Books - गायत्रीपुरश्चरण
Language: HINDI
मंत्र साधना में विनियोग का महत्त्व
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मंत्रों में शक्ति कहाँ से आती है? कौन- सा मंत्र किस शक्ति को जागृत करता है? उसका प्रभाव परिचय किस प्रकार उत्पन्न होता है? इसका एक सुनिश्चित विज्ञान है। सामान्य दृष्टि में मंत्र कुछ अक्षरों या शब्दों का समुच्चय मात्र दिखाई देते हैं, परन्तु वस्तुतः मन्त्र वहीं तक सीमित नहीं है। उनका निर्माण एक विशेष प्रभाव उत्पन्न करने के लिए किया गया है और उनके उपयोग से, साधन से साधक में एक विशेष शक्ति जागृत होती है। यह बात अलग है कि उस शक्ति को देखा नहीं जा सकता, तो शक्तियाँ कौन- सी देखने में आती हैं या किनका प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है? यही बात तो यह है कि शक्ति स्वरूप छुआ तो जा सकता है, पर शक्ति को देखा या दिखाया नहीं जा सकता। ईथर तत्त्व में शब्द प्रवाह संचार को रेडियो यन्त्र अनुभव तो करा सकते हैं, परन्तु ईथर को असली रूप में देखा नहीं जा सकता। गर्मी- सर्दी, सुख- दुःख आदि की केवल अनुभूति होती है। पदार्थ के रूप में न तो उन्हें प्रत्यक्ष देखा जा सकता है और न ही पदार्थ की तरह अनुभव किया जा सकता है। यही बात मंत्रों के सम्बन्ध में भी लागू होती है। किसी सोते हुए व्यक्ति का हाथ पकड़ कर, झकझोर कर उसे जगाया तो जा सकता है परन्तु हाथ पकड़ना या झकझोरना जागृति नहीं है। अधिक से अधिक इस प्रक्रिया को जगाने की निमित्त होने का श्रेय दिया जा सकता है। मंत्रोच्चार भी अन्तरंग में और अन्तरिक्ष में भरी पड़ी अगणित चेतना शक्तियों में से कुछ को जागृत करने का निमित्त मात्र है।
मन्त्रों में शक्ति कहाँ से आती है? या किस प्रकार मंत्रोच्चार के अन्तरंग में निहित शक्ति जागृत होती है तथा उसमें अन्तरिक्ष में भरी हुई शक्तियों से सम्पर्क सान्निध्य स्थापित होता है? इसका एक सुनिश्चित विज्ञान है। किस मंत्र से, किस शक्ति को, किस आधार पर जगाया जाये इसका संकेत हर मंत्र के साथ जुड़े हुए विनियोग में बताया गया है। मन्त्र चाहे वैदिक हो या तांत्रिक,दक्षिण मार्गी हो या वाममार्गी, सभी में विनियोग होता है और मंत्र साधन के विधान के साथ ही उनका उल्लेख भी रहता है। जप तो केवल मंत्र का ही किया जाता है, किन्तु नियम है कि जप आरम्भ करते समय इस विनियोग का स्मरण कर लिया जाये। इस स्मरण में मंत्र के स्वरूप और लक्ष्य के प्रति साधना काल में जागरूकता बनी रहती है और साधना सही दिशा में अग्रसर होती रहती है।
मन्त्र विद्या के अनुसार मन्त्रों के विनियोग के पाँच अंग हैं- ऋषि, छन्द, देवता, बीज और तत्व। इन्हीं से मिल कर मंत्र शक्ति पूर्ण बनती है। ऋषि का अर्थ है मार्ग दर्शक गुरू, ऐसा व्यक्ति जिसने उस मंत्र में पारंगतता प्राप्त कर ली हो। गुरू की आवश्यकता सभी विषयों और क्षेत्रों में होती है। अपने विषय में निष्णात और अधिकारी व्यक्ति ही सम्बन्धित विषय का शिक्षण दे सकता है। चिकित्सा, संगीत, कला, विज्ञान किसी भी विषय का ज्ञान प्राप्त करना हो और उसमें पारंगतता अर्जित करनी हो तो अनुभवी शिक्षक की सहायता से ही काम बनता है। केवल पुस्तक पढ़कर तैरना नहीं सीखा जा सकता, इसके लिए किसी तैराक की ही सहायता प्राप्त करनी पड़ती है। चिकित्सा ग्रन्थ और औषधि भण्डार उपलब्ध रहने पर भी चिकित्सक की आवश्यकता पड़ती है। विभिन्न साधकों की आन्तरिक स्थिति और मनोभूमि अलग- अलग रहती है। उनकी स्थिति के अनुसार उनके साधना मार्ग में भी कई प्रकार के उतार- चढ़ाव आते रहते हैं। इस स्थिति में सही निर्देशन और उत्पन्न होने वाली उलझनों का समाधान वही कर सकता है जो इस विषय में पारंगत हो। गुरू का यह कर्तव्य भी हो जाता है कि शिष्य का न केवल पथ- प्रदर्शन करे, वरन् उसे अपनी शक्ति का एक अंश अनुदान स्वरूप देकर उसके प्रगति पथ को सरल भी बनाये। इसलिए ऋषि का, गुरु का, मार्गदर्शक का आश्रय लेना मंत्र साधना की प्रथम सीढ़ी बताया गया है।
मन्त्र विनियोग का दूसरा अंग है- छन्द। छन्द का अर्थ है लय। छन्द से सामान्य अर्थ कविता में प्रयुक्त होने वाली मात्राओं के नियमों से लिया जाता है परन्तु मन्त्रों के संदर्भ में छन्द का आशय यहीं तक सीमित नहीं है। मन्त्रों की रचना में कविता के नियमों का पालन अनिवार्य नहीं है। यहाँ लय को ही छन्द समझना चाहिए। किस स्वर से ?? किस क्रम से? किस उतार- चढ़ाव के साथ मंत्रोच्चार किया जाय? इसका एक स्वतन्त्र शास्त्र है। सितार में तार तो बराबर ही होते हैं, अँगुलियाँ चलाने का क्रम भी हर वादन में चलता है किन्तु बजाने वाले का कौशल तारों पर आघात करने के क्रम में हेर फेर करने से विभिन्न राग- रागिनियों का ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करता है। मंत्रोच्चार के विभिन्न भेदों को भी इसी प्रकार समझा जा सकता है।
मानसिक, वाचिक, उपांशु, उदात्त, अनुदात्त और स्वरित आदि अनेकानेक भेद प्रभेद हैं, जिनके आधार पर एक ही मन्त्र के द्वारा विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न की जा सकती हैं। मंत्रोच्चार से उत्पन्न होने वाली तरंगों के कम्पन और उनकी प्रतिक्रिया इसी लय पर निर्भर है। साधना विज्ञान में इन्हें यति कहा जाता है। एक ही यति सबके लिए उचित नहीं होता। साधक की स्थिति और आकांक्षा को दृष्टिगत रखते हुए यति का, लय का निर्धारण करना पड़ता है। यह निर्धारण मन्त्र सिद्ध अनुभवी मार्गदर्शक ही भली प्रकार करा सकते हैं। यह अन्य किसी के बस की बात नहीं है।
देवता विनियोग का तीसरा चरण है। देवता का अर्थ है चेतना सागर में से अपने अभीष्ट शक्ति प्रवाह का चयन। एक ही समय में अनेक रेडियो स्टेशन अपने कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। उन सबकी फ्रीक्वेंसी अलग- अलग होती है। इस आधार पर ही रेडियो सेट के द्वारा यह सम्भव होता है कि अपनी पसन्द का कार्यक्रम सुना जा सके और अन्यत्र में चल रहे रेडियो प्रोग्राम बन्द रखे जा सकें। यदि ऐसा न हो, फ्रीक्वेंसी अलग- अलग न हो तो सभी रेडियो स्टेशनों से ब्रॉडकास्ट किये जाने वाले कार्यक्रमों का ध्वनि प्रवाह मिलकर एक हो जाता और कहीं का भी प्रोग्राम सुन पाना सम्भव न रहता। निखिल ब्रह्माण्ड में ब्रह्म चेतन की अनेक धाराएँ समुद्री लहरों की तरह अपना पृथक् अस्तित्व लेकर चलती हैं। भूमि एक ही होती है किन्तु उसमें भी परतें अलग- अलग होती हैं। समुद्रीय अगाध जल से पानी की परतें तथा असीम आकाश में वायु से लेकर किरणों तक की परतें होती हैं। इसी प्रकार ब्रह्म चेतना के अनेक प्रयोजन के लिए उद्भूत अनेक शक्ति तरंगें निखिल ब्रह्माण्ड में प्रवाहित होती रहती हैं। उनके स्वरूप और प्रयोजनों को ध्यान में रखते हुए उन्हें देवता कहा जाता है।
किस मन्त्र के लिए ब्रह्म चेतना की किस दिव्य तरंग का प्रयोग किया जाय? इसके लिए विधान निर्धारित है। स्थापना, पूजन, स्तवन आदि क्रियाएँ इसी प्रयोजन के लिए होती हैं। किसके लिए देव सम्पर्क का कौन सा तरीका ठीक रहेगा यह निश्चय करके ही मन्त्र साधक को प्रगति पथ पर अग्रसर होना होता है। दबी हुई, प्रसुप्त क्षमताओं को प्रखर करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है यन्त्रों को चलाने के लिए ईंधन चाहिए। हाथ पैर से चलने वाले हाथ पैरों को काम करते रहने के लिए तो ऊर्जा की जरूरत रहती ही है। यह ऊर्जा, शक्ति जुटाने पर ही यन्त्र काम करते हैं। मन्त्रों की सफलता भी इसी प्रकार ऊर्जा उत्पन्न करने पर निर्भर है। ऊर्जा का उत्पादन किस प्रकार किया जाय, इसी का संकेत विनियोग में निहित रहता है। साधना विज्ञान का, मन्त्र विद्या का सारा कलेवर इसी आधार पर खड़ा किया गया है। आयुर्वेद में शरीर शोधन के लिए जिस प्रकार वमन, विरेचन, स्नेहन, स्वेदन, नस्य यह पांच कर्म शरीर शोधन के लिए आवश्यक माने गये हैं, उसी प्रकार व्यक्तित्व के परिष्कार के अतिरिक्त मन्त्र साधना में ऋषि, छन्द, देवता, बीज और तत्व ये पाँच प्रमुख आधार है। जो इन सब साधनों को जुटा कर मन्त्र साधन कर सकें, उन्हें अभीष्ट प्रयोजन की प्राप्ति होती है।गायत्री मन्त्र के विनियोग का देवता सविता और ऋषि विश्वामित्र को बताया गया है। इन दोनों तत्वों को हृदयंगम करने से साधक की पूर्वभूमिका का उचित निर्माण हो जाता है।
सविता यों मोटे अर्थ में सूर्य को कहते हैं। इसलिए गायत्री को सूर्य का मन्त्र भी कहा जाता है। महाभारत के अनुसार कुन्ती ने सूर्य मन्त्र (गायत्री) की उपासना द्वारा तेजस्वी कर्ण को जन्म दिया था। गायत्री जप करते समय सूर्योन्मुख रहने का विधान है। प्रातः पूर्व की ओर, सायं पच्छिम की ओर, मध्याह्न उत्तर की ओर मुख करके जप करने का जो विधान है उसमें सूर्योन्मुख रहना ही कारण है। जहाँ गायत्री का प्रतिमाविग्रह स्थापित नहीं होता वहाँ सूर्य को ही गायत्री का प्रतीक मानकर उसके सम्मुख जप करने का विधान बना हुआ है। जप के साथ सूर्योपस्थान, सूर्य अर्घ्यदान, सूर्यस्तवन की प्रक्रिया इसी से जुड़ी है कि गायत्री के देवता सविता का अर्चन भी यथोचित रूप से होता रहे।
गायत्री की छवि ‘‘सूर्य- मण्डल मध्यस्था’’ मानी जाती है। भगवती गायत्री का स्वरूप सूर्य- मण्डल के बीच में ही चित्रित किया गया है। निराकार उपासना करने वाले दीपक की लौ या सूर्य के समान प्रकाशवान तेज बिन्दु का ध्यान करते हुए गायत्री जप करते हैं। अपने भीतर उस महातेज को ओत- प्रोत करने के सम्बन्ध में १।२ में ‘सूर्यः चक्षुः भूत्वा अक्षिणै प्राविशत्’ की भावना अपनाने का निर्देश किया गया है। नेत्रों के माध्यम से सूर्य मुझ में प्रकाश रूप प्रवेश करता हुआ रोम- रोम को प्रकाशवान कर रहा है। यह धारणा गायत्री उपासक की सूक्ष्म चेतना को प्रकाशवान बनाती है।
‘‘यो असौ आदित्ये पुरूषाः सो असौ अहम् ’’ ।।
-वा.य.४०।१७
अर्थात्- ‘जो यह आदित्य पुरूष है वही मैं हूँ।’ अपने को अज्ञानरूपी अन्धकार से दूर ज्ञान प्रकाश से प्रकाशित आदित्य रूप आत्मा- अनुभव करने से भी गायत्री के देवता सविता का विनियोग बनता है।
‘‘यो देवः सविता स्माकं धियो धर्मादि कर्माणि
प्रेरयेतस्य तद्भार्गो स्तद्वरेण्य मुपास्यहे ।’’
अर्थात्- जो सविता देवता हमारी बुद्धि को धर्म आदि सत्कर्मों की ओर प्रेरित करता है उसके वरेण्य भर्ग की हम उपासना करते हैं।
यहाँ यह स्पष्ट कर दिया गया है कि केवल प्रकाश का ध्यान करना ही पर्याप्त नहीं वरन् उस प्रकाशवान् तेजस्वी परमेश्वर की उपासना करनी चाहिए जो हमें सत्प्रवृत्तियों की ओर प्रेरणा देता है।
‘‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’’ में इसी भावनाको अपनाने का निर्देश है। मैं प्रकाशरूप स्वरूप हूँ, प्रकाश मेरा लक्ष्य है। प्रकाश की ओर चल रहा हूँ और अन्त में प्रकाश बनकर ही रहूँगा, ऐसी मान्यता और भावना रखकर गायत्री उपासना करने वाला इस महामन्त्र के देवता सविता का उचित विनियोग कर सकता है।
ऋषि विश्वामित्र है। (विश्वामित्रः सर्व मित्रः) विश्वामित्र अर्थात् विश्व का सबका मित्र। सबको मित्रता की आँख से देखने का स्वभाव बनाकर गायत्री उपासक इस महामन्त्र के ऋषि विश्वामित्र का अपनी मनोभूमि में आह्वान करता है। ‘अद्वेष्टा सर्व भूतेषु’ की ‘मित्रस्य चाक्षुषा समीक्षे’ की भावना रखकर सबसे बैर त्यागने और सबको मित्र मानने की प्रवृत्ति बना लेने वाला गायत्री उपासक अपने आपको विश्वामित्र परम्परा का अनुयायी बनाकर गायत्री साधना की सफलता की एक महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक शर्त पूरी कर लेता है।