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Books - काया में समाया प्राणग्नि का जखीरा

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प्राणशक्ति और वैज्ञानिक अभिमत

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डा. थेरेसे ब्रॉस ने निमोग्राफिक और कर्डियोग्राफिक मशीन से योग की स्थिति में अध्ययन से पाया है कि योगी द्वारा अपने हृदय पर नियन्त्रण करने से हृदय की धड़कन बन्द हो जाती है और आइसो इलेक्ट्रिक ग्राफ पर इसका मापन नहीं किया जा सकता। परन्तु नियन्त्रण हटा देने पर यह धड़ककर नॉरमल हो जाती है और योगी की इच्छा के अनुसार इसकी वोल्टेज बढ़ भी जाती है। यह प्रभाव योगी की प्राण शक्ति की इच्छानुसार प्रयोग का है।विज्ञान द्वारा यह पाया गया है कि श्वास से खींचे गए ऑक्सीजन की शक्ति (ऋणात्मक आयन्स) को फेफड़े की महीन नलिकाएं कोलोइड्स को भेज देती हैं जिससे यह यौगिक नियन्त्रण हो पाता है। योगी बिना शरीर विज्ञान की जानकारी के इस तरह शारीरिक क्रियाओं पर पूर्ण नियन्त्रण कर लेते हैं। फिर भी पूर्ण स्वस्थ रहते हैं और सुख शान्ति से भरपूर रहते हैं, उनका स्वस्थ रहना असंभव था, यदि वे शारीरिक नियमों का पालन न करते होते।

विज्ञान को अब विश्वास हो गया है कि वातावरण में संव्याप्त प्राण बिजली के कणों द्वारा आवेक्षित हैं, विशेषकर ऋण आयनों द्वारा और शरीर द्वारा ग्रहण किया गया प्राण का शरीर में ही वास्तविक चयापचय होता है। इस प्राण के पूर्ण रहस्य को जानने के लिए विज्ञान उत्सुक है। स्ट्रासबर्ग की चिकित्सा अकादमी के प्रोफेसर और जीव भौतिकी संस्थान के डायरेक्टर फ्रेड वैलेस ने अपनी पुस्तक ‘‘द बायोलाजिकल कंडिशन्न्स क्रीएटेड बाई द इलेक्ट्रिकल प्रॉपर्टीज आफ द एटमॉसफियर’’ में इस सम्बन्ध में पूर्ण वैज्ञानिक जानकारी लिखी है।

भू भौतिकी विज्ञानियों ने प्रयोगों से पाया है कि पृथ्वी की ऊपरी सतह ऋण आवेशित है और ऊपरी वायुमण्डल धनात्मक है। हमारा प्राणवान, वायु मण्डल ऊर्ध्वाकार विद्युतीय क्षेत्र है जिसमें प्रतिमीटर अल्टीट्यूड में 100 से 150 वोल्ट बिजली है। चीनी वैज्ञानिक सूली. डी. मोरेन्ट के अनुसार चीन के ‘‘यांग’’ और ‘‘यिन’’ परक विचार इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण हैं। शान्त वातावरण धनात्मक होता है। इसे चीनी ‘‘यांग’’ कहते हैं जो कि सूर्य और तारों के कारण होता है। ऋणात्मक आवेश पृथ्वी के कारण होती है जिसे वे ‘यिन’ कहते हैं। सोलहवीं सदी की चीनी पुस्तक के अनुसार यांग हल्की और शुद्ध होती है। यह शक्ति ऊपर की ओर बढ़ती है जिससे आकाश बना है। यिन भारी और मोटी है जिससे पृथ्वी बनी है। आकाश की शक्ति ऊपर है और पृथ्वी की शक्ति वनस्पति में नीचे है। यह प्राण शक्ति समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार कम या अधिक होती रहती है।

सूर्य और तारे भी प्राणशक्ति को प्रभावित करते हैं। प्राण शक्ति में दो तरह के आयन्स होते हैं—

(1) ऋण आवेश युक्त, छोटे अधिक क्रियाशील, जो शरीर के सेल्स को शक्ति देते हैं और वायुमण्डल से प्राणियों को प्राप्त होते हैं। स्वच्छ आबोहवा में प्रत्येक बड़े आयन के साथ दो या तीन ये छोटे आयन्स होते हैं। ऋण आयन्स, धूल, धुआं, कोहरा और गन्दी हवा से नष्ट होते हैं।

(2) बड़े, मन्द, अनेक अणुओं वाला न्यूक्सियस वाला आयन। ये गन्दे स्थानों पर अधिक होते हैं। ये वातावरण से छोटे आयन्स में मिल जाते हैं और अनेक आयन्स के मेल से बड़े आयन्स बनाते हैं। इनके बढ़ने से क्रियाशील (प्राणवान) छोटे आयन्स वातावरण में कम हो जाते हैं।

इन वैज्ञानिक निष्कर्षों से योगियों का यह कथन प्रामाणित होता है कि प्राण कोई ऑक्सीजन, नाइट्रोजन या रसायन नहीं है। बड़े आयनों की अधिकता के कारण ही शहर की हवा प्राणवान और स्फूर्तिदायक नहीं होती। धूल, कल-कारखानों एवं कारों से निकलने वाली गैस के समान ही हानिकारक है क्योंकि यह प्राण को नष्ट कर देती है। एयर कन्डीशन्स जगहों में भी प्राण नहीं पाये जाते, सिर्फ धूल का प्रवेश वहां रुकता है। धुवां और कोहरा भी इसी तरह प्राणहीन होते हैं।

प्राण शक्ति का मुख्य श्रोत सूर्य के शार्ट वेव्ह इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन हैं। वातावरण के क्रियाशील ऋण आवेशित आयन्स इसे के परिणाम हैं। यही मनुष्यों, जीव जन्तुओं, वनस्पति, पेड़-पौधों, अणु-परमाणुओं, प्रोटान्स, न्यूट्रान्स एवं समस्त पदार्थों की प्राणशक्ति (जीवनी शक्ति) है। प्राणवान ऋणात्मक आयनों का दूसरा प्रमुख स्रोत ब्रह्माण्डीय किरणें हैं जो लगातार दिन रात आती हैं।

ये शक्तिशाली ऋण आवेशी आयन्स पानी के लहराने और वाष्पीकरण से भी अधिक मात्रा में निकलते हैं, इसीलिए समुद्री हवा उत्साहवर्द्धक होती है। समुद्री तूफानों और धूल की अनुपस्थिति में भी ये अधिक होते हैं। समुद्र के किनारों और समुद्र में हम प्राण से स्नान करते हैं और इससे हमारे क्रियाशील एवं अति सम्वेदना वाले अंग अधिक पुष्ट होते हैं। चिड़चिड़े और स्नायविक लोगों को भी समुद्री हवा लाभप्रद है। प्राणायाम का उद्देश्य भी इस क्रियाशील आयन्स की शक्ति को ग्रहण करना, उन्हें अन्यान्य अंगों में भेजना एवं शक्ति अर्जित करना है।

अन्न और जल के चयापचय प्रणालियों की तरह मानव शरीर में विद्युत (प्राण) के चयापचय की प्रणाली भी है। प्राश्चात्य वैज्ञानिक वैलेस के अनुसार मनुष्य इस प्राण शक्ति के क्रियाशील ऋण आवेशी आयन्स को प्राप्त करके ऋण आवेशी हो जाता है। इस प्राण प्रणाली की शक्ति पर ही दूसरी प्रणालियां काम करती हैं। श्वास द्वारा ली गयी वायु से मनुष्य इन ऋण आवेशी आयन्स को तब तक ग्रहण करता है, जब तक वे अधिक होने के कारण त्वचा से बाहर नहीं निकलते। वैलेस ने अपने प्रयोगों में पाया है कि हमारे अंग ऋण आवेशी आयनों से क्रियाशील रहते हैं और इनकी वृद्धि से उसकी जीवनी शक्ति बढ़ती, स्फूर्ति एवं साहस में वृद्धि होती है। इस तरह पाश्चात्य विज्ञान पूर्णतः भारतीय योगियों के प्राण सम्बन्धी सिद्धान्तों की पुष्टि करता है।

यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि गहरी और लम्बी श्वास लेने से हमें अधिक हवा मिलती है और हम अधिक प्राण पाते हैं। इससे नर्वस सिस्टम फेफड़ों को हवा प्रदूषण करने के लिए उत्तेजित करता है। नासिका के नर्वस में थोड़ा भी विक्षेप पूरे श्वसनांगों पर बहुत प्रभाव डालता है—यथा छींक। इसलिए प्राणायाम के द्वारा नथुनों को अधिक फैलाकर अधिक वायु ग्रहण करने का हम अभ्यास करें। इससे हमें अधिक प्राण मिलेगा और हमारे मन एवं अंग सशक्त एवं स्फूर्तिवान बने रहेंगे। लगातार अभ्यास से हम यह सतत् लाभ उठा सकते हैं। इस गहरे श्वास से हमें दस प्रतिशत हवा अधिक मिलती है। प्रति मिनट 18 श्वास के हिसाब से एक वर्ष में हम पांच लाख लीटर हवा अधिक पायेंगे जो हमारे श्वसनांगों एवं अन्यान्य अंगों को अधिक शक्तिशाली बनायेगी। अभ्यास होने पर यह सुगम होगा और श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया इससे अधिक नियमित होगी। डॉ. वैलेस के अनुसार मानव शरीर में बिजली (प्राण) के चयापचय से अनेक बातें मालूम होती हैं। ऋण आयन्स का पाचन शरीर के अंगों को क्रियाशील रखने के लिए अति आवश्यक है और क्षति ग्रस्त आयनों का शरीर से निष्कासन भी उतना ही जरूरी है। वैलेस का कथन है कि यह प्राण सूर्य की अल्ट्रावॉयलेट किरणों (परा बैगनी किरणों) की फोटोकेमिकल (प्रकाश रसायन) क्रिया के द्वारा प्राप्त होती है। सूर्य स्नान हमारे विद्युत चयापचय को क्रियाशील बनाकर हमें अधिक शक्ति (स्फूर्ति) देता है। शरीर को पृथ्वी से पृथक (इन्सुलेटेड) नहीं रखना चाहिए क्योंकि लगातार क्रियाशील ऋण आयन्स का प्रवाह तब शरीर में नहीं हो सकेगा। प्राणियों के फरवाली चमड़ी से उनमें प्राण अधिक आकर्षित होता है और सुरक्षित बना रहता है। मनुष्य के शरीर में कपड़े पहनने से वह इन्सुलेटेड हो जाता है और क्रियाशील आयन्स का लाभ नहीं उठा पाता। इससे वह सुस्त और रोगग्रस्त होता है। अच्छा यही है कि प्राणायाम की विज्ञान सम्मत प्रक्रिया हर क्षण अपनाते रहा जाय।
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