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Books - ईक्कीसवी सदी के लिए हमें क्या करना होगा ?

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माथा-पच्ची निरर्थक नहीं गई

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इस बार का वसन्त पर्व एक प्रकार का ब्रह्मयज्ञ रहा। शान्तिकुंज की भूमि पर उन दिनों यही समुद्र मंथन होता रहा और जिज्ञासुओं को यह पता चल सका कि मनुष्य का निजी पुरुषार्थ नगण्य है। उसकी इच्छा-आकांक्षा, वासना, तृष्णा और अहंता से आगे नहीं बढ़ती। उसी छोटे दायरे में वह कूप-मंडूक एवं गूलर के भुनगे की तरह अपनी बहुमूल्य जीवन सम्पदा को विसर्जित कर देता है। छिटपुट पूजा-पाठ तक, तनिक से उपहार-मनुहार तक सीमित रहकर वह स्वयं संतुष्ट रहता एवं इसे ईश्वर उपासना मानकर मन बहलाता, पास-पड़ोस वालों को बहकाता रहता है।
शक्ति के स्रोत ईश्वर के साथ जुड़कर मनुष्य भी हिमालय से निकलने वाली गंगा की तरह अपने और संसार का भला करने में समर्थ होता है। गंगा विशाल मैदानों को सींचती और असंख्य जड़ चेतनों की प्यास बुझाती है। इस पर भी घटती नहीं। बंगाल पहुंचते-पहुंचते हजार धारा में परिवर्तित, विकसित, विभाजित होकर अपनी सफल सार्थकता एवं साधना से सिद्धि का परिचय देती है। जिन सफलताओं के सम्बन्ध में चर्चा होती रही, वे मात्र सर्वविदित, सुपरिचित एवं दृश्यमान हैं। इस श्रृंखला में अभी और कुछ कहीं अधिक जानने योग्य शेष रह जाता है, जिसको आंखों से नहीं देखा गया, कानों से नहीं सुना गया, वरन् उसे समयानुसार,फिर कभी पूछे और बताये जाने के लिए सुरक्षित रख लिया गया है। उनके अनावरण के लिए उपयुक्त समय आने की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। संक्षेप में व्यक्ति-विशेष के द्वारा बन पड़े चमत्कारी कहे जाने वाले कार्यों के संबंध में उतना ही पूछना, बताया जाना सीमित रहा कि शक्ति-स्रोत से जुड़ने के लिए अपनी क्षुद्रता को महापुरुष के चरणों पर समर्पित करने और उसकी महानता को भावनाओं, संवेदनाओं, आकांक्षाओं एवं क्रिया-कलापों में कस लेने का साधना-पुरुषार्थ यदि सच्चे अर्थों में कर सके, तो अपने को ईश्वर के हाथों सौंपे जाने के बदले में उसके अनुदान और सिद्धि-सम्पदा को सहज खरीदना संभव है।
वसन्त पर्व के महा सत्संग ने अनजाने में भक्ति के साथ शक्ति के जुड़े होने का रहस्य समझाया है, जिसकी शक्ति की जानकारी तो थी, पर न कभी श्रद्धा जगती थी और न विश्वास परिपक्व होता था। मात्र जानकारी भर को पर्याप्त समझते थे, क्रिया रूप में कुछ परमार्थ जैसा कुछ करने के लिए साहस नहीं जुटा पाते थे। उनने इस बार तथ्य को गंभीरतापूर्वक समझा, साथ ही यह भी अनुभव किया कि शरीर बल, बुद्धि बल, मनोबल, धनबल आदि क्षमताओं और सामर्थ्य का कितना ही बाहुल्य क्यों न हो, आत्मबल की तुलना में उन सब की सम्मिलित क्षमता भी नगण्य है। शान्तिकुंज परिकर द्वारा अब तक जो किया गया है, उसके मूल में तप ही एक मात्र वास्तविकता है और यदि कोई ऐसी ही ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, तपस्वी बनना चाहता है, तो ऋद्धियों और सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए कस्तूरी के मृग की तरह भटकने की क्या आवश्यकता है? भाव-पूजा के सहारे दैवी अनुकम्पा के रूप में मिलने वाले अनुदानों की जो अपेक्षा करते हैं, उन्हें मृगतृष्णा में भटकने पर खीज, थकान और निराशा के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता।
वसन्त पर्व के दिन इस संदर्भ में चलता रहा शंका-समाधान निरर्थक नहीं गया। रहस्योद्घाटन की जानकारी प्राप्त करके, जिज्ञासा की तुष्टि भर नहीं हुई, वरन् सहस्रों ने निश्चयपूर्वक संकल्प लिया कि वे अगले दिनों सन्मार्ग पर चलेंगे। शेष जीवन को सच्चे अर्थों में सार्थक बनायेंगे। ईश्वर की आशा-अपेक्षा पूरी करेंगे और बदले में उसे सच्चे साथी-सहचर की भूमिका निभाते हुए निहाल कर देने के लिए बाधित करेंगे।

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