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Books - देवात्मा हिमालय एवं ऋषि परंपरा

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देवात्मा हिमालय एवं ऋषि परंपरा

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गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ बोलें-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

देवियों, भाइयों ! मुनासिब जगह पर मुनासिब चीज पैदा होती है। नागपुर के संतरे अगर आप अपने यहाँ बोना चाहें तो मीठे नहीं होंगे। बंबई(मुंबई) वाला केला जो कि वहाँ की जमीन में पैदा होता है, दूसरी जगह नहीं हो सकता। लखनऊ का आम सारी दुनिया में मशहूर है। अगर वही आम आप अपने गाँव में बोएँ तो उतना मीठा नहीं होगा जैसा कि वहाँ का होता है। नीलगिरी का चंदन कितना खुशबूदार होता है। यदि उसी चंदन का पेड़ आप ले आवें और अपने गाँव के बगीचे में लगा दे तो इतना खुशबूदार नहीं होगा। देवगण जहाँ हिमालय पर रहते हैं, वहाँ एक लंबी वाली शकरकंद जैसा कंद पैदा होता है और वह कई दिन तक खाने के काम आ जाता है। उसी शकरकंद का बीज आपको दे दें, तो आप बो लेंगे, नहीं। पैदा नहीं होगी। ब्रह्मकमल जिसके लिए द्रौपदी ने भीम से आग्रह किया था कि तुम ब्रह्मकमल ला करके दो। यह कहाँ पैदा होता है? यह उत्तराखण्ड में जहाँ गोमुख है, उसके आगे तपोवन के नजदीक पैदा होता है। यह ब्रह्मकमल का फूल जमीन पर खिलता है, पानी में नहीं। यह अपनी जगह पर होता है। आप कहीं से बीज ले आएँ ब्रह्मकमल के, अपने घर में बोना चाहें, तो हो सकता है ना, वहाँ नहीं हो सकता। जगह की अपनी महत्ता होती है।

हिमालय की अपनी महता है। सारे ऋषियों ने वहीं निवास किया था। स्वर्ग भी पहले वहीं था। ऋषियों की भूमि भी वहीं है। बड़ी सामर्थ्यवान, बड़ी संस्कारवान भूमि है। हमको भी तप करने के लिए वहाँ भेज दिया गया था और अब हम यहाँ सप्तऋषियों की भूमि शांतिकुंज में है। देवात्मा हिमालय का अपना महत्त्व है। गंगा का अपना महत्त्व है। गंगा अपने में आध्यात्मिक शक्तियों को समेटे हुए है। यह न केवल उसके पीने के पानी में है, बल्कि वह जहाँ होकर बहती है, वहाँ का वातावरण भी कुछ विशेष होता है। सप्तऋषियों की भूमि, जहाँ सातों ऋषियों ने तपश्चर्या की थी और जो अभी भी ऊपर आसमान में दिखाई पड़ते हैं। उनकी जो भूमि है सप्तऋषि भूमि वह भी यहीं हैं, जहाँ आपका यह शांतिकुंज बना हुआ है और भी गंगा के किनारे बहुत से ऐसे स्थान हैं, जहाँ सिंह और गाय कभी एक घाट पर पानी पीने लगते थे। ऐसे प्राणवान स्थान भी होते हैं और सिद्धपुरुष भी होते हैं। हम यहाँ ऐसे स्थान पर ही आए हैं। यहाँ आकर हमने आपकी भावनाओं को दिव्यता का स्मरण कराने के लिए देवात्मा हिमालय का एक मंदिर बना दिया है। हिमालय का मंदिर और कहीं नहीं मिलेगा आपको।

लोगों ने देवताओं के मंदिर बनाए हैं, अमुक के मंदिर बनाए हैं, तमुक के मंदिर बनाए हैं, पर हिमालय का मंदिर सिर्फ आपको यहीं देखने को मिलेगा। हमने यह भी बनाया हैं। यह सप्तऋषियों को भूमि है। सप्तऋषियों की भूमि और कहाँ है, बताइए आप? कहीं नहीं है, मात्र यहीं पर है, जहाँ आज शांतिकुंज बना हुआ है। गंगा पहले यहीं पर बहती थी। यहाँ की थोड़ी सी जमीन भर गई है, इसलिए शांतिकुंज वाली जमीन में जो पानी हजारों वर्षों से बहता था वह बंद नहीं हुआ है। वह धारा अभी भी बह रही है, उसके लिए सामने रास्ते बना दिए गए हैं।

हिमालय मंदिर क्या है? ये प्रतीक क्यों बना दिए है? प्रतीकों का अपना अलग महत्त्व है। एकलव्य ने द्रोणाचार्य का प्रतीक बना लिया था। रामचंद्र जी ने शंकर जी का प्रतीक बनाया था। जब वे वनवास गए थे और सीताहरण के कारण दुखी मन से वन- वन भटक रहे थे, उस समय उन्हें जब प्रतीक की आवश्यकता हुई तो उन्होंने शंकर जी के मंदिर की स्थापना की थी, रामेश्वर में। ये सब प्रतीक हैं जैसे तिरंगा झंडा अपना राष्ट्रीय प्रतीक है। कम्युनिस्टों का भी झंडा होता है। लोग कहते हैं कि वे प्रतीकों को नहीं मानते। कैसे नहीं मानते? लाओ हम उनके झंडे को उखाड़ फेंके, फिर देखो क्या होगा? मुसलमान भी प्रतीकों को नहीं मानते हैं क्या? मक्का, मदीना में प्रतीक ही तो रखा हुआ है जिसका वे चुंबन लेते हैं। समस्त देवात्मा हिमालय का मदिर कहीं था नहीं। भारतवर्ष का यह एक बड़ा अभाव था। वह हमने दूर किया है, ताकि साधना की दृष्टि से कोई आदमी आना चाहे तो इस स्थान पर आकर वह महत्त्वपूर्ण लाभ उठा सके। इसलिए यह बनाया गया है। मुनासिब जगह पर मुनासिब काम होते हैं। हिमालय में बहुत सारे ऋषि रहते हैं और जो भी ऋषि आए हैं, वे सब हिमालय से आए हैं। उन्हीं ऋषियों का स्मरण दिलाने के लिए हमने यह कोशिश की है कि जो उन्होंने काम किए थे, उनको समेट करके पूरा न सही, थोड़ा- थोड़ा काम करें तो अच्छा होगा। हमने वही किया है।

व्यास जी ने अठारह पुराण लिखे थे। दर्शन भी लिखे थे। पुराणों और दर्शनों को हम लिख तो नहीं सके, पर हमने उनका अनुवाद किया है। वेदों का अनुनाद किया है। व्यास जी ने जो काम किए थे, उस रास्ते पर हम भी चले है और यहाँ जब आप शांतिकुंज में आएँगे तो देखेंगे कि उसकी निशानी यहाँ भी विद्यमान है। महर्षि पतंजलि ने गुप्तकाशी में रहकर योगाभ्यास किया था। आप जब आएँगे तो देखेंगे कि यहाँ जो कल्प साधना शिविर कराए जाते हैं, अन्य दूसरे शिविर कराए जाते हैं और यहाँ योगाभ्यासों का, प्राणायामों का विधि- विधान सिखाया जाता है, वह हमने भी किया है और आपको भी सिखाते हैं। पुराने जमाने के ऋषियों में याज्ञवल्क्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने यज्ञ के संबंध में शोध की थी। यज्ञ से किस तरीके से मनुष्य के शारीरिक और मानसिक रोगों का निराकरण होना संभव है और यज्ञ से किस प्रकार पृथ्वी के वातावरण को ठीक किया जाना संभव है? ऐसी बहुत भी बातों की महत्ता थी, तब लेकिन लोग उस महत्त्वपूर्ण यज्ञ को भूल गए थे। ऐसे ही हवन कर लेते थे सुगंध फैलाने के लिए। हमने उसको फिर से जीवित किया है शोध करके जैसे कि याज्ञवल्क्य ऋषि ने किया था। लगभग उसी तरीके से यहाँ शांतिकुंज में भी हमने कोशिश की है कि वह परंपरा चलती रहे।

विश्वामित्र ऋषि थे। वे गायत्री के मंत्रद्रष्टा हैं। गायत्री मंत्र जो हम बोलते हैं, उसका विनियोग है, सविता देवता हैं और विश्वामित्र ऋषि। गायत्री छंद विनियोग है। विश्वामित्र उसके पारंगत थे। विश्वामित्र का भी यहाँ स्थान बना हुआ है। गायत्री का मंदिर भी बना हुआ है शांतिकुंज में। हमने भी गायत्री के पुरश्चरण किए हैं। विश्वामित्र को भी हम गुरु मानते हैं, जो हमारे हिमालय वाले गुरु हैं, वे अगर विश्वामित्र हो तो आप अचंभा मत मानना। भगीरथ का नाम आपने सुना होगा। उनने हिमालय पर तप किया था और तप करके गंगा को लाए थे। गंगा जब धरती पर आने लगी तो उनके प्रचंड वेग को देखकर भगीरथ ने सोचा कि या तो हमारे बूते का नहीं है। गंगा जी ने भी कहा कि जब मैं नीचे जमीन पर गिरूँगी तो सूराख हो जाएगा। सो तुम मुझे स्वर्ग से बुलाकर कैसे धारण करोगे? तब भगीरथ ने शकर जी से मदद माँगी। शंकर जी ने अपनी जटाएँ फैला दीं। इस तरह स्वर्ग से जब गंगा आई थीं तो पहले शंकर जी की जटाओं में आई, पीछे जमीन पर गिरी। भगीरथ आगे- आगे चले, इसलिए गंगा भागीरथी कहलाई, यह आपको मालूम है न? भगीरथ तो अब नहीं हैं, मगर उनके तप का स्थान अभी भी है। गंगोत्री के पास गौरीकुंड है उसके पास एक शिला है, जिसका नाम भगीरथ शिला है, जहाँ भगीरथ ने बैठकर तप किया था। उस स्थान पर बैठकर हमने भी ठीक उसी तरीके से एक साल का अनुष्ठान किया था। हम भी ज्ञानगंगा को लाए हैं। यह ऋषियों की परंपरा है। हमने कोशिश की है कि ऋषिगण जिस रास्ते पर चले हैं, हम भी उस रास्ते पर चलें। ऋषियों की वजह से हिमालय धन्य हुआ, नहीं तो हिमालय में क्या बात है हैं इससे ऊँचे- ऊँचे और भी पहाड़ हैं। सारी दुनिया में पहाड़ों की कोई कमी है क्या? उत्तराखण्ड इसी वजह से प्रख्यात हुआ है कि इसमें चारों धाम भी बने हैं। पाँच प्रयाग भी इसमें हैं। पाँच गुप्त काशियाँ भी हैं। पाँच सरोवर भी हैं। समूचे भारतवर्ष के जो कुछ भी महत्त्वपूर्ण स्थान हैं, जो कुछ भी तीर्थ हैं, सब इकट्ठे होकर इसी एक जगह पर एकत्रित हो गए हैं। हमारा भी प्रयत्न इसी तरीके से रहा है।

परशुराम जी का नाम आपने सुना होगा। उन्हें शंकर भगवान ने एक कुल्हाड़ा दिया था। उस कुल्हाड़े से उनने लोगों के सिर काट डाले थे। जो खराब दिमाग वाले थे, बददिमाग वाले थे, उन बददिमाग वालों के सिर काटकर परशुराम जी ने फेंक दिए थे और वह भी इक्कीस बार। सिर काटने से मतलब? सिर काटना तो मेरे ख्याल से ऋषि के लिए क्या संभव रहा होगा? यह कथन तो आलंकारिक मालूम पड़ता है। दिमाग बदल जरूर दिए होंगे। दिमाग बदलने के लिए विचार क्रांति की दृष्टि से हम लगभग वही काम कर रहे हैं जो कि परशुराम जी ने फरसा लेकर किया था। फरसा तो हमारे हाथ में नहीं है, मगर कलम जिंदा है। दोनों चीजें हमारे हाथ में हैं और उन्हीं के सहारे हम लोगों के दिमागों को बदलने के लिए निरंतर प्रयत्नशील हैं। परशुराम जी यमुना जी को भी आए थे और फरसा भी लाए थे। परशुराम जैसा लगभग वही काम हमने किया है।

प्राय: सभी ऋषि उत्तराखण्ड में ही हुए हैं। ऋषियों ने इसी पुनीत भूमि में रहकर तपस्या की, ताकि अध्यात्म शक्तियों को ठीक ढंग से संभाल सकें। इसलिए उन्होंने इसी स्थान को चुना था। हमने भी इसे ही चुना है। हमारा और आपका मिलन हो सके, इसलिए हिमालय की जहाँ से शुरुआत होती है- हरिद्वार से, उस स्थान पर हम बैठे हैं ताकि आपके लिए भी यहाँ आने में मुश्किल न हो। ऊँची जगह पर चढ़ना मुश्किल है। जहाँ बरफ पड़ती है और अत्यधिक ठंडक रहती है, जहाँ खाने- पीने का कोई सामान नहीं है, यदि वहाँ आप जाएँगे तो मुश्किल पड़ेगी आपके लिए। इसलिए हमने हरिद्वार में रहना मुनासिब समझा। यहीं से हिमालय शुरू होता है। गंगा में यहाँ से पहले कोई गंदी चीज नहीं डाली जाती और न कोई नाले पड़ते हैं। बाद में पड़ते हैं। इसलिए हरिद्वार को हमने मुनासिब समझा।

चरक ऋषि को आप जानते हैं क्या? चरक ऋषि प्राचीन काल में हुए हैं। उन्होंने दवाओं, प्राकृतिक औषधियों के संबंध में शोधें की थीं, खोजें की थीं। उनका स्थान केदारनाथ के पास था, जहाँ सिखों का गुरुद्वारा है। केदारनाथ के पास फूलों की घाटी है जो उन्हें बहुत प्रिय थी। अब तो वहाँ तोड़- फोड़ के कारण सब जड़ी- बूटियाँ नष्ट हो गई हैं। वहाँ तो अब फूलों की घाटी भी नहीं है लेकिन अगर कभी आपको फूलों की घाटी देखने का मन हो तो आप गोमुख से आगे ऊपर तपोवन जाना, नंदनवन जाना। तपोवन और नंदनवन ऐसे स्थान हैं, जहाँ विचित्र दुर्लभ फूलों की छटा देखते ही बनती है। इनमें ब्रह्मकमल भी शामिल है। वह आपको वहीं मिलेगा। चरक के रास्ते पर हम भी चले हैं। वनौषधियों के प्राचीन श्लोकों को ठीक तरीके से खोज- बीन करने के लिए और उनके सही और गलत होने की बावत जानकारी प्राप्त करने के लिए यहाँ ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना की है। जो कुछ भी संभव है पुराना और नया अर्थात पुराने ढंग से कैसे शोध की जाती थी और नए ढंग से कैसे की जाती? यह हमने यहाँ बनाने की कोशिश की है।

उत्तरकाशी में आरण्यक हैं। आरण्यक किसे कहते हैं? आरण्यक उसे कहते हैं जहाँ लोग वानप्रस्थ लेकर समाजसेवा के लिए समर्पित हो जाते हैं उनके निवास स्थान को आरण्यक कहते हैं। गुरुकुल छोटे बच्चों का होता है। विद्यार्थियों का होता है। वहाँ तो आरण्यक ही था, पर यहाँ पर हमने गुरुकुल और आरण्यक दोनों चलाने की कोशिश की है। बच्चों का भी यहाँ विद्यालय है खास विद्यालय जिसके बारे में कहना चाहिए कि हिंदुस्तान भर में शायद ही कहीं ऐसा विद्यालय आपको देखने को मिले। प्रचारक और लोकसेवी तैयार करने के लिए हमने यहाँ आरण्यक बनाया है। भगवान बुद्ध ने भी बनाए थे नालंदा और तक्षशिला में। उनमें प्रचारक और कार्यकर्त्ता तैयार किए जाते थे। हमारे यहाँ भी कार्यकर्ताओं को संगीत की शिक्षा, व्याख्यानों की शिक्षा, समाजसेवा की शिक्षा, चिकित्सा की शिक्षा आदि सारी शिक्षाएँ दी जाती हैं। यहीं जमदग्नि का आश्रम है। नारद जी का नाम तो सुना है न आपने? वे संगीत के द्वारा ही सारी की सारी भक्ति का प्रचार करते थे और हिंदुस्तान से लेकर सारे विश्वभर में घूमते थे। चाहे जब भगवान के पास जा पहुँचते थे। उनका स्थान कहाँ था? विष्णु प्रयाग में उन्होंने तप किया था। वहाँ तो हम आपको नहीं ले जा सकते, लेकिन यहाँ पर नारद जी का जो काम था संगीत शिक्षा का, वह हमने किया है, क्योंकि इस जमाने में लोक शिक्षा के लिए संगीत बेहद आवश्यक है। संगीत के बिना देहाती इलाकों में जहाँ विना पढ़े -लिखे लोग अधिक रहते हैं, उनको प्रशिक्षित करना बड़ा मुश्किल है। हमने उसकी भी यहाँ व्यवस्था बना ली है।

वसिष्ठ जी का तो नाम आपने सुनाई। उन्होंने राजनीति और धर्म- दोनों को मिलाया था। राजा दशरथ के यहाँ भी रहते थे। धर्म का भी काम करते थे और राजनीति की भी देख−भाल करते थे। हमारी भी जिंदगी कुछ इसी तरह की हो गयी है। पौने चार वर्ष तो जेलखाने में रहना पड़ा। सन् १९२० से लेकर सन् १९४२ तक बाइस साल तक हम दिन रात राजनीति में लगे रहे, समाज को ऊँचा उठाने के लिए और अँग्रेजों को भगाने के लिए। देश की आजादी के लिए हमने जो काम किया है, वसिष्ठ भगवान भी यही काम करते थे। पीछे वे राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न को अपने पास ले गए। हम भी आपको लेकर आए हैं। हमारे बच्चे तो क्या आएँगे, पर आप आ सकते हैं। आप भी हमारे बच्चे है। शंकराचार्य के बच्चे थोड़े ही थे। रामचंद्र जी के पिता का नाम वसिष्ठ थोड़े ही था? दशरथ जी था। आप भी तो हमारे बालक हैं? जिस तरीके से राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न- चारों भाइयों को लेकर वसिष्ठ जी आ गए थे और उनको यह बतलाया था कि धर्म और राजनीति, दोनों का समन्वय कैसे हो सकता है, हम भी आपको यही सिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि धर्म और राजनीति का, विज्ञान और अध्यात्म का सम्मिश्रण समन्वय कैसे हो सकता है?

आद्य शंकराचार्य का नाम सुना है न आपने। जिन्होंने चारों धाम बनाए थे। चारों धाम कौन- कौन से हैं? रामेश्वरम्, द्वारिका, बद्रीनाथ और जगन्नाथपुरी। चारों धामों में चार मठ उन्होंने स्थापित किए थे। उनका अपना निवास स्थान था ज्योतिर्मठ। ज्योतिर्मठ के पास शहतूत का एक पेड़ था। उसी के नीचे उनकी गुफा थी। वे वहीं रहते थे। वहीं उनने अपने ग्रंथ लिखे थे और वहीं तप किया था और वहीं जो कुछ भी काम कर सकते थे, चारों धाम बनाने का, वे भी योजनाएँ उन्होंने वहीं बनाई थीं। मांधाता को कहकर वह काम उन्होंने वहीं से कराया था। हमने भी यहीं से बैठकर गायत्री के चौबीस भी सौ धाम बनाए हैं। इसके अलावा भी चौबीस सौ और छोटे- छोटे धाम हैं। शंकर जी का एक ही धाम है रामेश्वर में और जगन्नाथ जी का एक ही धाम है, बद्रीनाथ का एक ही धाम है लेकिन गायत्री के हमने चौबीस सौ धाम बनाए हैं। आपने पिप्पलाद ऋषि का नाम सुना है। वह भी यहीं रहते थे हिमालय पर लक्ष्मण झूला के पास। पीपल के फल खाकर के ही उनने जिंदगी काट दी थी, क्योंकि वे जानते थे- 'जैसा खाए अन्न, वैसा बने मन'। यदि हम अपने मन को अच्छा बनाने की फिक्र में हैं तो सबसे पहले शुरुआत अच्छे खाने से करनी चाहिए। अच्छे अन्न से करनी चाहिए। अच्छे अन्न का मतलब होता है कि बेईमानी से कमाया हुआ अन्न नहीं हो। बिना हराम का जो अपने खून पसीने से कमाया हो, उसी को खा करके रहना चाहिए। पीपल के पेड़ उन दिनों ज्यादा थे। उनके फल भी ज्यादा होते होगे। तोड़- ताड़कर उन्हें साल भर के लिए रख लेते रहे होगे और उसे ही खाते रहे होंगे। हमारा भी आहार ऐसा ही रहा है। आपको मालूम है न, जौ के ऊपर हम कितने दिन तक रहे हैं। अभी भी ठीक तरह से अन्न नहीं खाते हैं।

सूत और शौनक ऋषि की कहानियाँ प्रसिद्ध हैं। वे कहाँ रहते थे? हिमालय पर। कौन भी जगह? ऋषिकेश में। ऋषिकेश में वह पुराणों की कथाएँ कहते थे। शौनक जी पूछते थे और सूत जी कहते थे। दोनों ही कथाएँ कहते थे। पुराने जमाने के तो अठारह पुराण अठारह समय पर लिखे गए थे। हमने एक प्रज्ञा पुराण ही बना दिया है। ये सब ऋषियों के काम हैं। एक- एक ऋषि ने एक- एक काम किया था लेकिन हमने सारे ऋषियों के कामों का समन्वय किया है। ऋषियों के तरीके से यह सब बनाने की कोशिश की है। राजा हर्षवर्धन थे जिन्होंने हर की पौड़ी पर बैठकर अपना सर्वस्व दान किया था तो उसी से तक्षशिला का विश्वविद्यालय बनाया गया था। हम हर्षवर्धन तो नहीं हैं, पर जो कुछ भी हमारे पास था, वह सब का सब हमने दिया है। हर्षवर्धन को जो परंपरा सर्वमेध की थी हर को पौड़ी के नजदीक थी, वह हमने शांतिकुन्ज में ही लाकर के स्थापित कर दी। कणाद ऋषि विज्ञान और अध्यात्म को मिलाने के लिए प्रयत्नशील रहा करते थे। उन्होंने 'एटम' के संबंध में अणु के संबंध में बहुत सारी खोजें की हैं। अपना ब्रह्मवर्चस भी विज्ञान और अध्यात्म को मिलाने की कोशिश कर रहा है। आप यहाँ जो कुछ भी देख रहे हैं वह ऋषि परंपरा है जिसे हमने जिंदा रखा है।

बुद्ध का नाम सुना है न आपने? धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए उनके कितने शिष्य थे जो आकर समय समय पर साधनाएँ किया करते थे और उपासनाएँ करते थे। वे कहाँ रहते थे ?? बुद्ध के पास ?? नहीं, बुद्ध के पास नहीं रहते थे। नालंदा में रहते थे। तक्षशिला में रहते थे और कुछ हिमालय में रहते थे। कुछ कहीं तो कुछ कहीं। बुद्ध की परंपरा को भी हमने कायम रखा है। यहाँ शांतिकुंज में पहले दो विश्वविद्यालय थे, पर अब एक की है अपनी तरह का निराला। धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए प्रज्ञाचक्र को घुमाने के लिए बुद्ध जैसा किया- कलाप आप शांतिकुंज में ही पाएँगे। हिमालय की गतिविधियों का एक केंद्र यह भी है। आर्यभट्ट ने भी इसी हिमालय में तप किया था। उन्होंने ज्योतिर्विज्ञान, ग्रह- नक्षत्रों के विज्ञान की खोज की थी कि किस तरीके से ग्रह- नक्षत्र घूमते हैं तो पृथ्वी पर क्या असर पड़ता है? पृथ्वी के निवासियों पर क्या- क्या असर पड़ता है? ये सारी की सारी खोजें आर्यभट्ट ने अपने जमाने में इसी हिमालय में की थीं। आप कभी शांतिकुंज आएँ तो देख लीजिए कि उनके जो सारे क्रिया- कलाप थे, जहाँ तक हमसे मुमकिन हुआ है, वह बनाने की कोशिश की है। पंचांग भी यहाँ से प्रकाशित होता है। इसमें नौ ग्रह पुराने और तीन जो अभी- अभी नए खोजे गए हैं, उन बारह ग्रहों का पंचांग भी केवल यहाँ से ही प्रकाशित होता है और कहीं से नहीं होता। नागार्जुन रसायन शास्त्री थे। उन्होंने रसायनों की खोज की थी। हमारे यहाँ भी दवाओं का और दूसरे अन्य रसायनों की खोज का क्रम है। हम जड़ी- बूटी से कायाकल्प का नूतन अनुसंधान कर रहे हैं।

श्रृंगी ऋषि मंत्रविद्या में पारंगत थे। वे लोमश ऋषि के बेटे। उन्होंने परीक्षित को शाप दिया था कि तुझे सातवें दिन साँप काट खाएगा, तो सातवें दिन साँप ने उन्हें काट खाया था। उन्होंने ही राजा दशरथ के यहाँ यज्ञ कराया था। राजा दशरथ के बच्चे नहीं होते थे तो पुत्रेष्टि यज्ञ कराने के लिए श्रृंगी ऋषि को उपयुक्त समझा गया। वे ब्रह्मचारी थे और मंत्रविद्या के पारंगत भी। उन्हीं की मंत्रविद्या की वजह से राजा दशरथ के चार बच्चे पैदा हुए थे। यह सब श्रृंगी ऋषि की मंत्रविद्या थी। वह भी हिमालय में रहते थे। मंत्रविद्या के बारे में गायत्री के बारे में हम कोशिश करते है। दोनों नवरात्रों में अनुष्ठान कराते हैं। जो भी आदमी इस महत्त्वपूर्ण समय पर आते हैं, वे सब गायत्री का अनुष्ठान करते है। कैलाश पर्वत कहाँ है? यहीं हिमालय पर है। यह स्वर्ग है। हिमालय केवल ऋषियों की ही भूमि नहीं है देवताओं की भी भूमि है। इसको स्वर्ग भी कहा गया है। सबसे पहले सृष्टि का उद्भव यहीं हुआ। मनुष्य यहीं जन्मे, इतिहास के हिसाब से। हमने भी कहा है कि स्वर्ग कहीं आसमान पर न होकर अगर जमीन पर रहा होगा तो वह देवात्मा हिमालय वाले हिस्से में रहा होगा कैलाश पर्वत पर। नंदनवन जो स्वर्ग में था, वह यहीं है। तपोवन भी, मानसरोवर भी यहीं है। गोमुख से जरा आगे चलेंगे जहाँ हमारे गुरुदेव का थोड़ी दूर पर निवास है, वह कैलाश में की है। वह कैलाश तो अलग था जो तिब्बत में है। अब वह चीन के हाथों में चला गया। उसको तो हम कैसे कहें कि शंकर जी को चीन छीन ले गया, लेकिन यह कैलाश पर्वत उसी पर है। इसलिए यह स्वर्ग भी है। हिमालय क्या है? स्वर्ग है। स्वर्गारोहण के लिए जब पांडव गए थे तो यहीं गए थे। स्वर्गारोहण बद्रीनाथ से आगे यशोधरा है और वसोधारा से आगे एक पहाड़ है, वहीं स्वर्गारोहण है। सुमेरु पर्वत भी यहीं है सारे देवता उसी पर रहते थे। यह सोने का पहाड़ था। हमारे पास उसका फोटोग्राफ भी है। जब हम वहाँ गए थे तो उसका फोटोग्राफ भी साथ में लाए थे। वहाँ प्रातःकाल एवं सायंकाल के समय सुनहरी छाया रहती है। ध्रुव ने यहीं तप किया था। श्रीकृष्ण भगवान तप करने के लिए बद्रीनाथ गए थे। रुक्मिणी और कृष्ण दोनों ने वहीं तप किया था। तप करने के बाद में उनके प्रद्युम्न जैसी संतान पैदा हुई।

वाल्मीकि की और सीता जी की घटना तो आपने सुनी है। रामचंद्र जी ने जब सीता जी को वनवास दिया था तो वे वाल्मीकि के आश्रम में रहीं थी और वहाँ लव- कुश नाम के दो ऐसे बालक पैदा हुए थे जो रामचंद्र जी से, लक्ष्मण जी से और हनुमान जी से लोहा लेने के लिए तैयार हो गए थे। आपने शकुन्तला का नाम सुना है और चक्रवर्ती भरत ! जिसके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। शकुन्तला कौन थी? वह कण्व ऋषि की बेटी थी, हाँ बेटी ही कहिए और उसके बच्चे भरत का जन्म, पालन जो हुआ था, यहाँ कोटद्वार नाम की एक जगह है हिमालय में वहीं हुआ था। हिमालय की इन सारी की सारी विशेषताओं को सिकोड़ करके हमने उनका विशाल मंदिर बना दिया है। ये सारी चीजें कहाँ हैं? अगर आप देखना चाहें तो यहाँ आकर देख भी सकते हैं। हमने एक छोटी भी पुस्तक भी छापी है रंगीन। जिसमें उन सब स्थानों का, हिमालय के स्थानों को बताने की कोशिश की है कि ये कहाँ हैं? हिमालय में पाँच प्रयाग हैं, पाँच काशियाँ हैं, पाँच सरोवर हैं। हिमालय में चार धाम हैं। चार धाम कौन- कौन से हैं? बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री। चार धाम ये ही कहलाते हैं। ये सारे के सारे पवित्रतम स्थान इसमें बने हुए हैं। उसका हमने मंदिर भी बनवाया है। जो उससे आपका संबंध जोड़ने की बीच की कड़ी है। सीढी पर पहला पाँव जहाँ पर रखा जाता है, ऊपर चढ़ने के लिए तो पहले पाँव को हम मुख्य मानते हैं। उसको देहरी कहते हैं। इसीलिए हरिद्वार इसका नाम रखा गया है। यहाँ पहाड़ों पर जाने के लिए रास्ता है। पार्वती जी ने तप यहीं किया था। यहाँ एक विल्वकेश्वर मंदिर है। वहाँ पार्वती जी ने तप किया था और वहीं नजदीक में ही उनका विवाह हुआ था। यहीं पार्वती जी अपने पूर्वजन्म में जिनका नाम सती था जन्मी थीं और सती हुई थी, वह दक्ष प्रजापति नामक स्थान है। दक्ष एक वैज्ञानिक थे, उनका सिर काटा गया था और महादेव जी उनसे नाराज हो गए थे, वह स्थान भी यहीं है। यह देवता हिमालय है बड़ा शानदार। इसको क्या कहें?
आपसे क्या अनुरोध है? यह कि हम तो सारी जिन्दगी के लिए चले आए। मरेंगे तो भी हम इधर ही कहीं मरेंगे, लेकिन आपसे हमारी प्रार्थना है कि ऐसे पुनीत स्थान से आपको जीवन में कहीं न कहीं जुड़ा रहना चाहिए। हमको जिंदगी भर में तीन बार हमारे गुरु ने एक एक वर्ष के लिए बुलाया बैटरी चार्ज करने के लिए। बैटरी जब धीमी हो जाती है गाड़ियों की तो उसको फिर दोबारा चार्ज कर देते हैं। फिर वह बैटरी काम करने लगती है। इसीलिए जब हमारी बैटरी धीमी पड़ी तब हमको हमारे गुरु ने बुलाया और अब हम यहाँ हैं। आपको हम निमंत्रण भेजते हैं इस व्याख्यान के द्वारा। आपको जब कभी भी मौका मिले, तीर्थयात्रा का जब कभी भी मौका मिले, आप यहाँ शांतिकुंज में आने की कोशिश कीजिए जहाँ सारे ऋषियों की परंपरा है। जहाँ हिमालय की सारी विशेषताओं को हमने एकत्रित करके रखा है। जब आपका जन्मदिन हो, विवाह दिन हो तो यहाँ आने की कोशिश कीजिए और बच्चों के संस्कार कराने के लिए, सोलह संस्कार कराने हों तो आप यहाँ आने की कोशिश कीजिए। बच्चों के संस्कार कराने के लिए पुनीत स्थान की लोग तलाश करते हैं। किसी देवी के यहाँ, किसी मंदिर में लोग संस्कार कराते हैं आप भी यहाँ आ सकते हैं। श्राद्ध और तर्पण कराने के लिए भी ऐसा नियम है कि यहाँ बद्रीनाथ के पास में ब्रह्मकपाल नाम का स्थान है, वहाँ लोग तर्पण कराते हैं। यहाँ भी तर्पण कराते हैं। श्राद्ध कराते हैं। आप चाहें तो हरिद्वार में भी करा सकते हैं, लेकिन वह स्थान कहाँ है? कैसे है? इसके बारे में हमें कुछ कहना नहीं है। लेकिन हमारा जो स्थान है, वह बहुत सुंदर स्थान है, यहाँ जो भी आते हैं, नवरात्र के दिनों में यहाँ अनुष्ठान कराते हैं। यह अनुष्ठान की भूमि है। शिक्षण की भी सारी व्यवस्था यहाँ है। शिक्षण के लिए आपका कभी मन हो, गुरुजी ने जो सीखा था उसको आगे चलकर हम भी सीखे तो यहाँ दस दिन के शिविर भी होते हैं। एक महीने के शिविर भी होते हैं, ये दोनों ही शिविर होते हैं। यहाँ पर एक छोटा स्थान आप ऐसे मान लीजिए जैसे गणेश जी ने राम नाम लिख करके उसकी परिक्रमा लगा ली थी और परिक्रमा लगाने के बाद में उनको वह सारा का सारा पुण्य मिल गया था जो कि विश्व की परिक्रमा से मिलना चाहिए था। गणेश जी को पहला नंबर मिला। उनका चूहे की सवारी पर बैठकर सारे विश्व भर में घूमना तो संभव नहीं था। अतः उन्होंने विवेक से काम लिया और रामनाम की परिक्रमा लगा ली। यह छोटा सा गायत्री- तीर्थ है। छोटा सा शांतिकुंज उन सारी विशेषताओं से भरा पड़ा है। हम तो अब ज्यादा समय तक रहेंगे नहीं, अभी सन दो हजार तक तो रहने वाले हैं नहीं किंतु इस शरीर से नहीं तो सूक्ष्म शरीर से रहेंगे। यहाँ हमारी प्रेरणा बराबर रहेगी और आपको बराबर वह लाभ मिलता रहेगा जो कि मिलना चाहिए। बहुत शानदार जगह है शांतिकुंज। इन सारे ऋषियों का, यहाँ के चौबीस गायत्री के चौबीस ऋषि हैं और उन चौबीस ऋषियों का सार यहाँ है। वे ऋषि जो करते थे, उनकी परंपरा का सार देखना हो तो यहाँ है। यह तीर्थों में ऐसा तीर्थ है कि यहाँ आ करके आप कभी उपासना करें तो जिस तरीके से नागपुर के संतरे, बंबई (मुम्बई) के केले फलदायक होते हैं, ठीक उसी तरीके से फलदायक आप अपने को पाएँगे। यह शांतिकुंज तीर्थ हमने बनाया है तो समझना चाहिए यह आपके लिए बनाया है। हिमालय बना होगा तो हमारे गुरु ने हमें यहाँ खींच करके हिमालय बुलाया और हमको वहाँ पर रखा। हम आपको खींच करके यहाँ बुलाएँगे कि आप यहाँ शान्तिकुंज में आया करें। साल में एक बार किसी प्रकार आने की कोशिश किया करें। यहाँ के आने- जाने में जो आपका पैसा लगा है, समय लगा है, जो कुछ भी चीजें लगी हैं, वे सब सार्थक सिद्ध होंगी। निरर्थक सिद्ध नहीं होंगी। आप शांतिकुंज आ करके यह ख्याल नहीं करेंगे कि हम निरर्थक आए और हमने बेकार में समय और पैसा गँवाया। बस और तो कुछ कहना नहीं

हिमालय की ऋषि परंपरा का पुनर्जागरण

जमदग्नि पुत्र परशुराम के फरसे ने अनेकों उद्धत उच्छृंखलों के सिर काटे थे। शांतिकुंज से चलने वाली लेखनी, वाणी ने उसी परशु की भूमिका निभाई एवं असंख्यों की मान्यताओं, भावनाओं, विचारणाओं एव गतिविधियों में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है।
भगीरथ ने जल दुर्भिक्ष के निवारण हेतु कठोर तप करके स्वर्ग से गंगा को धरती पर लाने में सफलता प्राप्त की थी। शांतिकुंज से ज्ञानगंगा का जो अविरल प्रवाह बहा है, उससे दुर्भिक्ष मिटेगा, सद्भावना का विस्तार चहुँओर होगा।

चरक ऋषि ने केदारनाथ क्षेत्र के दुर्गम क्षेत्रों में वनौषधियों की शोध करके रोगग्रस्तों को नीरोग करने वाली संजीवनी खोज निकाली थी। शांतिकुंज में दुर्लभ औषधियों को खोज निकालने, उनके गुण- प्रभाव को आधुनिक वैज्ञानिक यंत्रों से जाँचने का प्रयोग चलता है।
महर्षि व्यास ने व्यास गुफा में गणेश जी की सहायता से पुराण लेखन का कार्य किया था। प्रज्ञापुराण नवीनतम सृजन है, जिसमें कथा- साहित्य के माध्यम से उपनिषद्- दर्शन को जनसुलभ बनाया गया है।

पतंजलि ने रुद्रप्रयाग में अलकनंदा एवं मंदाकिनी के संगम स्थल पर योग विज्ञान के विभिन्न प्रयोगों का आविष्कार और प्रचलन किया था। शांतिकुंज में योग साधना के माध्यम से इस मार्ग पर चलने वाले जिज्ञासु साधकों को दिशाधारा प्रदान की जाती है।

याज्ञवल्क्य ने त्रियुगी नारायण में यज्ञविद्या का अन्वेषण किया था। आज यज्ञविज्ञान की श्रृंखला को फिर से खोजकर समय के अनुरूप अन्वेषण करने का दायित्व ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ने अपने कंधों पर लिया है।

विश्वामित्र गायत्री महामंत्र के द्रष्टा नूतन सृष्टि के सृजेता माने गए हैं। वह पवन भूमि यही गायत्री तीर्थ- शांतिकुंज ही शब्द शक्ति पर वैज्ञानिक अनुसंधान विश्वामित्र परंपरा का ही पुनरुज्जीवन है।

जमदग्नि का गुरुकुल आरण्यक उत्तरकाशी में स्थित था। शांतिकुंज भी एक आरण्यक है।

देवर्षि नारद ने गुप्तकाशी में तपस्या की। वे निरंतर अपने वीणावादन से जनजागरण में निरत रहते थे। शांतिकुंज के युगगायन शिक्षण विद्यालय ने अब तक हजारों ऐसे परिव्राजक प्रशिक्षित किए हैं।

देवप्रयाग में राम को योगवासिष्ठ का उपदेश देने वाले वसिष्ठ ऋषि धर्म और राजनीति का समन्वय करके चलते थे। शांतिकुंज भी वसिष्ठ परंपरा का निर्वाह करता है।

आद्य शंकराचार्य ने ज्योतिर्मठ में तप किया एवं चार धामों की स्थापना देश के चार कोनों पर की। शांतिकुंज के तत्वावधान में २४०० गायत्री शक्तिपीठें विनिर्मित हुई हैं जहाँ से धर्मधारणा को समुन्नत करने का कार्य निरंतर चलता रहता है।

ऋषि पिप्पलाद ने ऋषिकेश के समीप ही अन्न के मन पर प्रभाव का अनुसंधान किया था। वे पीपल वृक्ष के फलों पर निर्वाह करके आत्मसंयम द्वारा ऋषित्व पा सके। हमने २४ वर्ष तक जौ की रोटी एवं छाछ पर रहकर गायत्री अनुष्ठान किए।

हर की पौड़ी हरिद्वार में सर्वमेध यज्ञ में हर्षवर्धन ने अपनी सारी संपदा तक्षशिला विश्वविद्यालय निर्माण हेतु दान कर दी थी। शांतिकुंज के सूत्रधार ने अपनी लाखों की संपदा गायत्री तपोभूमि तथा जन्मभूमि में विद्यालय निर्माण हेतु दे दी।

कणाद ऋषि ने अथर्ववेदीय शोध परंपरा के अंतर्गत अपने समय में अणुविज्ञान का, वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का अनुसंधान किया था। ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में अध्यात्म- देव एवं विज्ञान- दैत्य के समन्वय का समुद्र मंथन चल रहा है।

बुद्ध के परिव्राजक संसार भर में धर्मचक्र प्रवर्तन हेतु दीक्षा लेकर निकले थे। शांतिकुंज में मात्र अपने देश में धर्मधारणा के विस्तार हेतु ही नहीं, संसार के सभी देशों में देव संस्कृति का संदेश पहुँचाने हेतु परिव्राजक दीक्षित होते हैं।

आर्यभट्ट ने सौरमण्डल के ग्रह- उपग्रहों का ग्रह- गणित जाना था। शांतिकुंज में एक समग्र वेधशाला बनाई गई है एवं ज्योतिर्विज्ञान पर अनुसंधान कार्य किया जा रहा है।

चैतन्य महाप्रभु, संत ज्ञानेश्वर, समर्थ गुरु रामदास, प्राणनाथ महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस आदि सभी मध्यकालीन संतों की धर्मधारणा विस्तार परंपरा का अनुसरण शांतिकुंज में किया गया है।

आज की बात समाप्त।
ॐ शांतिः
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