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Books - ईक्कीसवी सदी के लिए हमें क्या करना होगा ?

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महिलाओं की महानता उभरे

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First 15 17 Last
इक्कीसवीं सदी को महिला शताब्दी घोषित किया गया है। इसे विश्व की आधी जनता का स्वाधीनता आन्दोलन भी कह सकते हैं और नवजीवन स्तर का पुनरुत्थान भी। नारी के रूप में जीवन यापन कर रही आधी जनसंख्या को भविष्य में भी गयी-गुजरी स्थिति में पड़ा रहने नहीं दिया जा सकता, अन्यथा अर्धांग पक्षाघात-पीड़ित की तरह अपंग स्थिति में रहने वाला समुदाय स्वयं तो पिछड़ी-परावलम्बी स्थिति में रहेगा ही; समर्थ पक्ष के ऊपर भी गले का पत्थर बनकर लटकेगा और प्रगति का मार्ग अवरुद्ध ही बना रहेगा। एक पहिये की गाड़ी किस प्रकार आगे बढ़ सकेगी? भगवान ने नर और नारी को एक सिक्के के दो पहलू के रूप में बनाया है। दोनों की समता तो अभीष्ट है ही, साथ ही दोनों को समान रूप से शिक्षित, समर्थ, स्वावलम्बी, कुशल एवं प्रगतिशील भी होना चाहिए। यह हो भी रहा है। संसार भर में एक नयी लहर चल पड़ी है। वह ऐसा वातावरण बना रही है और साधन जुटा रही है, ताकि भविष्य में दोनों परस्पर पूरक इकाइयों में से कोई भी किसी की तुलना में किसी भी दृष्टि से दीन-दुर्बल होकर न रहे।
लम्बे समय से नारी की अगणित क्षमताओं और विशेषताओं का शोषण नर द्वारा होता रहा है। समय आ गया कि अब उस अनाचार का पश्चात्ताप-प्रायश्चित्त करने के लिए नये सिरे से, नये प्रयत्न किये जायें और जो अपहरण हुआ है, उसकी पूर्ति करने के लिए समय रहते भावनापूर्ण प्रयास किये जायें। अन्यथा अब तक हुई क्षति आगे और भी बढ़ेगी और ऐसा संकट खड़ा करेगी, जिससे दोनों पक्षों को अपार हानि सहनी पड़े।
पुरुषों में से प्रत्येक के मन में यह न्याय-निष्ठा और उदारता जागनी चाहिए, जो गहरे घावों पर मरहम लगाने के रूप में सदाशयता का परिचय दे सके। अनीति को आगे भी चलते रहने के लिए आग्रह करना और उठने की संभावनाओं को निरस्त करना, जले पर नमक छिड़कने जैसा पाशविक अनाचार माना जायेगा।
नर और नारी की अनिवार्य समता का वातावरण बनाने के लिए आवश्यक है कि कन्या और पुत्र में, बेटी और वधू में अन्तर करने की कुप्रथा का अब पूरी तरह अन्त कर दिया जाय। दोनों की प्रगति एवं सुविधा का, समान व्यवहार—समान सम्मान का प्रचलन अपनाया जाय। शिक्षा, स्वावलम्बन, दक्षता, श्रेय-सम्मान दोनों को ही समान रूप से मिलने चाहिए।
शिक्षा मनुष्य की आरम्भिक आवश्यकता है। इसे लड़कों की तरह लड़कियों को भी उपलब्ध कराने में कहीं, किसी प्रकार का दुहरा मापदण्ड न अपनाया जाय। हर व्यक्ति को आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी होना चाहिए, ताकि कोई किसी पर भार बनकर न रहे, वरन् एक-दूसरे की सहायता करते हुए, इस महंगाई भरे समय में दूसरे की सहायता करते हुए समूचे परिवार में खुशहाली ला सकें। विधवाएं एवं परित्यक्ताएं कई छोटे बच्चे गोदी में होने की स्थिति में ससुराल अथवा पितृगृह से कारगर सहायता न मिलने पर कितनी दुर्गति भुगतती हैं, हर भुक्तभोगी यह जानता है। ऐसी स्थिति में किसी भी लड़की को न पड़ना पड़े। इसी कमजोरी के कारण नारी की हर प्रकार से दबाव भी सहने पड़ रहे हैं, क्योंकि वह दूसरों की सहायता कर सकना तो दूर, अपने खर्चे के लिए भी दूसरों पर अवलम्बित रहती है। कुटीर उद्योग से लेकर अध्यापन तक का कोई न कोई स्रोत उसके हाथ में विवाह से पहले ही थमा देना चाहिए, ताकि उसे आर्थिक दृष्टि से सर्वथा पराश्रित न रहना पड़े। पैतृक सम्पत्ति, परिवार की सम्पन्नता अथवा पति की कमाई जैसे माध्यमों को आड़े समय में उपयोग कर सकने का सुयोग मिलता ही रहेगा, इसका अब कोई विश्वास रह नहीं गया है। शिक्षा-स्वावलम्बन के अतिरिक्त स्वास्थ्य, दक्षता-कुशलता, अनुभव आदि के साधन भी नारी के लिए जुटने ही चाहिए। इसके लिए जो उपाय संभव हों, वे करने चाहिए।
एक दूसरा वज्रपात है—बाल विवाह। इस उतावली में लड़कियों को सुयोग्य बनने का अवसर ही नहीं मिलता। मनोबल एवं कौशल विकसित होने की तो गुंजाइश ही नहीं रहती। कच्ची आयु में कामक्रीड़ा का दबाव सहने से उसका शरीर और मन तो निचुड़ ही जाता है, साथ ही बच्चों का पालन कर सकने की दक्षता न रहने पर, वे भी अनगढ़ स्तर के रह जाते हैं। प्रसव-पीड़ा में अधिकांश महिलाओं को मौत के मुंह में जाना पड़ता है। वह आपत्ति यदि जल्दी-जल्दी उन पर टूटे, तो जवानी में बुढ़ापा आ धमकने, अकाल मृत्यु का ग्रास बनने, आये दिन दुर्बल और बीमार रहने की व्यथा तो उसी कारण उसके गले बंध ही जाती है। इसलिए बाल-विवाह को लड़कियों का आधा मरण समझकर, उस विपत्ति से उन्हें बचाया ही जाना चाहिए। पढ़ने और बढ़ने के लिए उन्हें भी उपयुक्त सुविधा और समय मिलना चाहिए।
तीसरी विपत्ति है—धूमधाम वाली शादियां। लड़के वालों की ओर से दहेज और लड़की वालों की ओर से जेवर की मांग। यह दोनों ही प्रचलन सर्वथा मूर्खता और अनीतिपूर्ण हैं। इस निमित्त होने वाले खर्च में दोनों परिवार खोखले हो जाते हैं। दहेज को लेकर आये दिन झंझट होते हैं, हत्या, आत्म-हत्या जैसी दुर्घटनाएं होती हैं। इसलिए शादी को नितान्त सादगी के साथ घरेलू उत्सव की तरह सम्पन्न किया जाना चाहिए। दहेज या जेवर के स्थान पर उस रकम को एकत्रित करके कन्या के नाम फिक्स्ड-डिपॉजिट के रूप में जमा कर दिया जाय, तो वह निधि बनी रहे और सुदूर भविष्य में किसी आड़े वक्त पर काम आये।
अगले दिनों नारी प्रगति की भारी संभावनाएं सामने आ रही हैं। उन्हें प्रत्येक महत्त्वपूर्ण प्रसंग में आरक्षण मिलने जा रहा है। राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में उनकी प्रगति के लिए सरकारी और गैर सरकारी अनेकानेक उपहार दौड़ते हुए चले आ रहे हैं। अन्य नये अवसर भी अनेकों बन रहे हैं। इनसे लाभ उठाने के लिए आवश्यक है कि नारी सुयोग्य और समर्थ हो, अन्यथा बिचौलिए ही उस सुविधा को हड़प लेंगे।
अनेक कुरीतियां, मूढ़-मान्यताएं, प्रतिगामिताएं, विषाणुओं की तरह दुर्बल शरीर पर सरलतापूर्वक चढ़ दौड़ती हैं। इन त्रासों से भी महिलाओं को बचाने के लिए विचारशीलों को चाहिए कि गुण-दोषों का अन्तर करने योग्य विवेक उनमें जागृत करें। यह तभी संभव है, जब विवाह की अवधि अधिक बढ़ाई जाय। भारत के केरल प्रान्त की महिलाओं ने तो लड़-झगड़ कर महिलाओं की विवाह आयु न्यूनतम 25 और लड़के की अट्ठाइस करवा ली है। इसी का सत्परिणाम है कि वहां नारियां प्रगति के हर पक्ष का अवसर प्राप्त कर रही हैं और परिवारों को समर्थ बना रही हैं। शिक्षा का स्तर और प्रगति भी वहां देश के अन्य भागों की तुलना में कहीं अधिक है। ऐसे ही प्रयत्न सर्वत्र होने चाहिए।
विवाह के उपरान्त वर-कन्या को कई वर्ष का अवसर ऐसा मिलना चाहिए कि वे एक दूसरे की योग्यता-समर्थता बढ़ाने में योगदान दे सकें। इसके लिए आवश्यक है कि विवाह के बाद कम से कम पांच वर्ष तक बच्चे उत्पन्न करने के संकट न लदें। यह अवधि ससुराल वालों की ओर से समर्थता प्रदान करने के लिए नियत रहनी चाहिए। अभिभावकों ने इतने दिन उसकी योग्यता वृद्धि में योगदान दिया। विवाह के बाद कम से कम पांच वर्ष तो ससुराल वालों को भी ऐसा ही अनुदान देना चाहिए। उस अवधि में बच्चे पैदा करने की विपत्ति से नहीं लाद देना चाहिए।
यह सामान्य प्रचलन की विधा हुई। नारी को अवगति से उबारकर प्रगति के पथ पर घसीट ले चलने के लिए महिला वर्ग में से भी कुशल नेतृत्व उभरना चाहिए। देश को स्वतंत्र कराने में नारी नेतृत्व की अग्रणी भूमिका रही है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए नारी वर्ग के भावनाशील पक्ष को आगे बढ़ना चाहिए और ऐसा कुछ करना चाहिए, जिससे उनकी योग्यता घर की चहारदीवारी में रसोईदारिन, धोबिन, मेहतरानी, धाय, नौकरानी की तरह ही गुजार न देनी पड़े, वरन् कम से कम अपने समुदाय को ऊंचा उठाने, विविध बंधनों से छुड़ाने के लिए वे लग सकें।
इसके लिए वे महिलाएं अधिक उपयुक्त हो सकती हैं, जो छोटे बच्चों की जिम्मेदारी से मुक्त हो चुकीं। रिटायर्ड स्तर की जिम्मेदार अध्यापिकाएं तथा दूसरी कार्यरत महिलाएं घर का भार दूसरों के कंधे पर खिसका कर यह कर सकती हैं कि छोटी-बड़ी टोलियां बनाकर महिला-संपर्क आन्दोलन के लिए निकल पड़ें और उनमें कितनी ही सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन हेतु बढ़-चढ़ कर काम करें। सहायता आवश्यक है, वह मिलेगी भी, परन्तु नारी स्वयं उमंग के साथ उठ खड़ी हो, यह आवश्यक है। स्वावलम्बन भी भाग्योदय का एक समर्थ पक्ष है।
ऐसा भी हो सकता है कि कुछ युवतियां, विवाह के प्रलोभन से बचकर अपनी बहुमूल्य प्रतिभा नारी उत्कर्ष के लिए लगा दें। प्रजनन के कुचक्र में फंसकर उन्हें जितना त्रास सहना पड़ता है, उसका बीसवां भाग भी यदि साहस जुटाकर नारी उत्कृष्टता के लिए अपने को समर्पित कर सके, तो वह महामानवों, वीर, बलिदानियों जैसा साहस होगा। घरेलू जिम्मेदारियों से बची रहने की स्थिति में वे विस्तृत क्षेत्र में बड़ी मात्रा में नारी-कल्याण का काम कर सकती हैं। ऐसे साहस जिनने अपनाये, ऐसी शूर-वीर महिलाओं से किसी अंश में पुराण और बड़े अंश में अपने समय का इतिहास भरा पड़ा है। विवाह को अनिवार्य मानकर नहीं चलना चाहिए। साथी के बिना जिन्दगी कैसे कटेगी? सुरक्षा कैसे मिलेगी? इस प्रकार के अपडरों से आदर्शवादी महिलाएं सहज ही बच निकल सकती हैं। सहेलियों की सघन मित्रता भी मिल-जुलकर इस आवश्यकता को बहुत अंश में पूरी कर सकती है।
अगले दिनों नारी शताब्दी का नव निर्माण संभव कर सकने में देश के पुरुषों का जहां उदार सहयोग अपेक्षित है, वहां यह भी आवश्यक है कि उस आंदोलन का नेतृत्व संभालने के लिए मनस्वी महिलाएं अग्रिम पंक्ति में आयें। आन्दोलन को पुरुषों का सहयोग तो चाहिए ही, वे नारी को समय, साधन, सहयोग और प्रोत्साहन प्रदान करें; पर साथ ही यह उससे भी अधिक आवश्यक है कि नेतृत्व समर्थ महिलाएं ही संभालें। अपने देश की प्रतिगामिता, नर और नारी को मिलकर काम करने के सुविधा नहीं देती। इसलिए आवश्यक है कि महिलाओं की अपनी छोटी-बड़ी मंडलियां बनें और घर-घर में प्रवेश करें। संगठन खड़ा करें, वातावरण बनायें और ऐसे कार्यक्रमों को चलायें, जिससे युग संगठनों के अति महत्त्वपूर्ण नेतृत्व का श्रेय उन्हें ही हस्तान्तरित हो सके।
महिला सदी का बहुत बड़ा शुभारम्भ शान्तिकुंज से ही गतिशील होना है। इसलिए उसके सदस्यों और सदस्याओं को अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार यह योजना बनानी चाहिए कि महिलाओं की स्थानीय क्रिया-प्रक्रिया किस प्रकार चले और उनके द्वारा बड़े क्षेत्र को संभाल सकने वाली युग नेतृत्व की व्यवस्था किस आधार पर बने? इस संदर्भ में मात्र पुरुषों का सहयोग पर्याप्त नहीं। समर्थ महिलाओं को भी लालच, दबाव और संकीर्णता की परिधि से ऊंचा उठकर घर से बाहर निकलने की बड़ी योजना भी बनानी चाहिए; ताकि उनकी गणना महान प्रयोजन पूरा कर सकने वाली महान महिलाओं में हो सके।

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