
आत्मिक प्रगति के दो प्रधान आधार
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गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस का शुभारम्भ करते हुए भवानी और शंकर की वन्दना की है। ये दोनों क्या हैं, इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा है- ‘भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ’ ।। भवानी को उन्होंने श्रद्धा और शंकर को विश्वास के रूप में उल्लेख किया है। बात सोलह आने सच है। भवानी और शंकर में जो शक्ति हो सकती है, वह सारी की सारी- ज्यों की त्यों- श्रद्धा और विश्वास में विद्यमान है। अध्यात्म तत्त्व- ज्ञान का सारा आधार इन्हीं दोनों पर है। दृश्य जगत् के आधार पंचतत्त्व हैं।
दिखाई देने वाले समस्त जड़ पदार्थ- मिट्टी, पानी, हवा, गर्मी और प्रकाश द्वारा विभिन्न वस्तुएँ उत्पन्न होतीं, बढ़तीं और जराजीर्ण होकर नष्ट होती हैं, उसी प्रकार श्रद्धा विश्वास के आधार पर भावनाओं का निर्माण होता है। यह भावनाएँ और मान्यताएँ ही चेतन जगत् में विविध- विधि सृजनात्मक ताने- बाने बुनती हैं। श्रद्धा और विश्वास अपने आप में इस दृष्टि के महत्तम शक्ति- स्रोत हैं। इन्हीं के आधार पर व्यक्ति और पदार्थों के साथ हमारे सम्बन्ध जुड़े हुए हैं। आशा और उत्साह इन्हीं पर निर्भर है। भविष्य का निर्माण और निर्धारण इन्हीं के आधार पर सम्भव होता है। यदि यह दोनों तत्त्व चेतना क्षेत्र से अलग हटा दिये जायें तो फिर यह जीवन- जीवन कहलाने योग्य ही न रह जायेगा।
श्रद्धा, कल्पना को नहीं, उस मान्यता, आस्था एवं दृष्टि को कहते हैं, जो आत्मानुभूति जैसे खरे आधार पर प्रमाणित होती है और जिसके असंख्य प्रमाण सृष्टि के आरम्भ से लेकर आज तक के इतिहास में पग- पग पर भरे पड़े हैं। श्रद्धा एक सजीव शक्ति है जिसका आरोपण जहाँ भी किया जाये वही अभिनव चेतना उपज पड़ती है ।। आग को जिस वस्तु में भी लगा दिया जाये वही गरम और चमकीली हो जाती है। श्रद्धा का आरोपण जिस भी व्यक्ति अथवा पदार्थ पर किया जाये, वह दूसरों के लिए न सही उस आरोपण करने वाले के लिए तो दिव्य सत्ता से परिपूर्ण बन ही जाता है। देव आस्था का यही स्वरूप है।
निर्जीव प्रतिमाओं को देव भाव से देखने पर उनमें सचमुच देवत्व उत्पन्न हो जाता है और वे उस श्रद्धालु के लिये उसकी श्रद्धा के अनुरूप फल देने लगती हैं। ईश्वर के बारे में निर्धारित हमारी श्रद्धा उसे हमारे सामने ‘भक्त के वश में बने हुए भगवान्’ का एक घटक बना कर प्रस्तुत कर देती है।
श्रद्धा से बनी भूत की कल्पना प्राण- घातक दुष्परिणाम उत्पन्न करती है। भय और आकांक्षाओं से आतंकित लोग अपना अच्छा- खासा स्वास्थ्य खो बैठते हैं। आत्म- विश्वास और मनोबल के आधार पर चमत्कारी प्रतिफल उत्पन्न किये जाते हैं। यह सारे खेल श्रद्धा के ही हैं। साधना के सत्परिणामों की एक विशाल शृंखला है। अगणित साधक, अगणित प्रकार के सत्परिणाम साधना प्रयोगों के आधार पर प्राप्त करते हैं, इसके मूल में उनकी श्रद्धा की शक्ति ही सन्निहित होती है। साधक अपने ही नाम- रूप की साधना करके- अपने ही जैसे एक ‘छाया पुरूष’ निर्मित और सिद्ध कर लेते हैं। यह मनुष्य आकृति का देव बड़े- बड़े अनोखे काम करता है।
यह रचना हमारी श्रद्धा द्वारा ही की गई होती है। अनेक देवताओं का सृजन इसी प्रकार होता है। अन्तःकरण में कौन दिव्य शक्ति कितनी, कहाँ कैसे है यह प्रश्न अलग है। यहाँ तो यह कहा- समझाया जा रहा है कि हमारी श्रद्धा- अपनी सामर्थ्य से, अपनी मान्यता, आकृति, रुचि और प्रयोजन का एक स्वतन्त्र देव विनिर्मित कर सकती है। यह देवता उतने ही समर्थ होते हैं, जितनी हमारी श्रद्धा उन्हें बल प्रदान करती है। दुर्बल श्रद्धा से बने देव केवल आकृति मात्र का दर्शन देने में समर्थ होते हैं । वे कुछ अधिक सहायता नहीं कर सकते। पर जिनकी श्रद्धा प्रबल है, उनके देव भी अद्भुत पराक्रम करते देखे जाते हैं।
श्रद्धा और विश्वास का सम्बल लेकर ही हमें अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिये ‘‘ ईश्वर है- उसकी सत्ता विद्यमान है- उसका सान्निध्य प्राप्त किया जा सकता है और उसका प्रकाश मिल सकता है’’ यह विश्वास जितना ही प्रखर एवं स्पष्ट होगा उतना ही सफलता हमारी साधना प्रस्तुत करेगी। कितना जप करने से कितने दिन में, ईश्वर की कितनी कृपा मिल सकती है? इस प्रश्न का उत्तर देने से पूर्व यह भी जानना होगा कि साधक की श्रद्धा में कितनी प्रखरता है? यदि अश्रद्धा और अविश्वास से, उदास मन से बेगार भुगतने की तरह कुछ पूजा- पाठ किया जा रहा है तो उसका परिणाम भी लँगड़े- लूले जैसा होगा। बहुत दिन में थोड़ा- सा लाभ दिखाई देगा। छोटे से दीपक की लौ से जल पात्र बहुत देर में गरम होगा, किन्तु यदि आग तीव्र हो तो थोड़ी ही देर में पानी खौलने लगेगा। उपासना का क्रिया- कृत्य पूरा कर लेना अभीष्ट परिणाम उत्पन्न नहीं कर सकता। आवश्यकता श्रद्धा के समन्वय की भी है। यह समावेश जितना अधिक और जितना प्रखर होगा, सत्परिणाम उतनी ही बड़ी मात्रा में और उतना ही शीघ्र दृष्टिगोचर होगा।