
जीवन के बुझते दीपों में
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जीवन के बुझते दीपों में, हम फिर नव ज्योति जगायेंगे॥
जिन नयनों के खारे आँसू, प्रतिपल भू- पर झर जाते हैं। जिन प्राणों के अरमान सदा, निष्फल होकर मर जाते हैं॥
जिनके सपनों में सत्य नहीं- जिनके भावों में नश्वरता-
हम ऐसे दीन- दुःखी हृदयों को, नव- सन्देश सुनायेंगे॥
जो जगती के विस्तृत पथ पर, दो पग भी आगे बढ़ न सके। जो मन में चिर उल्लास लिये, दुर्गम पर्वत पर चढ़ न सके॥
जो बैठ गये थोड़ा चलकर- जिनमें उठने की शक्ति नहीं-
हम उन मृतप्राय मानवों में- नव बल संचार करायेंगे॥
जिनके अन्तस्तल में दारुण, दुःख का सागर लहराता है। जिनके सम्मुख आशाओं का, मरुस्थल सा बनता जाता है॥
जिनकी मन वीणा टूट गयी- जिनके गीतों में नीरसता-
हम उनके बिखरे तारों को- स्वर क्रम से आज सजायेंगे॥
रे उठो आज! रे चलो आज, संघर्षों का युग आया है। बढ़ चलो वीर लेकर मशाल, जन- जन ने तुम्हें बुलाया है॥
तोड़ो बंदी कारा अपनी- तोड़ो बन्धन की जंजीरें-
हम रूप बदलकर इस जग का- फिर दुनियाँ, नई बसायेंगे॥
मुक्तक-
आसुरी आतंक से, सब लोग पीड़ा पा रहे हैं।
मानवी संवेदना के दीप बुझते जा रहे हैं॥
किन्तु उन ऋषियुग्म ने, सन्देश यह पावन दिया।
ज्योति, साहस, स्नेह के, अनुदान का वादा किया॥
जिन नयनों के खारे आँसू, प्रतिपल भू- पर झर जाते हैं। जिन प्राणों के अरमान सदा, निष्फल होकर मर जाते हैं॥
जिनके सपनों में सत्य नहीं- जिनके भावों में नश्वरता-
हम ऐसे दीन- दुःखी हृदयों को, नव- सन्देश सुनायेंगे॥
जो जगती के विस्तृत पथ पर, दो पग भी आगे बढ़ न सके। जो मन में चिर उल्लास लिये, दुर्गम पर्वत पर चढ़ न सके॥
जो बैठ गये थोड़ा चलकर- जिनमें उठने की शक्ति नहीं-
हम उन मृतप्राय मानवों में- नव बल संचार करायेंगे॥
जिनके अन्तस्तल में दारुण, दुःख का सागर लहराता है। जिनके सम्मुख आशाओं का, मरुस्थल सा बनता जाता है॥
जिनकी मन वीणा टूट गयी- जिनके गीतों में नीरसता-
हम उनके बिखरे तारों को- स्वर क्रम से आज सजायेंगे॥
रे उठो आज! रे चलो आज, संघर्षों का युग आया है। बढ़ चलो वीर लेकर मशाल, जन- जन ने तुम्हें बुलाया है॥
तोड़ो बंदी कारा अपनी- तोड़ो बन्धन की जंजीरें-
हम रूप बदलकर इस जग का- फिर दुनियाँ, नई बसायेंगे॥
मुक्तक-
आसुरी आतंक से, सब लोग पीड़ा पा रहे हैं।
मानवी संवेदना के दीप बुझते जा रहे हैं॥
किन्तु उन ऋषियुग्म ने, सन्देश यह पावन दिया।
ज्योति, साहस, स्नेह के, अनुदान का वादा किया॥