
द्विज का अर्थ - मर्म समझें
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अपने हिन्दू समाज में जिन मनुष्यों के दो बार जन्म होते हैं। उन्हें द्विज कहते हैं। द्विज माने दुबारा जन्म लेने वाला। दुबारा जन्म क्या है? नर- पशु के जीवन से नर- नारायण के जीवन की भूमिका में प्रवेश करना। यही तो दूसरा जन्म है और ये दूसरा जन्म जिस दिन लिया जाता है, जिस दिन ये प्रतिज्ञाएँ ली जाती हैं, उस दिन एक समारोह मनाया जाता है, उत्सव मनाया जाता है, कर्मकाण्ड किया जाता है। उसी का नाम दीक्षा संस्कार है। जो आदमी इस तरह की प्रतिज्ञा के लिए तैयार नहीं होते हैं और वे कहते हैं कि ऊँचे जीवन और आदर्श जीवन से कोई मतलब नहीं रखते हैं, वे कहते हैं कि हम तो केवल पशुओं की तरह से जीवन जियेंगे। हम पेट भरने के लिए जीयेंगे और संतान पैदा करने के लिए जीयेंगे, उनको अपने यहाँ शूद्र कहा गया और शूद्रों को बहिष्कृत माना गया है। इस तरीके से शूद्र वे नहीं हैं, जो किसी जन्म में, किसी कौम में पैदा होते हैं। शूद्र वे हैं, जिनके जीवन में जीवन का कोई लक्ष्य नहीं होता है और जिनका पशुओं की तरह पेट पालना और रोटी कमाना ही लक्ष्य है। वे सब के सब आदमी शूद्र हैं, दूसरे शब्दों में पशु कहें, तो भी कोई हर्ज नहीं है। उसको बहिष्कृत माने जाने की परम्परा उस जमाने में उसी तरह की थी।
आज तो जन्म से शूद्र और जन्म से ही ब्राह्मण मानते हैं। जन्म से शूद्र वर्ण का कोई मतलब नहीं है। केवल मतलब ये है कि जो आदमी भौतिक जीवन जीते हैं और आत्मिक जीवन के प्रति जिनका कोई लगाव नहीं है, उन आदमियों का नाम नर- पशु अथवा शूद्र। शूद्र अपने यहाँ एक निंदा की बात थी, किसी जमाने में, कर्म के आधार पर जब शूद्र और ब्राह्मण बनते थे तब। आज जब जन्म के आधार पर शूद्र और ब्राह्मण मान लिया जाने लगा, तब कोई निंदा की बात नहीं रही और न ही कोई अपमान की बात रही। अब तो सब गुड़- गोबर ही हो गया, लेकिन पुराने जमाने की बात अलग थी। मनुष्य शूद्रता की सीमा से निकल करके जिस दिन ये प्रतिज्ञा लेता है, व्रत लेता है कि मैं आज से मनुष्य होकर के जिऊँगा; उस दिन का समारोह? आत्मा और परमात्मा के साथ मिलने का विवाह जैसा समारोह होता है। उस दिन को मनुष्य जीवन में प्रवेश करने वाला नया जन्म कह लीजिए, उसे आत्मा का परमात्मा के साथ आध्यात्मिक विवाह कह लीजिए।
जन्म भी अपने यहाँ हँसी- खुशी का त्यौहार माना जाता है और विवाह भी। ये दोनों ही कार्य जिस दिन एक साथ होते हैं, वह आदमी का बड़ी खुशी का दिन है, बड़े उत्सव का दिन है, बड़ी शान का दिन है, बड़ा गौरव का दिन है और वह दिन दीक्षा का दिन है। दीक्षा एक तरह की कसम लेने की प्रक्रिया है। जिस तरीके से कोई मिनिस्टर बनता है जब, तब उसको न्यायाधीश अथवा राष्ट्रपति आते हैं, उसको प्रतिज्ञाएँ दिलाते हैं, उसको गोपनीयता की शपथ दिलाते हैं, देश भक्ति की शपथ दिलाते हैं। मैं देश भक्त होकर के जिऊँगा और जो गोपनीय बातें हैं उनको बाहर प्रकट नहीं होने दूँगा। ये दो बातें राजनीतिक मनुष्यों को शपथ के रूप में लेनी पड़ती हैं, जो ये शपथ नहीं ले, उसको मिनिस्टर नहीं बनाया जा सकता। ठीक इसी प्रकार से दीक्षा यह शपथ लेने का समारोह है कि मैं मनुष्य का जीवन जीऊँगा महत्त्व उस शपथ के भावनात्मक सम्बन्ध का है। संस्कार कराने की विधि तो कोई सामान्य आदमी भी पूरा कर सकता है, ये कोई बड़ी बात है क्या?
विवाह स्त्री- पुरुषों का होता है। पण्डित जी पगड़ी बाँध के आ बैठते हैं, उनको दक्षिणा दे देते हैं, वे श्लोक बोल देते हैं, परिक्रमा करा देते हैं और पण्डित जी मिठाई खा करके, पूड़ी खा करके घर से चले जाते हैं। पण्डित जी का ब्याह में कोई खास भाग नहीं है। बस थोड़ी देर के लिए भाग है। इस तरीके से गुरु- दीक्षा का कृत्य- कर्मकाण्ड कोई भी आदमी करा सकता है, उस आदमी का कोई मूल्य नहीं है। वास्तविक बात यह है कि आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने भर की बात है। सद्गुरु जिसको कहते हैं। वह अन्तरंग में बैठा हुआ चेतना- प्रेरणा का नाम है, जो मनुष्य को दिशाएँ बताती है, हर वक्त मार्गदर्शन करती है। बाहर का गुरु तो केवल ढाँचे के तरीके से, खाके के तरीके से और सिगनल के तरीके से सिर्फ आरम्भिक रास्ता बता सकता है। चौबीस घंटे रास्ता कैसे बता सकता है कोई गुरु? ॐ गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः .. में जो बात बताई है, वह मनुष्यों के ऊपर कैसे लागू हो जायेगी?
कोई सामान्य मनुष्य ब्रह्मा कैसे हो सकता है? कोई सामान्य मनुष्य विष्णु कैसे हो सकता है? कोई सामान्य मनुष्य महेश कैसे हो सकता है? इतनी जो महत्ता और महिमा बताई गई है, वह अंतरंग में बैठे हुए उस भगवान् के लिए है। सद्गुरु शब्द केवल भगवान् के लिए काम आता है, मनुष्यों के लिए नहीं आता। गुरु तो जरूर मनुष्यों के लिए आता है, लेकिन सद्गुरु सम्बोधन कभी मनुष्य के लिए काम में नहीं आ सकता, वह सिर्फ भगवान् के लिए काम आयेगा। उस भगवान् के लिए जो हमारे अन्तरंग में बैठा हुआ प्रेरणा दिया करता है।
सद्गुरु के साथ अपनी जीवात्मा का सम्बन्ध जोड़ लेना- यही गुरु दीक्षा है। गुरु दीक्षा जब होती है, तो हमको गायत्री मंत्र दिया जाता है। ये सिम्बल है, ये सहारा है। पहाड़ पर चढ़ने के लिए हाथ में लाठी जिस तरीके से दी जाती है, उस तरीके से ये लाठी है- महानता के मार्ग पर चलने के लिए। गायत्री मंत्र की शिक्षाओं में कितना मूल्य भरा हुआ है। मनुष्य को सविता के समान तेजस्वी होना चाहिए और वरेण्य- श्रेष्ठ होना चाहिए, ऐसी कितनी विशेषता उसमें भरी पड़ी है। अंत में ये कहा गया है- धियो यो नः प्रचोदयात्। इनसान की इस दुनिया में अक्ल को बहकाने वाले बहुत साधन भरे पड़े हैं। हमारे कुटुम्बी हमारी अक्ल को बहकाते हैं और हमारे खानदान वाले हमारी अक्ल को बहकाते हैं और हमारे लोग ही हमारी अक्ल को बहकाते हैं और समाज के लोग अक्ल को बहकाते हैं। जितनी भी दुनिया में चालाकियाँ और जाल भरे पड़े हैं, आदमी की अक्ल को बहकाते हैं। अक्ल को बहकाया नहीं जाना चाहिए। इस तरह का शिक्षण, इस तरह का इशारा, इस तरह का सिगनल और इस तरह का जिस मंत्र के द्वारा, जिस प्रेरणा के द्वारा, जिस प्रकाश के द्वारा, हमको मार्गदर्शन दिया गया है, उसका नाम गायत्री मंत्र है।
आज तो जन्म से शूद्र और जन्म से ही ब्राह्मण मानते हैं। जन्म से शूद्र वर्ण का कोई मतलब नहीं है। केवल मतलब ये है कि जो आदमी भौतिक जीवन जीते हैं और आत्मिक जीवन के प्रति जिनका कोई लगाव नहीं है, उन आदमियों का नाम नर- पशु अथवा शूद्र। शूद्र अपने यहाँ एक निंदा की बात थी, किसी जमाने में, कर्म के आधार पर जब शूद्र और ब्राह्मण बनते थे तब। आज जब जन्म के आधार पर शूद्र और ब्राह्मण मान लिया जाने लगा, तब कोई निंदा की बात नहीं रही और न ही कोई अपमान की बात रही। अब तो सब गुड़- गोबर ही हो गया, लेकिन पुराने जमाने की बात अलग थी। मनुष्य शूद्रता की सीमा से निकल करके जिस दिन ये प्रतिज्ञा लेता है, व्रत लेता है कि मैं आज से मनुष्य होकर के जिऊँगा; उस दिन का समारोह? आत्मा और परमात्मा के साथ मिलने का विवाह जैसा समारोह होता है। उस दिन को मनुष्य जीवन में प्रवेश करने वाला नया जन्म कह लीजिए, उसे आत्मा का परमात्मा के साथ आध्यात्मिक विवाह कह लीजिए।
जन्म भी अपने यहाँ हँसी- खुशी का त्यौहार माना जाता है और विवाह भी। ये दोनों ही कार्य जिस दिन एक साथ होते हैं, वह आदमी का बड़ी खुशी का दिन है, बड़े उत्सव का दिन है, बड़ी शान का दिन है, बड़ा गौरव का दिन है और वह दिन दीक्षा का दिन है। दीक्षा एक तरह की कसम लेने की प्रक्रिया है। जिस तरीके से कोई मिनिस्टर बनता है जब, तब उसको न्यायाधीश अथवा राष्ट्रपति आते हैं, उसको प्रतिज्ञाएँ दिलाते हैं, उसको गोपनीयता की शपथ दिलाते हैं, देश भक्ति की शपथ दिलाते हैं। मैं देश भक्त होकर के जिऊँगा और जो गोपनीय बातें हैं उनको बाहर प्रकट नहीं होने दूँगा। ये दो बातें राजनीतिक मनुष्यों को शपथ के रूप में लेनी पड़ती हैं, जो ये शपथ नहीं ले, उसको मिनिस्टर नहीं बनाया जा सकता। ठीक इसी प्रकार से दीक्षा यह शपथ लेने का समारोह है कि मैं मनुष्य का जीवन जीऊँगा महत्त्व उस शपथ के भावनात्मक सम्बन्ध का है। संस्कार कराने की विधि तो कोई सामान्य आदमी भी पूरा कर सकता है, ये कोई बड़ी बात है क्या?
विवाह स्त्री- पुरुषों का होता है। पण्डित जी पगड़ी बाँध के आ बैठते हैं, उनको दक्षिणा दे देते हैं, वे श्लोक बोल देते हैं, परिक्रमा करा देते हैं और पण्डित जी मिठाई खा करके, पूड़ी खा करके घर से चले जाते हैं। पण्डित जी का ब्याह में कोई खास भाग नहीं है। बस थोड़ी देर के लिए भाग है। इस तरीके से गुरु- दीक्षा का कृत्य- कर्मकाण्ड कोई भी आदमी करा सकता है, उस आदमी का कोई मूल्य नहीं है। वास्तविक बात यह है कि आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने भर की बात है। सद्गुरु जिसको कहते हैं। वह अन्तरंग में बैठा हुआ चेतना- प्रेरणा का नाम है, जो मनुष्य को दिशाएँ बताती है, हर वक्त मार्गदर्शन करती है। बाहर का गुरु तो केवल ढाँचे के तरीके से, खाके के तरीके से और सिगनल के तरीके से सिर्फ आरम्भिक रास्ता बता सकता है। चौबीस घंटे रास्ता कैसे बता सकता है कोई गुरु? ॐ गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः .. में जो बात बताई है, वह मनुष्यों के ऊपर कैसे लागू हो जायेगी?
कोई सामान्य मनुष्य ब्रह्मा कैसे हो सकता है? कोई सामान्य मनुष्य विष्णु कैसे हो सकता है? कोई सामान्य मनुष्य महेश कैसे हो सकता है? इतनी जो महत्ता और महिमा बताई गई है, वह अंतरंग में बैठे हुए उस भगवान् के लिए है। सद्गुरु शब्द केवल भगवान् के लिए काम आता है, मनुष्यों के लिए नहीं आता। गुरु तो जरूर मनुष्यों के लिए आता है, लेकिन सद्गुरु सम्बोधन कभी मनुष्य के लिए काम में नहीं आ सकता, वह सिर्फ भगवान् के लिए काम आयेगा। उस भगवान् के लिए जो हमारे अन्तरंग में बैठा हुआ प्रेरणा दिया करता है।
सद्गुरु के साथ अपनी जीवात्मा का सम्बन्ध जोड़ लेना- यही गुरु दीक्षा है। गुरु दीक्षा जब होती है, तो हमको गायत्री मंत्र दिया जाता है। ये सिम्बल है, ये सहारा है। पहाड़ पर चढ़ने के लिए हाथ में लाठी जिस तरीके से दी जाती है, उस तरीके से ये लाठी है- महानता के मार्ग पर चलने के लिए। गायत्री मंत्र की शिक्षाओं में कितना मूल्य भरा हुआ है। मनुष्य को सविता के समान तेजस्वी होना चाहिए और वरेण्य- श्रेष्ठ होना चाहिए, ऐसी कितनी विशेषता उसमें भरी पड़ी है। अंत में ये कहा गया है- धियो यो नः प्रचोदयात्। इनसान की इस दुनिया में अक्ल को बहकाने वाले बहुत साधन भरे पड़े हैं। हमारे कुटुम्बी हमारी अक्ल को बहकाते हैं और हमारे खानदान वाले हमारी अक्ल को बहकाते हैं और हमारे लोग ही हमारी अक्ल को बहकाते हैं और समाज के लोग अक्ल को बहकाते हैं। जितनी भी दुनिया में चालाकियाँ और जाल भरे पड़े हैं, आदमी की अक्ल को बहकाते हैं। अक्ल को बहकाया नहीं जाना चाहिए। इस तरह का शिक्षण, इस तरह का इशारा, इस तरह का सिगनल और इस तरह का जिस मंत्र के द्वारा, जिस प्रेरणा के द्वारा, जिस प्रकाश के द्वारा, हमको मार्गदर्शन दिया गया है, उसका नाम गायत्री मंत्र है।