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Books - जीवन लक्ष्य और उसकी प्राप्ति

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जीवन का लक्ष्य भी निर्धारित करें

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जीवन-यापन और जीवन-लक्ष्य दो भिन्न बातें हैं। प्रायः सामान्य लोगों का लक्ष्य जीवन यापन ही रहता है। खाना-कमाना, ब्याह-शादी, लेन-देन, व्यवहार-व्यापार आदि साधारण जीवन क्रमों को पूरा करते हुए मृत्यु तक पहुंच जाना, बस, इसके अतिरिक्त उनका अन्य कोई लक्ष्य नहीं होता। एक जीविका का साधन जुटा लेना, एक परिवार बसा लेना और बच्चों का पालन-पोषण करते हुए शादी-ब्याह आदि कर देना मात्र ही साधारणतया लोगों ने जीवन-लक्ष्य मान लिया है।

वस्तुतः यह जीवन-यापन की साधारण प्रक्रिया मात्र है, जीवन-लक्ष्य नहीं। जीवन-लक्ष्य उस सुनिश्चित विचार को ही कहा जायेगा, जो संसार के साधारण कार्यक्रम से, कुछ अलग, कुछ ऊंचा हो और जिसे पूरा करने में कुछ अतिरिक्त पुरुषार्थ करना पड़े।

जीवन में कोई सुनिश्चित लक्ष्य, कुछ विशेष ध्येय धारण करके चलने वालों को असाधारण व्यक्तियों की कोटि में रक्खा जाता है। उनकी विशेषता तथा महानता केवल यही होती है कि परम्परा के साधारण जीवन के अभ्यस्त व्यक्तियों में से उनने कुछ आगे बढ़कर, कुछ असामान्यता ग्रहण की है। लोग उनको महान् इसलिए मान लेते हैं कि जहां सामान्य लोग समझी-बुझी तथा एक ही लीक पर चलती चली जा रही जीवन-गाड़ी में न जाने कितनी दुःख तकलीफें अनुभव करते हैं, तब उस व्यक्ति ने एक अन्य, अनजान एवं असामान्य मार्ग चुना है। इसका साहस एवं कष्ट-सहिष्णुता कुछ अधिक बढ़ी-चढ़ी है।

जीवन-यापन की साधारण प्रक्रिया को भी यदि एक असामान्य दृष्टिकोण से लेकर चला जाय तो वह भी एक प्रकार का जीवन-लक्ष्य बन जाता है। इस साधारण प्रक्रिया का असाधारणत्व केवल यही हो सकता है कि जीवन इस प्रकार से बिताया जाये, जिसमें मनुष्य पतन के गर्त में न गिरकर एक आदर्श-जीवन बिताता हुआ उसकी परिसमाप्ति तक पहुंच जाये। जिसने जीवन की आहों, आंसुओं तथा विषादों से मुक्त करके हास, उल्लास, हर्ष, प्रमोद तथा उत्साह के साथ बिता लिया है, उसने भी मानो सफल जीवन-यापन का एक लक्ष्य ही प्राप्त कर लिया है। जिसने सन्तोषपूर्वक हंसते हुए जीवन-परिधि के बाहर पैर रक्खा है, उसका जीवन सफल ही माना जायेगा। इसके विपरीत जिसने जीवन-परिधि को रोते, बिलखते, तड़फते तथा तरसते हुए पार किया, मानो उसका जीवन घोर असफल ही हुआ।

जीवन की सफलता का प्रमाण जहां किसी के कार्य और कर्तृत्व से दिया करते हैं, वहां उसकी अन्तिम श्वास में सन्निहित शान्ति एवं सन्तोष की मात्रा भी उसका एक सुन्दर प्रमाण है।

जीवन-यापन को जीवन लक्ष्य मानने वाले भी जब तक अपने जीवन में एक व्यवस्था, एक अनुशासन और एक सुन्दरता नहीं लायेंगे, तब तक जीवन जीने की स्वाभाविक प्रक्रिया में भी सफल न हो सकेंगे। जिस जीवन में हास, उल्लास तथा उत्साह की मात्रा जितनी अधिक होगी, वह उतना ही सुन्दर होगा। प्रसन्नता ही जीवन की सुन्दरता का दूसरा नाम है। जिस जीवन में हास नहीं, उत्साह एवं उल्लास नहीं, उसमें क्यों न संसार भर के सुख-साधन हो, क्यों न वह विपुल सोने से निर्मित किया गया हो, सुन्दर नहीं कहा जा सकता।

ऊंची कोठी, सजे कमरे, सुन्दर वस्त्र, परिपूर्ण तिजोरियां और रंग−रूप से भरी रंगरेलियां भले ही किसी के जीवन को दूसरों के लिए आकर्षक बना दें किन्तु यह उत्पादन उसके स्वयं के लिये जीवन की सुन्दरता का सृजन नहीं कर सकते।

जीवन की सुन्दरता बाहरी वैभव में नहीं, मनुष्य के आन्तरिक संसार में हुआ करती है। जिसके गुण, कर्म, स्वभाव जितने ही सात्विक और सुरुचिपूर्ण होंगे उसका जीवन उतना ही प्रसन्न उतना ही सुन्दर होगा। जो अविचारी, व्यभिचारी अथवा अवगुणी है, वह कितना ही धनवान्, शान-शौकत वाला, सुन्दर शरीर और रहन-सहन वाला क्यों न हो सुन्दर जीवन की परिधि में नहीं आ सकता। इसके विपरीत जो सामान्य स्थिति का है, गरीब है, बहुत सुन्दर शरीर वाला भी नहीं है, यदि वह शिष्ट, सभ्य, सुशील, सन्तुष्ट और शांत है तो वह अधिक सुन्दर जीवन वाला कहा जायेगा।

मनुष्य जीवन का उद्देश्य भी समझें

प्रातः सूर्य के उदय होते ही जिन्दगी का एक नया दिन शुरू होता है और सूर्यास्त होने तक दिन समाप्त हो जाता है। इस तरह रोज एक दिन उम्र से घट जाता है। जन्म लेने के बाद से ही आयु-क्षय का यह कार्यक्रम शुरू हो जाता है, किन्तु अनेक प्रकार के कार्यभार से बढ़े हुये विभिन्न क्रिया-व्यापारों में लगे रहने के कारण इस बीतते हुए समय का पता नहीं चलता। ऐसे अवसर प्रायः प्रतिदिन आते हैं जब जीवों के जन्म, वृद्धावस्था, विपत्ति, रोग और मृत्यु के कारुणिक, विचार-प्रेरक दृश्य देखते हैं, किन्तु कितना मदान्ध, कामनाग्रस्त और अविवेकी है इस धरती का मनुष्य कि वह सब कुछ देखते हुए भी आंखों से, विवेक और विचार की आंखों से अन्धा ही बना हुआ है। मोह और सांसारिक प्रमाद में लिप्त मनुष्य घड़ी-भर एकान्त में बैठकर इतना भी नहीं सोचता कि इस कौतुहलपूर्ण नर-तन में जन्म लेने का उद्देश्य क्या है, हम कौन हैं, कहां से आये और कहां जा रहे हैं?

प्रकृति-प्रवाह की अबूझ परम्परा में प्रवाहित मनुष्य संसार के सुखों को, इन्द्रिय के भोगों को, पदार्थों के स्वामित्व को, धन, पुत्र तथा विविध कामनाओं को ही जीवन का लक्ष्य बनाकर इस बहुमूल्य अवसर को खो देता है। अन्ततः काल की घड़ी जब सामने आती है और विदा होते समय सिर पर पापों, दुष्कर्मों का भयंकर बोझ चढ़ा दिखाई देता है तो भारी पश्चात्ताप, घोर सन्ताप और आन्तरिक अशान्ति होती है। सौदा बिक गया फिर कीमत लगाते भी तो क्या? विशाल वैभव अपार धन-धान्य की राशि, पुत्र-कलत्रादि कोई भी साथ नहीं देता। यह सारा संसार, यहां की परिस्थितियां सब ज्यों की त्यों दिखाई देती हैं, किन्तु यह सब उस समय उपयोग से बाहर होती हैं। अपना शरीर भी साथ नहीं देता। केवल अच्छे-बुरे संस्कारों का बोझ लादे हुये जीव परवश यहां से उठ जाता है। कितनी अस्थिरता होती होगी उस समय, यह कोई भुक्त-भोगी की समझता होगा।

मनुष्य के जीवन में यह जो विस्मृति है वह सब असत् के संग से है। ज्ञान का आदर करने से हमारे भीतर से प्रश्न उठेंगे। हमारा कौन है? हम क्या हैं? हमें क्या करना चाहिये? इसका ज्ञान हमारे अन्दर मौजूद है, पर अपने जीवन का कोई सही दृष्टिकोण न बना सकने के कारण वह सारी ज्ञानशक्ति विश्रृंखलित और बेकाम पड़ी हुई है। मनुष्य का पहला पुरुषार्थ है— जीवन लक्ष्य में प्रमाद न होने देना। यह तभी सम्भव है जब कर्त्तव्यों का उचित और सम्यक् ज्ञान हो। कर्त्तव्यों की विस्मृति मनुष्य ने अपने आप ही की है। जब वह कुछ करना चाहता है तो उसे ओरों की आवश्यकता का ध्यान नहीं होता वरन् वह यह जानना चाहता है कि इसमें मेरा लाभ क्या है? अपने लाभ की अपेक्षा औरों के लाभ की बात सोचे तो कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के ज्ञान पर ही मनुष्य का उत्थान और पतन अवलम्बित हैं।

व्यावहारिक जीवन में कोई नीचे नहीं गिरना चाहता है। सभी ऊंचे, बहुत ऊंचे उठने की आकांक्षा लिए हुए हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने आपको ऊंचा सिद्ध करना चाहता है। इसके लिये अपनी-अपनी तरह से पुष्टि और प्रमाण भी एकत्रित करते हैं और समय पड़ने पर उन्हें व्यक्त भी करते हैं। ऊंचे उठना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म भी है, पर यदि किसी से यह पूछा जाय कि क्या उसने इस गंभीर प्रश्न पर गहराई से विचार किया है? क्या कभी उसने यह भी सोचा है कि इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए उसने क्या योजना बनाई है? तो अधिकांश व्यक्ति इस गूढ़ प्रश्न की गहराई का भेदन न कर सकेंगे। बात सीधी सी है। महानता मनुष्य के अन्दर छिपी हुई है और व्यक्त होने का रास्ता ढूंढ़ती है, पर सांसारिक कामनाओं में ग्रस्त मनुष्य उस आत्म-प्रेरणा को भुला देना चाहता है, ठुकराये रखना चाहता है। अपमानित आत्मा चुपचाप शरीर के भीतर सुप्त पड़ी रहती है और मनुष्य केवल विडम्बनाओं के प्रपंच में ही पड़ा रह जाता है।

शारीरिक दृष्टि से मनुष्य कितना ही बली हो जाय, बौद्धिक दृष्टि से वह कितना ही तर्कशील क्यों न हो, धर्म के जखीरे भले ही लगे हों, पर आत्म-सम्पदा के अभाव में वह मणि-विहीन सर्प की तरह अर्द्ध विकसित कहा जायगा। आत्मबल की उपलब्धि का एक सुख, संसार के करोड़ों सुखों से भी बढ़कर होता है। आत्मिक सम्पदाओं वाले नेतृत्व करते हैं, जन-मार्ग दर्शन करते हैं। निर्धन फकीर होने पर भी बड़े-बड़े महलों वाले उनके पैरों में गिर कर दया की भीख मांगते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य की महानता बाह्य नहीं आन्तरिक है। उसकी शक्ति गुण विकास पर छिपी है। आन्तरिक श्रेष्ठता के आधार पर ही उसकी श्रेष्ठता प्रमाणित होती है। भौतिक सम्पदायें तुच्छ हैं, थोड़े समय तक महानता या बड़प्पन जताकर नष्ट हो जाती हैं।

मनुष्य शरीर जैसा अलभ्य अवसर पाकर भी यदि उसका उद्देश्य नहीं जाना गया तो क्या मनुष्य का शरीर और क्या पशु का शरीर- आत्म-कल्याण की साधना जो इस जीवन में नहीं कर लेता, उसके लिये इस सुर-दुर्लभ अवसर का कुछ भी उपयोग नहीं।

थोड़ा बाहर आकर देखिये, यह संसार कितना विस्तृत है, कितना विशाल है। रात्रि के खुले आसमान के नीचे खड़े होकर थोड़ा चारों ओर दृष्टि तो दौड़ाइये, कितने ग्रह नक्षत्र बिखरे पड़े हैं। कितना बड़ा फैलाव है इस संसार का। पर इन सब बातों पर विचार करने का समय तभी मिलेगा जब भोगोन्मुख वृत्ति से चित्त हटा कर इन अपार्थिव विषयों की ओर भी थोड़ी दृष्टि जमायेंगे। कामनायें ही हैं, जो हमारी राह रोके खड़ी हैं। स्वार्थ ही है— जो आत्म-विकास के मार्ग पर आड़े अड़ा खड़ा है। ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, भय लोभों वाले निविड़ में भटक गये हैं हम इससे महानता की ओर अग्रसर नहीं हो पा रहे हैं।

हम उदार बनें साहस पैदा करें और आध्यात्मिक जीवन की कठिनाइयों को झेलने के लिये उठकर खड़े हो जाय, फिर देखें कि जिस महानता की उपलब्धि के लिये हम निरन्तर लालायित रहते हैं वह सच्चे स्वरूप में मिलती है या नहीं। सत्य हमारे अन्दर छुपा है, उसे धर्म के द्वारा जाग्रत करो। शक्ति हमारे भीतर सोई पड़ी है उसे साधना से जगाओ, जीवन की सार्थकता का यही एकमात्र मार्ग है।

जिसे धारण करने से भय-रहित शान्ति मिले, वही धर्म है, वही लक्ष्य है। दूसरे के अधिकार हमारे द्वारा सुरक्षित रहें। स्वयं अधिकार की लोलुपता से मुक्त रहें। अपना कल्याण तृष्णा रहित, वासना रहित एवं निष्काम होने में है बन्धन में तो कामना ही बांधती है। इसी से भूल होती है। इसी से अवनति होती है। इसी से मनुष्य सब प्रकार से दीन हीन होकर कष्ट और क्लेश का झंझटों भरा जीवन बिताता रहता है। सुख और शान्ति भोग-विलास में नहीं, मनुष्य की सच्चरित्रता, ईमानदारी और पवित्रता में है। सद्गुणों में ही मनुष्य का वैभव छिपा हुआ है जिसे प्राप्त कर जीवन के सभी अभाव दूर हो जाते हैं।

जीवन-लक्ष्य के प्रति मनुष्य की दृढ़ता प्रबल होनी चाहिये। उसे विचार और विवेक के द्वारा सुदृढ़ बना कर अपने जीवन में गहराई तक ढाल देना पड़ेगा, तभी जीवन लक्ष्य की प्राप्ति करा सकने वाली सफलता प्राप्त की जा सकेगी। यह संसार और यहां की परिस्थितियों पर जितना अधिक विचार करेंगे उतना ही विवेक बढ़ेगा, समझ आयेगी और आत्म-कल्याण का रास्ता साफ होगा। जब मनुष्य वस्तु-स्थिति को समझ लेता है तो उसे मानने और अपनाने में भी कोई दिक्कत नहीं होती। पर जीवन-लक्ष्य की दृढ़ता और आत्म विश्लेषण का विवेक इतना परिमार्जित होना चाहिये कि सांसारिक बाधाओं का, भोगों के प्रलोभनों का उस पर प्रभाव न पड़ सके तभी स्थिरता पूर्वक उस महानता की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है जिसके लिये मनुष्य योनि में जीवात्मा का अवतार होता है।
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