
देव संस्कृति विश्वविद्यालय
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युग निर्माण आन्दोलन के अन्तर्राष्ट्रीय मुख्यालय शान्तिकुञ्ज के तत्त्वावधान में प्रारम्भ किये गये देव संस्कृति विश्वविद्यालय में भी शिक्षा के साथ विद्या के समन्वय के प्रेरक और सफल प्रयास किये जा रहे हैं। उन प्रयासों को दो प्रेरक आदर्श पर्वों-
1. समारम्भ अथवा ज्ञान दीक्षा
2. समावर्तन सङ्कल्प के सम्पुट में बाँधा गया है।
यह सृष्टि ईश्वर के सङ्कल्प से प्रकट एवं विकसित हुई है। ईश्वर ने मनुष्य को भी सङ्कल्प से सृजन करने की अद्भुत क्षमता प्रदान की है। विद्यालय में प्रवेश के समय विद्यालय के प्रशासनिक अधिकारियों, शिक्षकों तथा विद्यार्थियों में विद्या के विकास के सङ्कल्प जाग्रत् करने से विद्यालय के वातावरण को प्रभावी बनाया जा सकता है। इसी प्रकार विश्वविद्यालयों का पाठ्यक्रम पूरा करने पर उन्हें प्राप्त विद्या के प्रकाश में जीवन के गरिमामय प्रयोगों के लिए संकल्पित कराया जा सकता है। यह दोनों ही पर्व सुसंस्कृत नई पीढ़ी बनाने की दिशा में प्रेरक प्रयोगों के रूप में सभी संस्थानों में अपनाये जा सकते हैं। सत्संकल्पों को प्रखर बनाने के लिए प्रायोगिक विधि (कर्मकाण्डों) को भी उपयोगी माना जाता है। प्रस्तुत पर्वों की जो प्रायोगिक विधि तैयार की गई है, उसे केवल विद्यालय धर्म और विद्यार्थी धर्म (कर्तव्यों) को ध्यान में रखकर स्वरूप दिया गया है। सूत्र एवं सिद्धान्त सार्वभौम हैं। इनमें भाषा या व्यवहार की दृष्टि से कुछ परिवर्तन करना आवश्यक लगे, तो वह विवेकपूर्वक किया जा सकता है।
1. समारम्भ अथवा ज्ञान दीक्षा
2. समावर्तन सङ्कल्प के सम्पुट में बाँधा गया है।
यह सृष्टि ईश्वर के सङ्कल्प से प्रकट एवं विकसित हुई है। ईश्वर ने मनुष्य को भी सङ्कल्प से सृजन करने की अद्भुत क्षमता प्रदान की है। विद्यालय में प्रवेश के समय विद्यालय के प्रशासनिक अधिकारियों, शिक्षकों तथा विद्यार्थियों में विद्या के विकास के सङ्कल्प जाग्रत् करने से विद्यालय के वातावरण को प्रभावी बनाया जा सकता है। इसी प्रकार विश्वविद्यालयों का पाठ्यक्रम पूरा करने पर उन्हें प्राप्त विद्या के प्रकाश में जीवन के गरिमामय प्रयोगों के लिए संकल्पित कराया जा सकता है। यह दोनों ही पर्व सुसंस्कृत नई पीढ़ी बनाने की दिशा में प्रेरक प्रयोगों के रूप में सभी संस्थानों में अपनाये जा सकते हैं। सत्संकल्पों को प्रखर बनाने के लिए प्रायोगिक विधि (कर्मकाण्डों) को भी उपयोगी माना जाता है। प्रस्तुत पर्वों की जो प्रायोगिक विधि तैयार की गई है, उसे केवल विद्यालय धर्म और विद्यार्थी धर्म (कर्तव्यों) को ध्यान में रखकर स्वरूप दिया गया है। सूत्र एवं सिद्धान्त सार्वभौम हैं। इनमें भाषा या व्यवहार की दृष्टि से कुछ परिवर्तन करना आवश्यक लगे, तो वह विवेकपूर्वक किया जा सकता है।