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Books - क्या धर्म अफ़ीम की गोली है

Media: TEXT
Language: HINDI
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धर्म का उद्देश्य-व्यक्तित्व का परिष्कार

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मनुष्य जीवन में सुख-शांति की उपलब्धि के लिए जो सबसे अधिक आवश्यक एवं उपयोगी तत्व है उसे लोग धर्म के नाम से जानते हैं। सदाचार एवं कर्त्तव्य-पालन की प्रेरणा, जिओ और जीने दो का सन्देश धर्म की आत्मा के पर्याय हैं। धर्म का अर्थ किसी वस्तु अथवा व्यक्ति की प्रकृति, गुण, कर्म एवं स्वभाव है। कवीन्द्र-रवीन्द्र ने इसकी शाश्वत अनुभूति कर अभिव्यक्त किया है कि—‘‘धर्म अन्त प्रकृति है, वही समस्त वस्तुओं का ध्रुव सत्य है, धर्म ही चरम लक्ष्य है जो हमारे अन्दर कार्य करता है।’’ अतएव यह कहा जा सकता है कि जिस पथ पर चलकर अपने अभीष्ट की उपलब्धि सम्भव हो उसे ही धर्म कहते हैं। क्योंकि धर्म का उद्देश्य मानव जीवन को पथभ्रष्ट होने से बचाना है। इसलिए धर्म को जीवन का प्राण ही कहना चाहिए। धर्म का अभाव मनुष्य को पशु से भी गया बीता बना देता है, बल्कि अधार्मिक व्यक्ति को पशु कहना, पशु का अपमान करना है क्योंकि पशु का भी तो अपना धर्म होता है जिसे पाशव धर्म कहा जाता है। किन्तु मनुष्य यदि मानवीय धर्म का पालन नहीं करता अथवा अपने धर्म कर्त्तव्य का परित्याग कर देता है तो उसे हेय दृष्टि से ही देखा जाता है। समादरणीय व्यक्ति अथवा सम्मान के अधिकारी व्यक्ति वही हैं जो धर्म कर्त्तव्य से विमुख नहीं हैं। शास्त्रोक्ति है कि ‘‘जो धर्म का पालन करता है उसकी धर्म ही रक्षा करता है, पर जो उसे नष्ट कर देता है उसका नष्ट किया हुआ धर्म ही नाश कर देता है।’’ इस सिद्धान्त में दो मत नहीं हो सकते। जो व्यक्ति धर्म से विमुख हो जाता है वह श्री समृद्धियों एवं विभूतियों से वंचित हो जाता है। दुःख दारिद्र एवं दुर्भाग्य धर्म विमुख के संगी सहचर बन जाते हैं। नारकीय यन्त्रणा की अग्नि में वे सतत जलते एवं येन-केन, प्रकारेण जिन्दगी के दिन पूरे करते रहते हैं।

धर्म का निवास वहां होता है जहां सदाचार एवं कर्त्तव्यपालन का समादर किया जाता है इसलिए सदाचार एवं कर्त्तव्यपालन को धर्म के प्रधान प्रतीक कहना अतिशयोक्ति न होगी। धर्म की भव्य संरचना हेतु मानवोचित आदर्शों एवें उत्तरदायित्वों को सुचारु रूप से सम्पादित करने की महती आवश्यकता होती है।

आस्तिकता, उपासना, शास्त्र श्रवण, पूजा-पाठ, कथा-कीर्तन, सत्संग, प्रवचन, व्रत, उपवास, नियम, संयम, तीर्थयात्रा, पर्व एवं संस्कार आदि समस्त प्रक्रियाएं धर्म भावना को परिपक्व करने के उद्देश्य से विनिर्मित हुई हैं। ताकि मनुष्य अपने जीवन के महारिपुओं—वासना एवं तृष्णा, लोभ, मोह तथा आकर्षणों एवं प्रलोभनों से मुक्त होकर अपने कर्त्तव्य पथ पर अवाध गति से अग्रसर हो सके। साथ ही यदि वह इन धर्म के साधनों को साध्य मान बैठने की—गलती कर लेता है तो उसके समस्त धार्मिक कर्मकाण्ड जो धर्म के कलेवर मात्र हैं—धर्म के प्राण से कोसों दूर ले जाते हैं। कलेवर अपने आप में पूर्ण नहीं है, कलेवर का महत्व प्राण से है और प्राण का कलेवर से। सुस्पष्ट है दोनों एक दूसरे के परस्पर पूरक हैं। साधन और साध्य का एक दूसरे से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। यदि साधन को मात्र साधन ही समझा जावे, साधकोचित महत्व ही प्रदान किया जावे।

ईश्वर की सत्ता सर्वव्यापक, निष्पक्ष, न्यायकारी तथा सुनिश्चित कर्मफल प्रदान कर, सृष्टि की नियामक एवं नियन्त्रक है। उसकी अनुभूति अपने इर्द-गिर्द करना ही ईश चिन्तन, मनन, ध्यान एवं भजन का उद्देश्य है। पाप कर्मों के दण्ड से भयभीत रहें और मर्यादाओं का उल्लंघन करने पर उसके कठोर प्रतिफल का ध्यान रखते हुए अनीति एवं अन्याय न करें। उपासक अथवा धर्म भीरु के लिए यह अनिवार्य आवश्यकता है कि उसकी ईश्वरीय न्याय और कर्मफल की सुनिश्चितता में आस्था हो अन्यथा उसकी समस्त भक्ति-भावना निरर्थक ही सिद्ध होगी। धर्म कर्मों से जिस स्वर्ग, मुक्ति, सिद्धि, वरदान, देवकृपा, सुख-शान्ति समृद्धि, साक्षात्कार आदि लाभ होते हैं वह केवल उन्हीं के लिए सम्भव हैं जिन्होंने धर्म के मर्म एवं उसके वास्तविक स्वरूप को भली-भांति समझ लिया है, साथ ही उसे अपने जीवन में व्यवहारिक रूप प्रदान कर अपने व्यक्तित्व एवं चरित्र को उज्ज्वल बनाया है। समस्त विभूतियां भले ही वे लौकिक या लोकोत्तर हों, सदाचार द्वारा ही सुलभ होती हैं। यही कारण है कि धर्म को सदाचार का प्रेरणोत्पादक तत्व माना गया है। यह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि धर्म विभूति एवं सुख-शान्ति का जनक है। सदाचार के प्रति अनास्थावान होकर कोई व्यक्ति मात्र बाह्य क्रिया-कलापों से सुख-शान्ति का स्वप्न देखे तो उसे मात्र दिवास्वप्न की संज्ञा दी जायेगी। सदाचार में आस्था, कर्त्तव्यों, उत्तरदायित्वों और मर्यादाओं का विधिवत् पालन ही धर्म की आधारशिला है। सदाचार को धर्म का मूल कहा जा सकता है। मूलोच्छेदन के बाद किसी वृक्ष में लगने वाले फूलों और फलों की आशा करना निरर्थक है।

मध्य काल के अन्धकार युग में यह भ्रान्ति फैली कि अमुक धार्मिक कर्मकाण्ड करने मात्र से समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती है। आज भी लोग उसी लकीर के फकीर बने हुए हैं। इस प्रकार की निराधार मान्यताएं फैलाने में तत्कालीन पुरोहित वर्ग का अपना वर्चस्व बनाये रखने वाला स्वार्थ प्रधान था। जिसके माध्यम से जीविकोपार्जन हेतु दान-दक्षिणा और पूजा प्रतिष्ठ यजमानों से सहज रूप में प्राप्त हो जाती थी। जो लाभ सदाचार की कष्टमय कसौटी पर खरा उतर कर उपलब्ध होता है उसे मात्र बाह्य प्रक्रियाओं से पुण्य लाभ के प्रलोभन देकर सत्ता बना दिया।

मनुष्य के उत्थान एवं पतन का कारण उसकी भावना होती है, अतएव भावना स्तर को मानवीय आदर्शों के अनुरूप बनाये रहने में धर्म के समस्त क्रिया-कलाप सहायक होते हैं। इसी कारण भावना को प्रधानता मिली हुई है। आदर्श जीवन एवं उत्कृष्ट विचार ही सजीव धर्म की शाश्वत साधना है।

प्राचीन काल में संत, ब्रह्माणं और साधु अपरिग्रहशील जीवनयापन करते थे, फलस्वरूप लोकसेवा का उत्तरदायित्व अपने कन्धे पर उठाने में समर्थ होते थे। उनकी त्याग भावना उन्हें लोकश्रद्धा का पात्र बना देती थी। दान दक्षिणा से प्राप्त धन को वे अपने व्यक्तिगत कार्य में व्यय न करके लोक-कल्याण के कार्य में लगा देते थे। जिस प्रकार आजकल लोकनायकों को रक्षा कोषादि के लिए दी जाने वाली थैलियां उनकी व्यक्तिगत निधि नहीं मानी जाती। प्राप्तकर्त्ता उसे राष्ट्रीय हित के कार्यों में व्यय हेतु समर्पित कर देते हैं। प्राचीन काल में धर्मात्मा, लोक सेवी साधु, ब्राह्मण उदर पूर्ति के उपरान्त शेष राशि को सद्ज्ञान, सद्भाव, सदाचार एवं सद्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार में लगा देते थे। मन्दिर जन-जागरण के केन्द्र थे, किन्तु आज मठों एवे मन्दिर में प्रचुर सम्पत्ति विद्यमान होने के बाद भी उसका सदुपयोग नहीं हो पा रहा है, जन-मानस परिष्कार एवं उत्कर्ष, सांस्कृतिक लोक शिक्षण में यदि यह धर्म निधि सुलभ हो सकी तो आज हमारी स्थिति कुछ और ही होती तब आज का वातावरण ही भिन्न प्रकार का परिलक्षित होता। न केवल भारत अपितु अन्य देशों में भी धर्म के विषय में जितना मतभेद देखने में आता है, उतना और किसी विषय में शायद ही मिल सके। यह भेद अज्ञानियों में ही नहीं समझदार और उन्नतिशील लोगों में भी देखने में आता है। हिन्दू गौ का रोम भूल से भी दूध के साथ पेट में चले जाने पर घोर पाप समझते हैं, मुसलमान उसी गाय को खुदा के नाम पर काट कर खा जाने पर बड़ा पुण्य बतलाते हैं, ईसाई बिना पाप पुण्य के झगड़े में पड़े नित्य ही उसके मांस को एक साधारण आहार की तरह ग्रहण करते हैं। यहूदी भगवान् की उपासना करते समय मुंह के बल लेट जाते हैं, कैथोलिक ईसाई घुटनों के बल झुकते हैं, प्रोटेस्टेण्ट ईसाई कुर्सी पर बैठकर प्रार्थना करते हैं, मुसलमानों की नमाज में कई बार उठना बैठना पड़ता है और हिन्दुओं की सर्वोच्च प्रार्थना वह है जिसमें साधक, ध्यान मग्न होकर अचल हो जाय। यदि यह कहा जाय कि इन सब में एक ही उपासना विधि ठीक है, दूसरी सब निकम्मी हैं, तो भी काम नहीं बनता। अन्य में भी अनेक व्यक्ति बड़े सन्त, त्यागी महात्मा हो गये हैं। धार्मिक-क्षेत्र के इसी घोर वैषम्य को देखकर ‘और्टाजिन एण्ड डेवलपमेन्ट आफ रिलीजस विलीफ’ (धार्मिक विश्वास की उत्पत्ति और विकास) नामक ग्रन्थ के लेखक एस. बैरिंग-गाल्ड ने लिखा है—

‘‘संसार में समस्त प्राचीन युगों से अनगिनती ऐसे धार्मिक विश्वास पाये गये हैं जो एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं और जिनकी रस्मों तथा सिद्धान्तों में जमीन-आसमान का अन्तर है। एक प्रदेश में मन्दिर का पुजारी देव मूर्ति को मानव रक्त से लिप्त करता है और दूसरे ही दिन अन्य धर्म का अनुयायी वहां आकर उसे तोड़कर गन्दगी में फेंक देता है। जिनको एक धर्म वाले भगवान मानते, उन्हीं को दूसरे धर्मानुयायी शैतान कहते हैं। एक धर्म में धर्मयाजक भगवान की पूजा के उद्देश्य से बच्चों को अग्नि में डाल देता है, और दूसरे धर्म वाला अनाथालय स्थापित करके उनकी रक्षा करता है और इसी को ईश्वर-पूजा समझता है। एक धर्म वालों की देवमूर्ति सौन्दर्य का आदर्श होती है और दूसरे की घोर विभत्स और कुरूप। इंग्लैंड में प्रसव के समय माता को एकान्त स्थान में रहना पड़ता है, पर अफ्रीका की ‘बास्क’ जाति में सन्तान होने पर पिता को कम्बलों से ढककर अलग रखा जाता है और ‘लपसी’ खिलाई जाती है। अधिकांश देशों में माता-पिता की सेवा सुश्रूषा करके उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति प्रकट की जाती है, पर कहीं पर श्रद्धा की भावना से ही उनको कुल्हाड़े से काट दिया जाता है। अपनी माता के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के उद्देश्य से फिजी का मूल निवासी उसके मांस को खा लेता है जब कि एक योरोपियन इसी उद्देश्य से उसकी एक सुन्दर समाधि बनवाता है।’’

विभिन्न धर्मों और मतों के धार्मिक, विश्वासों में अत्यधिक अन्तर होने का यह बहुत ही अल्प विवरण है। फ्रेजर नामक विद्वान ने इस विषय पर ‘‘गोल्डिन वो’’ नाम की प्रसिद्ध पुस्तक सोलह बड़े-बड़े खण्डों में लिखी है, पर उसमें भी पृथ्वी तल पर बसने वाले अनगिनती फिर्कों, जातियों सम्प्रदायों में पायी जाने वाली असंख्यों धार्मिक प्रथाओं और रस्मों का पूरा वर्णन नहीं किया जा सका है। ये सिद्धान्त, विश्वास और रस्में हर तरह के हैं। इनमें निरर्थक, उपहासास्पद, भयंकर, कठोर, अश्लील प्रथाएं भी हैं और श्रेष्ठ, भक्तिपूर्ण मानवतायुक्त, विवेक युक्त और दार्शनिकता के अनुकूल विधान भी पाये जाते हैं।

इन धार्मिक प्रथाओं ने धीरे-धीरे कैसे हानिकारक और निकम्मे अन्धविश्वासों का रूप धारण कर लिया है, इस पर विचार करने से चकित हो जाना पड़ता है। डा. लैंग ने एक आस्ट्रेलिया के मूल निवासी से उसके किसी मृत सम्बन्धी का नाम पूछा। उसने मृतक के बाप का नाम, भाई का नाम, उसकी शक्ल-सूरत, चाल-ढाल, उसके साथियों के नाम आदि सब कुछ बता दिया पर मृतक का नाम किसी प्रकार उसकी जबान से नहीं निकल सका। इस सम्बन्ध में अन्य लोगों से पूछने पर पता लगा कि ये लोग मृतक का नाम इसलिये नहीं लेते कि ऐसा करने से उसका भूत इनके पास चला आवेगा! भारत के गांवों में जब कोई उल्लू बोल रहा हो तो उसके सामने किसी का नाम नहीं लिया जाता, क्योंकि लोगों को भय होता है कि उस नाम को सुनकर उल्लू उसका उच्चारण करने लगेगा और इससे वह व्यक्ति बहुत शीघ्र मर जायगा।

हमारे देश में अनेक लोग अब भी स्त्रियों के पर्दा त्याग करने के बहुत विरुद्ध हैं और जो लड़की विवाह शादी के मामले में अपनी सम्मति प्रकट करती है या अपनी इच्छानुसार विवाह के लिये जोर देती हैं तो उसे निर्लज्ज कुलांगारिणी आदि कह कर पुकारा जाता है। पर उत्तरी अफ्रीका के ‘‘टौर्गस’’ प्रदेश में पुरुष बुर्का डाल कर रहते हैं और स्त्रियां खुले मुंह फिरती हैं। वहां पर स्त्रियां ही विवाह के लिये पुरुष ढूंढ़ती हैं, प्रेम प्रदर्शित करती हैं और उसे विवाह करके लाती हैं। ‘बिली’ नाम की जाति में कुमारी कन्याओं को मन्दिर के पुजारियों को दान कर दिया जाता है, जिनका वे उपभोग करते हैं। हमारे यहां दक्षिण भारत के मन्दिरों में ‘देव दासी’ की प्रथा का भी लगभग ऐसा ही रूप है, कांगो में कुमारी कन्याओं का मनुष्याकार देव-मूर्ति के साथ सम्पर्क कराया जाता है। ‘बुदा’ नामक जाति के समस्त फिर्के वाले गांव की चौपाल में इकट्ठे होते हैं और उनका धर्म-गुरु वहां चारों हाथ-पैर से चलता हुआ स्यार की बोली बोलता है और अन्य सब लोग उसकी नकल करते हैं। मलाया में जिस लड़की को कोई प्यार करता है, वह उसके पदचिह्न के स्थान की धूल को उठा लाता है और उसे आग पर गर्म करता है। उसका विश्वास होता है कि ऐसा करने से उसकी प्रेमिका का हृदय पिघलेगा और वह उसकी पत्नी बनने को राजी हो जायगी। संसार के कुछ भागों में ऐसी भी प्रथायें हैं कि जिनमें फिर्के के ‘भगवान’ का ही बलिदान कर दिया जाता है। कुछ फिर्के वाले, यदि उनकी फसल नष्ट हो जाती है तो अपने राजा तथा पुरोहित को ही मार देते हैं। इस प्रकार संसार भर में धर्म के नाम पर अनगिनती अन्ध-विश्वास, हानिकारक और घृणित प्रथायें प्रचलित हैं और मानवता के उद्धार के लिये उनका मिटाया जाना आवश्यक है।

किसी मजहब या सम्प्रदाय में तो भगवान के पुत्र, पौत्र, पत्नी आदि की कल्पना को भी सत्य माना जाता है और दूसरी जाति (रूस, चीन आदि) में ईश्वर की गणना केवल एक ‘विश्व-नियम’ के रूप में की जाती है। एक धर्म वाला संगीत और वाद्य को ईश-प्रार्थना का आवश्यक अंग मानता है और दूसरा धर्म इसे महापाप बतलाता है। बिहार के सखी-सम्प्रदाय के अनुयायी ईश्वर-भक्ति के लिये स्त्री की तरह रहना, यहां तक कि मासिक-धर्म की भी नकल करना बहुत बड़ी साधना समझते हैं। इसका उद्देश्य यह होता है कि जिस प्रकार स्त्री अपने पति से प्रेम करके उसमें तन्मय हो जाती है उसी प्रकार ईश्वर में भी तन्मयता प्राप्त करली जाय।

इसी प्रकार देश में ऐसे तांत्रिक सम्प्रदाय भी पाये जाते हैं जिनमें मद्यपान, मांसभक्षण, पशु वध और मैथुन भी ‘धर्म’ का एक अंग माना जाता है। दूसरी ओर जैन-धर्म जैसे मत है जिनमें ब्रह्मचर्य-पालन के लिये अठारह हजार प्रकार की अश्लीलता से बचने का उपदेश दिया गया है। अगर एक सम्प्रदाय किसी मानव शरीर धारी को ‘भगवान’ मानता है (जैसे बल्लभ सम्प्रदाय में) तो दूसरा सम्प्रदाय (जैसे वेदान्ती) ईश्वर के अस्तित्व से ही इनकार करता है।

सभी मजहबों या धर्मों के भीतर इतने सम्प्रदाय या फिर्के पाये जाते हैं कि उनको गिनना भी कठिन है। लोगों को प्रायः रहस्यवाद में बड़ा आकर्षण जान पड़ता है। इसलिये सदा नये नये गुरु उत्पन्न होते रहते हैं, जो साधना या उपासना की एक भिन्न विधि निकाल कर एक पृथक सम्प्रदाय स्थापित कर देते हैं, उनका एक नवीन मन्दिर बन जाता है। इस प्रकार के हजारों नये-नये मत और धार्मिक फिर्के जंगली कहे जाने वाले प्रदेशों में ही नहीं वरन् योरोप, अमरीका, एशिया के सभ्य और सुसंस्कृत देशों में भी पाये जाते हैं। ऐसी कोई पूजा-पद्धति नहीं है जिसका आविष्कार और प्रचलन संसार में कहीं न कहीं न हो चुका हो। आप कैसी भी विचित्र अथवा असंगत उपासना पद्धति की कल्पना क्यों न करे, वह इस विस्तृत पृथ्वी पर किसी जगह अवश्य ही क्रिया रूप में होती मिल जायगी।

हमारा आशय यह नहीं है कि संसार में विभिन्न धर्मों का होना कोई अस्वाभाविक बात है या मनुष्य की गलती है। जिस प्रकार जल वायु और देश भेद से मनुष्यों की भाषा और आकृति में अन्तर पड़ जाता है उसी प्रकार परिस्थितियों की भिन्नता के कारण विभिन्न जातियों की संस्कृति में भी अन्तर हो सकता है।

विभिन्न धर्मों की उपासनात्मक प्रक्रिया, विधि-विधानों में काफी भिन्नता होते हुए भी एक तथ्य प्रत्येक धर्मों के मूल में काम करता है, वह है व्यक्तित्व का परिष्कार। ऐसा कोई भी धर्म नहीं जो सदाचरण पर जोर न देता हो। यही वह शाश्वत आधार है जिसके द्वारा मानव जीवन के लक्ष को प्राप्त किया जा सकता है—स्वरूप की भिन्नता होते हुए भी लक्ष्य की एकरूपता प्रत्येक धर्म में देखने में आती है। देश-काल एवं परिस्थितियों के अनुरूप यह भिन्नता उचित है और उपयोगी भी। धर्म का एक ही उद्देश्य है मानवीय अन्तःकरण में सन्निहित श्रेष्ठता का विकसित करना। धर्म परस्पर प्रेम, दया, करुणा, सेवा, उदारता, संयम एवं सहयोग को बढ़ाता है, धर्म का वास्तविक स्वरूप वस्तुतः सदाचरण एवं कर्तव्य-निष्ठा में ही निहित है।

धर्म एक शास्त्रीय दृष्टिकोण—

‘सच्चिदानन्द’ परमपिता परमात्मा के अनेक सम्बोधनों में से एक सम्बोधन है—‘सच्चिदानन्द’ शब्द सत्+चित+आनन्द इन तीन शब्दों की परस्पर संधि होने से बना है। ये तीनों शब्द परमात्मा के तीन गुणों के प्रतीक हैं। सत् उसे कहते हैं जो आदि काल से लेकर अनन्त काल तक विद्यमान रहता है। कभी नष्ट नहीं होता। यथा—हम जल को ही लें। पानी आदिकाल से लेकर आज तक उपलब्ध है और अनन्त काल तक उपलब्ध रहने की सम्भावना है। यद्यपि पानी का ठोस रूप बर्फ और वायु रूप भाप होता है जो रूप परिवर्तन का द्योतक है। इन्हीं तीन रूपों में पानी आदि से लेकर अब तक विद्यमान है। आदि से लेकर अद्यतन चली आ रही प्रवाहमान धारा को ही सनातन कहते हैं। जगत में विद्यमान प्रत्येक वस्तु की एक विशेषता होती है। उसका अपना स्वभाव होता है। उसका अपना गुण होता है। वस्तु की इसी विशेषता, स्वभाव या गुण को ही धर्म कहते हैं। उदाहरणार्थ—पानी का गुण या स्वभाव शीतलता प्रदान करना या सृष्टि के प्राणिमात्र की प्यास बुझाना है। इसी प्रकार अग्नि का गुण ताप और प्रकाश प्रदान करना है। सरिता का स्वभाव सतत प्रवाहित रहना है। पक्षियों का स्वभाव सतत चहकते, फुदकते, उड़ते हुए आनन्दित होते रहना है। पशुओं का भी स्वभाव चौकड़ी भरते हुए मस्ती भरे जीवन का आनन्द उठाना है। केवल मनुष्य के सम्पर्क में आने वाले पशु-पक्षी ही, जो मनुष्य की अधीनता का जीवन जीते हैं, उन्हें पराधीनता के कारण आनन्दमय जीवन से वंचित रह जाना पड़ता है और दुःखी जीवन जीने के लिये विवश होना पड़ता है। इसी प्रकार मनुष्य का एक मात्र धर्म ‘आनन्द’ ही है। वह सदा आनन्द प्राप्ति की दिशा में ही उन्मुख रहता है। यह बात दूसरी है कि परिस्थितियों की पराधीनता के कारण उसे आनन्द रहित जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ता है, परन्तु सतत् उसकी चिन्तन की धारा दुःख से त्राण पाकर आनन्द प्राप्ति की ओर ही प्रवाहित रहती है। मनुष्य समाज के तत्वान्वेषी ऋषि, मुनि, सन्त, महात्मा, विचारक, चिन्तक आदि जितने भी महापुरुष हो गये हैं तथा जिन्होंने धर्मशास्त्रों का प्रणयन किया है, उन सभी ने एक स्वर से दुःख से त्राण पाने का उपाय और सुख प्राप्ति का मार्ग ही बताया है। सुख प्राप्ति के मार्ग को ही ‘धर्म’ कहा गया है। व्यक्तिगत सुख के मार्ग को ‘व्यक्ति का धर्म’, परिवार को सुखी बनाने वाले मार्ग को ‘कुटुम्ब धर्म’, जिससे समाज को सुख मिले उसे ‘सामाजिक धर्म’ जिससे राष्ट्र खुशहाल हो, उसे ‘राष्ट्र धर्म’, जिससे विश्व सुखी हो, उसे ‘सार्वभौम धर्म’ और जिससे प्राणिमात्र सुख की अनुभूति करें, ऐसे धर्म को ‘सनातन धर्म’ कहा—गया है।

यों तो ‘धर्म’ संस्कृत भाषा का एक शब्द है जिसकी शाब्दिक उत्पत्ति ‘धृञ्’=‘धारणे’ धातु से हुई है। महर्षि व्यास जी ने धर्म की परिभाषा इस प्रकार की है—

‘‘धारणाद्धर्म इत्याहुधर्मो धारयते प्रजाः । यत्स्पाद् धारणास्युक्तं स धर्म इति निश्चयः ।।’’

अर्थ :— धारण करने से इसका नाम धर्म है। धर्म ही प्रजा को धारण करता है। वही निश्चय ही धर्म है। महामुनि कणाद ने कहा है :—

‘‘यतोऽभ्युदय निश्श्रेयससिद्धिः स धर्मः ।’’ अर्थ :— जिससे इस लोक और परलोक दोनों स्थानों पर सुख मिले, वही धर्म है।

आधार उसे कहते हैं, जिसके सहारे कुछ स्थिर रह सके, कुछ टिक सके। हम चारों ओर जो गगनचुम्बी इमारत देखते हैं, उनके आधार पर नींव के पत्थर होते हैं। इसी पर वे स्थिर हैं। इसी पर वे टिके हुए हैं। प्रत्येक पदार्थ किसी न किसी आधार पर ही अवस्थित है। यहां तक कि ग्रह, नक्षत्र, तारे, जो अन्तरिक्ष में, शून्य में अवस्थित प्रतीत होते हैं, वे भी एक-दूसरे की आकर्षक शक्ति को आधार बनाये हुये हैं। आधार रहित कुछ भी नहीं है। बिना आधार के सनातन धर्म भी नहीं है। सनातन धर्म का अपना एक मजबूत आधार है जिसके ऊपर उसकी भित्ति हजारों वर्षों से मजबूती से खड़ी हुई है।

वह आधार क्या है? वह आधार है :— ‘‘सर्वभूत हितरताः।’’ इसे दूसरे शब्दों में ऐसा भी कह सकते हैं कि सृष्टि के सम्पूर्ण जड़-चेतन में अपनी आत्मा का दर्शन करना। अपने समान ही सबको मानना। जैसा कि यजुर्वेद में कहा गया है—

‘‘यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुश्पयति । सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न वि चिकित्सति ।।’’ यजुर्वेद 40 मन्त्र 6

इसी बात को एक अन्य ऋषि ने इस प्रकार कहा है—

‘‘न तत्परस्य संदध्याप्रतिकूलं यदात्मनः । एष संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते ।।’’

अर्थ :— जो कार्य अपने विरुद्ध जंचता हो, दुःखद मालूम होता हो, उसे दूसरों के साथ भी मत करो—संक्षेप में यही धर्म है।

श्रीमद्भागवतकार ने भी ईश्वर की प्रसन्नता के लिये कहा है कि हृदय में सब भूतों के प्रति दया होना तथा यदृच्छ लाभ से सन्तुष्ट रहना।

‘‘दमया सर्वभूतेषु, सन्तुष्टया येन केन वा । भगवान कृष्ण कहते हैं—

‘‘अहमुच्चा वर्चेर्द्र व्यैर्विययोत्पन्नयानधे । नैव तुष्येऽर्चितोऽचयां भूतग्रामाव मानिनः ।।’’

अर्थ :— जो दूसरे प्राणियों को कष्ट देता है वह सब प्रकार की सामग्रियों से विधिपूर्वक मेरा अत्यन्त पूजन भजन भी करे तो भी मैं उन पर सन्तुष्ट नहीं होता।

मनु स्मृति में मनु महाराज ने कहा है—

‘‘धर्म शनैनिश्चनुयाद् बल्मीकमिव पुत्तिकाः । परलोक सहायार्थ सर्व भूतान्यपीडयन् ।।’’

अर्थ :— जैसे दीमक बाम्बी को बनाती है वैसे सब प्राणियों को न देकर परलोक के लिये धर्म संग्रह करें।

महर्षि व्यास ने कहा है—

‘‘श्रूयता धर्म सर्वस्व, श्रुत्वा चैव धार्यताम् । आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ।।’’ अर्थ :— धर्म का सार सुनो। सुनो और धारण करो। अपने को जो अच्छा न लगे, वह दूसरों के साथ व्यवहार न करो।

‘सर्व भूत दया’ ही हमारे सनातन धर्म का आधार है। सब प्राणियों को आत्मवत् मानना ही धर्म का उच्चतम आदर्श है, आधार है। इन्हीं सब कारणों से ही हमारे यहां धर्मपालन का निर्देश पग-पग पर दिया गया है जिससे हम अपने आधार को, अपने आदर्श को कभी भी न भूल सकें। जैसाकि कहा गया है कि—

‘‘नामुत्र सहायार्थ पिता माता च तिष्ठतः । न पुत्र दारा न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः ।।’’ अर्थ :— परलोक में न माता, न पिता, न पुत्र, न स्त्री और न सम्बन्धी सहायक होते हैं। केवल धर्म ही सहायक होता है।

‘‘चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चले जीवितयौवने । चला चलेति संसारे, धर्म एकाहिनिश्चलः ।।’’

अर्थ :— लक्ष्मी चलायमान है और जीवन भी चलायमान है। इस चराचर जगत में केवल धर्म ही अचल है। सनातन धर्म कोई मजहब या सम्प्रदाय नहीं है जो परस्पर शत्रुता के बीज बो देवे। इस धर्म का आधार अत्यन्त मजबूत है जो हमें आत्मवत् सर्वभूतेषु का पाठ पढ़ाता है। यही वह धर्म है जो वसुधैव-कुटुम्बकम् की ऊंची शिक्षा देता है। यही वह धर्म है जो आत्मानन्द और परमानन्द की प्राप्ति कराता है। यही वह धर्म है जो विश्वजनीन है। इसी धर्म से विश्व मानव कल्याण को प्राप्त होगा। धर्म का यह एक पक्ष हुआ। दूसरा पक्ष है अवांछनीयताओं, अनाचार, असुरता को निरस्त करना।

असुरता को निरस्त करना और देवत्व का अभिवर्द्धन, यह उभय पक्षीय कर्तव्य कर्म प्रत्येक मनुष्य को निवाहने होते हैं। आहार का ग्रहण और मल का विसर्जन दोनों ही क्रिया-कलाप जीवनयापन के अविच्छिन्न अंग हैं। भगवान को उद्देश्य लेकर अवतरित होना पड़ता है— 1-धर्म की स्थापना 2-अधर्म का विनाश। दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। माली को पौधों में खाद-पानी लगाना पड़ता है साथ ही बेढंगी टहनियों की काट-छांट तथा समीपवर्ती खर-पतवार उखाड़ने पर भी सतर्कतापूर्वक ध्यान रखना पड़ता है। आत्मोन्नति के लिए जहां स्वाध्याय, सत्संग, धर्मानुष्ठान आदि करने पड़ते हैं वहां कुसंस्कारों और दुष्प्रवृत्तियों के निराकरण के लिए आत्मशोधन की प्रताड़ना तपश्चर्या भी अपनानी होती है। प्रगति और परिष्कार के लिए सृजन और उन्मूलन की उभय पक्षीय प्रक्रिया अपनानी होती है धर्माचरण की तरह ही अधर्म के प्रति प्रचंड आक्रोश प्रकट करने पर ही समग्र धर्म की रक्षा हो सकती है। अनीति के प्रति आक्रोश जागृत रखने को शास्त्रों में ‘मन्यु’ कहा गया है और उस प्रखरता को धर्म का अविच्छिन्न अंग माना गया है। अतिवादी, उदार पक्षी, एकांगी धार्मिकता का ही दुष्परिणाम था जो हजार वर्ष की लम्बी राजनैतिक गुलामी के रूप में अपने देश को अभिशाप की तरह भुगतना पड़ा।

सज्जनता का परिपोषण जितना आवश्यक है उतना ही दुष्टता का उन्मूलन भी, परम पवित्र मानवी कर्तव्य है। यदि यह सनातन सत्य ठीक तरह समझा जा सके तो प्राचीन काल की तरह आज भी हर व्यक्ति को न्याय के औचित्य का पोषण और अन्याय के अनौचित्य का निराकरण हो सकता है। शास्त्र कहता है—

यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च सम्यश्चो चरतः सहः । तं लोकं पुण्यं प्रज्ञे षंयत्र देवाः सहाऽग्निना ।। —यजु. 21 । 25

जहां ब्रह्म शक्ति और क्षात्र शक्ति साथ-साथ रहती हैं, जहां पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान कायम रहता है, वही देश पुण्य देश रहता है।

न ब्रह्म क्षात्रमृघ्नोति ना क्षत्रं ब्रह्मवर्धते । ब्रह्म क्षत्रं च संपृक्तमिह चामुन्न वर्धते ।। —मनु. 6 । 322

न बिना ब्रह्मशक्ति के क्षात्रशक्ति बढ़ सकती है, और न बिना क्षात्रशक्ति के ब्रह्मशक्ति बढ़ सकती है, प्रत्युत दोनों के मेल से ही लोक परलोक की उन्नति होती है। ब्रह्म वा इदमग्र आसीदेकमेव, तदेकं सन्नव्य भवत् । तच्छ्रेयो रूपमत्यसृजत क्षत्रं यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणिन्द्रो वरुणः सोमो रुद्रः पर्जन्योः यमो मृत्युरीशान इति । —वृह. उ. 51। 4। 11

सृष्टि के पूर्व—जगत् के स्वरूप में व्याकृत होने के पहले केवल एक ब्रह्म ही था। उस समय एक था। परन्तु ब्राह्मण जात्याभिमानी एक ब्रह्म से सृष्टि, स्थिति आदि विश्व से समस्त कार्यों का निर्वाह नहीं हो सकता। एक ब्रह्मा सृष्टि, स्थिति आदि निखिल जगत् कार्यों को सम्पादन करने में पर्याप्त समर्थ नहीं हैं। इसी कारण कर्म करने की इच्छा से परमात्मा प्रशस्त रूप में क्षत्रिय-भाव से युक्त हुए। इन्द्र, वरुण, सोम, रुद्र, पर्जन्य, यम, मृत्यु और ईशान रूप में व्यक्त हुए। इन्द्राणि देवगण क्षत्रिय जाति के देवता हैं।

ब्राह्मणैः छत्रवंधुर हि द्वारपालो नियोजितः । —भागवत

ब्राह्मण कर्म वालों ने क्षत्रिय कर्म वाले भाइयों को समाज का चौकीदार नियुक्त किया।

शम प्रधानेषु तपोधनेषु गूढं हि दाहात्मकमस्ति तेज । —कालिदास

‘‘शम प्रधान तपस्वियों में [शत्रुओं को] जलाने वाला तेज छिपा हुआ है।’’

वीरता ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों के लिए समान रूप से आवश्यक है। ब्राह्मण उसकी साहसिकता का परिचय सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन में तन्मय रह कर देता है। क्षत्रिय अपनी शूरता को दुष्टता से जूझने में लगाता है। दोनों का कार्य समान रूप से आवश्यक है। अस्तु दोनों को ही श्रेयाधिकारी कहा गया है।

वेदाध्ययन शूराश्च शूराश्चाध्यापने रताः गुरु सुश्रूषया शूरा मातृपितृ परायणा आरण्य गृह वासे च शूरा कर्तव्यपालने ।

जो वेदाध्ययन में अध्यापन में, गुरु सेवा में, माता-पिता की सेवा में, कर्तव्य परायणता में शूर है वह चाहे बनवासी बने अथवा घर में रहे समान रूप से प्रशंसनीय है। प्राचीन काल में युद्ध धर्म के रूप में ही होते थे। नीति और न्याय की रक्षा के लिए असुरता के विरुद्ध लोहा लिया जाता था। अनीतिपूर्वक स्वार्थ सिद्धि करने के लिए आक्रमण करने की देव परम्परा कभी रही ही नहीं। जब भी लड़ना पड़ता तब दुष्टता को निरस्त करना ही उसका लक्ष्य रहा। अस्तु भारतीय युद्धों का इतिहास ‘धर्म युद्ध’ के रूप में ही देखा जा सकता है। जिस प्रकार ब्राह्मण तपश्चर्या और लोक सेवा में अपने को तिल-तिल गलाते घुलाते थे। उसी प्रकार क्षत्रिय भी असुरता से जूझने में अपने प्राणों की परवा न करते थे और जान हथेली पर रखकर अन्याय से जूझते और उसे मिटाकर ही चैन लेते थे। क्षत्रिय धर्म और उनके धर्म युद्ध की शास्त्रों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है और कायरतावश उससे जी चुराने वालों को निन्दनीय ठहराया है।

वेद में भी बताया गया है—

ये युद्धयन्ते प्रधनेषु शूरासो ये तनुत्यजः । ये वा सहस्रदक्षिणास्तांश्चिदेवापि गच्छतात् ।। —अ. वे. 18।2।17

जो संग्रामों में लड़ने वाले हैं, जो शूरवीरता से शरीर को त्यागने वाले हैं और जिन्होंने सहस्रों दक्षिणायें दी हैं। तू उनको भी प्राप्त हो।

स्वधर्ममपि-चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि । धर्म्याद्धि बुद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।। —गीता 2।31

स्व धर्म को समझकर भी तुझे हिचकिचाना उचित नहीं है, क्योंकि धर्म युद्ध की अपेक्षा क्षत्रिय के लिए और कुछ अधिक श्रेयस्कर नहीं हो सकता।

यतृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमतवृतम् । सुखिन क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ।। —गीता 2।32

हे पार्थ यों अपने आप प्राप्त हुआ और मानो स्वर्ग का द्वार ही खुल गया हो ऐसा युद्ध तो भाग्यशाली क्षत्रियों को ही मिलता है।

धर्म्याद्धि यद्धाश्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते । सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ।।

हे अर्जुन क्षात्र धर्मावलम्बी के लिए धर्म युद्ध से बढ़ कर श्रेयस्कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है। धर्मतः एवं न्यायतः प्राप्त पैत्रिक राज्यान्श के लिए यह जो धर्मयुद्ध तुम कर रहे हो, भाग्यवान् क्षात्र-धर्मावलम्बीगण ही ऐसे युद्ध का सुअवसर पाते हैं।

यस्तु प्राणान् परित्यज्य प्रविशेदुद्यतायुधः । संग्राममग्निप्रतिमं पतंग इवं निर्भयः ।। स्वर्गमाविशते ज्ञात्वा योधस्य गति निश्चयम् ।। —महाभारत

जो अपने प्राणों की चिन्ता छोड़कर पतंग की भांति निर्भय हो हाथ में हथियार उठाये अग्नि के समन विनाशकारी संग्राम में प्रवेश कर जाता है, और योद्धा को मिलने वाली निश्चित गति को जानकर उत्साहपूर्वक जूझता है, वह स्वर्ग लोक में जाता है।

सलिलादुत्थितोवह्निर्येनव्याप्तंचराचरम् । दधीचस्यास्थितो बज्रं कृतं दानवसूदनम् ।। —महाभारत

पानी से आग पैदा हुई जो सारे जगत् को व्याप्त कर रही है। दधीच की हड्डी से सारे दानवों का नाशक वज्र बनाया गया।

भगवान के सभी अवतार धर्म स्थापना और अधर्म का नाश करने के लिए हुए। दुर्गा का अवतार तो विशेषतया असुरता से जूझने के लिए ही हुआ।

इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविश्यति । तदा तदावतीयहिं करिष्याम्यास्सक्षयम् ।। —सप्तशती

जब-जब दानव प्रकृति वाले जोर पकड़ कर सृष्टिकार्य [सामाजिक प्रगति] में रोड़ा अटकायेंगे, तभी मैं प्रकट होकर उनका नाश करूंगी।

भारतीय धर्म और संस्कृति की जननी गायत्री है। उसे ब्रह्म वर्चस भी कहते हैं। उसमें ब्रह्मज्ञान और ब्रह्म तेज दोनों का समावेश है। उन दोनों ही तत्वों की उपासना करने वाला ब्रह्मतेज सम्पन्न हो जाता है। इस तथ्य को शतपथ ब्राह्मण में इस प्रकार कहा गया है।

तेजो वै ब्रह्मवर्चसं गायत्री । तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्वी भवति ।। —शतपथ

‘‘गायत्री ही तेज और ब्रह्मवर्चस स्वरूप है। उसका सदैव अनुष्ठान करने से तेजस्वी और ब्रह्म वर्चस्वी बनता है।’’

सत्प्रवृत्तियों का प्रसार एवं प्रतिष्ठापना एवं दुष्प्रवृत्तियों का निष्कासन विनाश ही धर्म का मूल उद्देश्य है। इस तथ्य को जो समाज जितना हृदयंगम कर तदनुरूप जीवन शैली में इनका समावेश करेगा, वह उतना ही सशक्त समुन्नत एवं शालीन बनेगा। यदि वह इस परिवर्तन के लिये तैयार नहीं होता तो उसे भी विज्ञान की टेढ़ी आंख का कोपभाजन बनने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। आधार विहीन धर्म थोड़ी देर ठहर सकता है विज्ञान की कठोर तर्क शक्ति के आगे उसका यथार्थ स्वरूप ही टिक पाएगा। धर्म एक महान तथ्य और जीवन चेतना का यथार्थ विज्ञान है उससे वाह्याभ्यान्तर दोनों ही स्वरूप व्यक्ति और समाज दोनों के लिए कल्याणकारी होते हैं। ऐसी महान सत्ता को दिमागी बहस नहीं अपितु, श्रद्धा के रूप में देखा परखा और धारण किया जाना चाहिए।
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