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Books - गायत्री अनुष्ठान का विज्ञान और विधान

Media: TEXT
Language: HINDI
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अनुष्ठान में पंच सूत्री तप साधना

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दूध को गर्म करने से उसका घृत वाला अंश मलाई के रूप में ऊपर तैरने लगता है। गर्मी से पिघल कर विशेष पत्थरों के भीतर रमा हुआ शिलाजीत बाहर निकल आता है। सूर्य की गर्मी बढ़ते ही सभी प्राणी निद्रा त्याग कर जाग पड़ते और काम में लगते हैं। तप की गर्मी से मनुष्य की अन्तः चेतना जाग्रत, सक्रिय और सक्षम बनती है। झकझोरने से सोया हुआ व्यक्ति जाग पड़ता है। आन्तरिक मूर्छा और उदासी को दूर करने के लिए तपश्चर्या से उत्पन्न उत्तेजना अपना चमत्कार दिखाये बिना नहीं रहती। उसका प्रभाव संचित कुसंस्कारों को जलाता है। और ऐसी अभिनव शक्ति प्रदान करता है जिसके सहारे प्रगति पथ पर द्रुत गति से बढ़ चलना संभव हो सके, आग तापने से ठंडक दूर होती है। अगति और अकर्मण्यता को निरस्त करने में तप की गर्मी से भी वैसा ही उद्देश्य पूरा होता है।  
गायत्री साधना पञ्च मुखी है। उसके प्राण रूपी प्रकरण पांच- पांच अध्याय- सोपानों में बंटे हुए हैं। तप साधना वाला प्रकरण भी पाँच भागों में विभक्त है। पाँच तत्वों से बना हुआ काय कलेवर, पाँच प्राणों से बने हुए चेतना संस्थान भी पाँच प्रकार की तपश्चर्याओं से प्रभावित परिष्कृत होते हैं। गायत्री उपासना को सफल बनाने वाली पांच तपश्चर्याऐं (१) उपवास (२) ब्रह्मचर्य (३) मौन (४) तितिक्षा (५) अनुदान इन पाँच नामों से प्रसिद्ध हैं। साधना के साथ- साथ इनका समन्वय जितना हो सकेगा उसी अनुपात में उसकी कार्य क्षमता बढ़ती चली जायगी।  
उपवास का प्रयोजन है आहार की संयम शीलता और सात्विकता, पापों के प्रायश्चित्त के लिए तो चांद्रायण संतापन आदि कितने ही विशिष्ट व्रत हैं। अमावस्या, पूर्णिमा, एकादशी एवं साप्ताहिक उपवासों का क्रम कितने ही लोग चलाते हैं। श्रावण, कार्तिक, माघ, बैसाख महीने के पूरे व्रत साधनों का विस्तृत माहात्म्य है। रमजान में रोजे तो मुसलमान भी रखते हैं। जन्माष्टमी, राम नवमी, शिवरात्रि, गंगा दशमी, नवरात्रि आदि के पर्वों पर उपवासों की परम्परा है। आहार न करने से पेट को विश्राम मिलना और उसका नई शक्ति नई स्फूर्ति अर्जित करना स्वास्थ्य की दृष्टि से तो हितकर है ही उसका प्रभाव मन पर भी पड़ता है। शारीरिक आवश्यकता भूख के रूप में प्रकट होती और आहार माँगती है। धर्म श्रद्धा के साथ जुड़ी हुई संकल्प शक्ति उस मांग को पूरा करने से इन्कार करती है। संस्कार और संकल्प के बीच विग्रह खड़ा होता है। समझा कर या बल पूर्वक संस्कार का दमन किया जाता है और धर्मबुद्धि के सहारे शरीर को सन्तोष समाधान कराया जाता है। इस अनुशासन स्थापना को तपश्चर्या कहा गया है। इस अभ्यास में अन्यान्य प्रकार की वासनाओं का दमन समाधान हो सकता है। इन्द्रिय निग्रह और मनोनिग्रह में इस सफलता से क्रमशः उत्साह साहस बढ़ता चलता है। मन को जीतना सब में बड़ी विजय है तो इस क्षेत्र में पूरी तरह सफल हो सके उसे जीवन मुक्त कहा जायेगा। उपवास की तपश्चर्या के सहारे आत्मानुशासन स्थापित करने का महत्त्व पूर्ण प्रयोजन सिद्ध होता है।  
उपवास किसे किस प्रकार कितना करना चाहिए? यह साधक की मनः स्थिति और परिस्थिति पर निर्भर है। पूर्ण उपवास तो वही है जो मात्र जल पर रहा जाय। आंशिक उपवास के कितने ही प्रकार हैं। (१) दूध, छाछ, फलों का रस, शागों का रस जैसे पेय पदार्थों पर रहना। (२) अन्नाहार छोड़कर शाक फल दूध आदि पर निर्वाह करना। (३) एक समय भोजन करना (४) एक अन्न, एक लगावन की रोटी, शाक दाल, भात से पेट भरना। (५) खिचड़ी, दलिया जैसी एक ही भगौनी से पकाई वस्तु से काम चलाना। उपवास की इन प्रक्रियाओं में से जो जितना कठिन सरल चुनाव कर सके वह उसे अपना सकता है।

अस्वाद व्रत इसी उपवास प्रक्रिया का एक अतिरिक्त भाग है। नमक, शक्कर, मसाले छोड़कर बिना स्वाद का भोजन करना इन्द्रिय निग्रह का एक बड़ा कदम है। स्वास्थ्य की दृष्टि से इसमें तनिक भी हानि नहीं। खाद्य पदार्थों में उपयोगी क्षारों की मात्रा प्रकृतितः होती है। उसमें ऊपर से नमक शक्कर आदि मिलाने की स्वास्थ्य की दृष्टि से इसमें तनिक भी आवश्यकता नहीं है। सृष्टि का कोई प्राणी ऊपर से नमक मसाले नहीं खाता। शरीर के लिए सभी आवश्यक तत्व सामान्य खाद्य पदार्थों में ही मिल जाते हैं। जीव को चटोरेपन की आदत डाल कर भोजन को अखाद्य बनाया जाता है। मन में चंचलता और तामसिकता की वृद्धि भी उन मिलावटों के कारण ही उत्पन्न होती है।  
अस्वाद व्रत जिह्वा इन्द्रियों का संयम है। जीभ को चटोरेपन के दुर्गुण से छुड़ा लेने में साहसिकता का समावेश है। इसे जीत लेने पर अन्य सभी इन्द्रियों पर अनुशासन स्थापित कर सकना सरल हो जाता है। इसमें भी आत्म निग्रह का आत्मानुशासन का संकल्प प्रखर होता है और इससे बढ़ा हुआ साहस अन्य कुसंस्कारी दुष्प्रवृत्तियों पर विजय पा सकने में समर्थ हो जाता है। स्वाद छूटने पर जो कुछ खाया जायेगा प्रायः वह सीमित और सात्विक ही रहता है। आहार का संयम मन का संयम होता है और उससे आत्मिक प्रगति में बड़ी सहायता मिलती है। इसलिए उपवास और इसकी एक महत्त्वपूर्ण शाखा अस्वाद व्रत का पालन तपश्चर्या में ही सम्मिलित है। उसका लगातार कितने समय तक पालन किया जाय यह साधक की इच्छा पर निर्भर है। न्यूनतम सप्ताह में एक बार इस तप के पालन का अभ्यास तो करना ही चाहिए।  
जप स्तवन, कीर्तन, पठन आदि जिह्वा से किये जाते हैं। इस उपकरण की शुद्धि नितान्त आवश्यक है। जिस जीभ रूपी बन्दूक से मन्त्र रूपी कारतूस चलाया जाता है उसकी सफाई पहले ही कर लेनी चाहिए। नली में कूड़ा- करकट भरा हों तो अच्छे कारतूस होने पर भी निशाना लगाना कठिन है। वंशी बजाने वाले यह देख लेते हैं कि उसके छेद साफ हैं या नहीं। मैले बर्तन में दूध दुहने या उबालने से उसके फटने की आशंका रहेगी। अशुद्ध जिह्वा के सम्बन्ध में भी है उसके द्वारा किये गये पूजा उपचार एवं मन्त्र साधन सफल नहीं होते। अस्तु उपासना को सार्थक बनाने के लिए जिह्वा शुद्ध की प्रक्रिया पर पूरा ध्यान देना चाहिए।  

कहा जा चुका है कि अभक्ष्य आहार से जिह्वा की पवित्रता और आध्यात्मिक क्षमता नष्ट होती है। इसलिए भोजन को सात्विकता पर पूरा- पूरा ध्यान देने की आवश्यकता है। स्वाद को जीतना आवश्यक है। इसके बिना आहार को सात्विक रखा ही न जा सकेगा। चटोरापन न केवल पेट के स्वास्थ्य को बिगड़ता है वरन् मानसिक चंचलता और तामसिकता का भी निमित्त होता है। भोजन पवित्र हाथों से बनाया हुआ हो। पकाने और परोसने वाले के संस्कार आहार में रहते हैं। इसलिए साधकों अपने हाथ का अथवा सुसंस्कारी हाथों का पकाया परोसा आहार लेने की व्यवस्था करनी चाहिए और हर हालत में भूख से कम ही खाना चाहिए। बेईमानी से कमाया हुआ- युद्ध में पाया हुआ धन भी बुद्धि भ्रष्ट करने का बड़ा कारण है। ऐसे धन से खरीदे गये खाद्य पदार्थ वस्त्र तथा दूसरे उपकरण आध्यात्मिक प्रगति में घोर बाधा पहुँचाते हैं। इन सब बातों ध्यान रखा जाय तो उपासना की सफलता सुनिश्चित होती है।  
जिह्वा का एक कार्य है आहार ग्रहण, दूसरा है उच्चारण। उच्चारण का तात्पर्य है साधक के सम्भाषण में पवित्रता का समावेश। असत्य भाषण, छल, शेखीखोरी, अवांछनीय परामर्श, अपमान, तिरस्कार कटु वचन, चुगली हिम्मत गिराना जैसे अनेक वाणी दोषों को सुधारने के लिए पूरा- पूरा ध्यान देना चाहिए इस संदर्भ में वाणी का विश्राम, निरीक्षण, संशोधन करने के लिए मौन का अभ्यास करना चाहिए। मौन को वाणी का तप कहा गया है।  
सुविधानुसार हर दिन जागृति स्थिति में एक दो घण्टे मौन रहने का अभ्यास करने का प्रयत्न करना चाहिए। भोजन के समय मलमूत्र विसर्जन में उपासना के समय तो मौन रहने की परम्परा भी है। इसके लिए जिस समय कम जन सम्पर्क रहता है उस समय एक दो घण्टे का मौन रखने का नियम बनाना चाहिए। सप्ताह में या महीने में एक दिन पूरा मौन रखना भी जिह्वा की अवांछनीय गतिविधियों पर रोक लगाने पुरानी आदतें भुलाने का एक अच्छा उपाय है।  
शक्ति संचय की दृष्टि से कम बोलना उपयोगी है। जब मनुष्य अधिक दुर्बल हो जाता है। तो उसकी वाणी बन्द हो जाती है। या लड़खड़ाने लगती है। यद्यपि होश हवाश बने रहते हैं। बोलने में अन्तः शक्तियों पर बहुत जोर पड़ता है। अनेकों अवयवों की संयुक्त शक्ति के अतिरिक्त उसमें शरीर की विद्युत शक्ति का भी एक बहुत बड़ा भाग खर्च होता है। दुर्बलता की स्थिति में उतनी सामर्थ्य न रहने से ही बोलने में कठिनाई होती है। 
‘वायस आफ साइलेन्स’ ग्रन्थ में थियोसोफी के जन्म दाताओं ने यह बताया है कि मौन रहने की स्थिति में दैवी वाणी को सुनने का अवसर मिलता है। कहने और सुनने को दोनों क्रियाएं साथ- साथ चलाने में कितनी कठिनाई होती है यह सभी जानते हैं। ईश्वर की वाणी सुनने अदृश्य लोक के दिव्य संदेशों को पकड़ने के लिए मौन धारण का अभ्यास करना उचित ही है। गायत्री उपासकों के लिए उपवास अस्वाद एवं मौन का अभ्यास करने के साथ में जिह्वा के माध्यम से की जाने वाली दोनों ही तपश्चर्याएं आवश्यक हैं। आहार की तामसिकता और अनर्गल वार्ता का संयम करने से जिह्वा में वह शक्ति उत्पन्न होती है। जिससे उसके द्वारा किया हुआ जप आराधन सफल हो सके ।।  
तीसरा तप है- ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य का मोटा अर्थ है। वीर्य रक्षा। स्वास्थ्य सुरक्षा की दृष्टि से यह भी आवश्यक है। इस बहुमूल्य धातु का सूक्ष्म रूप ओजस् है। नेत्रों में ज्योति, वाणी में प्रभाव मस्तिष्क में स्मृति, व्यक्तित्व में प्रतिभा, शरीर में स्फूर्ति, चेहरे पर तेजस्विता मन में साहसिकता के रूप में यह ओजस् ही काम करता है। जीवन ज्योति का आलोक जिस तेल के आधार पर प्रकाशवान रहता है वह वीर्य रक्षा से ही संचित होता है। आत्मिक प्रगति के लिए प्रचण्ड संकल्प शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। भौतिक आकर्षणों से लेकर कुसंस्कारों के अवरोधों से पग- पग पर जूझना होता है। इसके लिए योद्धाओं जैसे शौर्य साहस की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए अभीष्ट शक्ति संचय की दृष्टि से ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। दाम्पत्य जीवन का अर्थ आत्मघात नहीं है। पति पत्नी भी दो भाइयों और मित्रों की तरह दो बहिनों और सहेलियों की तरह मित्रता और प्रसन्नता भरा जीवन सरलता पूर्वक जी सकते हैं।  
ब्रह्मचर्य का सूक्ष्म और महत्त्वपूर्ण भाग वह है जिसमें नर नारी को और नारी नर को कामुकता की दृष्टि से न देख कर सामान्य प्राणी की तरह देखते हैं। अश्लील विचारों की वासनात्मक कुदृष्टि का समन्वय नहीं होने देते। यदि स्नेह पूर्वक एक दूसरे को देखना आवश्यक हो तो पुत्री भगिनी या माता की, पुत्र भाई या पिता की पवित्र दृष्टि रखते हुए घनिष्ठता एवं मित्रता का भी निर्वाह हो सकता है। मस्तिष्क को अनावश्यक रूप से उत्तेजित करने में चिन्तन को उच्चस्तरीय प्रयोजनों में संलग्न न होने देने में कामुकता के विचार ही अत्यधिक बाधक होते हैं। कल्पना शक्ति का महत्त्वपूर्ण भाग इन्हीं कुप्रसंगों का ताना बाना बुनने में नष्ट हो जाता है। कामुक दृष्टि रहने पर नेत्रों की दिव्य दृष्टि का बुरी तरह अपव्यय होता रहता है। ऐसा चिन्तन वीर्य पात से भी अधिक हानिकारक होता है। रति कर्म से स्थूल शरीर में जैसी हानि होती है वैसी ही कामुक शरीर से सूक्ष्म शरीर की प्राण प्रतिभा को क्षति उठानी पड़ती है इसलिए ब्रह्मचर्य की तप साधना में न केवल वीर्य रक्षा का वरन् कामुक दृष्टि को निरस्त करने का भी अनुशासन है।  
गायत्री माता का चित्र युवा नारी का है। उसमें पवित्रता भरी मातृ बुद्धि की श्रद्धा जमाने का एक उद्देश्य यह भी है कि नारी यौवन पर दृष्टि जाते ही उत्कृष्ट चिन्तन उभरने का अभ्यास होता रहे। सरस्वती, लक्ष्मी, काली आदि अन्य देवियों की प्रतिमाओं में भी यौवन के साथ भाव भरी श्रद्धा संजोये रहने की मान्यता है। इस प्रकार देवताओं को रूप यौवन सम्पन्न बनाकर नारी को वह अभ्यास करने का अवसर दिया गया है कि वे नर यौवन से कामुक उत्तेजना ग्रहण न करें। मीरा आदि की आराधना इस स्तर की थी।  
चौथी तपश्चर्या है- तितीक्षा। तितीक्षा का अर्थ है सुविधाओं का स्वेच्छा पूर्वक परित्याग और कष्ट साध्य जीवन क्रम का अभ्यास। यह कई कारणों से आवश्यक है। मितव्ययी ब्राह्मण जीवन की स्थिति अपनाने पर ही परमार्थ प्रयोजनों के लिए समय मन और धन बच सकता है। विलासी व्यक्ति की आवश्कताएं आकांक्षाएँ इतनी बढ़ी- चढ़ी होती हैं कि उसके लिए परमार्थ प्रयोजन के लिए कुछ कर सकना तो दूर सोच सकना भी कठिन पड़ता है। अल्प व्यय में निर्वाह करने वाले को कई प्रकार की असुविधाएँ सहन करनी पड़ती हैं इसका पूर्वाभ्यास तितीक्षा से ही करना पड़ता है। लोक मंगल की सेवा साधना ईश्वर उपासना का अविच्छिन्न अंग है। विराट् ब्रह्म की -विशाल विश्व की सेवा आराधना से विरत रहकर मात्र पूजा अर्चा मात्र से कोई जीवन लक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। सेवा साधन में निरत व्यक्तियों को कितने ही प्रकार से कष्ट सहन करने पड़ते हैं। परिव्राजक जीवन की कठिनाइयाँ तो सर्व विदित ही हैं। वानप्रस्थ संन्यास में भी इसी का पूर्वाभ्यास है ताकि समय आने पर अभ्यास प्रक्रिया अपनाने में कठिनाई अनुभव न हो।  

सचाई और न्याय निष्ठा अपनाने वाले को अनीति के विरुद्ध संघर्ष भी करना पड़ता है इसमें प्रतिपक्षों असुरता के प्रत्याक्रमण होने स्वाभाविक हैं। ईसा, गाँधी, सुकरात, दयानन्द, मंसूर, बन्दा वैरागी, गुरू गोविन्द सिंह के बालक जैसे असंख्यों पुरुषों को प्राण से हाथ धाने पड़े हैं। त्रास तो असंख्यों ने सहे हैं। हिंस्र व्याघ्र आदि तो आक्रमण करने से रोकने पर प्रतिरोध करने वाले पर ही टूट पड़ते हैं। असुरता की यही नीति रही है कि वह सज्जनता को अपने अस्तित्व के लिए संकट उत्पन्न मानती है और उस पर आक्रमण करती है। जिनके स्वार्थों को क्षति पहुँचती है वे सब अपने विराने अध्यात्मवादी से रुष्ट रहते और हानि पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं। ऐसी विपत्तियों के फँसने की जानकारी एवं तैयारी पहले से ही बनी रहे इसलिए कई प्रकार के कार्य कष्ट सहने की तितीक्षा को तपश्चर्या माना गया है और साधक को उसका अभ्यास करते रहने के लिए कहा गया है। सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास सहने का अभ्यास तितीक्षा है। भूमि शयन, बिना जूते चलना कम वस्त्रों का उपयोग भी इसी श्रेणी में आता है। बिना दूसरों की सहायता का स्वावलम्बी जीवन, अपनी शरीर यात्रा के कार्य अपने हाथों करने का अभ्यास भी इसी प्रयोजन के लिए है। कपड़े धोना, हजामत बनाना जैसे दैनिक आवश्यकता के काम बिना दूसरों की सहायता लिए करने के नियम इसी तितीक्षा तप के अन्तर्गत आते हैं।

पाँचवाँ तप है अनुदान। अपने सुविधा साधनों में कमी करके उस बचत को सत्प्रयोजन में लगाते रहना अनुदान अथवा अंशदान है। समय दान, श्रम दान, धन दान, ज्ञानदान आदि इसी वर्ग में आते हैं। अपने धर्म कृत्यों में से प्रत्येक के साथ किसी न किसी रूप में दान देने का विधान जुड़ता हुआ है। विविध प्रकार के दान पुण्यपरमार्थ एवं धर्म कृत्य माने गये हैं। अंशदान का अर्थ है अपना उपार्जन। उसका एक न्यूनतम अंश ही अपने निर्वाह में खर्च करना शेष को परमार्थ में लगा देना तपश्चर्या का एक रूप है। समय दान और धन दान का न्यूनतम अनुदान युग- निर्माण परिवार के सदस्यों को ज्ञान यज्ञ के लिए प्रस्तुत करना पड़ता है। ज्ञानघटों की स्थापना से इसी तपश्चर्या का शुभारम्भ होता है। अपने युग का सबसे बड़ा परमार्थ ज्ञान यही माना गया है। हमें प्राचीन काल के ऋषियों महामानवों और देव पुरुषों की तरह बढ़ा- चढ़ा अंशदान पीड़ा और पतन का समय निवारण कर सकने वाले ज्ञान दान के निमित्त करते रहना चाहिए। तपश्चर्या का यह पंचम चरण है। इन पाँचों को किसी न किसी रूप में कार्यान्वित करके गायत्री उपासना के वास्तविक सत्परिणाम देखने का अवसर प्राप्त करना चाहिए।
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