
पाप ताप हर लेती सबके
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पाप ताप हर लेती सबके, गंगा की जल धार है।
सन्मति पा जाता गायत्री, गंगा से संसार है॥
हर- हर गंगे, जय माँ गायत्री...॥
सगर सुतों को जीवन देने, गंगा भू- पर आई थी।सुरपुर से आकर स्वर्गंगा, शंकर जटा समायी थी॥
आशुतोष की कृपा भगीरथ ने, तप से ही पायी थी।
तब शिव शीश वासिनी गंगा, धरती पर लहरायी थी॥
पतित पावनी गंगा ने कर दिये, दूर संताप सभी॥
मूर्छित मानव के जीवन का, यह सच्चा आधार है॥
सृष्टि देख निष्प्राण प्रजापति, ब्रह्मा भी अकुलाये थे।गायत्री से ही वह उसको, प्राणवान कर पाये थे॥
गायत्री कर सिद्ध विश्वरथ, ऋषिवर विश्वामित्र हुए।
बला- अतिबला विद्या से, सम्पन्न राम- सौमित्र हुए॥
गायत्री सत्पथ विधायिनी, विद्या है, वरदान है।
मनुज देवता दोनों की, संरक्षक है सुखसार है॥
गंगा गायत्री स्वरूप है, दो दैवी वरदान मिले।इन्हें वरण करके सुर मानव, को अनगिन अनुदान मिले॥
दोनों ही गतिमय जीवन का, पावन भाव जगाती हैं।
अणु से विभु, लघु से महान, जीवन को यहाँ बनाती हैं॥
नाम भिन्न हैं, पर अभिन्न हैं, दोनों भाव स्वभाव से।
एक स्नान से, एक ध्यान से, कर देती उद्धार हैं॥
जब देखी बह रही विश्व में, विष से भरी हवाएँ हैं।विश्वामित्र, भगीरथ दोनों, एक रूप हो आये हैं॥
है दैवी संकल्प मनुज में ही, देवत्व जगाने का।
करुणा की गंगा लहराकर, धरती स्वर्ग बनाने का॥
पहुँचायी संस्कृति की भागीरथी, समूचे विश्व में।
दुश्चिन्तन पर आज विश्व में, होता प्रबल प्रहार है॥
मुक्तक-
‘गंगा’ है पतित पावनी, गोते लगाइये।‘गायत्री’ ज्ञान गंगा, जी भर नहाइये॥
मानव हो मुक्त पाप- पतन से अज्ञान से।
जीवन में यूँ ही ज्ञान की गंगा बहाइये॥
पतित पावनी गायत्री माँ, हे! गुरुवर हे! गंगा माता।
तारो अब तो भक्तों को माँ, तुम ही हो सबकी सुखदाता॥
सामान्यतः संगीत के मुख्य उद्देश्य सौन्दर्यानुभूति, हृदय की शिक्षा, नैतिकता की अभिवृद्धि तथा आनन्द की प्राप्ति होती है।
सन्मति पा जाता गायत्री, गंगा से संसार है॥
हर- हर गंगे, जय माँ गायत्री...॥
सगर सुतों को जीवन देने, गंगा भू- पर आई थी।सुरपुर से आकर स्वर्गंगा, शंकर जटा समायी थी॥
आशुतोष की कृपा भगीरथ ने, तप से ही पायी थी।
तब शिव शीश वासिनी गंगा, धरती पर लहरायी थी॥
पतित पावनी गंगा ने कर दिये, दूर संताप सभी॥
मूर्छित मानव के जीवन का, यह सच्चा आधार है॥
सृष्टि देख निष्प्राण प्रजापति, ब्रह्मा भी अकुलाये थे।गायत्री से ही वह उसको, प्राणवान कर पाये थे॥
गायत्री कर सिद्ध विश्वरथ, ऋषिवर विश्वामित्र हुए।
बला- अतिबला विद्या से, सम्पन्न राम- सौमित्र हुए॥
गायत्री सत्पथ विधायिनी, विद्या है, वरदान है।
मनुज देवता दोनों की, संरक्षक है सुखसार है॥
गंगा गायत्री स्वरूप है, दो दैवी वरदान मिले।इन्हें वरण करके सुर मानव, को अनगिन अनुदान मिले॥
दोनों ही गतिमय जीवन का, पावन भाव जगाती हैं।
अणु से विभु, लघु से महान, जीवन को यहाँ बनाती हैं॥
नाम भिन्न हैं, पर अभिन्न हैं, दोनों भाव स्वभाव से।
एक स्नान से, एक ध्यान से, कर देती उद्धार हैं॥
जब देखी बह रही विश्व में, विष से भरी हवाएँ हैं।विश्वामित्र, भगीरथ दोनों, एक रूप हो आये हैं॥
है दैवी संकल्प मनुज में ही, देवत्व जगाने का।
करुणा की गंगा लहराकर, धरती स्वर्ग बनाने का॥
पहुँचायी संस्कृति की भागीरथी, समूचे विश्व में।
दुश्चिन्तन पर आज विश्व में, होता प्रबल प्रहार है॥
मुक्तक-
‘गंगा’ है पतित पावनी, गोते लगाइये।‘गायत्री’ ज्ञान गंगा, जी भर नहाइये॥
मानव हो मुक्त पाप- पतन से अज्ञान से।
जीवन में यूँ ही ज्ञान की गंगा बहाइये॥
पतित पावनी गायत्री माँ, हे! गुरुवर हे! गंगा माता।
तारो अब तो भक्तों को माँ, तुम ही हो सबकी सुखदाता॥
सामान्यतः संगीत के मुख्य उद्देश्य सौन्दर्यानुभूति, हृदय की शिक्षा, नैतिकता की अभिवृद्धि तथा आनन्द की प्राप्ति होती है।