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Books - जीवन लक्ष्य और उसकी प्राप्ति

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Language: HINDI
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आनन्द का मूल स्रोत अपने अन्दर है

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आत्मा की आदि आकांक्षा का नाम आनन्द है। मनुष्य से लेकर कीट पतंग तक जितने प्राणी पाये जाते हैं सभी आनन्द की इच्छा करते हैं। प्राणियों का जीवन ही आनन्द और उसकी आशा-अभिलाषा पर टिका हुआ है मनुष्य स्वयं आनन्द स्वरूप है। संसार के माया-जाल में उसका यह स्वरूप खो गया है। वह उसको ही खोजने और पाने का प्रयत्न कर रहा है। उसका समग्र जीवन-क्रम आनन्द पाने का ही एक उपक्रम है मनुष्य यदि सुख-भोगों में व्यस्त होता है, तो आनन्द के लिए और यदि सहिष्णु बनकर दुःख, कष्ट भी उठाता है तो आनन्द की आशा से आनन्द वांछनीय भी है और मानव-जीवन का ध्येय भी।

आनन्द के दो प्रकार अथवा श्रेणियां मानी गई हैं। एक उत्कृष्ट और दूसरी निकृष्ट। जिनको सांसारिक अथवा विषयिक तथा अध्यात्मिक अथवा आत्मिक भी कहा जा सकता है। आनन्द और सुख-शान्ति की अभिलाषा तो सभी करते हैं। किन्तु वह वांछनीय आनन्द कौन-सा है, किस श्रेणी और स्तर का है, यह बात प्रायः कम लोग ही समझ पाते हैं। मनुष्य का वांछनीय आनन्द वस्तुतः आध्यात्मिक आनन्द ही है। जबकि लोग उसे भूलकर सांसारिक आनन्द को खोजने, पाने में लग जाते हैं। सांसारिक अथवा विषयिक आनन्द मृग तृष्णा के समान मिथ्या और अतृप्तिकर होता है। यह सत्य तथा वास्तविक आनन्द आध्यात्मिक अथवा आत्मिक आनन्द ही है। यह सत्य तथा वास्तविक होता है। इसे पाने पर आनन्द की इच्छापूर्ण रूप से परितृप्त होकर तिरोधान हो होती है। मनुष्य को सच्चे सन्तोष और सम्पूर्ण तृप्ति के लिए आध्यात्मिक आनन्द की ही वांछा करनी चाहिए और उसी को संग्रह करने का प्रयत्न।

सांसारिक अथवा विषयिक आनन्द पदार्थों तथा परिस्थितियों पर निर्भर रहता है। इस विषयिक आनन्द के भ्रम-जाल में बहल जाने वाले लोगों को निम्न मनो स्तर का व्यक्ति मानना पड़ेगा और खेद करना पड़ेगा कि ऐसे लोग घटिया और बढ़िया, निकृष्ट और उत्कृष्ट, निम्न और श्रेष्ठ के बीच रहने वाले अन्तर का महत्व नहीं जानते और घटिया अथवा सस्ते पन के प्रवाह में बह जाते हैं। अनस्तरीय व्यक्ति भोजन, वस्त्र, रहन-सहन, विषय-भोग और हास-विलास में मिलने वाले मनोरंजन और क्षणिक तृप्ति को ही आनन्द मान बैठते हैं और उन्हीं के बीच उसे पाने के लिए दिन रात कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहते हैं। इसी भ्रामक प्रयास में सारी जिन्दगी गुजार देते हैं और वांछनीय वास्तविक आनन्द की झलक तक पाये बिना संसार से विदा होकर चले जाते हैं और अतृप्ति तथा तृष्णा के प्रतारण से फिर संसार-चक्र में आकर फंस जाते हैं।

सामान्य श्रेणी के लोग सोचते हैं कि खूब अच्छा, स्वादिष्ट और सरल भोजन मिलता रहे तो कितना आनन्द रहे। आनन्द का निवास खूब खाने और मौज उड़ाने में है अपनी इसी मान्यता के कारण वे अच्छे से अच्छे भोजन और विविध प्रकार के व्यंजनों का संग्रह करते हैं। बार-बार रसों का स्वाद लेते और कोशिश करते हैं कि उन्हें सन्तोष और परितृप्ति का आनन्द मिले। किन्तु खेद है कि उन्हें अपने इस प्रयास में निराश ही होना पड़ता है। एक दो बार तो रस और व्यंजन कुछ अच्छे भी लगते हैं किन्तु उसी लोभ में पुनः आवृत्ति किये जाने से उनका स्वाद जवाब दे जाता है रस फीका पड़ जाता है। तब उनको उपभोग करने में न तो किसी प्रकार की परितृप्ति रहती है और न नवीनता। वे सर्वथा नीरस बनकर उठा देने वाले बन जाते हैं। विचार करने की बात है कि यदि भोज्य पदार्थों में वास्तविक आनन्द होता तो तीसरी चौथी आवृत्ति में ही वह रस अपनी विशेषता न खो देते भोजन तो जीवन रक्षा की एक सामान्य आवश्यकता है जो किन्हीं भी उचित पदार्थ से पूरी की जा सकती है। उसमें तथा उसके प्रकारों में वास्तविक आनन्द की आशा करना दुराशा के सिवाय और कुछ नहीं है। आवश्यकता की पूर्ति हो जाने और और क्षुधा का कष्ट मिट जाने से जो सरलता प्राप्त होती है वही उसकी विशेषता है, बस इसके आगे उसमें आनन्द नाम की कोई वस्तु नहीं है। भोजन की इस विशेषता को वास्तविक आनन्द मान लेना और उसी में चिपटे रहना किसी प्रकार भी बुद्धिमानी नहीं है। इससे निम्न स्तरीय वृत्ति के परिचायक के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता।

भोजन की भांति लोग वस्त्रों में भी आनन्द की खोज करते हैं। तरह-तरह के पट परिधान पहनकर जिस प्रदर्शन जन्य संतोष को लोग पाते हैं उसे ही आनन्द मान बैठते हैं। लोग यह सोचकर वस्त्रों पर एक बड़ी धनराशि खर्च करते रहते हैं कि अच्छे-अच्छे कीमती कपड़े पहनने से हम बड़े ही सुन्दर और शोभायमान लगेंगे। दूसरे हमारी वेश-भूषा देखकर प्रभावित होंगे और बड़ा आदमी समझेंगे। अपने प्रति लोगों का यह विस्मय और आकर्षण आनन्ददायक होगा, ठीक है! ऐसा होता भी है! उसी तरह के लोग दूसरों की वेश-भूषा देखकर आकर्षित, प्रभावित तथा लालायित होते तो हैं लेकिन इसमें वास्तविक आनन्द की क्या बात हुई? जिसके लिए किसी का कौतूहल अथवा विस्मय आनन्द का कारण बन जाता है वह उच्च मनोभूमि वाला नहीं माना जा सकता है किसी का विस्मय और कौतूहल तो अज्ञान का द्योतक होता है और आकर्षण तथा प्रभाव हीनता का। इनमें से किसी को कोई भी दशा किसी बुद्धिमान आदमी के लिए दया अथवा खेद की बात हो सकती है, हर्ष और आनन्द की नहीं। आनन्द की आशा में वस्त्रों पर जरूरत से ज्यादा खर्च करना व्यर्थ है वस्त्र तो शरीर-रक्षा और तन छिपाने का एक उपकरण मात्र होते हैं। भोजन की तरह वस्त्र भी शरीर की एक सामान्य आवश्यकता है जिसको पूरा करना ही पड़ता है। आवश्यकता पूर्ति में एक सामान्य सुविधा के सिवाय आनन्द नाम की कोई बात नहीं होती। ओछी और हल्की मनोभूमि वाले ही वस्त्रों के प्रदर्शन में किसी सुख का अनुभव कर सकते हैं। सो भी क्षणिक, मिथ्या और वंचक सुख।

संसारी लोग रहन-सहन के उच्च स्तर को भी आनन्द का हेतु मान लेते हैं। वे सोचते हैं जितना आलीशान मकान होगा, जितनी बिजली की रोशनी और पंखे की हवा होगी, जितने सोफे, गद्दे, पलंग और तकिए होंगे, जितने आभूषण अलंकार और साज-शृंगार के उपकरण होंगे उतना ही आनन्द प्राप्त होगा। अपनी इसी धारणा के अनुसार वे एक बड़ी सी कोठी में साज समान की दुकान सी लगा देते हैं। बेजरूरत के समान से उनके मकान के कोठे पर कोठे भरे रहते हैं। जितना काम आता है उससे अधिक पड़ा-पड़ा खराब होता रहता है। पता नहीं भण्डारवाद में लोगों को क्या आनन्द मिलता है? सत्य बात तो यह है कि उसमें आनन्द तो क्या मिलता उल्टे उस अनावश्यक साज समान की साज-संभाल और रक्षा बचाव की एक परेशानी सिर पर सवार रहती है। इस परेशानी के साथ एक बड़ी परेशानी यह होती है कि एक सामान के टूट जाने अथवा पुराने हो जाने पर उसे स्थानापन करने के लिए खर्च की चिन्ता करनी पड़ती है। बहुत बार तो लोग इस आनन्द की भ्रान्त धारणा के कारण कुत्सित मार्गों तक पर चले जाते हैं। उनके पास इस साज सामान के लिए अथवा उसे बनाये रखने के लिए पैसे की कमी हो जाती है तो वे शोषण बेईमानी, ठगी और भ्रष्टाचार की ओर बढ़ जाते हैं। ऐसे उपायों से आनन्द की आशा करना उतना ही उपहासास्पद है जितना असंयमी के स्वस्थ रहने की आशा, मकान और उपहार रहाइश की सुविधा के सामान्य से उपकरण हैं। जिनकी सहायता से प्राकृतिक परिवर्तनों से अपने को बचाया और सुरक्षा पूर्वक रहा जा सकता है। यदि बड़े मकानों और अनावश्यक भण्डारों में आनन्द हो तो संसार में ऐसे हजारों लाखों व्यक्ति हैं जो भवन और भण्डारों के नाम पर धरती में कुबेर कहे जा सकते हैं। किन्तु क्या वे सुखी हैं? यदि उनका वह अनावश्यक सरंजाम आनन्द का उत्पादन कर सकता तो उनके पास शायद आनन्द का इतना स्टॉक हो जाता कि यदि वे चाहते तो उसका व्यवसाय कर सकते थे। साज सरंजाम में आनन्द की कल्पना करना और उसके संचय के लिए व्यर्थ जान मारना बुद्धिमानी नहीं है।

मनोरंजन और हास-विलास में किसी हद तक आनन्द तो क्या उसके इर्द-गिर्द घूमने वाले किसी सुखद तत्व की कल्पना की जा सकती है। लेकिन तभी जब मनोरंजन के साधन और स्तर उच्चकोटि के हों। अन्यथा निम्नकोटि का मनोरंजन और हास-विलास मनुष्य को अश्लील अस्वस्थ, अभद्र ही नहीं, आचरण हीन तक बना डालता है। बहुत से पदार्थ-सुखों के विश्वासी मनोरंजन के नाम पर व्यभिचारी और व्यसनी तक बन जाते हैं। विषयभोग तो उनके लिए नित्य-प्रति की बात बन जाती है। यदि कोई यह धारणा रखता है कि नशे में मस्त होकर संसार के विषय-भोग भोगे जाएं तो बहुत कुछ आनन्द की उपलब्धि हो सकती है तो उसकी बुद्धि पर तरस खाना होगा। नशे तो जीवन की हरियाली के लिए आग और विषम साक्षात् विष माने गए हैं। इनका सेवन करने वाला आनन्द के स्थान पर मृत्यु के हेतु ही लग जाता है। संसार में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो विषय-भोगों और हास-विलासों के कार्यक्रमों में आनन्द की खोज करने के लिए दिन-रात लगे रहते हैं। किन्तु उन अबोधों का परिणाम दारिद्रय तथा अकाल मृत्यु के सिवाय कुछ नहीं होता। मनोरंजन और हास-विलास के नाम पर विषयों और व्यसनों के बन्दी बन जाने वाले लोग आनन्द की मृग तृष्णा में भूलते भटकते हुए जीवन का दाव हार जाते हैं।

आत्मा की आनन्द दायक गहराई में मनुष्य तभी उतर पाता है जब वह संसार के आवश्यक कर्त्तव्यों से निवृत्त होकर, उससे अपने को मुक्त कर लिया करता है और निवृत्ति के क्षणों में निश्चिंत तथा निर्विकार होकर आत्म-चिन्तन किया करता है। आत्म-चिन्तन तभी सम्भव होता है जब मनुष्य सांसारिक मृग तृष्णाओं में अपने को कम से कम उलझाता है और जितना उलझाया भी है उतने में ही निस्पृह रहता है। जो सांसारिक पदार्थों और वासनात्मक विषयों की शान्ति का मार्ग भूल जाता है। वह दिन दिन संकीर्णता की परिधि में बन्दी होकर अपने लिए दुःख के कारण ही संचय करता रहता है। ऐसा संकीर्ण व्यक्ति परिस्थितियों का दास बन जाता है और जीवन के वास्तविक सौन्दर्य से भी वंचित हो जाता है। उसकी रुचियां दूषित, भावनाएं अमानवीय और लोक-कल्याण के लिए आवश्यक गुणों प्रेम, त्याग, सहायता, सहयोग और सहानुभूति की सीमाएं संकुचित, हो जाती हैं। ऐसे नागपाश से बंधा व्यक्ति भला किस प्रकार सुखी रह सकता है।

जो अनाध्यात्मिक व्यक्ति भौतिक विभूतियों का दास बना रहता है उसे उसकी परिस्थितियां दुःख-सुख के बीच कठपुतली की तरह नचाया करती हैं। ऐसा व्यक्ति सुख-चैन की एक श्वांस के लिए भी लालायित बना रहता है। धन का मद मनुष्य को न्याय-अन्याय की ओर से अंधा बना देता है। वह हर समय निन्यानवे के फेर में पड़ा दुःखी बना रहता है। वह सुख की आशा से धन के ढेर तो लगाता चला जाता है। पर उसका परिणाम उसके लिए विपरीत ही सिद्ध होता है। धन का ढेर उसके लिए मुसीबत का कारण बन जाता है। चोर, डाकुओं, ठगों और सरकार का डर तो बना ही रहता है। उसकी बढ़ोत्तरी और रक्षा की चिन्ता के साथ-साथ यह चिन्ता भी खाती रहती है कि इस सम्पत्ति का यदि उत्तराधिकारी योग्य न निकला तो उसके जन्म भर की कमाई नष्ट हो जायेगी और तब परलोक में भी उसकी आत्मा को चैन न मिलेगा। धन को साधन न मानकर साध्य मनाने वाले लालचियों को धन पाले हुए सर्प की तरह, हर समय चिन्ता और आशंका का विषय बना रहता है।

इसके विपरीत उच्चाशयी आध्यात्मिक व्यक्ति धन को हाथ का मैल और श्रम का पारिश्रमिक मानते हैं उनकी दृष्टि में धन का महत्व साधन से अधिक कुछ नहीं होता। वे जो कुछ कमाते हैं उसको भौतिक भोगों में न लगाकर उसका अपने और अपने समाज के लिए सदुपयोग करते हैं। वे लक्ष्मी को छाया की तरह चंचल मानकर उसके साथ आसक्ति का भाव नहीं जोड़ते। ऐसे निस्पृह नररत्न धन के आवागमन में समभाव में स्थित, निश्चिंतता का आनन्द लिया करते हैं।

मानव-जीवन का ध्येय आनन्द ही है। आनन्द की आकांक्षा उचित ही है। किन्तु यह वहीं तक उचित जहां तक इसका सम्बन्ध जीवन की वास्तविक सुख-शान्ति से है। मिथ्या आनन्द का भाव लेकर जगी हुई कामनाएं अनुचित एवं अवांछनीय हैं इसलिए कि यह मनुष्य को मृग-तृष्णा में भटका कर उसका बहुमूल्य मानव-जीवन नष्ट कर डालती है। आनन्द आत्मा का विषय है, शरीर का नहीं। उसकी प्राप्ति जीवन को जनहित, लोक-मंगल और विश्व-कल्याण में समाहित कर देने पर ही होती है। व्यष्टि को समष्टि में समाहित कर देना ही आध्यात्मिक जीवन है। इसका ग्रहण करते ही आत्मा में दिव्य-ज्योति के दर्शन होने लगते हैं। अनन्त और अक्षय आनन्द के कोष खुल जाते हैं। इसलिए आत्मिक अथवा आध्यात्मिक सुख को ही सारे सुख का मूल और मानव-जीवन का साध्य माना गया है। लौकिक कामनाओं की पूर्ति से प्राप्त होने वाला सुख, मिथ्या, वंचक और क्षणभंगुर माना गया है।

परिष्कृत व्यक्तित्व और आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति सांसारिक सुख-दुःखों की चलती-फिरती छाया से अधिक महत्त्व नहीं देते हैं। वे उसकी उसी प्रकार उपेक्षा कर देते हैं जिस प्रकार खेत के काम में तल्लीन किसान आकाश में होते हुए धूप-छांह के खेल की ओर ध्यान नहीं देते। वे इस वास्तविकता से अनभिज्ञ नहीं होते कि सुख-दुःख, अनुकूलता-प्रतिकूलता की धनात्मक एवं ऋणात्मक परिस्थितियों में तप कर ही मानव-जीवन पुष्ट होता है। अस्तु, वे जीवन की इस धूप-छांह से कभी प्रभावित नहीं होते। जीवन में जो जैसी परिस्थिति जब-जब आती है, वे उसका हंसी-खुशी के साथ सामना करते हैं। वे संसार की हर परिस्थिति को ईश्वर का वरदान मानकर सदैव प्रसन्न एवं सन्तुष्ट ही बने रहते हैं। वे सुख में प्रसन्न और दुःख में रोने की बाल वृत्ति से उठे रहते हैं। वे संसार की इस परिवर्तनशीलता के बीच अपनी एक-सी दुनिया बसाने की आकांक्षा और केवल सुखों की कामना का पोषण करते रहने की भूल नहीं करते। वे इस सांसारिकता से ऊपर उठकर आत्मिक जीवन में जीते और प्रसन्न रहते हैं।

जीवन का वास्तविक सुख आध्यात्मिक जीवन क्रम में ही प्राप्त हो सकता है। इनमें जरा भी सन्देह नहीं। तथापि सच्चा आध्यात्मिक जीवन भी यों ही प्राप्त न हो जायेगा। उसके लिए भी मनुष्य को साधना करनी पड़ती है। थोड़ी-सी पूजा कर लेना, सत्यनारायण की कथा सुन लेना अथवा किसी पुस्तक का परायण करना भर ही आध्यात्मिक जीवन नहीं कहा जा सकता। आध्यात्मिक भाव की प्राप्ति तो तभी होती है जब मनुष्य अपने अन्तर बाह्य दोनों को पवित्र और उज्ज्वल बनाये। मानव मन में न जाने कितने दोष दुरित चोर की तरह बैठे रहते हैं। बहुत बार उनका पता भी नहीं चलता। यही निर्बलतायें कदम-कदम पर आध्यात्मिक पथ पर रोड़े अटकाती रहती हैं। इस अवरोध के विषय में बहुधा अज्ञानवश भ्रम हो जाता है कि कोई बाहरी शक्ति हमारी प्रगति में अवरोध रोड़ा अटका रही है। किन्तु वास्तविकता इससे भिन्न होती है। मनुष्य के अपने मानसिक दोष ही उसके पथ में रोड़ा बनकर, अटकते रहते हैं। अस्तु, आध्यात्मिक जीवन की उपलब्धि के लिए मानसिक परिष्कार बहुत आवश्यक है। हमें खोज-खोजकर असद्भावनाओं, मलीन विचारों और ईर्ष्या-द्वेष, कोप, लोभ, मोह आदि आवेगों को अपने अन्तःकरण से निकाल-निकालकर फेंकते रहना चाहिए। स्वार्थ, विडम्बना और प्रवंचनापूर्ण गतिविधियां आध्यात्मिक जीवन के विपरीत भाव की जन्मदात्री होती हैं। यथासाध्य इनसे बचे ही रहना चाहिए। इन दुर्बलताओं के पालन में जो सुख दीखता है, वह आसुरी होता है और विष की तरह मानव-जीवन को कष्टदायक बना देता है।

वास्तविक और सच्चे सुख की खोज भौतिक पदार्थों और उनके संभोग से इन्द्रियों में नहीं करनी चाहिए। क्योंकि पूरा जीवन लगा देने पर भी वह वहां नहीं मिलेगा। वास्तविक सुख आध्यात्मिक जीवन-क्रम में ही प्राप्त होता है। तन, मन और कर्म से आध्यात्मिक बनिये। आत्मा के दोष दुरितों को दूर करिये और जल के कमल की भांति संसार में रहते हुए संसार का भोग करिये आपको न कभी दुःख होगा और न आनन्द का अभाव सतायेगा।
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