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Books - क्या धर्म अफ़ीम की गोली है

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धर्म अफीम की गोली नहीं

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3 दिसम्बर 1905 को सोवियत रूस से प्रकाशित पत्र ‘‘नेवाया झिजन’’ के पृष्ठ 83 से 87 तक तत्कालीन सोवियत संघ के साम्यवादी सिद्धान्त के जनक और नेता श्री एन. लेनिन ने समाजवादी सिद्धान्तों को क्रियान्वयन में सर्वोपरि बाधा धर्म को बताया और धर्म की निन्दा उसे ‘‘अफीम की गोली’’ कह कर की। आज साम्यवादी सिद्धान्तों में उक्त कथन की सर्वोपरि महत्व देकर स्वीकार किया जाता है और इन्हीं शब्दों की प्रेरणा से कम्युनिस्ट देश कम्युनिज्म सिद्धान्त पर आस्था रखने वाले धर्म तत्व की अवहेलना उपेक्षा ही नहीं उसकी निन्दा भी करते रहते हैं।

उक्त विचार धारा का प्रतिपादन पीछे लेनिन के ‘‘धर्म सम्बन्धी विचार’’ नाटक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया गया और अब तक उन्हीं विचारों को आधारभूत तथ्य मानकर धार्मिक आस्थाओं और परम्पराओं का खण्डन किया जाता रहता है।

कदाचित कोई उन मूलभूत विचारों पर दृष्टि डाले तो उसे यह समझते देर न लगेगी कि लेनिन की इस मान्यता के पीछे ऐतिहासिक कारण रहे हैं वे उस समय की परिस्थिति में सही रहे हैं पर धर्म के यथार्थ स्वरूप की तुलना में न तो उन विचारों में कुछ सत्य है न वजन। उन दिनों अन्य योरोपीय देशों की तरह रूस में भी चर्च और उनके पादरी सर्व प्रभुता सम्पन्न हुआ करते थे। असीमित अधिकार, सम्पत्ति प्राप्त व्यक्ति में अहंकार की अन्य जो भी बुराइयां हो सकती थीं वह उन पादरियों में भी थीं यही कारण था कि उनके प्रति जन श्रद्धा पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी, अपना आधिपत्य बनाये रखने के लिए पादरियों ने सिद्धान्तों की कट्टरता का बोझ लादा। उस स्थिति में किसी भी विचारशील में वही प्रतिक्रिया हो सकती थी जो लेनिन में हुई। वास्तव में लेनिन की आवाज आम जनता की प्रतिक्रिया थी इसी कारण वहां धर्म के प्रति अनास्थाओं ने एकाएक जोर पकड़ा, विप्लव हुआ और रूस एक झटके में साम्यवादी देश हो गया।

उन समूचे विचारों को बार-बार पढ़ने पर एक भी ऐसा तर्क नहीं मिलता जिससे सैद्धान्तिक रूप में धर्म के सनातन सिद्धान्त कटते हों। आर्थिक सामाजिक जीवन को जिस भाग्यवाद से दबाने की बात कही गई है वह पादरियों की तात्कालिक मस्तिष्कीय उपज हो सकती है वस्तुतः हिन्दू धर्म ही नहीं किन्हीं अन्य धर्मों में भी वैसा नहीं है। हमारे यहां पग-पग पर पुरुषार्थ परहित, सामाजिक भलाई की बात कही गई है, सम्पत्ति वालों से सम्पत्ति का एक बड़ा भाग लेने की परम्परा आज आयकर के रूप में सारे विश्व में विद्यमान है पर यह वस्तुतः भारतीय शासन व समाज की देन है उसका भी सम्बन्ध धर्म से ही रहा है जो आर्थिक और भौतिक जीवन के व्यवहार में इतनी कठोर साम्यवादी विचार धारा का पोषक रहा हो उस धर्म को ही प्रगति में बाधक मान लेना न केवल भूल अपितु मूर्खता भी है जब कि धर्म एक विज्ञान सफल प्रक्रिया का नाम है। यों पाखण्ड आज भी धर्म में कम नहीं, अंध विश्वास और निहित स्वार्थों का अहंकार अब भी जुड़ा हुआ है धर्म के उस स्वरूप की जो व्यक्ति को पलायन वादी, भाग्यवादी, विषमतावादी बनाता है न केवल निन्दा अपितु बहिष्कृत भी किया जाना चाहिये पर उसका दार्शनिक पक्ष जो प्रत्येक युग, प्रत्येक काल, प्रत्येक परिस्थिति तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिये अपरिवर्तनीय है, का तिरस्कार मानव जीवन के लिये कितना अहितकर हो सकता है उसे आज के सामाजिक जीवन और वैयक्तिक आचरण की मर्यादा हीनता के रूप में कहीं भी स्पष्ट देखा जा सकता है। धर्म को पलायन वादी बनाना भगोड़ों का काम है। निन्दा केवल उतने ही अंश की हो सकती है।

भगोड़ों में से बहुत से तथाकथित अध्यात्म के कोंतर में छिपने की कोशिश करते हैं। एकान्त में भजन करने और शान्ति पाने की बात सोचना सर्वसाधारण के लिए उपयोगी नहीं है। यह वैज्ञानिक अन्वेषण एवं अभ्यास का प्रकरण है। अन्तर्मुखी होकर सूक्ष्म अति सूक्ष्म सत्ता के गहरे समुद्र में डुबकी लगाने और वहां से बहुमूल्य रत्न राशि ढूंढ़ लाने के लिए कुशल पनडुब्बे का सा-दुस्साहस करना एक महत्वपूर्ण काम है तो पर वह बन तब पड़ता है जब पहले मन को भली प्रकार निग्रहीत कर लिया जाय और एकान्त में भी रंग मंच जैसा आनन्द आने लगे। यह समय साध्य और अभ्यास साध्य है। यह प्रारम्भ नहीं परिपक्वावस्था है। जो लोग आरम्भ में ही एकान्त ढूंढ़ते हैं और पहले दिन ही समाधि लगने की बात सोचते हैं वे भारी भूल करते हैं। व्यायामशाला में प्रवेश करते ही दंगल जीतने वाला पहलवान कौन बनता है और पट्टी पूजन के दूसरे दिन ही किसके हाथ में स्नातक होने का प्रमाण-पत्र मिल जाता है। इसी बाल बुद्धि से एकाकी आत्म साधना के लिए कुछ लोग भागते हैं। इसके लिए उनकी पूर्व तैयारी तो होती नहीं जो उत्साह होता है वह भी श्रद्धाजन्य नहीं—जीवन संग्राम की भयंकरता से डरकर कहीं छिपने की पलायन वादी मनोवृत्ति से उत्पन्न हुआ होता है। उसमें न श्रद्धा होती है और न गहराई। फलतः मन वहां भी नहीं लगता। वापिस लौटने में उपहास होने की शिक्षक से एक नया असमंजस और खड़ा हो जाता है।

कुछ लोग भजन करने के लिए घर छोड़कर तो नहीं भागते पर एक विचित्र प्रकार की उदासी धारण कर लेते हैं। यह वैराग्य है तो नहीं पर कहा या समझा इसी तरह जाता है। अपने कर्त्तव्यों एवं आश्रितों से उदासीन हो जाना। उदासी से उत्पन्न से उत्पन्न शिथिलता भी भारी पड़ती है। जीवन में इस प्रकार जो रिक्तता उत्पन्न होती है उसे भरने के लिए कई व्यक्ति पूजा पाठ, सत्संग, साधु संगम जैसा कोई नया आश्रय ढूंढ़ते हैं। यदि उस विषय में गम्भीरता पूर्वक कदम उठाये गये होते तो कर्मयोग की सनातन प्रक्रिया पहले से ही मौजूद थी। उसे अपना कर उनके अर्जुन, हनुमान आदि की तरह उभयपक्षीय कर्त्तव्य-धर्म भली प्रकार सध सकते थे। लोक और परलोक का समन्वय पूर्ण व्यावहारिक है साथ ही सरल और सरस भी।

वैयक्तिक जीवन में आत्म परिष्कार, पारिवारिक जीवन में सहयोगियों का पोषण सम्वर्धन, सामाजिक जीवन में सत्प्रवृत्तियों का समर्थन जैसे उत्तरदायित्व हर किसी के सामने मौजूद हैं। उनका निर्वाह भली प्रकार किया जाना चाहिये। इन तीनों ही मोर्चों पर कर्म कौशल का, शौर्य साहस का—विवेक सन्तुलन का परिचय दिया जाना चाहिए। इनसे मन हटा लेना और कल्पना लोक में विचरण करके मन को समझाना ऐसा प्रयत्न है, जिससे किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती। भाग खड़े होने से समस्याएं और भी अधिक विकराल होती हैं और पहले जितना उपद्रव चल रहा था, उसमें और भी अधिक वृद्धि हो जाती है। मन जिस समाधान को खोजने चला था वह भी भटकाव भरी पगडंडियों में कहां मिलता है। उपेक्षा, उदासीनता की रीति-नीति, चैन मिलने में सहायक होने की कल्पना जिनने भी की है उन्हें प्रयोग के उपरान्त निराशा ही हाथ लगी है।

प्रायः कायरता से उत्पन्न पलायनवाद की चपेट में बहुत से लोग धर्म आवरण ओढ़ते और व्यावहारिक जीवन से जुड़ी हुई समस्याओं से मुंह मोड़ते हैं। ऐसे ही धर्मात्मा सर्वत्र उपहासास्पद बनते हैं। हर क्षेत्र में श्रम करने पर उपलब्धियां मिलती हैं। धर्म क्षेत्र में प्रवेश करने पर व्यक्तित्व में तद् विषयक प्रखरता उत्पन्न न हो तो सहज ही उसकी निरर्थकता का अनुमान लगाया जायगा। दर्शकों और पर्यवेक्षकों में सहज ही उसकी बुरी प्रतिक्रिया होगी। धर्मात्माओं की अपरिपक्वता का दोष धर्म पर धार्मिकता पर मढ़ा जायेगा। देखा यही जाता है कि धर्म-चर्चा करने वाले लोग अपने स्वजन सम्बन्धियों से उदास होते जाते हैं। जिम्मेदारियों से हाथ खींचकर उन्हें और भी अधिक विकृत करते हैं—साथ ही स्वयं भी निराश, निष्क्रिय बनकर अपने आप के लिए भारभूत बनते हैं। जहां रहते हैं वहां भी नीरसता का वातावरण उत्पन्न करते हैं। जिस समुदाय के बीच रहा जाय—जिन लोगों के साथ घनिष्ठतापूर्वक निर्वाह किया जाय उन्हें पारस्परिक स्नेह, सहयोग, विनोद, उत्साह का लाभ मिलना चाहिए। इसके बिना सह निर्वाह के साथ जुड़े हुए कर्त्तव्य की अवहेलना ही होती है। जो मां स्वयं उदास रहती है और अपने बच्चों पर पति पर, परिवार पर उदासी थोपे रहती है वह प्रकारान्तर से उन पर अत्याचार ही करती है भले ही वह निर्दोष जैसी दीन-दुखी जैसी ही क्यों न दीखती हो। यहां महिला का तो उदाहरण भर दिया गया है। बात उपेक्षा बरतने वाले हर नर-नारी, बाल वृद्ध पर लागू हो सकती है। सह जीवन में, साथियों के प्रति रुचि घटा लेना उनके प्रति अपने कर्त्तव्यों में शिथिलता कर देना हर दृष्टि से अनुचित है। भले ही इसके लिए धार्मिकता की आड़ क्यों न ली गई हो? धर्म धारणा का निर्वाह करने के लिए नीरस और उत्तरदायित्व विहीन जीवन क्रम अपनाना आवश्यक नहीं है। उसे सरसता और सक्रियता के साथ अपेक्षाकृत और भी अच्छी तरह निभाया जा सकता है।

ऐसी पलायनवादी धार्मिकता पर करारे व्यंग करते हुए दार्शनिक विसेन्ट पौल ने लिखा है—‘‘कमजोर मनःस्थिति के लोग जीवन संग्राम की स्वाभाविक कठिनाइयों को तिल का ताड़ बनाते हैं और भयभीत होकर मुंह छिपाने का कोई आसरा तकते हैं। कोई धर्म का पल्ला पकड़ते हैं तो कोई शराब का आश्रय लेते हैं। पर इससे उन्हें मिलता कुछ नहीं। ऐसे सभी आसरे परिस्थिति में सुधार नहीं, बिगाड़ ही उत्पन्न करते हैं।’’ धर्म को अफीम की गोली कहकर अनास्थावादी लोगों ने उसे खूब बदनाम किया है और कहा है इस जंजाल में फंसने वाले लोग काहिली और गैर जिम्मेदारी से लद जाते हैं यह बदनामी किसी भी भले बुरे इरादे से क्यों न की जाती हो उसमें इतना तथ्य तो है ही कि धार्मिकता और उदासीनता प्रायः पर्यायवाचक बनती दिखाई पड़ती हैं तो उस परिणाम को देखते हुए इस प्रकार के निष्कर्ष निकालने वालों को अधिक दोष नहीं दिया जा सकता। वीसेन्ट पौल ने इस सन्दर्भ में अपना निजी अभिमत व्यक्त करते हुए कहा है—धार्मिकता, औषधियां, मनोरंजन आदि सभी साधन यदि ठीक तरह प्रयुक्त किये जायं तो इनके सहारे प्रगति होती है और प्रसन्नता मिलती है। किन्तु इन पर इतना आश्रित न बना जाय कि कठोर कर्त्तव्यों की उपेक्षा ही होने लगे। औषधियों पर आश्रित रहने से नहीं स्वास्थ्य रक्षा के ठोस प्रयत्न से काम चल सकता है। मनोरंजन के अवसर ढूंढ़ने से नहीं आन्तरिक उल्लास से प्रसन्नता स्थिर रहती है—इसी प्रकार धर्म के कल्पना लोक में विचरण करने से नहीं, जीवन संग्राम में कर्म का गांडीव उठाने से समाधान मिलता है। कर्मनिष्ठा का स्थान यदि पलायनवादी धार्मिकता ग्रहण करने लगे तो उसमें अनर्थ की सम्भावना रहती है। वैसे दोनों ही अपने-अपने स्थान पर आवश्यक और महत्वपूर्ण हैं।

धर्म का वास्तविक तात्पर्य है—मानवी चेतना में ऐसी सत्प्रवृत्तियों का समावेश जो सदाचरण और कर्त्तव्य पालन के रूप में वातावरण को उल्लासपूर्ण बनाने में समर्थ हो सकें। सहिष्णुता, दया, प्रेम, विवेक, उदारता, संयम, सेवा जैसे गुणों में सच्ची धर्मनिष्ठा का परिचय मिलता है। कर्त्तव्य परायणता को प्रमुखता देने वाला व्यक्ति धर्मात्मा कहा जा सकता है। किन्तु आज तो इन सबकी उपेक्षा करके मात्र पूजा पठन में निरत रहना ही धर्म परायणता का चिन्ह बन गया है। धर्म के प्रति अनास्था इसी विकृति के कारण उत्पन्न हुई है। धर्म के कारण लोग पिछड़ेपन के शिकार नहीं हुए हैं वरन् पिछड़े लोगों ने धर्म का आडंबर ओढ़कर उसकी उपयोगिता में सन्देह उत्पन्न कर दिया है।

नींद की गोली खाने से, नशा पीने से भाग्यवाद का आश्रय लेने भाग खड़े होने, उदासीनता धारण कर लेने से, उलझनें सुलझती नहीं और न पलायनवादी धार्मिकता से किसी को समाधान मिलता है। तथ्यों को समझा जाना चाहिये और समस्याओं का समाधान ढूंढ़ना चाहिए। वह एक तरह से न सही तो दूसरी तरह हल हो सकती है। जिस तरह हम हल चाहते हैं वही एक मात्र उपाय हो ऐसी बात नहीं है। खोजने पर ऐसे अनेकों आधार निकल सकते हैं। जिससे प्रस्तुत कठिनाइयों से निपटना या बचना सम्भव हो सके। पानी की धार कोई बड़ा चट्टान सामने आने पर किसी दूसरी दिशा में मुड़ जाती है। सीधी टक्कर कठिन पड़ती है तो बगल से रास्ता ढूंढ़ा जाता है। निराशा, कायरता और भीरुता से ग्रसित मनःस्थिति में अपनाया गया धर्माश्रय किसी के कुछ काम नहीं आ सकता। धर्म तो कठोर कर्म का पर्यायवाचक है। धर्म-निष्ठा और कर्म-निष्ठा समान अर्थ बोधक हैं। दूरदर्शी, दृष्टिकोण अपनाकर अपनी और अपने सम्पर्क क्षेत्र की समस्याओं का समाधान करने की क्षमता का विकास ही सच्ची धार्मिकता है। इसी विशेषता के कारण धर्मतत्व को मानव जीवन में सम्मान और उच्च स्थान मिला है। इस मौलिकता से विरत होकर वह अनुपयोगी बनता और बदनाम होता चला जायगा।

धर्म और ईश्वर के प्रति आस्था होने का तात्पर्य है—जीवन की गरिमा और उसकी श्रेष्ठता पर सुदृढ़ श्रद्धा। इसकी प्रेरणा से मनुष्य व्यक्तिगत जीवन में ईमानदार, जिम्मेदार और उदार बनता है। ईश्वर विश्वास से जानता है कि उसे पैर इसलिए दिये गये हैं कि उनके सहारे न केवल खड़ा हो वरन् आगे चलने का भी प्रयास करे। यदि ईश्वर को लकड़ी का घोड़ा बनाया जायगा और उस पर चढ़ कर सफर करने का इरादा किया जायगा तो यह आस्तिकता और धार्मिकता के मूल सिद्धान्तों का अतिक्रमण ही होगा। यदि तथाकथित अध्यात्म वादियों ने धर्म की यह दुर्गति न की होती तो अनास्थावादियों को या साम्यवादियों को यह कहने का साहस नहीं होता कि धर्म अफीम की गोली है जिसमें प्रत्यक्ष चेतना को अप्रत्यक्ष जगत की खुमारी सवार रहती है धर्म के वह सभी सिद्धान्त जो मनुष्य को प्रत्यक्ष से परे अप्रत्यक्ष और सदृश्य का बोध कराते हैं दर्पण में दिखने वाले प्रतिबिम्ब की तरह सत्य और स्पष्ट हैं वस्तुतः धर्म ही यथार्थ विज्ञान है, धर्म की नाव पर बैठकर ही आत्म कल्याण आत्म शान्ति और आत्मिक प्रगति का समुद्र पार किया जा सकता है उससे कम में नहीं।

धर्म एक परिष्कृत दृष्टिकोण

प्राचीन भारत के मनीषियों ने धर्म का अर्थ व्यापक माना है। ऋषि-मुनियों ने वर्ग संप्रदाय आदि भेद-भाव के बिना प्राणि मात्र के कल्याण के निमित्त ज्ञान-विज्ञान का अन्वेषण किया। जप-तप की अनुभूतियों से विश्व-मानव को लाभान्वित करने सूत्र और मन्त्रों की रचना की। वेद-वेदांग इसका ज्वलन्त प्रमाण है।

वेद को धार्मिक ग्रन्थ माना जाता है। उसमें समग्र जीवन जीने की कला का वर्णन मिलता है। व्यक्तिगत ही नहीं, सामाजिक समस्याओं का समाधान है। आध्यात्मिक ही नहीं अपितु आर्थिक, राजनैतिक विषय भी है। शासन-प्रणाली के प्रसंग में ‘‘साम्राज्यं भौज्यं स्वराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठयं राज्यम्’’ आदि ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख किया गया है।

हमारा कोई धर्म-ग्रन्थ एकांगी नहीं। धर्म-शास्त्रों में भी सर्वांगीण विधि बताई गई है। धर्म की परिभाषा है—‘‘यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ।’’ ऐहलौकिक अभ्युदय भला भौतिक-आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक ज्ञान शून्यता से कैसे सम्भव है? धर्म परमार्थ के साथ पुरुषार्थ सिखाता है। आत्मिक उन्नति के मार्ग पर चलने के लिए कहकर जीवन को पूर्णता प्रदान करता है।

आज लोग हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि को धर्म मानने लगे हैं। अतः इनसे भेदभाव रहित होना ‘धर्म-निरपेक्षता’ कहलाता है। यह भ्रामक और गलत दृष्टिकोण है। मुस्लिम, यहूदि, मसीही आदि सम्प्रदाय हैं, धर्म नहीं। धर्म तो एकांगी पंथ-सम्प्रदायों से ऊपर है। सम्प्रदाय जल-बिन्दु के समान हैं। धर्म समुद्र है। सम्प्रदायातीत जीवन ही मानवता का स्वरूप है।

परन्तु वर्तमान विश्व में जितनी विचारधाराएं जोरों पर फैल रही हैं, उनमें कृत्रिमता और अधूरा दर्शन है। कुछ एकांगी विचार प्रतिक्रियात्मक और कुछ नकली हैं। पूंजीवाद एकांगी विचार है। पूंजीवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप साम्यवाद है। अन्य भारत में प्रचलित कई धारणा तो अंग्रेजों की सीधी नकल हैं। इस तरह के विचार उस काल में चलते हैं। फिर थोड़े समय के बाद खतम हो जाते हैं।

इस युग की यही विडम्बना है कि उद्योग और विज्ञान के विकास से हमारा दृष्टिकोण भौतिकवादी और स्वार्थपरायण बन गया है। अनास्था और अविश्वास के कारण धार्मिक दर्शन के प्रति द्वन्द्व उत्पन्न हुआ विद्या-विहीन शिक्षित और साधन-सम्पन्न लोग यह समझते हैं कि नये समाज के निर्माण की शक्ति धर्म में रही नहीं। धर्म-तत्व के प्रति अश्रद्धा और उपेक्षा इसी अज्ञान की उपज है।

यद्यपि विभिन्न मत-पंथ, सम्प्रदाय और वादों का प्रारम्भ व्यक्तिगत तथा समष्टिगत भूलों को सुधारने की दृष्टि से होता है। व्यक्ति का कल्याण एवं सुन्दर समाज का निर्माण ही सभी मत-वादों का मुख्य उद्देश्य है। किन्तु उनकी ममता व्यक्ति को पागल बना देती है। यही भ्रान्ति और मोह कहलाता है। हम भूल जाते हैं कि औषधि का सेवन आरोग्य के लिए है, ममता किम्बा आसक्ति हेतु नहीं। सभी विचारों से स्वयं एवं समाज को सुन्दर तथा आनन्द दायक बनाने की अपेक्षा की जाती है।

जिस दृष्टि कोण की गला फाड़-फाड़कर प्रशंसा की जाती है, यदि वह विश्व-कल्याण हेतु जीवात्मा को सन्मार्ग पर चलाने में उपयोगी न बन सका तो उसका परिवर्तन स्वाभाविक है। प्रेम, सत्य और यथार्थ ही धर्म है। एकता और समता का मूल यही धार्मिक दृष्टिकोण है। धर्म का नया दृष्टिकोण इसी सार्वभौम धर्म का प्रतिपादन करता है। अनुपयोगी मत वाद और साम्प्रदायिक भेद-भाव तथा पाखंड को अब भुलाकर धर्म के इस नये दृष्टिकोण को जीवन के व्यवहार में क्रियान्वित करना ही पड़ेगा। अन्यथा अधर्म, अनास्था, अभाव, दुर्भाव के कारण विविध समस्या जनित संकट समूची मानव सभ्यता के विनाश का चित्र प्रस्तुत कर देगा।

हम जानते हैं कि मानव मात्र के अन्तःकरण में धर्म का दैवी भाव भी विद्यमान है। प्रयोजन है, परम सत्य की अनुभूति का अमृत पिलाकर आत्म-परिचय कराने का— अखंड-ज्योति जलाकर सद्ज्ञान के अनुसार से सद्भाव जागरण का।

जीवात्मा का ध्येय है अनन्त आनन्द की प्राप्ति। ‘‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’’ में इसी अमरता की मांग है। नदियां अपने आप में सन्तुष्ट न होने से समुद्र की ओर दौड़ी चली जाती हैं। हवा को एक स्थान पर चैन नहीं। यह प्रतिक्रिया संसार के प्रत्येक परमाणु में चल रही है। किसी को भी अपने आप में सन्तोष नहीं मिलता। जड़ व चेतन सभी पूर्णता के लिए गतिवान् हैं। अपने स्वत्व को किसी महान् सत्ता में घुला देने के लिए सबके सब सतत् क्रियाशील दिखाई देते हैं।

ऐसी ही प्रक्रिया जीवात्मा की है। व्यष्टि में उसे अनन्त आनन्द की प्राप्ति नहीं। समष्टि की परमात्मा के पावन स्पर्श हेतु सेवा-भक्ति अनिवार्य है। आत्म चिन्तन की प्रवृत्ति से जीवन-मरण के रहस्य का अनावरण होता है। उसे यह आभास मिलता है कि मानव को यहां वे सारी परिस्थितियां प्राप्त हैं जिनके सहारे सक्रिय होने पर वह अपनी विकास यात्रा आसानी से पूरा कर सकता है।

परमात्मा से प्रेम एवं आत्मीयता स्थापित करने का अच्छा तरीका यह है कि हम उसका अभ्यास परिजनों से प्रारम्भ करें। संसार में सबके साथ सत्य का व्यवहार करें। न्याय रखें और सहिष्णुता बरतें। स्वार्थ की अहं वृत्ति का परित्याग कर परमार्थ के विशाल क्षेत्र में पदार्पण करें। इससे मनुष्य विराट की ओर अग्रसर होता है। यही नया दृष्टिकोण युग की अनिवार्य आवश्यकता है।

ऐसा धार्मिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति हजारों, लाखों योनियों के बाद सौभाग्य से उपलब्ध मानव जीवन को तुच्छ स्वार्थमय गोरखधन्धों में ही दुरुपयोग करने की मूर्खता नहीं करेगा। यह प्रत्यक्ष है कि पशु-पक्षी की तुलना में ज्ञान या धर्म-भावना के कारण ही वह श्रेष्ठ है।

धर्म का मूल उद्देश्य है जीवन को आध्यात्मिक दिशा में मोड़ते हुए उस परम लक्ष्य को प्राप्त करना। आस्तिकता का अवलम्बन लेकर क्रमशः उस दिशा में बढ़ा जा सकता है धार्मिकता का तत्व ज्ञान हमें कर्तव्य परायण बने रहने और जीवन के संग्राम के हर मोर्चे पर लड़ाई लड़ने का शौर्य एवं साहस प्रदान करता है। धर्म में सज्जनता, शालीनता, कर्तव्य परायणता एवं प्रखरता के वे सारे तत्व मौजूद हैं जिनका आश्रय लेकर कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत जीवन में सुख-समृद्धि से सम्पन्न बन सकता है। आध्यात्मिक दिशा में सुख-शांति का जीवन-यापन करते हुए अपने जीवन-लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में अग्रसर हो सकता है। धार्मिक दर्शन का मूल उद्देश्य भी यही है।
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