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Books - दीक्षा और उसका स्वरूप

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    भगवान् ने मनुष्य के साथ ऐसा कोई पक्षपात नहीं किया है, बल्कि उसे अमानत के रूप में कुछ विभूतियाँ दी हैं। जिसको सोचना कहते हैं, जिसको विचारणा कहते हैं, जिसको बोलना कहते हैं, जिसको भावनाएँ कहते हैं, जिसको उसकी विशेषताएँ कहते हैं, सिद्धियाँ- विभूतियाँ कहते हैं। ये सब अमानतें हैं। ये अमानतें मनुष्यों को इसलिए नहीं दी गई हैं कि उनके द्वारा वह सुख- सुविधाएँ कमाये और स्वयं के लिए अपनी ऐय्याशी या विलासिता के साधन इकट्ठे करे और अपना अहंकार पूरा करे। ये सारी की सारी चीजें सिर्फ इसलिए उसको दी गयी हैं कि इन चीजों के माध्यम से वो जो भगवान् का इतना बड़ा विश्व पड़ा हुआ है, उसकी दिक्कतें और कठिनाइयों का समाधान करे और उसे अधिक सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने के लिए प्रयत्न करे। उसके लिए सब अमानतें हैं।   

    बैंक के खजांची के पास धन रखा रहता है और इसलिए रखा रहता है कि सरकारी प्रयोजनों के लिए इस पैसे को खर्च करे। उसको उतना ही इस्तेमाल करने का हक है, जितना कि उसको वेतन मिलता है। खजाने में अगर लाखों रुपये रखे हों, तो खजांची उन्हें कैसे खर्च कर सकता है? उसे क्यों खर्च करना चाहिए? पुलिस के पास या फौज के पास बहुत सारी बन्दूकें और कारतूसें होती हैं वे इसलिए थोड़े ही उसके पास होती हैं कि उसको अपने लिए उनका इस्तेमाल करना चाहिए और चाहे जो तरीका अख्तियार करना चाहिए, ये नहीं हो सकता। कप्तान को और जो फौज का कमाण्डर है, उसको अपना वेतन लेकर जितनी सुविधाएँ मिली हैं, उसी से काम चलाना चाहिए और बाकी जो उसके पास बहुत सारी सामर्थ्य और शक्ति बंदूक चलाने के लिए मिली है, उसको सिर्फ उसी काम में खर्च करना चाहिए, जिस काम के लिए सरकार ने उसको सौंपा है।  

    हमारी सरकार भगवान् है और मनुष्य के पास जो कुछ भी विभूतियाँ, अक्ल और विशेषताएँ हैं, वे अपनी व्यक्तिगत ऐय्याशी और व्यक्तिगत सुविधा और व्यक्तिगत शौक- मौज के लिए नहीं हैं और व्यक्तिगत अहंकार की तृप्ति के लिए नहीं है। इसलिए जो कुछ भी उसको विशेषता दी गई है। उसको उतना बड़ा जिम्मेदार आदमी समझा जाए और जिम्मेदारी उस रूप में निभाए कि सारे के सारे विश्व को सुंदर बनाने में, सुव्यवस्थित बनाने में, समुन्नत बनाने में उसका महान् योगदान संभव हो।  भगवान् का बस एक ही उद्देश्य है- निःस्वार्थ प्रेम। इसके आधार पर भगवान् ने मनुष्य को इतना ज्यादा प्यार किया। मनुष्य को उस तरह का मस्तिष्क दिया है, जितना कीमती कम्प्यूटर दुनिया में आज तक नहीं बना। करोड़ों रुपये की कीमत का है, मानवीय मस्तिष्क। मनुष्य की आँखें, मनुष्य के कान, नाक, आँख, वाणी एक से एक चीज ऐसी हैं, जिनकी रुपयों में कीमत नहीं आँकी जाती है। मनुष्य के सोचने का तरीका इतना बेहतरीन है, जिसके ऊपर सारी दुनिया की दौलत न्यौछावर की जा सकती है।

    ऐसा कीमती मनुष्य और ऐसा समर्थ मनुष्य- जिस भगवान् ने बनाया है, उस भगवान् की जरूर ये आकांक्षा रही है कि मेरी इस दुनिया को समुन्नत और सुखी बनाने में यह प्राणी मेरे सहायक के रूप में, और मेरे कर्मचारी के रूप में, मेरे असिस्टेण्ट के रूप में मेरे राजकुमार के रूप में काम करेगा और मेरी सृष्टि को समुन्नत रखेगा।

    मानव जीवन की विशेषताओं का और भगवान् के द्वारा विशेष विभूतियाँ मनुष्य को देने का एक और भी उद्देश्य है। जब मनुष्य इस जिम्मेदारी को समझ ले और ये समझ ले कि मैं क्यों पैदा हुआ हूँ, और यदि मैं पैदा हुआ हूँ? तो मुझे अब क्या करना चाहिए?  यह बात अगर समझ में आ जाए, तो समझना चाहिए कि इस आदमी का नाम मनुष्य है और इसके भीतर मनुष्यता का उदय हुआ और इसके अंदर भगवान् का उदय हो गया और भगवान् की वाणी उदय हो गयी, भगवान् की विचारणाएँ उदय हो गयीं।     

    यदि इतना न हो, तो उसको क्या कहा जाए? उसके लिए सिर्फ एक ही शब्द काम में लाया जा सकता है, उसका नाम है नर- पशु। नर- पशु कई तरह के हैं और नर- पशु भी दुनिया में बहुत सारे हैं। अधिकांश आदमी नर- पशु हैं। नर- पशु हो करके नर- नारायण होकर और पुरुष- पुरुषोत्तम और मानव को महामानव होकर के जीना चाहिए, आदर्शवादी और सिद्धान्तवादी होकर जीना चाहिए। यह दो उद्देश्य ही तो मनुष्य के हैं। जहाँ दूसरे लोग, दूसरे प्राणी इन्द्रियों की प्रेरणाओं से प्रभावित होते हैं, अपने अन्तःमन की प्रेरणा से प्रभावित होते हैं, जन्म- जन्मान्तरों के कुसंस्कारों से प्रभावित होते हैं, समीपवर्ती वातावरण से प्रभावित होते हैं और उसी के अनुसार अपनी गतिविधियों का निर्धारण करते हैं, वहीं मनुष्य वह है, जो किसी बाहर की परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होता है,  बल्कि अन्तरंग की प्रेरणा और भगवान्  की पुकार और जीवन के उद्देश्य से ही प्रभावित होता है और सारी दुनिया की बातों को, सारी दुनिया के लोभ और आकर्षणों को उठाकर एक कोने पर रख देता है। उसी का नाम मनुष्य है।
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