्ठ स्नेह सम्बन्ध बने। प्रख्यात लेखक सैमुअल जान्सन ने ब्रिटेन में एक खच्चर और टट्टू की अद्भुत मित्रता का वर्णन किया है।

बरमिंघम (ब्रिटेन) में सर सैमुअल गुडबेट्टियर के यहां एक टट्टू पला था। वह बाड़े में बन्द किया जाता, रात को बाड़े के फाटक की चिटकनी अन्दर से बन्द की जाती और बाहर से कुण्डी लगाई जाती थी। टट्टू अपना सिर फाटक से बाहर तो कर लेता था, पर कुण्डी तक नहीं पहुंच पाता था। प्रायः देखने में यह आता कि सुबह के समय वह बाड़े के बाहर खुले मैदान में घूमता। सभी को बड़ा आश्चर्य होता था कि वह रात्रि में कुण्डी खोलकर बाहर कैसे निकल आता है।

एक दिन सारा रहस्य खुल गया। उस रात सैमुअल सोया न था। उसका ध्यान उधर ही था। उसने देखा कि टट्टू भीतर की चटखनी को झटका देकर खांचे से अलग कर लेता है और फिर वह रेंकना शुरू कर देता है। आवाज सुनकर एक खच्चर आता है और नाक से धकेल कर कुण्डी खोल देता और बाद को दोनों साथ-साथ घूमते।

वेंजेल नामक जर्मन ने अपने यहां एक कुत्ता पाला था और एक बिल्ली। उन दोनों में बड़ी दोस्ती थी। वे एक साथ खाते-पीते उछलते-कूदते और सोते-बैठते थे। एक दिन वेंजेल की इच्छा हुई कि इन दोनों के परस्पर सम्बन्धों की परीक्षा भी लेनी चाहिए। वे बिल्ली को अपने कमरे में ले गये वहां उन्होंने उसे खाना खिला दिया। बड़े मजे में उसने खाना खाया। श्रीमती वेंजेल ने एक प्लेट खीर अलमारी में रख दी। उसमें ताला नहीं लगा था। बिल्ली खाना खाकर उस कमरे से बाहर निकल आई और थोड़ी देर बाद कुत्ते को अपने साथ ले आई। दोनों उस अलमारी के पास तक गये। बिल्ली ने धक्का मारकर उसकी चिटकनी खोली। कुत्ते को खीर की प्लेट दिखाई दे गई। उसने प्लेट को पंजों से दबाकर सारी खीर खाली। वेंजेल छिपे-छिपे इस दृश्य को देखते रहे।

कुत्ते और बिल्ली में स्वाभाविक बैर बताया जाता है फिर भी यह दोनों एक परिवार में परस्पर सुख-दुख का ध्यान रखकर किस प्रकार ईमानदार मित्र की तरह रहते हैं। अलीगढ़ के कस्बा जवां में एक बन्दर और कुत्ते की मैत्री विघटित भावनाओं वाले इस युग में लोगों को चुनौती देती है और बताती है कि विपरीत स्वभाव के दो पशु परस्पर प्रेम कर सकते हैं परन्तु मनुष्य परस्पर स्नेह से नहीं रह सकता, यह दोनों ही अमानव मित्र दिन-रात साथ-साथ रहते हैं। विश्राम के समय बन्दर कुत्ते के जुये बीनकर और कुत्ता बंदर के तलुये सहलाकर अपनी प्रेम-भावनाओं का आदान-प्रदान करते हैं।

अपने स्वभाव अपनी रुचि की भिन्नता के बावजूद भी यदि दूसरे जीव परस्पर प्रेम से रह सकते हैं तो बुद्धिशील मनुष्य को तो उनसे बढ़कर ही होना चाहिये। ऐसा नहीं होता तो यही लगता है कि चेतना की गहराई को जितना मनुष्य नहीं जान सका वह दूसरे प्राणी हंसी-खुशी से कर सकते हैं। यहां तक कि दो शत्रु स्वभाव के जीवों में भी उत्कृष्ट मैत्री रह सकती है।

सृष्टि का हर प्राणी, हर जीव-जन्तु स्वभाव में एक दूसरे से भिन्न है। कुछ अच्छे, कुछ बुरे गुण सब में पाये जाते हैं पर प्रेम के प्रति सद्भावना और प्रेम की प्यास से वंचित कोई एक भी जीव सृष्टि में दिखाई नहीं देता। मनुष्य जीवन का तो सम्पूर्ण सुख और स्वर्ग ही प्रेम है। प्रेम जैसी सत्ता को पाकर भी मनुष्य अपने को दीन-हीन अनुभव करे तो यही मानना पड़ता है कि मनुष्य ने जीवन के यथार्थ अर्थ को जाना नहीं।

चींटियों के जीवन में सामान्यतः मजदूर चींटियों में कोई विलक्षणता नहीं होती, उनमें अपनी बुद्धि, अपनी निजी कोई इच्छा भी नहीं होती है, एक नियम व्यवस्था के अन्तर्गत जीती रहती हैं तथापि प्रेम की आकांक्षा उनमें भी होती है और वे अपने कोमल भाव को दबा नहीं सकतीं। इस अन्तरंग भाव की पूर्ति वे किसी और तरह से करती हैं। वह तितली के बच्चे से ही प्रेम करके अपनी आन्तरिक प्यास बुझाती हैं। यद्यपि यह सब एक प्राकृतिक प्रेरणा जैसा लगता है पर मूलभूत भावना का उभार स्पष्ट समझ में आता है। तितलियां फूलों का मधु चूसती रहती हैं उससे उनके जो बच्चे होते हैं उनकी देह भी मीठी होती है। माता-पिता के स्थूल शारीरिक गुण बच्चे पर आते हैं यह एक प्राकृतिक नियम है, तितली के नन्हें बच्चे, जिसे लार्वा कहते हैं, मजदूर चींटी सावधानी से उठा ले जाती है, उसके शरीर के मीठे वाले अंग को चाट-चाट कर चींटी अपने परिवार के लिये मधु एकत्र कर लेती है पर ऐसा करते हुए स्पष्ट-सा पता चलता रहता है कि यह एक स्वार्थपूर्ण कार्य है इससे नन्हें से लार्वे को कष्ट पहुंचता है। इसलिये वह थोड़ी मिठास एकत्र कर लेने के तुरन्त बाद उस बच्चे को परिचर्या भवन में ले जाती है और उसकी तब तक सेवा-सुश्रूषा करती रहती है जब तक लार्वा बढ़कर एक अच्छी तितली नहीं बन जाता। तितली बन जाने पर चींटी उसे हार्दिक स्वागत के साथ घर से विदा कर देती है। जीवशास्त्रियों के लिए चींटी और तितली की यह प्रगाढ़ मैत्री गूढ़ रहस्य बनी हुई है। उसकी मूल प्रेरणा अन्तरंग का वह प्यार ही है जिसके लिये आत्मायें जीवन भर प्यासी इधर-उधर भटकती रहती है।

आस्ट्रेलिया में फैलेन्जर्स नामक गिलहरी की शक्ल का एक जीव पाया जाता है। इसे सुगर स्कवैरेल भी कहते हैं। यह एक लड़ाकू और उग्र स्वभाव वाला जीव है, तो भी उसकी अपने बच्चों और परिवारीयजनों के प्रति ममता देखते ही बनती है। वह जहां भी जाती है अपनी एक विशेष थैली में बच्चों को टिकाये रहती है और थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें चाटती और सहलाती रहा करती है मानो वह अपने अन्तःकरण की प्रेम भावनाओं के उद्रेक को सम्भाल सकने में असमर्थ हो जाती हो। जीव-जन्तुओं का यह प्रेम-प्रदर्शन यद्यपि एक छोटी सीमा तक अपने बच्चों और कुटुम्ब तक ही सीमित रहता है तथापि वह इस बात का प्रमाण है कि प्रेम जीव मात्र की अन्तरंग आकांक्षा है। मनुष्य अपने प्रेम की परिधि अधिक विस्तृत कर सकता है इसलिये कि वह अधिक संवेदनशील और कोमल भावनाओं वाला है। अन्य जीवों का प्यार पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं हो पाता इसलिये वे अपेक्षाकृत अधिक कठोर, स्वार्थी और खूंखार से जान पड़ते हैं पर इसमें सन्देह नहीं कि यदि उनके अन्तःकरण में छिपे प्रेम भाव से तादात्म्य किया जा सके तो उन हिंसक व मूर्ख जन्तुओं में भी प्रकृति का अगाध सौन्दर्य देखने को मिल सकता है। भगवान शिव सर्पों को गले में लटकाये रहते हैं, महर्षि रमण के आश्रम में बन्दर, मोर और गिलहरी ही नहीं सर्प, भेड़िये आदि तक अपने पारिवारिक झगड़े तय कराने आया करते थे। सारा ‘अरुणाचलम’ पर्वत उनका घर था और उसमें निवास करने वाले सभी जीव-जन्तु उनके बन्धु-बान्धव, सुहृद, सखा, पड़ौसी थे। स्वामी रामतीर्थ हिमालय में जहां रहते वहां शेर, चीते प्रायः उनके दर्शनों को आया करते और उनके समीप बैठकर घन्टों विश्राम किया करते थे। यह उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि हमारा प्रेमभाव विस्तृत हो सके तो हम अपने को विराट विश्व परिवार के सदस्य होने का गौरव प्राप्त कर एक ऐसी आनन्द निर्झरिणी में प्रवाहित होने का आनन्द लूट सकते हैं जिसके आगे संसार के सारे सुख-वैभव फीके पड़ जायें।

600 वर्ष पूर्व की घटना है। रोम में एक महिला अपने बच्चे से खेल रही थी। वह कभी उसे कपड़े पहनाती कभी दूध पिलाती, इधर-उधर के काम करके फिर बच्चे के पास आकर उसे चूमती, चाटती और अपने काम में चली जाती। प्रेम भावनाओं से जीवन की थकान मिटती है। लगता है अपने काम की थकावट दूर करने के लिए उसे बार-बार बच्चे से प्यार जताना आवश्यक हो जाता था। घर के सामने एक ऊंचा टावर था उसमें बैठा हुआ एक बन्दर यह सब बड़ी देर से, बड़े ध्यान से देख रहा था। स्त्री जैसे ही कुछ क्षण के लिये अलग हुई कि बन्दर लपका और उस बच्चे को उठा ले गया। लोगों ने भागदौड़ मचायी तब तक बन्दर सावधानी के साथ बच्चे को लेकर उसी टावर पर चढ़ गया। जैसे-जैसे उसने मां को बच्चे से प्यार करते देखा था स्वयं भी बच्चे के साथ वैसा ही व्यवहार करने लगा। कभी उसे चूमता-चाटता तो कभी उसके कपड़े उतार कर फिर से पहनाता। इधर वह अपनी प्रेम की प्यास बुझा रहा था उधर उसकी मां और घर वाले तड़प रहे थे, बिलख-बिलख कर रो रहे थे। बच्चे की मां तो एकटक उसी टावर की ओर देखती हुई बुरी तरह चीखकर रो रही थी।

बन्दर ने यह सब देखा। सम्भवतः उसने सारी स्थिति भी समझ ली इसीलिये एक हाथ से बच्चे को छाती से चिपका लिया शेष तीन हाथ-पांवों की मदद से वह बड़ी सावधानी से नीचे उतरा और बिना किसी भय अथवा संकोच के उस स्त्री के पास तक गया और बच्चे को उसके हाथों में सौंप दिया। यह कौतुक लोग स्तब्ध खड़े देख रहे थे। साथ-साथ एक कटु सत्य, किस तरह बन्दर जैसा चंचल प्राणी प्रेम के प्रति इस तरह गम्भीर और आस्थावान हो सकता है। मां के हाथ में बच्चा पहुंचा सब लोग देखने लगे उसे कहीं चोट तो नहीं आई। इस बीच बन्दर वहां से कहां गया, किधर चला गया यह आज तक किसी ने नहीं जाना।

पीछे जब लोगों का ध्यान उधर गया तो सबने यह माना कि बन्दर या तो कोई दैवी शक्ति थी जो प्रेम की वात्सल्य महत्ता दर्शाने आई थी अथवा वह प्रेम से बिछुड़ी हुई कोई आत्मा थी जो अपनी प्यास को एक क्षणिक तृप्ति देने आई। उस बन्दर की याद में एक अखण्ड-दीप जलाकर उस टावर में रखा गया। इस टावर का नाम भी उसकी यादगार में बन्दर टावर (मंकी टावर) रखा गया। कहते हैं 600 वर्ष हुये वह दीपक आज भी जल रहा है। दीपक के 600 वर्ष से चमत्कारिक रूप में जलते रहने में कितनी सत्यता है, हम नहीं जानते पर यह सत्य है कि बन्दर के अन्तःकरण में बच्चे के प्रति प्रसूत प्यार का प्रकाश जब तक यह टावर खड़ा रहेगा, लाखों का मानव जीवन की इस परम उद्दात्त ईश्वरीय प्रेरणा की ओर ध्यान आकर्षित करता रहेगा।

अमरीका के सैनडिगो चिड़िया घर में एक बार एक बन्दर दम्पत्ति ने एक बच्चे को जन्म दिया। मादा ने खूब स्नेह और प्यार पूर्वक बच्चे का पालन-पोषण किया। बच्चा अभी 20 महीने का ही हुआ था कि मादा ने एक नये बच्चे को जन्म दिया। यद्यपि पहला बच्चा मां का दूध पीना छोड़ चुका था तथापि संसार के जीव मात्र को भावनाओं की न जाने क्या आध्यात्मिक भूख है उसे अपनी मां पर किसी और का अधिकार पसन्द न आया। उसने अपने छोटे भाई को हाथ से पकड़कर खींच लिया और खुद जाकर मां के स्तनों से जा चिपका।

मादा ने अनुचित पर ध्यान नहीं दिया। उसने बड़े बच्चे को भावनापूर्वक अपनी छाती से लगा लिया और उसे दूध पिलाने के लिये इनकार नहीं किया जबकि अधिकार उसका नहीं, छोटे बच्चे का ही था। दो-तीन दिन में ही छोटा बच्चा कमजोर पड़ने लगा। चिड़िया घर की निर्देशिका बेले.जे. बेनशली के आदेश से बड़े बच्चे को वहां से निकाल कर अलग कर दिया गया। अभी उसे अलग किये एक दिन ही हुआ था, वहां उसे अच्छी से अच्छी खुराक भी दी जा रही थी किन्तु जीव मात्र की ऐसी अभिव्यक्तियां बताती हैं कि आत्मा की वास्तविक भूख, भौतिक सम्पत्ति और पदार्थ भोग की उतनी अधिक नहीं जितनी कि उसे भावनाओं की प्यास होती है। भावनायें न मिलने पर अच्छे और शिक्षित लोग भी खूंखार हो जाते हैं जबकि सद्भावनाओं की छाया में पलने वाले अभावग्रस्त लोग भी स्वर्गीय सुख का रसास्वादन करते रहते हैं। बड़ा बच्चा बहुत कमजोर हो गया जितनी देर उसका संरक्षक उसके साथ खेलता उतनी देर तो वह कुछ प्रसन्न दीखता पर पीछे वह किसी प्रकार की चेष्टा भी नहीं करता, चुपचाप बैठा रहता, उसकी आंखें लाल हो जातीं, मुंह उदास हो जाता स्पष्ट लगता कि वह दुःखी है।

गिरते हुए स्वास्थ्य को देखकर उसे फिर से उसके माता-पिता के पास कर दिया गया। वह सबसे पहले अपनी मां के पास गया पर उसकी गोद में था छोटा भाई, फिर यही प्रेम की प्रतिद्वन्द्विता। उसने अपने छोटे भाई के साथ फिर रूखा और शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया। इस बार मां ने छोटे बच्चे का पक्ष लिया और बड़े को झिड़ककर कर दिया मानो वह बताना चाहती हो कि भावनाओं की भूख उचित तो है पर औरों की इच्छा का भी अनुशासनपूर्वक आदर करना चाहिये।

कहते हैं अनुशासन-व्यवस्था और न्याय-नीति के लिये थोड़ी कड़ाई अच्छी ही होती है। अहिंसा की शक्ति हिंसा से हजार गुना अच्छी, घृणा नहीं संसार में करुणा बड़ी मानी जाती है, प्रेम देना चाहिये बैर नहीं बांटना चाहिये पर यदि अहिंसा-हिंसा, करुणा, चाटुकारिता प्रेम में विश्वास की हिंसा की जा रही हो, अनीति और अन्याय का आचरण किया जा रहा हो तो दण्ड ही उस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता होती है। शक्ति की मनमानी रोकने के लिए युद्ध भी करना पड़े तो करना चाहिये। इस तरह का दण्ड, संघर्ष, युद्ध और उपेक्षा मानवता की ही श्रेणी में आते हैं। दण्ड पाकर बड़ा बच्चा ठीक हो गया अब उसने अपनी भावनाओं की—परितृप्ति का दूसरा और उचित तरीका अपनाया। वह मां के पास उसके शरीर से सटकर बैठ गया। मां ने भावनाओं की सदाशयता को समझा और अपने उद्धत बच्चे के प्रति स्नेह जताया उससे उसका भी उद्वेग दूर हो गया थोड़ी देर में वह अपने पिता के कन्धों पर जा बैठा। कुछ दिन पीछे तो उसने समझ भी लिया कि स्नेह, सेवा, दया-मैत्री, करुणा, उदारता, त्याग सब प्रेम के ही रूप हैं, सो अब उसने अपने छोटे भाई से भी मित्रता करली। इस तरह एक पारिवारिक विग्रह फिर से हंसी खुशी के वातावरण में बदल गया।

आज का मनुष्य भावनाओं के अभाव में ही इतना दुराग्रही, स्वार्थी और उच्छृंखल हो गया है। यदि कुत्ते और बन्दर परस्पर प्रेम और मैत्री-भावना का निर्वाह कर सकते हैं तो विचारशील मनुष्य क्यों ऐसा नहीं कर सकता। यह कोई अत्युक्ति नहीं—अलीगढ़ जिले के कस्बा जवां में एक बन्दर और कुत्ते में मैत्री लोगों के लिए एक चुनौती है विरोधी स्वभाव के जीव परस्पर साथ-साथ खेलते और साथ-साथ रहते हैं। बन्दर अपने मित्र के जुंयें साफ करता है, कुत्ता बन्दर के तलुये सहलाता है। दोनों की मैत्री एक अव्यक्त सत्य का प्रतिपादन करते हुए कहती है कि भिन्न-भिन्न शरीर हैं तो क्या आकांक्षाओं, इच्छाओं और भावनाओं वाली आत्मिक चेतना तो एक ही है। कर्मवश भिन्न शरीरों में, भिन्न देश जाति और वर्णों में जन्म लेने वाले अपने को एक दूसरे से पृथक क्यों समझें। सब लोग अपने आपको विश्वात्मा की एक इकाई मानकर ही परस्पर व्यवहार करें तो संसार कितना सुखी हो जावे।

निसर्ग में यह आदर्श पग-पग पर देखने को मिलते हैं कैफनौ एस.सी. में स्टीव एण्ड स्किनर के पास एक मुर्गी थी। एकबार उसके सद्यप्रसूत बच्चों को बाज ने पकड़कर खा लिया। उसके थोड़ी देर बाद मुर्गी ने एक बिल्ली का पीछा किया लोगों ने समझा मुर्गी में प्रतिशोध का भाव जाग गया है किन्तु यह धारणा कुछ देर में ही मिथ्या हो गई जब कि मुर्गी ने बिल्ली को पकड़ लिया उसके पास आ जाने से उसके चारों बच्चे भी पास आ गये मुर्गी ने चारों बच्चे स्वयं पाले और इस तरह अपनी भावना भूख को बिल्ली के बच्चों से प्यार करके पूरा किया।

डा. साहबर्ट ने जंगल जीवन की व्याख्या करते हुए एक गिलहरी और गौरैया में प्रगाढ़ मैत्री का वर्णन किया है गिलहरी यद्यपि अपने बच्चों की देखरेख करती और अपने सामाजिक नियमों के अनुसार अन्य गिलहरियों से मेल-मुलाकात भी करती पर वह दिन के कम से कम चार घंटे गौरैया के पास आकर अवश्य रहती दोनों घंटों खेला करते। दोनों ने एक-दूसरे को कई बार आकस्मिक संकटों से बचाया और जीवन रक्षा की। गिलहरी आती तब अपने साथ कोई पका हुआ बेर गौरैया के लिये अवश्य लाया करती। गौरैया वह बेर गिलहरी के चले जाने के बाद खाया करती।

भावनाओं की प्यास सृष्टि के हर जीव को है यही एकात्मा का प्रमाण है। प्यार तो खूंखार जानवर तक चाहते हैं। रूसी पशु प्रशिक्षक एडर बोरिस की मित्रता क्रीमिया नामक एक शेर से हो गई। दिन भर वे कहीं भी रहते पर यदि एकबार भी मिल न लेते तो उनका मन उदास रहता। मिलते तो ऐसे जैसे दो सगे बिछुड़े भाई वर्षों के बाद मिले हों। एकबार एक सरकस का प्रदर्शन करते हुए बोरिस के शेर भड़क उठे और वे उसे चबा जाने को दौड़े किन्तु तभी पीछे से वहां क्रीमिया जा पहुंचा उसने शोरों को घुड़ककर हटा दिया। बोरिस बाल-बाल बच गया।

स्वामी दयानन्द एकबार बूढ़े केदार के रास्ते पर एक स्थान में ध्यान मग्न बैठे प्रकृति की शोभा का आनन्द पान कर रहे थे उस समय एक साधु भी वहां पहुंच गये। साधु ने महर्षि को पहचान कर प्रणाम किया ही था कि उन्हें एक शेर की दहाड़ सुनाई दी शेर उधर ही चला आ रहा था। यह देखते ही वह महात्मा कांपने लगे। दयानन्द ने हंसकर कहा—बाबा डरो नहीं शेर खूंखार जानवर है तो क्या हुआ मनुष्य के पास दिव्य प्रेम की आत्म-भावना की ऐसी जबर्दस्त शक्ति है कि वह एक शेर तो क्या सैकड़ों शेरों को गुलाम बना सकती है। सचमुच शेर वहां तक आया। साधु भयवश कुटिया के अन्दर चले गये पर महर्षि वहीं बैठे रहे। शेर स्वामीजी के पास तक चला आया। उन्होंने बड़े स्नेह से उसकी गर्दन सिर पर हाथ फेरा वह भी वहीं बैठ गया उसकी आंखों की चमक कह रही थी जीवन की वास्तविक प्यास और अभिलाषा तो आन्तरिक है, प्रेम की है। कुछ देर वहां बैठकर एक सबक देकर चला गया। पर भावनाओं का यह पाठ, प्रेम की यह शिक्षा मनुष्य कब पढ़ेगा कब सीखेगा? जिस दिन मनुष्य भावनाओं का सच्चे हृदय से आदर करना सीख गया उस दिन वह भगवान् हो जायेगा और यह धरती ही स्वर्ग हो जायेगी। तब स्वर्ग अन्यत्र ढूंढ़ने की आवश्यकता न पड़ेगी।
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