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Books - गायत्री उपासना अनिवार्य है - आवश्यक है

Media: TEXT
Language: HINDI
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आत्म कल्याण की सर्वोपरि उपासना

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गायत्री- उपासना सर्वश्रेष्ठ और अनादि उपासना है । उसका प्रभाव और परिणाम असंदिग्ध एवं अतुलित है। अन्य उपासना- पद्धतियाँ अपने लक्ष्य को प्राप्त करा सकने में असमर्थ हो सकती हैं, पर गायत्री- उपासना में ऐसी अड़चन नहीं आती

उपासना संसार में यह सबसे अधिक लाभदायक प्रक्रिया है । सांसारिक सुख- सुविधाओं के उपार्जन की दृष्टि से स्वास्थ्य , शिक्षा, कुशलता, सम्पत्ति, मित्रता आदि की उपयोगितायें लोगों ने समझ ली हैं और उनके उपार्जन का प्रयत्न भी करते हैं, पर ऐसे कम ही लोग हैं जिन्होंने आत्मबल द्वारा प्राप्त हो सकने वाली विभूतियों का मूल्यांकन किया हो और उनका उपार्जन करने के लिए उपासना क्रिया पद्धति को व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध रूप से अपनाया हो।

भारतीय धर्मशास्त्रों का मर्म, ऋषियों का अनुभव और महापुरुषों के कार्यक्रम को सब उपासना- अन्वेषण की दृष्टि से देखा जाता है तो उसमें गायत्री- उपासना ही सर्वोत्तम ठहरती है। सन्ध्या हवन की कोई भी प्रणाली क्यों न हो, गायत्री उपासना का उसमें अनिवार्य स्थान है, वेद भारतीय धर्म के मूल आधार हैं और उनका बीज मन्त्र एकमात्र गायत्री है। गायत्री के चार चरणों की व्याख्यास्वरूप चार वेद बने हैं । गुरुमन्त्र के रूप में प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी का एक ही अवलम्बन है- गायत्री मन्त्र । इस सुनिश्चित तथ्य को ध्यान में रखते हुए कोई वेद- धर्म अनुयायी और कोई मार्ग अपना भी नहीं सकता । खोज- बीन और अनुभूतियों के आधार पर हमने जो एकमात्र राजमार्ग पाया उस पर क्रमबद्ध रूप से चलते रहें। यही कारण है कि उस मार्ग पर चलते हुए इतना कुछ पाया है, जिनके आधार पर सन्तोष, आनन्द एवं उल्लास का अनुभव किया ।

उपासना मानव- जीवन का सर्वोत्कृष्ट व्यवसाय है । अन्य व्यवसायों में जितना मनोयोग, जितना श्रम, जितना समय और जितना साधन लगाया जाता है, उतना ही यदि उपासना में लगाया जाता तो अपेक्षाकृत असंख्य गुना लाभ उठाया जा सकता है।

आध्यात्मिक भी भौतिक विज्ञान की तरह एक ही सर्वांगपूर्ण है और उसका लाभ तभी उठाया जा सकता है जब व्यवस्थित जानकारी तथा क्रिया- प्रणाली अपनाई जाय।

संसार में अन्य समस्त क्रिया- कलापों की तरह उपासना भी (१) सिद्धान्त और (२) व्यवहार, इन दो भागों में विभक्त है। यह दोनों ही पहलू एक- दूसरे से अन्योन्याश्रित सम्बद्ध हैं। एक के बिना दूसरा पहलू अधूरा है। डॉक्टर ऑपरेशन करने की कला सीखता है फोड़ा कहाँ से, कैसे, किस औजार से, कितना चीरा जाना चाहिये और उसके बाद उस पर क्या लगाया जाना चाहिये यह समझता है। पर इतने मात्र से ही वह अपने व्यवसाय में कुशल नहीं हो जाता । उसे फोड़ा उत्पन्न होने का कारण, उसकी किस्में तथा पकने- फूटने की सैद्धान्तिक जानकारी भी होनी चाहिये। जो सिद्धान्तों से उपेक्षित है, केवल व्यवहार जानता है वह अनाड़ी डॉक्टर अपने व्यवसाय में सफल नहीं हो सकता। व्यापारी, किसान, शिल्पी आदि सभी वर्गों के लोग हाथ- पैर से क्या करना होगा यह जानते हैं, पर उतने से ही उनका काम नहीं चल जाता। व्यावसायिक सिद्धान्त ,, किसान को पौधों की क्रिया- प्रणाली, शिल्पी को अपने विषय की आवश्यक जानकारी प्राप्त करनी होती है, यदि वह ऐसा न करे तो वह मशीन मात्र बनकर रह जायेगा ।

एक इन्जीनियर और एक साधारण कुली में इस जानकारी का ही अन्तर होता है । कुली भी बताने पर हाथ- पैर से वही कार्य कर सकता है जो इन्जीनियर के हाथ- पैर करते हैं। कई बार तो कुली अपेक्षाकृत अधिक मेहनत भी कर सकता है, पर इन्जीनियर जितना ज्ञान न होने के कारण उसे वह श्रेय नहीं मिलता जो इन्जीनियर को मिलता है। अनगढ़ किसान की अपेक्षा एक कृषि स्नातक खेती में अधिक लाभ ले सकता है। सैद्धान्तिक शिक्षा के अभाव में व्यवहार मात्र से जो लाभ मिलेगा वह नगण्य ही होगा। उपासना को पूजा- पाठ के नियम जानकर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए वरन् उसके सिद्धान्त, आदर्श, तथ्य एवं स्वरूप को भी समझना चाहिये। जो आवश्यकता को अनुभव करते हैं और उसे पूरा करने में संलग्न रहते हैं, उनकी साधना असंदिग्ध रूप से सफल होती है। किन्तु जो केवल कर्मकाण्ड सीखकर ही सन्तुष्ट हो बैठते हैं उनके हाथ यदि कुछ पड़े भी वह बहुत ही स्वल्प होता है ।

वेद ज्ञान और विज्ञान के भण्डार हैं। संसार का प्रकट और अप्रकट ज्ञान वेदों में भरा पड़ा है। इन वेदों का बीज गायत्री महामन्त्र है । जिस प्रकार विशाल वट- वृक्ष एक छोटे से बीज की ही प्रतिकृति होती है, उसी प्रकार वेदों में सन्निहित सारी शिक्षाएँ तथा सारी विद्याएँ बीज रूप से गायत्री महामन्त्र में विद्यमान हैं।

इन २४ अक्षरों में सूत्र रूप से समाविष्ट प्रेरणाओं और शिक्षाओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार और मनन चिन्तन किया जाये तो लगता है कि विश्व के समस्त धर्म- ग्रन्थों एवं नीति- शास्त्रों का निचोड़ इन थोड़े से अक्षरों में गागर में सागर की तरह भर दिया गया है। व्यक्ति एवं समाज की सर्वतोमुखी- सर्वकालीन समस्याओं का हल, समस्त उलझनों का समाधान इस महामन्त्र की मूल शिक्षाओं से मिल सकता है। यह चौबीस शब्द सारगर्भित हैं कि ऋषियों को उनकी विवेचना, व्याख्या करने के लिये ज्ञान वेदों का आवरण प्रस्तुत करना पड़ा।

प्राचीन काल में ऋषियों ने गायत्री के तत्त्व- ज्ञान की गम्भीरतापूर्वक शोधन किया और इस गहन समुद्र में गहराई तक प्रवेश करके ज्ञान- विज्ञान की अतुलित रत्न राशि का लाभ लिया था । विश्वामित्र तो उसी के विशेष ऋषि कहलाये। उन्होंने स्वयं और अपने सहचरों सहित इस महाविद्या के रहस्यों को जानने के लिये समस्त जीवन खपाया और उन्होंने जो पाया, उसका लाभ समस्त आध्यात्मिक जगत ने उठाया ।

वेदों में ज्ञान भी आवश्यक है और विज्ञान भी । गायत्री के अक्षरों में से प्रस्फुटित होने वाली शिक्षा मनुष्य- समाज की भौतिक एवं आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान करती है, सुख- शान्तिमय जीवन बिताने का प्रभावपूर्ण मार्गदर्शन करती है। यदि कोई उस प्रकाश का अवलम्बन लेकर अपने कदम उठाता चले तो आनन्द और उल्लास से भरा वैसा ही स्वर्गीय जीवन जी सकता है, जैसा कि जीने के लिये यह मानव- प्राणी इस वसुधा पर अवतीर्ण हुआ है।

गायत्री में सन्निहित विज्ञान तो इतना महान् है कि वर्तमान भौतिक विज्ञान के समस्त चमत्कार उसकी तुलना में तुच्छ ठहराये जा सकते हैं। बेशक, पिछली दो सदियों में विज्ञान ने बहुत उन्नति की है। एक से एक बढ़ कर सिद्धान्तों, यन्त्रों और सुख- साधनों का आविष्कार करके एक चमत्कार उत्पन्न किया है। भविष्य में उसकी और भी अधिक उन्नति सम्भावित है, पर साथ ही यह भी निश्चित है कि अध्यात्म की महत्ता एवं उपयोगिता भौतिक विज्ञान की तुलना में असंख्य गुनी अधिक है।

भारत पूर्वकाल में विज्ञान के उच्च शिखर पर जा पहुँचा था। उसके गौरव को विश्व में सर्वोपरि बनाने में इस विज्ञान को ही श्रेय था । दिव्य अस्त्र-शस्त्र, शरीरों में अकूत बल, धन- समृद्धि का इतना बाहुल्य था कि स्वर्ण कलश हर घर पर रखें हों। अकूत आत्म बल और आन्तरिक शक्तियों के बल पर अभीष्ट परिस्थितियाँ तथा साधन- सामग्री उत्पन्न कर सकने की क्षमता हमारे पूर्वजों की विशेषताएँ थी। जहाँ वेद, ब्रह्म- विद्या एवं आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान के आधार पर, भावनात्मक स्तर पर देवताओं जैसे पवित्र बनकर इस धरती पर स्वर्ग अवतरण कराने में सफल हुए थे, वहीं उन्होंने विज्ञान के आधार पर प्रत्येक प्रकार की स्मृतियाँ भी अर्जित की थीं। यही कारण है कि इस धरती के समस्त निवासियों ने उन्हें भूसुर, धरती के देवता कहकर सम्मानित किया था, जगद्गुरु एवं चक्रवर्ती शासन के महान उत्तरदायित्वों को सौंपा था और जीवन की प्रत्येक दिशा में उनका नेतृत्व स्वीकार किया था। यह उनके विज्ञान की महिमा थी ।

वह विज्ञान आज जैसा न था जो महँगी तथा आये दिन टूटती- फूटती रहने वाली तथा निकम्मी हो जाने वाली मशीनों के आधार पर चलता हो। तेल, कोयला, पेट्रोल, बिजली आदि ईंधन इस दुनिया में बहुत कम है। जिस गति से वैज्ञानिक प्रयोजनों में कल- कारखानों तथा मशीनों में खर्च हो रहो है, उसे देखते हुए यह सब सामग्री सौ- डेढ़ सौ वर्षों में समाप्त हो सकती है और तब आज का यह तन्त्रनादि विज्ञान बेमौत मर सकता है। भारतीय तत्त्वदर्शी वैज्ञानिकों ने, ऋषियों ने जिस विज्ञान का आविष्कार किया था वह यन्त्रों पर नहीं तन्त्रों पर आधारित था । मानव- शरीर हाड़- मांस का पुतला ही नहीं वरन् उसमें एक से एक बढ़कर चमत्कारी शक्ति केन्द्र प्रसुप्त अवस्था में पड़े हैं। षटचक्र, २४ उपचक्र, ५२ उपत्यिकायें, १०८ ग्रन्थियों और महारन्ध्र की सहस्र काकेशिक स्फुरणायें उतनी शक्ति तत्त्वों से ओत- प्रोत हैं कि यदि उनमें से थोड़ी सी भी जागृत की जा सकें तो इतनी बड़ी उपलब्धियाँ हाथ में आ सकती हैं जिनकी तुलना में वर्तमान विज्ञान की भौतिक उपलब्धियाँ नगण्य एवं तुच्छ ही सिद्ध होंगी। प्राचीन काल में ऋषि, महर्षि अपने शरीरों की प्रयोगशाला में ऐसे ही परीक्षण किया करते थे, योगाभ्यास के द्वारा जो ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ उपलब्ध करते थे उनके चमत्कारों का आधार कोई जादू नहीं वरन् यह आत्म- विज्ञान ही होता था, वेदों में इस प्रकार के आत्म- विज्ञान का विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है।

वेदों में वर्णित विज्ञान की क्षमता का पता लगाने के लिये जर्मन सरकार ने कुछ समय पूर्व महत्त्वपूर्ण प्रयत्न किया । जर्मन प्रोफ़ेसर मैक्समूलर भारत आये और यहाँ के वेद विद्वानों की सहायता से उन्होंने ऋग्वेद का जर्मन भाषा में अनुवाद किया था। इस शोध कार्य के लिये जर्मन सरकार ने लाखों रुपया खर्च किया था इसके बाद ही जर्मनी ने इतनी बड़ी वैज्ञानिक उन्नति की कि वह थोड़े ही समय में समस्त विश्व में चक्रवर्ती शासन स्थापित करने का सपने देखने लगा। पिछले दो महायुद्ध उसी ने आरम्भ किये। अपनी शक्ति का ठीक अन्दाज न लगा सकने के कारण वह परास्त तो अवश्य हुआ, पर अपनी उपलब्धियों के कारण वह संसार भर के लिये आज भी एक आश्चर्य एवं रहस्य बना हुआ है। अणु- विज्ञान का आविष्कार सबसे प्रथम उसी ने किया, और देशों ने तो पीछे उसी के आविष्कार का लाभ उठाया है।

वेदों की ऋचाओं में सूत्र रूप से समाविष्ट आत्म- विज्ञान की महत्ता का क्षेत्र इतना बड़ा है कि उसकी जितनी भी शोध एवं साधना की जा सके, उतना ही कम है। प्राचीनकाल में इस दिशा में बहुत बड़ी प्रगति की थी, पर यह न समझना चाहिए कि उसमें आगे बढ़ने की गुंजायश न थी। आगे और भी बहुत कुछ हो सकना था और मनुष्य देवताओं की तरह अजर- अमर बनकर इस धरती को स्वर्ग बना सकता था, यदि उसके हाथ में वेदों का सन्निहित समस्त विज्ञान आ जाता। पर संसार चक्र परिवर्तनशील है। हम उत्थान से विमुख होकर पतन के गर्त में गिरे और उन पूर्व उपलब्धियों को गँवा बैठे। यदि उस विज्ञान से हम वंचित न हो गये होते तो इस दयनीय दुर्दशा में असहायों की तरह पड़े संत्रस्त न हो रहे होते।

ऊपर की पंक्तियों में जिस आत्म- विज्ञान की चर्चा की जा रही है वह वेद के दो अङ्कों में से- ज्ञान में से एक प्रमुख तत्त्व है। यह प्रथम ही कहा जा चुका है कि गायत्री वेदों का बीज मन्त्र है। किसी पेड़ में जो विशेषताएँ और सम्भावनायें होती हैं वे छोटे से बीज में सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहती हैं। मनुष्य की इतनी विशेषताओं वाला शरीर एवं मन अत्यन्त सूक्ष्म रूप से वीर्य कश के एक छोटे से बीज पिण्ड में मौजूद रहता है। ठीक इसी प्रकार वेदों में वर्णित विविध वैज्ञानिक उपलब्धियाँ गायत्री महामन्त्र के थोड़े से बीज रूप में भी भरी पड़ी हैं। इस महाशक्ति की जो ठीक तरह साधना कर सकता है, वह अनुपम स्तर का शक्तिवान बन सकता है।



व्यायाम के द्वारा शरीर पुष्ट होता है, अध्ययन से विद्या आती है, श्रम से धन कमाया जाता है, सत्कर्मों से यश मिलता है, सद्गुणों से मित्र बनते हैं। इसी प्रकार उपासना द्वारा अन्तरंग जीवन में प्रसुप्त पड़ी हुई अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ सजग हो उठती हैं और उस जागृति का प्रकाश मानव- जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक विशिष्टता का रूप धारण करके प्रकट करता हुआ प्रत्यक्ष होता है। गायत्री -उपासक में तेजस्विता की अभिवृद्धि स्वाभाविक है। तेजस्वी एवं मनस्वी व्यक्ति स्वभावतः हर दिशा मे सहज सफलता प्राप्त करता चलता है।

मानवी मस्तिष्क मे जो शक्ति- केन्द्र भरे पड़े हैं, उनका पूरी उपयोग कर सकना तो दूर, अभी मनुष्य को उनका परिचय भी पूरी तरह नहीं मिला है । मनोवैज्ञानिकों को अन्तर्मन की जितनी जानकारी अभी तक विशाल अनुसंधानों के बाद मिल सकी है, उसे वे दो प्रतिशत के लगभग ही मानते हैं। प्रसुप्त मन की ९८ प्रतिशत जानकारी प्राप्त करना अभी शेष है । इसी प्रकार शरीर- शास्त्र डॉक्टरों ने बाहरी मस्तिष्क का केवल ८ प्रतिशत ज्ञान ही प्राप्त किया है शेष के बारे में वे भी अभी अनजान हैं। मस्तिष्क सचमुच एक जादू का पिटारा है। इसमें सोचने- समझने की क्षमता तो है ही, साथ ही उसमें ऐसे चुम्बक- तत्त्व भी हैं जो अनन्त आकाश में भ्रमण करने वाली अद्भुत सिद्धियों, विभूतियों एवं सफलताओं को अपनी ओर खींच कर आकर्षित कर सकते हैं, सूक्ष्म जगत में अपने अनुकूल वातावरण बना सकते हैं। जिन व्यक्तियों के साथ अपनी कामना आकांक्षा का सम्बन्ध है, उन पर ऐसा प्रभाव डाला जा सकता है उसे हमारे अनुकूल ही गतिविधि अपनानी पड़े । गायत्री -उपासना के द्वारा उपासक में ऐसे ही मानसिक चुम्बक- तत्त्व सक्रिय उठते हैं। मनोबल बढ़ने से ऐसी विद्युत्धारा अन्तर्मन के प्रसुप्त क्षेत्रों में गतिशील हो जाती है कि अब तक अपने प्रयोजन में आया हुआ मस्तिष्कीय चुम्बक सक्रिय हो उठता है और वे उपलब्धियाँ सामने लाकर खड़ी कर देता है, जिन्हें आमतौर से सिद्धियों, विभूतियों का ‘वरदान’ एवं दैवी सहायता कहा जा सके ।

उपासना में बरती गई तपश्चर्या से द्रवित होकर गायत्री माता ने अमुक सिद्धि सफलता प्रदान की यह भावुक भक्त का दृष्टिकोण है। इस तथ्य का वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह है कि कठोर नियम, प्रतिबन्धों का पालन करने में जो प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ी, उसने मनोबल का विकास किया। उसने अन्तर्मन के सुप्त शक्ति- केन्द्रों का चुम्बकत्व जगाया और उसी जागरण ने अभीष्ट सफलताएँ खींचकर सामने ला खड़ी कर दी । मनुष्य अपने आप में एक देवता है। उसके भीतर वे समस्त दैवी शक्तियाँ बीज- रूप में विद्यमान रहती हैं जो इस विश्व में अन्यत्र कहीं भी हो सकती हैं । अन्यत्र रहने वाले देवता अपनी निर्धारित जिम्मेदारियाँ पूरी करने में लगे रहते हैं। वे हमारे व्यक्तिगत कार्यों में इतनी अधिक दिलचस्पी नहीं ले सकते कि अगणित उपासकों या भक्तों की अगणित प्रकार की समस्याओं को सुलझाने में संलग्न हो सकें। हमारी समस्याओं को हल करने की क्षमता हमारे अपने भीतर रहने वाले देवताओं में होती है और उसी को किसी अनुष्ठान द्वारा सशक्त एवं गतिशील बना करके साधक को अपना प्रयोजन वस्तुतः आप ही पूरा करना पड़ता है। गायत्री अनुष्ठान के लिये विधि- विधान द्वारा बढ़ने वाले मनोबल द्वारा यदि वह सक्रिय हो उठे तो अभीष्ट सफलतायें प्राप्त कर सकने की परिस्थितियाँ निर्मित या उपलब्ध कर सकना उसके लिये अधिक कठिन नहीं रहता ।

गायत्री -उपासना मनुष्य- जीवन को बहिरंग एवं अन्तरंग दोनों ही दृष्टियों में समृद्ध और समुन्नत बनने का राजमार्ग है। बाह्य उपचार से बाह्य जीवन की प्रगति होती है, पर अन्तरंग विकास के बिना उसमें पूर्णता नहीं आ पाती। बाहरी जीवन की विशेषतायें छोटा- सा शोक, संताप, रोग, कष्ट, अवरोध एवं दुर्दिन सामने आते ही अस्त- व्यस्त हो जाती है, पर जिस व्यक्ति के पास आन्तरिक दृढ़ता, समृद्धि एवं क्षमता है, वह बाहर के जीवन में बड़े से बड़ा अवरोध आने पर भी सुस्थिर बना रहता है और भयानक भँवरों को चीरता हुआ अपनी नाव को पार ले जाता है। भौतिक समृद्धि और आत्मिक शान्ति के लिये उपासना की वैज्ञानिक प्रक्रिया अचूक साधना है और कहना न होगा कि उपासनाओं में सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोपरि एकमात्र गायत्री महामन्त्र की उपासना ही है।


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