उदारता और महानता की प्रतिमूर्ति-महारानी अहिल्याबाई
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उज्जवल
मन और उन्नत आत्मा की चमक मनुष्य के व्यक्तित्व में अवश्य
परिलक्षित होती है, जिसको बुद्धिमान् व्यक्ति एक झलक में ही परख
लेते हैं। इसीलिए मुख को अंतर का दर्पण कहा गया है।
इसी प्रकार के अपने आलोकित व्यक्तित्व और गुण- गरिमा के कारण अहिल्याबाई एक दिन इंदौर की महारानी बनीं। किंतु महारानी बनकर भी अहिल्याबाई ने सेवा, सौम्यता, सरलता और सादगी की अपनी विशेषताओं का परित्याग नहीं किया। स्थिती अथवा अवस्था के बदल जाने पर, जो व्यक्ति अपनी उन्नति के मूल आधारों का त्याग कर देता है, अंततः उसे पतन के गर्त में गिरना होता है। अतएव बुद्धिमान् व्यक्ति अपने उन मूल गुणों को, प्रतिकूल परिस्थितियों में भी नहीं छोड़ते और बडे़ से बडा़ मूल्य चुका कर, दृढ़ता, धैर्य और साहस के साथ उनकी रक्षा करते हैं।
अहिल्याबाई का जन्म १९३५ में महाराष्ट्र के पाथडरी नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम मनकोजी सिंधिया था। मनकोजी एक सामान्य व्यक्ति ही नहीं बल्कि गरीब आदमी थे। थोडी़- सी भूमि, दो बैल और एक हल के बल पर उनकी नौका एक तरह से सूखे में चली जा रही थी। मनकोजी सच्चाई के साथ पूरा परिश्रम करते थे। जो कुछ पैदा हो जाता था उसी में संतोषपूर्वक अपनी गुजर- बसर करते हुए प्रसन्न रहा करते थे। नित्य- प्रति भगवान् की पूजा- अर्चना करना उनके जीवन का एक अंग था। इसी उपासना की दिनचर्या ने उनकों और उनके परिवार को संसार के सारे विकारों और माया- मोहों से बचाए रखा। घोर गरीबी में उनकी पवित्र जीवनधारा प्रसन्नतापूर्वक बही चली जा रही थी। उन्हें न तो कभी अभाव सताता था और न वे कभी लोभ से प्रभावित होते थे। उनके इसी शारीरिक तथा मानसिक तप के फलस्वरूप उनकी एकमात्र संतान अहिल्याबाई परमात्मा के कृपा- प्रसाद के समान सिद्ध हुई।
अहिल्याबाई न तो अपूर्व सुंदरी थी और न आकर्षक कलावती। वह एक सीधी, सरल और भोली- सी ग्रामीण कन्या थी। स्वभाव की नैसर्गिक सरलता तो उन्हें अपनी उस संतोष वृत्ति से मिली थी, जिसका विकास कर लेने से बाहरी परिस्थितियों में गरीब होते हुए भी मनुष्य अंदर से बडा़ ही संपन्न और परिपूर्ण बना रहता है। अभाव तथा आवश्यकताएँ अधिकांशतः मनुष्य की चपल वृत्तियों की उपज होती हैं, लोभ जिनमें उर्वरक का काम करके उन्हें विकृत ही नहीं कलंकित भी बना देता है। ऐसे चपलवृत्ति के लोग अकारण ही अपने को निर्धन तथा अभावग्रस्त अनुभव किया करते हैं। वे जब भी किसी को नूतन प्राप्ति में देखते हैं, उनका हृदय तड़पकर कह उठता है- हाय, ये वस्तुएँ हमारे पास नहीं हैं। यह व्यक्ति हमसे अधिक संपन्न तथा सुखी है। इतना ही क्यों, बहुत बार तो वे अपनी उपलब्धियों को भी न्यूनता की दृष्टि से देखते हुए अपने को हठात् निर्धन तथा अभावग्रस्त अनुभव किया करते रहते हैं, ऐसे लोलुप तथा लिप्सालु व्यक्ति की स्थायी आवश्यकताएँ तो कम नहीं ही होती हैं, साथ ही उन्हें नित्य नई, कृत्रिम तथा अनावश्यक आवश्यकताएँ घेरे रहती हैं। वह सदैव दुःखी तथा विपन्न ही बना रहता है। न तो उसे जीवन का आनंद मिलता है और न प्राप्तियों का सुख।
इसके विपरीत अपनी वृत्तियों में संतोष को समाहित कर लेने वाले स्थिर व्यक्ति की आवश्यकताएँ प्राकृतिक सीमा तक ही प्रतिबंधित रहती हैं। जिसके फलस्वरूप न तो उसे अभाव सताता है और न लिप्सा अथवा दयनीयता का दुर्भाव ही उसे आक्रांत कर पाता है। आवश्यकताओं की कमी स्वंय ही अपने में एक संपन्नता है। एक ऐसी संपन्नता जिसका पोषण करने के लिए न धन की आवश्यकता पड़ती है और न पदार्थों की।
भोलापन उसकी आत्मा की वह शांति थी, जो अधिक संसार लोलुप न होने से आप ही मिल जाती है। इस प्रकार आत्मा और मन के पवित्र होने से अहिल्याबाई का मन भगवान् के पूजन में बहुत लगता था। वह नित्यप्रति नियम से शिवजी के मंदिर में पूजा करने जाती थी। कोई भी बाधा, कोई भी कठिनाई और कोई भी परिस्थिति अहिल्या को उसके इस व्रत से विरत न कर पाती थी। मूसलाधार वर्षा के समय भी वह एक स्वस्थ वल्लरी की भाँति भीगती हुई अपने पथ पर चली जाती थी और शीतकाल का हिमपात भी उसे अपने नियम से विचलित न कर पाता था। वह स्वयं ही दृढ़ निष्ठा की प्रतिमूर्ति के समान अकंपित गति से अपने नियम- निर्वाह की प्रसन्नता प्राप्त करती रहती थी। अहिल्याबाई की वह छोटी- सी पूजा ही- उसकी संलग्नता, अखंडता और ऐकांतिकता से एक विशाल तपस्या के रूप में विकसित हो गई थी। जिसकी पूर्णता ने उसमें एक ऐसे तेज की स्थापना कर दी कि वह सामान्य- सी ग्रामीण कन्या देवी- सी प्रतीत होने लगी थी। लोग उसे आदर और भक्ति- भाव से देखने लगे थे।
अहिल्याबाई की यह अटूट निष्ठा देखकर अनेक बार उसकी सहेलियाँ पूछा करती थीं- "अहिल्या ! तुम भोले बाबा की बडी़ सेवा करती हो। उनसे कौन- सा वरदान माँगना चाहती हो?"
"मैं तो कोई भी दान- वरदान नहीं चाहती। यों ही जल- फूल चढा़कर चली आती हूँ।" अहिल्या उत्तर देती है।
'कुछ माँगा जरूर करो'- सहेलियाँ कहतीं और उत्तर पातीं- "जब मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता ही नहीं है, तब माँगू क्या?"
और वास्तव में उस सरलता एवं संतोष की प्रतिमा को कुछ चाहिए भी न था। संतोष जिसका धन हो और पवित्रता जिसका संबल, उस भाग्यवान् को फिर आवश्यकता भी क्या रह जाती है? उसकी संपूर्ण याचकता, अकिंचनता और अधिकता आराध्य की अमोध भक्ति से स्थानापत्र होकर सदा के लिये संतुष्ट हो जाती है और वह एक आलोकित आत्मा के साथ आनंद से उस आध्यात्मिक अंश का आस्वादन किया करता है, जो आलोक- परलोक सभी प्रकार के सुखों का आदि स्त्रोत होता है।
किंतु भक्त की निष्कामना भगवान् में कामना बनकर गूँजने लगी। भगवान् की इच्छा हुई कि अहिल्या रानी बने। फिर क्या था, योग जुड़ गया। नहीं तो कहाँ एक गाँव की किसी झोंपडी़ में पलने वाली अहिल्या और कहाँ इंदौर की गद्दी? परमात्मा न तो अपने हाथ से किसी को कुछ देता है और न छीनता है। वह इन दोनों के लिए मनुष्यों की आंतरिक प्रेरणा द्वारा परिस्थितियाँ उत्पन्न करा देता है। आप तटस्थ भाव से मनुष्यों का उत्थान- पतन देखा करता है।
इंदौर के महाराज मल्हार राव होल्कर पूना जाते समय मार्ग में पाथडरी गाँव के उसी शिवालय में ठहरे, जिसमें अहिल्या नित्य पूजन करने आती थी।
प्रभात हुआ। पक्षियों के कलरव में कर्तव्यों की प्रेरणा मुखर हो उठी। ऊषादेवी ने प्राची दिशा में नई आशाओं और नूतन उत्साह का प्रतीक अपना केसरिया अंचल विस्तार किया। प्रातःकाल की पवित्र वायु ने प्राणों में नवस्फूर्ति का संचार किया। तालाबों में कमल और लताओं में फूल पुरुषार्थियों के भाग्य के समान खिल उठे। चारों और का वातावरण स्वास्थ्यर्पूण सात्विकता से ओत-प्रोत हो उठा। मनुष्य जागे और उस देव-मुहुर्त में अपने नित्य-नैमित्तिकों में लग गये। निशाचर और असुर-वृत्ति के जीवों की पलक झपकने लगीं और वे निभृत अंधकारों में आलसी के प्रारब्ध की भाँति जाकर सो गये।
देवदूतों की प्रभात-फेरी के समान अहिल्या पूजा करने आई। मंदिर के चारों और बडी़ चहल-पहल थी। हाथी, घोड़े, रथ और आदमियों की भीड़ ही भीड़ थी। किंतु अहिल्या बिना किसी ओर देखे-सत्पुरुषों के विचार की भाँति-अपने लक्ष्य मूर्ति-मंदिर की ओर, उपराम भाव से चलती गई। लोग मौन होते और मार्ग छोड़ते गये। कन्या ने नित्य की भाँति एकाग्र मन से यथावत् पूजन किया और उसी अलिप्त भाव से वापस चली गई। उस पर न तो उस भीड़ भाड़ का ही कोई प्रभाव पडा़ और न वह दुचित्ती हुई। न उसके मन में किसी प्रकार के भय अथवा संकोच का भाव आया। वह निर्विकार भाव से आई निर्विध्न भाव से वैसे ही चली गई जैसे निष्काम-कर्मयोगी संसार में अपना कर्तव्य पालन कर प्रस्थित हो जाते हैं। अहिल्या अपनी गति में इतनी एकाग्र आई-गई जैसे वहाँ कोई था ही नहीं। सब ओर सन्नाटा और सूनापन था। उसको सबने आते-जाते देखा, किंतु उसने जैसे किसी को नहीं देखा। यह उसकी मानसिक पूर्णता का लक्षण था, जो आत्मस्थ एवं अचंचल व्यक्तियों में सहज ही सिद्ध हो जाता है।
महाराज मल्हार राव ने भी देखा। किंतु उनका देखना विचार क्रिया में बदल गया। वे सोचने लगे क्या संसार में ऐसा भी संभव है कि महाराजा का वैभवपूर्ण शिविर लगा हो, चारों ओर घोडे़ हिनहिना रहे हों, हाथी झूम रहे हो और कोई एक, सो भी साधारण-सी ग्रामीण लड़की आये और बिना किसी प्रभाव के इतने तटस्थ भाव से चली जाए, मानो वहाँ राजा तो राजा क्या एक छोटा-सा प्राणी भी न हो। जबकि अच्छे से अच्छे स्थैर्यवान् राज-वैभव को भय और विस्मय के भाव से देखने पर विवश होते हैं और कुछ नहीं तो कम से कम राजैश्वर्य असामान्य एवं अस्वाभाविक विशेषता के कारण कौतूहल का विषय तो होता ही है। महाराज होल्कर के हृदय में अहिल्या की यह तटस्थता, तन्मयता एवं निर्भयता श्रद्धा बनकर बैठ गई। वे बेचैन हो उठे।
यह राजत्व पर सात्विकता की विजय थी। स्वत्व पर संतोष और अभीप्सा पर निस्पृहता की श्रेष्ठता थी। महाराज मल्हार राव का बैचेन होना स्वाभाविक ही था। जिस राज-वैभव को उन्होंने और उनके पूर्वजों ने नीति और शस्त्र दोनों के समन्वित प्रयत्न से संचय किया था और जिसके आधार पर वे एक महिमापूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित थे, उसका अवमूल्यन हो गया था। आज की घटना से हृदय की विशालता, गंभीरता और आत्म-गौरव की महानता में उनका विश्वास और भी बढ़ गया था और वास्तविक वैभव मनुष्य के अंतस में निवास करता है, यह नूतन अनुभव भी उनके जीवन-चिंतन में जुड़ गया था। निःसंदेह सात्विक भाव ही वह उपलब्धि है, जो बिना किसी बाह्रयाडंबर के मनुष्य को चिरसंपन्न बनाए रखती है।
महाराज मल्हार राव ने अपनी अशांति का चिरस्थायी हल निकाल लिया। किसी की महानता से होने वाली संतप्त प्रतिक्रिया के समाधान का इससे सुंदर और कल्याणपूर्ण उपाय हो ही नहीं सकता कि उसकी महानता स्वीकार की जाए और उसे अपना बनाया या स्वंय उसका बन जाया जाए। इस प्रकार किसी की महानता का अनुबंधन अपने से भी हो जाता है। आत्मभाव की स्थापना से किसी की वह महानता जो हीनतापूर्ण प्रतिक्रिया का कारण हो सकती है, संबंधाभिमान का हेतु बनकर संतोषदायक हो जाती है। अहंकार की पीडा़ के स्थान पर गौरव-गरिमा का अनुभव होने लगता है। इसी आध्यात्मिक लाभ के कारण ही तो 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का शास्त्रों में प्रतिपादन किया गया है।
महाराज मल्हार राव ने पता लगवाया और अहिल्या के पिता को बुलवाकर कहा- "सिंधिया ! मैं आपकी सुलक्षणा बेटी को अपनी पुत्र-वधू बनाना चाहता हूँ। आशा है आप मुझे निराश न करेंगे।"
महाराज इंदौर का इतना कह देना भी अधिक से अधिक था और यह एक सामान्य व्यक्ति पर महती कृपा थी, तथापि गुणवती अहिल्या का मूल्य उनकी दृष्टि में इतना हो गया था कि एक बार शंका हुई कि कहीं मनकोजी इनकार न कर दें। इसे ही तो कहते हैं-गुणज्ञता एवं गुणग्राहकता, जो किसी निरस्तेय गुणज्ञ के लिए ही संभव है। महाराज मल्हार राव एक ऐसे ही उदार गुणज्ञ थे। उन्होंने दोहराया- "क्यों सिंधिया ! क्या मेरा प्रस्ताव '''''''''। महाराज का वाक्य पूरा भी न हो पाया था कि मनकोजी सहसा कह उठे- "नहीं, नहीं महाराज।"
मनकोजी आपे में ही न थे। महाराज की बात सुनकर उन्हें तारे दिखने लगे थे। सहसा कानों पर विश्वास ही न हुआ था। उनकी छोटी-सी जीवन-परिधि में इतना बडा़ आलोक-पुंज अप्रत्याशित रूप से चमक उठा था कि वे चकाचौंध होकर इस प्रकार विस्मय-विमूढ़ हो गये थे, जिस प्रकार कोई असिद्ध साधक अकस्मात् ही परमात्म-तेज पाकर आत्म-विभोर होकर समझ नहीं पाता कि यह क्या हो गया है? तभी तो वे महाराज के प्रस्ताव का सहसा उत्तर न दे पाये थे ! महाराज ने उन्हें आश्वस्त किया और वे ईश्वरीय अनुग्रह से प्रकृतिस्थ तथापि आनंद-विह्वल सिद्ध के समान वापस चल दिये।
मनकोजी भागे-भागे घर आए और उन्होंने सौ सपूतों से भी अधिक मूल्यवती अपनी बेटी को करुणाग्र गौरव से देखा। अहिल्या उस समय गौ का गोबर उठाकर हाथ धोने जा रही थी। पिता ने उसके दोनों हाथ पकड़कर खुद धुलाते हुए गद्गद् कंठ से कहा- "बेटा ! अब तेरे यह हाथ गोबर में कभी न सनेंगे। अब यह इंदौर की राज-सत्ता में सहायक होंगे। अहिल्या को तो अपने पिता का यह क्रिया-कथन ही नहीं समझ में आया, उसकी माता भी विस्मय के साथ यह कहती हुई आ गई कि आज आप यह क्या कर रहे हैं और क्या कह रहे हैं? हाँ, ठीक कह रहा हूँ। इंदौर के महाराज मल्हार राव होल्कर ने अहिल्या को अपनी पुत्र-वधू बनाने के लिए आज ही सबेरे तो मुझसे माँग लिया है; इसी याचना के लिए ही तो उन्होंने मुझे बुलाया था। अहिल्या यह सुनते ही कोठरी में भाग गई और वे दोनों उसे ऐसे देखते रहे, मानो वे अहिल्या के माता-पिता होने योग्य न थे।
माता-पिता बेटी की विदाई के विषय में कुछ बात करने ही वाले थे कि तब तक बाहर से आवाज आई, "मनकोजी ! कन्या को अभी जैसी बैठी हो भेज दीजिये, महाराज ने पडा़व उठा दिया है।" मनकोजी ने बाहर आकर देखा-चाँदी के डंडों और जरीदार मखमली उहार की पालकी द्वार पर रक्खी हुई थी। महाराज का प्रधान-प्रबंधक खडा़ प्रतीक्षा कर रहा था। साथ में अनेक सूत और सिपाही भी थे।
अहिल्या के पास कोई और वस्त्र थे ही नहीं, बदलाये भी क्या जाते? उसी सफेद मोटे गाढे़ की धोती में, जोकि वह पहने हुऐ थी,
पालकी में आदर और आर्द्रतापूर्ण वातावरण में बिठा दी गई। सिसकती हुई अहिल्या को लेकर पालकी ऐसे चल दी जैसे अनासक्त कर्मयोगी की साधना उसके उत्सर्ग पुण्यों को पावन दिशा में ले जाती है और भारी हृदय से घर आकर मनकोजी ने अपने को ऐसा हल्का अनुभव किया कि मानों वे जीवन मुक्त हो गये हों।
अरे ! मनुष्य में देवत्व के प्रतिनिधियों ! अभ्युदय के प्रत्यूष-पर्व के समान सौभाग्य के प्रतीकों ! सात्विकता की संतान सद्गुणों ! तुम्हारी जय हो ! तुम्हें अपनाकर जमीन का एक जर्रा भी आकाश का चाँद बन जाता है तब अहिल्या तो एक कन्या थी, पवित्र मानवी थी।
महाराज होल्कर इंदौर लौट चले। अहिल्या के आगे-आगे अपनी सवारी में वे इतने प्रसन्न, पुलकित एवं उत्साहपूर्वक जा रहे थे, मानो दिग्विजय करके लौटे हों। राजधानी पहुँचकर मल्हार राव ने अहिल्या का विवाह अपने पुत्र खंडेराव के साथ कर दिया।
अब अहिल्या इंदौर की युवरानी बन गई थी। यद्यपि वह न तो राजपुत्री थी और न राज-घरानों से उसका कोई संपर्क ही रहा था। तथापि उसे राज-वधुत्व के निर्वाह में कोई कठिनाई नहीं हुई। उसके पास शील, शालीनता, अनुशासन, विनम्रता, गंभीरता, धीरता, और आकल्पकता के ऐसे मूल गुण थे, जिनके आधार पर किसी भी समाज और किसी भी स्थिति में सफलतापूर्वक व्यवहार किया जा सकता है।
एक छोटी स्थिति से इतनी बडी़ पदवी पर आ जाने पर भी अहिल्या के हृदय में किसी प्रकार के अभिमान का अनुभव नहीं हुआ। उसने अभिमान के स्थान पर उत्तरदायित्व का ही अधिक अनुभव किया। ऐश्वर्यपूर्ण राजमहल की परिस्थितियों में पहुँचकर भी उसकी सादगी तथा सरलता में कोई अंतर न आया। बल्कि उसके आगमन से राजमहल के वातावरण में भी सात्विकता का समावेश हो गया।
युवरानी हो जाने पर भी स्थैर्यवती अहिल्या ने सादे वस्त्र, साधारण भोजन और सरल व्यवहार का परित्याग नहीं किया था। मनुष्य को अपनी उन्नति के आधारों का पता रहता है और जिनको पता नहीं रहता-उनकी उन्नति एक योजनाबद्ध कार्यक्रम के अनुगत नहीं होती। वह एक आकस्मिकता, संयोग अथवा घटना मात्र होती है। ऐसी अनजान उन्नति पर मनुष्य का कोई नियंत्रण नहीं रहता और वह जिस प्रकार संयोग के समान आती है वैसे ही घटना के समान बीत जाती है।
इसका कारण यह होता है कि अयोजक व्यक्ति को अपनी उन्नति के कारणों तथा आधारों का ज्ञान नहीं रहता, अस्तु वह अपनी अस्त-व्यस्तता में उनकी रक्षा नहीं कर पाता। आधार उखड़ जाने से उसकी उन्नति का भवन टूटकर गिर पड़ता है। इसके विपरीत जो कर्मयोगी अपने जीवन का विकास क्रमबद्ध योजना के अनुसार किया करते हैं, उन्हें अपनी सफलता के कारण और आधार ज्ञात रहते हैं और वे हर मूल्य पर उनकी रक्षा करके अपनी सफलता तथा उन्नति को स्थायी बना लेते हैं।
इसी को बुद्धिमत्तापूर्ण जीवन-यापन कहते हैं। यद्यपि अहिल्या ने किसी अलभ्य जीवनोन्नति के लिए उसके अधार अपने सात्विक गुणों का आराधन नहीं किया था, यह उसके सहज स्वभाव के ही अंग थे। तथापि जब उसे न चाहते हुए भी अप्रत्याशित रूप से उन गुणों का पुरस्कार मिल ही गया तो अवश्य ही उसने उस पर विचार किया और समझ लिया कि यह सब सम्मान उसका नहीं, उसके उन गुणों का है, जिन्हें वह अपने निश्छल तथा निर्लिप्त जीवन पद्धति के परिणामस्वरूप निसर्ग क्रम से पा सकी थीं। निदान वह अपनी उन्नति के उन आधारों के प्रति अधिकाधिक निष्ठावती हो गई और सावधानीपूर्वक उनकी रक्षा करने लगी। सावधानी अब उसके लिए अपेक्षित भी थी। एक तो वह अपने उस ग्रामीण जीवन से ठीक विपरीत परिस्थितियों तथा वातावरण में आ गई थी। जहाँ पूर्व जीवन में प्राप्त वातावरण उसके सात्विक तथा सरल गुणों का सहायक तथा सहयोगी था, वह वर्तमान स्थिति उनका विरोधी न सही परीक्षक अवश्य था। साथ ही अब अल्हड़ और निरपेक्ष जीवन क्रम से ऐसे महत्वपूर्ण स्थान पर आ गई थी, जिस पर रहकर मनुष्य का प्रत्येक कार्य एक अर्थ, एक प्रभाव और एक दूरगामी परिणाम रखता है। अतएव ऐसी अर्थ-द्योतक स्थिति में उदात्त उत्तरदायित्व ही संबल होता है, जिसके निरीक्षण में ही हर कदम प्रमाणिक तथा निरापद रूप से उठा सकना सहज एवं संभव होता है। अहिल्या ने वह उत्तरदायित्व धारण किया और अपने युक्त आचरण के कारण किसी को यह अवसर न दिया कि कोई उसके वर्तमान को लेकर उसके पूर्व जीवन की ओर संकेत कर सकता। गुणवती अहिल्या को अपने ग्रामत्व के साथ अपने राजत्व का सामंजस्य कर लेते देर न लगी। जो धैर्यवान अपने तथा अपनी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण कर सकने के अभ्यासी होते हैं, वे किसी भी स्थिति में संतुलन बनाए रखने में सफल रहा करते हैं। उसने अपने आदि गुणों को छोड़ना तो क्या, प्रस्तुत परिवर्तन से और भी नूतन तथा महान् बना लिया।
अहिल्या के सारल्य में उसके सेवा भाव ने और भी चमत्कार पैदा कर दिया। उसने पति, सास, श्वसुर तथा अन्य गुरूजनों की सेवा इस एकाग्र मन से की कि वह सबकी प्राणप्यारी बन गई। उन्हें ऐसा अनुभव होने लगा कि यदि अहिल्या उनके जीवन में न आई होती तो कदाचित् वे उस सुख, उस शांति और उस संतोष से अपरिचित रह जाते जो सत्संतानों से मिला करता है। अहिल्या की सेवा से द्रवित उस राजकुल का स्वाभाविक शासन का कठोर भाव बहुत कुछ विनम्र हो गया, जिसकी शीतलता उनके लिए एक नया अनुभव था। उन्होंने अपनी आत्मा में इस सत्य को स्वीकार कर लिया कि शासनजन्य अहंकार की अपेक्षा स्नेहजन्य शालीनता में अधिक सुख और गौरव है। अहिल्या ने कनिष्ठों को इतना स्नेह और सेवकों को इतनी करूणा प्रदान की कि वे सब उसकी रक्षा के लिए अधिक सजग तथा अनुशासित हो गए। स्वामियों की सौम्यता और सेवकों की अनुशासन वृद्धि से राजमहल में जिस संतुलन का समावेश हुआ, उसके कारण अब भय का नहीं मानवता का शासन स्थापित हो गया। राजमहल का आतंकपूर्ण तनाव शिथिल हो गया और सभी अपने-अपने स्थान पर एक स्वाभाविक सरलता का अनुभव करने लगे। एक दीपक के जल उठने से कक्ष की सारी वस्तुएँ अपने सहज अस्तित्व में आ जाती हैं। एक अहिल्या के आगमन से यदि राजमहल के कृत्रिम जीवन में स्वाभाविकता का समावेश हो गया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। एक सत्य संसार को प्रभावित कर लेता है और एक मनुष्य समाज को बदल डालता है। सात्विकता से सुशोभित गुणों में ऐसी ही अपरिमित शक्ति तथा सुंदरता होती है।
इतना सब होने पर भी अहिल्या अपने पूर्व जीवन को कभी न भूलती थीं। उसे अपनी उस गरीबी के प्रति बडी़ करूणा और ममता थी। उसकी इस विगत स्मृति ने उसे गरीबों तथा अभावग्रस्त लोगों के प्रति न केवल दया ही बल्कि आदर भावना भी विकसित हो गई थी। उसे संसार के सारे गरीब अपने बंधु जैसे अनुभव होते थे और वह यथासाध्य उनकी सहायता करती रहती थीं। दया और दानशीलता के गुण उसके पहले गुणों में जुड़कर स्थिर हो गये। पूजा का वह क्रम-जो उसके जीवन का एक अंग बना हुआ था, आज भी चल रहा था। आज की संपन्न स्थिति में भी उसने भगवान् की पूजा के उपकरणों में वही फूल और जल ही रखे थे। उसने उनमें पकवान, मिष्ठान्न अथवा अन्य धन-द्योतक वस्तुओं को शामिल नहीं किया था। अब वह अपनी प्रार्थना में इतना अवश्य कहने लगी थीं कि-हे भगवान् ! मैं आपकी वही अहिल्या हूँ। इस परिवर्तित स्थिति से उसे बदली हुई कोई दूसरी अहिल्या न समझें और वह शक्ति देते रहे, जिससे वह आजीवन वही सेविका बनी रहें, जो अपने विगत जीवन में थी। इस धन, इस वैभव और इस संपदा का समुचित उपयोग तो कर सकूँ, किंतु यह सब माया मुझमें भोग वृत्ति का दोष उत्पन्न न कर सके। आपने जो कुछ दिया, उसे आपका ही समझती रहूँ और आपके ही मार्ग में उसका उपयोग करती रहूँ। अंहकार, दंभ और वासनाओं के अभिशाप से बचाये रहें। मुझको ऐसी बुद्धि, ऐसा विवेक और ऐसी स्मृति दें कि मैं मानवता के सुंदर गुणों से विरत न हो सकूँ।"
अहिल्या ने अपने पूजा-उपकरणों में वैभव का समावेश नहीं किया, क्योंकि वह जानती थीं कि ऐसा करने से उसके दोष से हृदय में अहंकार, संपन्नता तथा धनाढ्यता का भाव जाग सकता है। अधनता से प्रभावित भक्ति भाव में जो निर्वेद और जो अध्यात्मिक दैन्य रहा करता है वह परमात्मा की करुणा का संपादन करता हैं वह वैभव के समावेश से न रहेगा। उसकी पूजा नीरस तथा भावनाहीन होकर निष्प्रभवता के कारण हल्की हो जायेगी। धन से देवता की पूजा करने के बजाय वह उसको परमार्थ पथ में व्यय करने को अधिक उपयुक्त मानती थी। अहिल्या अपनी इस मान्यता को कार्यान्वित भी करती थी। अहिल्या को अपनी व्यक्तिगत वृत्ति राजकोष से मिलती थी, उसका बहुत बडा़ अंश तो वह परमार्थ एवं परोपकार में खर्च करती थीं। वह भोजन करने से पहले कई भूखों को भोजन देती थीं, नंगों को वस्त्र और आवश्यकताग्रस्त पात्रों को धन भी दिया करती थीं। अनेक विधवाओं को सहायता और छात्रों को छात्रवृत्ति दिया करती थी। अहिल्या के इन सत्कर्मों ने न केवल अधिकाधिक तेजवती ही बना दिया था, बल्कि जनता में भी बडी़ ही श्रद्धा तथा लोकप्रियता का पात्र भी बना दिया था।
परिस्थितियों के कारण अहिल्या को विद्याध्ययन का अवसर न मिल सका था। उसकी यह इच्छा मन में ही रह गई थी। पर ज्यों ही उसकी परिस्थितियाँ उसके अनुकूल हुई, उसने अध्ययन का कार्यक्रम प्रारंभ कर दिया। इस प्रगति में उसे बहुत कुछ सहायता अपने पति खांडेराव से मिली। तथापि वह सहायता पर्याप्त नहीं थी, राज-काज के कारण बहुत बार खंडेराव कई-कई दिन तक अहिल्या को कुछ पढा़ न पाते थे। अहिल्या ने अपनी यह इच्छा अपने श्वसुर पर प्रकट की। कहना था कि तत्काल अहिल्या की पढा़ई का प्रबन्ध कर दिया गया।
जो वृद्ध महाशय अहिल्या को पढा़ने आते थे, अहिल्या उनके प्रति बडा़ आदर का भाव रखती थी। एक छात्र के अनुशासन और विनम्रता के गुणों का वह पूरी तरह से पालन करती थी। वह अपने गुरू के सम्मुख युवराज्ञी के रूप में कभी न आती थी। गुरू के सम्मुख उसका आगमन एक सुशील छात्रा तथा शिष्या के रूप में ही होता था। उसकी इस शिष्टता ने गुरू की सारी सद्भावनाएँ प्राप्त करलीं, विद्यार्थी का अध्यवसाय और गुरू की सद्भावनाएँ जब दोनों ही अध्ययन काल में परस्पर जुड़ जाते हैं, तब अध्ययनार्थी की प्रतिभा में सरस्वती का जागरण आप से आप होने लगता है। अहिल्या के साथ भी वैसा ही हुआ। उसे रोज का पाठ रोज ही याद होने लगा और इस प्रकार वह शीघ्र ही एक अच्छी विद्यावती बन गई। शिक्षा के प्रकाश ने अहिल्या के गुण-गौरव को और चमत्कृत कर दिया। अशिक्षा के एक दोष के कारण अहिल्या का जो गुणी जीवन अभी अपूर्ण-सा दिखता था, वह जल्दी ही पूर्ण हो गया।
सेवा, उत्तरदायित्व, कर्तव्यनिष्ठा और अब शिक्षा से प्रसन्न होकर मल्हार राव ने अहिल्याबाई को राजकाज की शिक्षा भी देनी शुरू कर दी। उन्हें पुत्र की अपेक्षा अपनी पुत्र-वधु के गुणों में अधिक विश्वास था। यह एक आदरपूर्ण उपलब्धि थी, एक गहरा सम्मान था। तथापि अहिल्या में इससे भी कोई मनोविकार न आया और यथावत् सौम्य, सरल तथा शालीन बनी रही।
हल्के धरातल वाली स्त्रियाँ प्रायः पति से आगे बढ़ जाने पर ठीक तथा निरंकुश हो जाया करती हैं और पति पर शासन करने का प्रयत्न किया करती हैं। किंतु अहिल्याबाई ऐसे हल्की अथवा उथली मनोभूमि वाली नारी न थी, उसमें भारतीय ललना का आदर्श कूट-कूट कर भरा हुआ था। वह दांपत्य जीवन में शासन भावना को पारस्परिक प्रेम के लिए कुठार समझती थी। वह जानती थी कि जो सुख, जो संतोष और जो शीतलता पारस्परिक प्रेम में होता है, वह शासन अथवा अधिकार भावना में नहीं होता। वह शासन के मद पीकर दांपत्य सौम्यता को बलिदान करने वाली नारी न थी। सेवा के सुख को अनुभव कर लेने वाली सत्नारियाँ निरंकुशता की तीक्ष्णता को कभी पंसद नहीं करती। जो सुख और सुरक्षा पति के आधीन रहने में होती है, वह उच्छृंखल, निरंकुश अथवा स्वच्छंद रहने में कहाँ ? पति के प्रति पत्नी का संपूर्ण आत्म-समर्पण ही तो वह वशीकरण है, जो पुरूष को नारी की सुकुमार मुट्ठी में दृढ़ता से ला दिया करता है। बुद्धिमान् अहिल्या ललनाओं के इस जादू से अनभिज्ञ नहीं थी। अपनी प्रिया की महत्ता बढ़ते देखकर खंडेराव का प्रेम उस पर और बढ़ गया। वे यह सोचकर अति प्रसन्न तथा पुलकित रहने लगे कि राज्य संचालन में उनके लिए एक बहुत विश्वस्त,अभिन्न तथा अनुकूल साथी, सचिव एवं अंतरंग का निर्माण हो रहा है। सोने जैसी अहिल्या अलंकार के रूप में गढी़ जा रही थी और उसकी अनुकूलता, उपयुक्तता एवं पात्रता भरपूर सिद्ध होती जा रही थी।
बहू हो तो अहिल्या जैसी, पर श्वसुर भी हो तो महाराज मल्हार होल्कर जैसा उदार तथा महान् ! अहिल्या को राज-काज का व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए, जब कभी वे किसी काम से बाहर जाते थे तो शासन सूत्र अहिल्या को सौंप जाते थे। अहिल्या इस उत्तरदायित्व को पूरी तत्परता, संलग्नता तथा सत्यता के साथ पालन करती थी। वह प्रमाद में पड़कर न तो किसी काम को कर्मचारियों पर टालती थी और न किसी काम में विलंब करती थी। जो काम जिस समय करना आवश्यक होता था, उस काम को वह उसी समय ही करती थी। उतावली अथवा विलंब को वह अपने पास भटकने न देती थी।
दीर्घसूत्रता अथवा अपेक्षा उसकी सीमा से बाहर की बात थी। काम छोटा हो अथवा बडा़, वह उसको एक जैसी तत्परता तथा लगनशीलता से किया करती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि वह राज-काज में आश्चर्यजनक रूप से दक्ष हो गई। उसने प्रयत्नपूर्वक आत्मोत्सुकता से राज्य के सभी विभागों के कामों को प्रायः समझ-बूझ लिया था। अहिल्या को शासन-सूत्र देकर जाने के बाद जब महाराज मल्हार राव वापस आते थे तो पाते कि अहिल्या ने सौंपा हुआ काम इतनी निपुणता से किया हैं, जितनी की उन्हें आशा न थी। इस प्रकार अवसर का लाभ उठाकर और अपनी समग्र मन, बुद्धि की शक्ति लगाकर अहिल्या जल्दी ही एक कुशल प्रशासिका बन गई। श्रम एवं संलग्नता एक ऐसा आधार मूल गुण है, जो अपने को आश्रित करने वाले को ऐसा कोई काम नहीं, जिसमें कुशल न बना दे। इन गुणों के धनी लोग सेवा से लेकर शासन और शिल्प से लेकर व्यापार तक के काम को एक ही तत्परता, लगन तथा पूर्ण निष्ठा के साथ समान रूप से ही किया करते हैं, जिससे उन्हें किसी भी क्षेत्र में क्यों न डाल दिया जाए, वे उसमें सफल होकर दिखला देते हैं। अहिल्या योग्य होती गई और मल्हार राव का विश्वास अपनी पुत्र-वधू की योग्यता में दिन-दिन बढ़ता गया। अहिल्याबाई की यह प्रतिष्ठा उसकी उस कर्तव्यनिष्ठा का पुरस्कार ही समझना चाहिए, जिसका विकास उसने अपने जीवन में क्रम से नियम एवं संयमपूर्वक किया था।
विवाह के बाद अहिल्याबाई के एक पुत्र और एक पुत्री दो संतानें हुई, जिनका नाम मालीराव और मुक्ताबाई रखा गया। इस प्रकार नौ वर्ष तक शिक्षा-दिक्षा के बीच आनंद और उत्साह के साथ जीवन बिताने के बाद अहिल्याबाई की अग्नि-परीक्षा प्रारंभ हुई। धैर्यवती अहिल्याबाई को जिस अग्नि-परीक्षा के बीच से गुजरना पडा़, उसमें से अविचलित रहकर निकल जाना उन जैसे ही लक्ष्यवान् व्यक्तियों का काम है। अपने जीवन की अग्नि-परीक्षाओं को अहिल्याबाई ने अपने उस आत्म-विश्वास एवं आत्म-संयम के बल पर ही उर्तीण किया, जिसका संचय उन्होंने सतत् उपासना के आधार पर किया था।
उपासना के माध्यम से परमात्मा के समीप रहने वाले व्यक्तियों पर जिन गुणों का अनुग्रह होता है, उनमें से धैर्य तथा सहिष्णुता मुख्य हैं। संसार में दुःखद घटनाएँ सदा संभाव्य मानी गई हैं। वे प्रायः सभी के जीवन में आती हैं। तथापि धीर व्यक्ति उनको सामान्य घटनाओं की तरह सहकर अपनी आत्मा को प्रभावित नहीं होने देते। अहिल्याबाई में धैर्य तथा सहिष्णुता की कमी नहीं थी।
इसी प्रकार के अपने आलोकित व्यक्तित्व और गुण- गरिमा के कारण अहिल्याबाई एक दिन इंदौर की महारानी बनीं। किंतु महारानी बनकर भी अहिल्याबाई ने सेवा, सौम्यता, सरलता और सादगी की अपनी विशेषताओं का परित्याग नहीं किया। स्थिती अथवा अवस्था के बदल जाने पर, जो व्यक्ति अपनी उन्नति के मूल आधारों का त्याग कर देता है, अंततः उसे पतन के गर्त में गिरना होता है। अतएव बुद्धिमान् व्यक्ति अपने उन मूल गुणों को, प्रतिकूल परिस्थितियों में भी नहीं छोड़ते और बडे़ से बडा़ मूल्य चुका कर, दृढ़ता, धैर्य और साहस के साथ उनकी रक्षा करते हैं।
अहिल्याबाई का जन्म १९३५ में महाराष्ट्र के पाथडरी नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम मनकोजी सिंधिया था। मनकोजी एक सामान्य व्यक्ति ही नहीं बल्कि गरीब आदमी थे। थोडी़- सी भूमि, दो बैल और एक हल के बल पर उनकी नौका एक तरह से सूखे में चली जा रही थी। मनकोजी सच्चाई के साथ पूरा परिश्रम करते थे। जो कुछ पैदा हो जाता था उसी में संतोषपूर्वक अपनी गुजर- बसर करते हुए प्रसन्न रहा करते थे। नित्य- प्रति भगवान् की पूजा- अर्चना करना उनके जीवन का एक अंग था। इसी उपासना की दिनचर्या ने उनकों और उनके परिवार को संसार के सारे विकारों और माया- मोहों से बचाए रखा। घोर गरीबी में उनकी पवित्र जीवनधारा प्रसन्नतापूर्वक बही चली जा रही थी। उन्हें न तो कभी अभाव सताता था और न वे कभी लोभ से प्रभावित होते थे। उनके इसी शारीरिक तथा मानसिक तप के फलस्वरूप उनकी एकमात्र संतान अहिल्याबाई परमात्मा के कृपा- प्रसाद के समान सिद्ध हुई।
अहिल्याबाई न तो अपूर्व सुंदरी थी और न आकर्षक कलावती। वह एक सीधी, सरल और भोली- सी ग्रामीण कन्या थी। स्वभाव की नैसर्गिक सरलता तो उन्हें अपनी उस संतोष वृत्ति से मिली थी, जिसका विकास कर लेने से बाहरी परिस्थितियों में गरीब होते हुए भी मनुष्य अंदर से बडा़ ही संपन्न और परिपूर्ण बना रहता है। अभाव तथा आवश्यकताएँ अधिकांशतः मनुष्य की चपल वृत्तियों की उपज होती हैं, लोभ जिनमें उर्वरक का काम करके उन्हें विकृत ही नहीं कलंकित भी बना देता है। ऐसे चपलवृत्ति के लोग अकारण ही अपने को निर्धन तथा अभावग्रस्त अनुभव किया करते हैं। वे जब भी किसी को नूतन प्राप्ति में देखते हैं, उनका हृदय तड़पकर कह उठता है- हाय, ये वस्तुएँ हमारे पास नहीं हैं। यह व्यक्ति हमसे अधिक संपन्न तथा सुखी है। इतना ही क्यों, बहुत बार तो वे अपनी उपलब्धियों को भी न्यूनता की दृष्टि से देखते हुए अपने को हठात् निर्धन तथा अभावग्रस्त अनुभव किया करते रहते हैं, ऐसे लोलुप तथा लिप्सालु व्यक्ति की स्थायी आवश्यकताएँ तो कम नहीं ही होती हैं, साथ ही उन्हें नित्य नई, कृत्रिम तथा अनावश्यक आवश्यकताएँ घेरे रहती हैं। वह सदैव दुःखी तथा विपन्न ही बना रहता है। न तो उसे जीवन का आनंद मिलता है और न प्राप्तियों का सुख।
इसके विपरीत अपनी वृत्तियों में संतोष को समाहित कर लेने वाले स्थिर व्यक्ति की आवश्यकताएँ प्राकृतिक सीमा तक ही प्रतिबंधित रहती हैं। जिसके फलस्वरूप न तो उसे अभाव सताता है और न लिप्सा अथवा दयनीयता का दुर्भाव ही उसे आक्रांत कर पाता है। आवश्यकताओं की कमी स्वंय ही अपने में एक संपन्नता है। एक ऐसी संपन्नता जिसका पोषण करने के लिए न धन की आवश्यकता पड़ती है और न पदार्थों की।
भोलापन उसकी आत्मा की वह शांति थी, जो अधिक संसार लोलुप न होने से आप ही मिल जाती है। इस प्रकार आत्मा और मन के पवित्र होने से अहिल्याबाई का मन भगवान् के पूजन में बहुत लगता था। वह नित्यप्रति नियम से शिवजी के मंदिर में पूजा करने जाती थी। कोई भी बाधा, कोई भी कठिनाई और कोई भी परिस्थिति अहिल्या को उसके इस व्रत से विरत न कर पाती थी। मूसलाधार वर्षा के समय भी वह एक स्वस्थ वल्लरी की भाँति भीगती हुई अपने पथ पर चली जाती थी और शीतकाल का हिमपात भी उसे अपने नियम से विचलित न कर पाता था। वह स्वयं ही दृढ़ निष्ठा की प्रतिमूर्ति के समान अकंपित गति से अपने नियम- निर्वाह की प्रसन्नता प्राप्त करती रहती थी। अहिल्याबाई की वह छोटी- सी पूजा ही- उसकी संलग्नता, अखंडता और ऐकांतिकता से एक विशाल तपस्या के रूप में विकसित हो गई थी। जिसकी पूर्णता ने उसमें एक ऐसे तेज की स्थापना कर दी कि वह सामान्य- सी ग्रामीण कन्या देवी- सी प्रतीत होने लगी थी। लोग उसे आदर और भक्ति- भाव से देखने लगे थे।
अहिल्याबाई की यह अटूट निष्ठा देखकर अनेक बार उसकी सहेलियाँ पूछा करती थीं- "अहिल्या ! तुम भोले बाबा की बडी़ सेवा करती हो। उनसे कौन- सा वरदान माँगना चाहती हो?"
"मैं तो कोई भी दान- वरदान नहीं चाहती। यों ही जल- फूल चढा़कर चली आती हूँ।" अहिल्या उत्तर देती है।
'कुछ माँगा जरूर करो'- सहेलियाँ कहतीं और उत्तर पातीं- "जब मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता ही नहीं है, तब माँगू क्या?"
और वास्तव में उस सरलता एवं संतोष की प्रतिमा को कुछ चाहिए भी न था। संतोष जिसका धन हो और पवित्रता जिसका संबल, उस भाग्यवान् को फिर आवश्यकता भी क्या रह जाती है? उसकी संपूर्ण याचकता, अकिंचनता और अधिकता आराध्य की अमोध भक्ति से स्थानापत्र होकर सदा के लिये संतुष्ट हो जाती है और वह एक आलोकित आत्मा के साथ आनंद से उस आध्यात्मिक अंश का आस्वादन किया करता है, जो आलोक- परलोक सभी प्रकार के सुखों का आदि स्त्रोत होता है।
किंतु भक्त की निष्कामना भगवान् में कामना बनकर गूँजने लगी। भगवान् की इच्छा हुई कि अहिल्या रानी बने। फिर क्या था, योग जुड़ गया। नहीं तो कहाँ एक गाँव की किसी झोंपडी़ में पलने वाली अहिल्या और कहाँ इंदौर की गद्दी? परमात्मा न तो अपने हाथ से किसी को कुछ देता है और न छीनता है। वह इन दोनों के लिए मनुष्यों की आंतरिक प्रेरणा द्वारा परिस्थितियाँ उत्पन्न करा देता है। आप तटस्थ भाव से मनुष्यों का उत्थान- पतन देखा करता है।
इंदौर के महाराज मल्हार राव होल्कर पूना जाते समय मार्ग में पाथडरी गाँव के उसी शिवालय में ठहरे, जिसमें अहिल्या नित्य पूजन करने आती थी।
प्रभात हुआ। पक्षियों के कलरव में कर्तव्यों की प्रेरणा मुखर हो उठी। ऊषादेवी ने प्राची दिशा में नई आशाओं और नूतन उत्साह का प्रतीक अपना केसरिया अंचल विस्तार किया। प्रातःकाल की पवित्र वायु ने प्राणों में नवस्फूर्ति का संचार किया। तालाबों में कमल और लताओं में फूल पुरुषार्थियों के भाग्य के समान खिल उठे। चारों और का वातावरण स्वास्थ्यर्पूण सात्विकता से ओत-प्रोत हो उठा। मनुष्य जागे और उस देव-मुहुर्त में अपने नित्य-नैमित्तिकों में लग गये। निशाचर और असुर-वृत्ति के जीवों की पलक झपकने लगीं और वे निभृत अंधकारों में आलसी के प्रारब्ध की भाँति जाकर सो गये।
देवदूतों की प्रभात-फेरी के समान अहिल्या पूजा करने आई। मंदिर के चारों और बडी़ चहल-पहल थी। हाथी, घोड़े, रथ और आदमियों की भीड़ ही भीड़ थी। किंतु अहिल्या बिना किसी ओर देखे-सत्पुरुषों के विचार की भाँति-अपने लक्ष्य मूर्ति-मंदिर की ओर, उपराम भाव से चलती गई। लोग मौन होते और मार्ग छोड़ते गये। कन्या ने नित्य की भाँति एकाग्र मन से यथावत् पूजन किया और उसी अलिप्त भाव से वापस चली गई। उस पर न तो उस भीड़ भाड़ का ही कोई प्रभाव पडा़ और न वह दुचित्ती हुई। न उसके मन में किसी प्रकार के भय अथवा संकोच का भाव आया। वह निर्विकार भाव से आई निर्विध्न भाव से वैसे ही चली गई जैसे निष्काम-कर्मयोगी संसार में अपना कर्तव्य पालन कर प्रस्थित हो जाते हैं। अहिल्या अपनी गति में इतनी एकाग्र आई-गई जैसे वहाँ कोई था ही नहीं। सब ओर सन्नाटा और सूनापन था। उसको सबने आते-जाते देखा, किंतु उसने जैसे किसी को नहीं देखा। यह उसकी मानसिक पूर्णता का लक्षण था, जो आत्मस्थ एवं अचंचल व्यक्तियों में सहज ही सिद्ध हो जाता है।
महाराज मल्हार राव ने भी देखा। किंतु उनका देखना विचार क्रिया में बदल गया। वे सोचने लगे क्या संसार में ऐसा भी संभव है कि महाराजा का वैभवपूर्ण शिविर लगा हो, चारों ओर घोडे़ हिनहिना रहे हों, हाथी झूम रहे हो और कोई एक, सो भी साधारण-सी ग्रामीण लड़की आये और बिना किसी प्रभाव के इतने तटस्थ भाव से चली जाए, मानो वहाँ राजा तो राजा क्या एक छोटा-सा प्राणी भी न हो। जबकि अच्छे से अच्छे स्थैर्यवान् राज-वैभव को भय और विस्मय के भाव से देखने पर विवश होते हैं और कुछ नहीं तो कम से कम राजैश्वर्य असामान्य एवं अस्वाभाविक विशेषता के कारण कौतूहल का विषय तो होता ही है। महाराज होल्कर के हृदय में अहिल्या की यह तटस्थता, तन्मयता एवं निर्भयता श्रद्धा बनकर बैठ गई। वे बेचैन हो उठे।
यह राजत्व पर सात्विकता की विजय थी। स्वत्व पर संतोष और अभीप्सा पर निस्पृहता की श्रेष्ठता थी। महाराज मल्हार राव का बैचेन होना स्वाभाविक ही था। जिस राज-वैभव को उन्होंने और उनके पूर्वजों ने नीति और शस्त्र दोनों के समन्वित प्रयत्न से संचय किया था और जिसके आधार पर वे एक महिमापूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित थे, उसका अवमूल्यन हो गया था। आज की घटना से हृदय की विशालता, गंभीरता और आत्म-गौरव की महानता में उनका विश्वास और भी बढ़ गया था और वास्तविक वैभव मनुष्य के अंतस में निवास करता है, यह नूतन अनुभव भी उनके जीवन-चिंतन में जुड़ गया था। निःसंदेह सात्विक भाव ही वह उपलब्धि है, जो बिना किसी बाह्रयाडंबर के मनुष्य को चिरसंपन्न बनाए रखती है।
महाराज मल्हार राव ने अपनी अशांति का चिरस्थायी हल निकाल लिया। किसी की महानता से होने वाली संतप्त प्रतिक्रिया के समाधान का इससे सुंदर और कल्याणपूर्ण उपाय हो ही नहीं सकता कि उसकी महानता स्वीकार की जाए और उसे अपना बनाया या स्वंय उसका बन जाया जाए। इस प्रकार किसी की महानता का अनुबंधन अपने से भी हो जाता है। आत्मभाव की स्थापना से किसी की वह महानता जो हीनतापूर्ण प्रतिक्रिया का कारण हो सकती है, संबंधाभिमान का हेतु बनकर संतोषदायक हो जाती है। अहंकार की पीडा़ के स्थान पर गौरव-गरिमा का अनुभव होने लगता है। इसी आध्यात्मिक लाभ के कारण ही तो 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का शास्त्रों में प्रतिपादन किया गया है।
महाराज मल्हार राव ने पता लगवाया और अहिल्या के पिता को बुलवाकर कहा- "सिंधिया ! मैं आपकी सुलक्षणा बेटी को अपनी पुत्र-वधू बनाना चाहता हूँ। आशा है आप मुझे निराश न करेंगे।"
महाराज इंदौर का इतना कह देना भी अधिक से अधिक था और यह एक सामान्य व्यक्ति पर महती कृपा थी, तथापि गुणवती अहिल्या का मूल्य उनकी दृष्टि में इतना हो गया था कि एक बार शंका हुई कि कहीं मनकोजी इनकार न कर दें। इसे ही तो कहते हैं-गुणज्ञता एवं गुणग्राहकता, जो किसी निरस्तेय गुणज्ञ के लिए ही संभव है। महाराज मल्हार राव एक ऐसे ही उदार गुणज्ञ थे। उन्होंने दोहराया- "क्यों सिंधिया ! क्या मेरा प्रस्ताव '''''''''। महाराज का वाक्य पूरा भी न हो पाया था कि मनकोजी सहसा कह उठे- "नहीं, नहीं महाराज।"
मनकोजी आपे में ही न थे। महाराज की बात सुनकर उन्हें तारे दिखने लगे थे। सहसा कानों पर विश्वास ही न हुआ था। उनकी छोटी-सी जीवन-परिधि में इतना बडा़ आलोक-पुंज अप्रत्याशित रूप से चमक उठा था कि वे चकाचौंध होकर इस प्रकार विस्मय-विमूढ़ हो गये थे, जिस प्रकार कोई असिद्ध साधक अकस्मात् ही परमात्म-तेज पाकर आत्म-विभोर होकर समझ नहीं पाता कि यह क्या हो गया है? तभी तो वे महाराज के प्रस्ताव का सहसा उत्तर न दे पाये थे ! महाराज ने उन्हें आश्वस्त किया और वे ईश्वरीय अनुग्रह से प्रकृतिस्थ तथापि आनंद-विह्वल सिद्ध के समान वापस चल दिये।
मनकोजी भागे-भागे घर आए और उन्होंने सौ सपूतों से भी अधिक मूल्यवती अपनी बेटी को करुणाग्र गौरव से देखा। अहिल्या उस समय गौ का गोबर उठाकर हाथ धोने जा रही थी। पिता ने उसके दोनों हाथ पकड़कर खुद धुलाते हुए गद्गद् कंठ से कहा- "बेटा ! अब तेरे यह हाथ गोबर में कभी न सनेंगे। अब यह इंदौर की राज-सत्ता में सहायक होंगे। अहिल्या को तो अपने पिता का यह क्रिया-कथन ही नहीं समझ में आया, उसकी माता भी विस्मय के साथ यह कहती हुई आ गई कि आज आप यह क्या कर रहे हैं और क्या कह रहे हैं? हाँ, ठीक कह रहा हूँ। इंदौर के महाराज मल्हार राव होल्कर ने अहिल्या को अपनी पुत्र-वधू बनाने के लिए आज ही सबेरे तो मुझसे माँग लिया है; इसी याचना के लिए ही तो उन्होंने मुझे बुलाया था। अहिल्या यह सुनते ही कोठरी में भाग गई और वे दोनों उसे ऐसे देखते रहे, मानो वे अहिल्या के माता-पिता होने योग्य न थे।
माता-पिता बेटी की विदाई के विषय में कुछ बात करने ही वाले थे कि तब तक बाहर से आवाज आई, "मनकोजी ! कन्या को अभी जैसी बैठी हो भेज दीजिये, महाराज ने पडा़व उठा दिया है।" मनकोजी ने बाहर आकर देखा-चाँदी के डंडों और जरीदार मखमली उहार की पालकी द्वार पर रक्खी हुई थी। महाराज का प्रधान-प्रबंधक खडा़ प्रतीक्षा कर रहा था। साथ में अनेक सूत और सिपाही भी थे।
अहिल्या के पास कोई और वस्त्र थे ही नहीं, बदलाये भी क्या जाते? उसी सफेद मोटे गाढे़ की धोती में, जोकि वह पहने हुऐ थी,
पालकी में आदर और आर्द्रतापूर्ण वातावरण में बिठा दी गई। सिसकती हुई अहिल्या को लेकर पालकी ऐसे चल दी जैसे अनासक्त कर्मयोगी की साधना उसके उत्सर्ग पुण्यों को पावन दिशा में ले जाती है और भारी हृदय से घर आकर मनकोजी ने अपने को ऐसा हल्का अनुभव किया कि मानों वे जीवन मुक्त हो गये हों।
अरे ! मनुष्य में देवत्व के प्रतिनिधियों ! अभ्युदय के प्रत्यूष-पर्व के समान सौभाग्य के प्रतीकों ! सात्विकता की संतान सद्गुणों ! तुम्हारी जय हो ! तुम्हें अपनाकर जमीन का एक जर्रा भी आकाश का चाँद बन जाता है तब अहिल्या तो एक कन्या थी, पवित्र मानवी थी।
महाराज होल्कर इंदौर लौट चले। अहिल्या के आगे-आगे अपनी सवारी में वे इतने प्रसन्न, पुलकित एवं उत्साहपूर्वक जा रहे थे, मानो दिग्विजय करके लौटे हों। राजधानी पहुँचकर मल्हार राव ने अहिल्या का विवाह अपने पुत्र खंडेराव के साथ कर दिया।
अब अहिल्या इंदौर की युवरानी बन गई थी। यद्यपि वह न तो राजपुत्री थी और न राज-घरानों से उसका कोई संपर्क ही रहा था। तथापि उसे राज-वधुत्व के निर्वाह में कोई कठिनाई नहीं हुई। उसके पास शील, शालीनता, अनुशासन, विनम्रता, गंभीरता, धीरता, और आकल्पकता के ऐसे मूल गुण थे, जिनके आधार पर किसी भी समाज और किसी भी स्थिति में सफलतापूर्वक व्यवहार किया जा सकता है।
एक छोटी स्थिति से इतनी बडी़ पदवी पर आ जाने पर भी अहिल्या के हृदय में किसी प्रकार के अभिमान का अनुभव नहीं हुआ। उसने अभिमान के स्थान पर उत्तरदायित्व का ही अधिक अनुभव किया। ऐश्वर्यपूर्ण राजमहल की परिस्थितियों में पहुँचकर भी उसकी सादगी तथा सरलता में कोई अंतर न आया। बल्कि उसके आगमन से राजमहल के वातावरण में भी सात्विकता का समावेश हो गया।
युवरानी हो जाने पर भी स्थैर्यवती अहिल्या ने सादे वस्त्र, साधारण भोजन और सरल व्यवहार का परित्याग नहीं किया था। मनुष्य को अपनी उन्नति के आधारों का पता रहता है और जिनको पता नहीं रहता-उनकी उन्नति एक योजनाबद्ध कार्यक्रम के अनुगत नहीं होती। वह एक आकस्मिकता, संयोग अथवा घटना मात्र होती है। ऐसी अनजान उन्नति पर मनुष्य का कोई नियंत्रण नहीं रहता और वह जिस प्रकार संयोग के समान आती है वैसे ही घटना के समान बीत जाती है।
इसका कारण यह होता है कि अयोजक व्यक्ति को अपनी उन्नति के कारणों तथा आधारों का ज्ञान नहीं रहता, अस्तु वह अपनी अस्त-व्यस्तता में उनकी रक्षा नहीं कर पाता। आधार उखड़ जाने से उसकी उन्नति का भवन टूटकर गिर पड़ता है। इसके विपरीत जो कर्मयोगी अपने जीवन का विकास क्रमबद्ध योजना के अनुसार किया करते हैं, उन्हें अपनी सफलता के कारण और आधार ज्ञात रहते हैं और वे हर मूल्य पर उनकी रक्षा करके अपनी सफलता तथा उन्नति को स्थायी बना लेते हैं।
इसी को बुद्धिमत्तापूर्ण जीवन-यापन कहते हैं। यद्यपि अहिल्या ने किसी अलभ्य जीवनोन्नति के लिए उसके अधार अपने सात्विक गुणों का आराधन नहीं किया था, यह उसके सहज स्वभाव के ही अंग थे। तथापि जब उसे न चाहते हुए भी अप्रत्याशित रूप से उन गुणों का पुरस्कार मिल ही गया तो अवश्य ही उसने उस पर विचार किया और समझ लिया कि यह सब सम्मान उसका नहीं, उसके उन गुणों का है, जिन्हें वह अपने निश्छल तथा निर्लिप्त जीवन पद्धति के परिणामस्वरूप निसर्ग क्रम से पा सकी थीं। निदान वह अपनी उन्नति के उन आधारों के प्रति अधिकाधिक निष्ठावती हो गई और सावधानीपूर्वक उनकी रक्षा करने लगी। सावधानी अब उसके लिए अपेक्षित भी थी। एक तो वह अपने उस ग्रामीण जीवन से ठीक विपरीत परिस्थितियों तथा वातावरण में आ गई थी। जहाँ पूर्व जीवन में प्राप्त वातावरण उसके सात्विक तथा सरल गुणों का सहायक तथा सहयोगी था, वह वर्तमान स्थिति उनका विरोधी न सही परीक्षक अवश्य था। साथ ही अब अल्हड़ और निरपेक्ष जीवन क्रम से ऐसे महत्वपूर्ण स्थान पर आ गई थी, जिस पर रहकर मनुष्य का प्रत्येक कार्य एक अर्थ, एक प्रभाव और एक दूरगामी परिणाम रखता है। अतएव ऐसी अर्थ-द्योतक स्थिति में उदात्त उत्तरदायित्व ही संबल होता है, जिसके निरीक्षण में ही हर कदम प्रमाणिक तथा निरापद रूप से उठा सकना सहज एवं संभव होता है। अहिल्या ने वह उत्तरदायित्व धारण किया और अपने युक्त आचरण के कारण किसी को यह अवसर न दिया कि कोई उसके वर्तमान को लेकर उसके पूर्व जीवन की ओर संकेत कर सकता। गुणवती अहिल्या को अपने ग्रामत्व के साथ अपने राजत्व का सामंजस्य कर लेते देर न लगी। जो धैर्यवान अपने तथा अपनी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण कर सकने के अभ्यासी होते हैं, वे किसी भी स्थिति में संतुलन बनाए रखने में सफल रहा करते हैं। उसने अपने आदि गुणों को छोड़ना तो क्या, प्रस्तुत परिवर्तन से और भी नूतन तथा महान् बना लिया।
अहिल्या के सारल्य में उसके सेवा भाव ने और भी चमत्कार पैदा कर दिया। उसने पति, सास, श्वसुर तथा अन्य गुरूजनों की सेवा इस एकाग्र मन से की कि वह सबकी प्राणप्यारी बन गई। उन्हें ऐसा अनुभव होने लगा कि यदि अहिल्या उनके जीवन में न आई होती तो कदाचित् वे उस सुख, उस शांति और उस संतोष से अपरिचित रह जाते जो सत्संतानों से मिला करता है। अहिल्या की सेवा से द्रवित उस राजकुल का स्वाभाविक शासन का कठोर भाव बहुत कुछ विनम्र हो गया, जिसकी शीतलता उनके लिए एक नया अनुभव था। उन्होंने अपनी आत्मा में इस सत्य को स्वीकार कर लिया कि शासनजन्य अहंकार की अपेक्षा स्नेहजन्य शालीनता में अधिक सुख और गौरव है। अहिल्या ने कनिष्ठों को इतना स्नेह और सेवकों को इतनी करूणा प्रदान की कि वे सब उसकी रक्षा के लिए अधिक सजग तथा अनुशासित हो गए। स्वामियों की सौम्यता और सेवकों की अनुशासन वृद्धि से राजमहल में जिस संतुलन का समावेश हुआ, उसके कारण अब भय का नहीं मानवता का शासन स्थापित हो गया। राजमहल का आतंकपूर्ण तनाव शिथिल हो गया और सभी अपने-अपने स्थान पर एक स्वाभाविक सरलता का अनुभव करने लगे। एक दीपक के जल उठने से कक्ष की सारी वस्तुएँ अपने सहज अस्तित्व में आ जाती हैं। एक अहिल्या के आगमन से यदि राजमहल के कृत्रिम जीवन में स्वाभाविकता का समावेश हो गया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। एक सत्य संसार को प्रभावित कर लेता है और एक मनुष्य समाज को बदल डालता है। सात्विकता से सुशोभित गुणों में ऐसी ही अपरिमित शक्ति तथा सुंदरता होती है।
इतना सब होने पर भी अहिल्या अपने पूर्व जीवन को कभी न भूलती थीं। उसे अपनी उस गरीबी के प्रति बडी़ करूणा और ममता थी। उसकी इस विगत स्मृति ने उसे गरीबों तथा अभावग्रस्त लोगों के प्रति न केवल दया ही बल्कि आदर भावना भी विकसित हो गई थी। उसे संसार के सारे गरीब अपने बंधु जैसे अनुभव होते थे और वह यथासाध्य उनकी सहायता करती रहती थीं। दया और दानशीलता के गुण उसके पहले गुणों में जुड़कर स्थिर हो गये। पूजा का वह क्रम-जो उसके जीवन का एक अंग बना हुआ था, आज भी चल रहा था। आज की संपन्न स्थिति में भी उसने भगवान् की पूजा के उपकरणों में वही फूल और जल ही रखे थे। उसने उनमें पकवान, मिष्ठान्न अथवा अन्य धन-द्योतक वस्तुओं को शामिल नहीं किया था। अब वह अपनी प्रार्थना में इतना अवश्य कहने लगी थीं कि-हे भगवान् ! मैं आपकी वही अहिल्या हूँ। इस परिवर्तित स्थिति से उसे बदली हुई कोई दूसरी अहिल्या न समझें और वह शक्ति देते रहे, जिससे वह आजीवन वही सेविका बनी रहें, जो अपने विगत जीवन में थी। इस धन, इस वैभव और इस संपदा का समुचित उपयोग तो कर सकूँ, किंतु यह सब माया मुझमें भोग वृत्ति का दोष उत्पन्न न कर सके। आपने जो कुछ दिया, उसे आपका ही समझती रहूँ और आपके ही मार्ग में उसका उपयोग करती रहूँ। अंहकार, दंभ और वासनाओं के अभिशाप से बचाये रहें। मुझको ऐसी बुद्धि, ऐसा विवेक और ऐसी स्मृति दें कि मैं मानवता के सुंदर गुणों से विरत न हो सकूँ।"
अहिल्या ने अपने पूजा-उपकरणों में वैभव का समावेश नहीं किया, क्योंकि वह जानती थीं कि ऐसा करने से उसके दोष से हृदय में अहंकार, संपन्नता तथा धनाढ्यता का भाव जाग सकता है। अधनता से प्रभावित भक्ति भाव में जो निर्वेद और जो अध्यात्मिक दैन्य रहा करता है वह परमात्मा की करुणा का संपादन करता हैं वह वैभव के समावेश से न रहेगा। उसकी पूजा नीरस तथा भावनाहीन होकर निष्प्रभवता के कारण हल्की हो जायेगी। धन से देवता की पूजा करने के बजाय वह उसको परमार्थ पथ में व्यय करने को अधिक उपयुक्त मानती थी। अहिल्या अपनी इस मान्यता को कार्यान्वित भी करती थी। अहिल्या को अपनी व्यक्तिगत वृत्ति राजकोष से मिलती थी, उसका बहुत बडा़ अंश तो वह परमार्थ एवं परोपकार में खर्च करती थीं। वह भोजन करने से पहले कई भूखों को भोजन देती थीं, नंगों को वस्त्र और आवश्यकताग्रस्त पात्रों को धन भी दिया करती थीं। अनेक विधवाओं को सहायता और छात्रों को छात्रवृत्ति दिया करती थी। अहिल्या के इन सत्कर्मों ने न केवल अधिकाधिक तेजवती ही बना दिया था, बल्कि जनता में भी बडी़ ही श्रद्धा तथा लोकप्रियता का पात्र भी बना दिया था।
परिस्थितियों के कारण अहिल्या को विद्याध्ययन का अवसर न मिल सका था। उसकी यह इच्छा मन में ही रह गई थी। पर ज्यों ही उसकी परिस्थितियाँ उसके अनुकूल हुई, उसने अध्ययन का कार्यक्रम प्रारंभ कर दिया। इस प्रगति में उसे बहुत कुछ सहायता अपने पति खांडेराव से मिली। तथापि वह सहायता पर्याप्त नहीं थी, राज-काज के कारण बहुत बार खंडेराव कई-कई दिन तक अहिल्या को कुछ पढा़ न पाते थे। अहिल्या ने अपनी यह इच्छा अपने श्वसुर पर प्रकट की। कहना था कि तत्काल अहिल्या की पढा़ई का प्रबन्ध कर दिया गया।
जो वृद्ध महाशय अहिल्या को पढा़ने आते थे, अहिल्या उनके प्रति बडा़ आदर का भाव रखती थी। एक छात्र के अनुशासन और विनम्रता के गुणों का वह पूरी तरह से पालन करती थी। वह अपने गुरू के सम्मुख युवराज्ञी के रूप में कभी न आती थी। गुरू के सम्मुख उसका आगमन एक सुशील छात्रा तथा शिष्या के रूप में ही होता था। उसकी इस शिष्टता ने गुरू की सारी सद्भावनाएँ प्राप्त करलीं, विद्यार्थी का अध्यवसाय और गुरू की सद्भावनाएँ जब दोनों ही अध्ययन काल में परस्पर जुड़ जाते हैं, तब अध्ययनार्थी की प्रतिभा में सरस्वती का जागरण आप से आप होने लगता है। अहिल्या के साथ भी वैसा ही हुआ। उसे रोज का पाठ रोज ही याद होने लगा और इस प्रकार वह शीघ्र ही एक अच्छी विद्यावती बन गई। शिक्षा के प्रकाश ने अहिल्या के गुण-गौरव को और चमत्कृत कर दिया। अशिक्षा के एक दोष के कारण अहिल्या का जो गुणी जीवन अभी अपूर्ण-सा दिखता था, वह जल्दी ही पूर्ण हो गया।
सेवा, उत्तरदायित्व, कर्तव्यनिष्ठा और अब शिक्षा से प्रसन्न होकर मल्हार राव ने अहिल्याबाई को राजकाज की शिक्षा भी देनी शुरू कर दी। उन्हें पुत्र की अपेक्षा अपनी पुत्र-वधु के गुणों में अधिक विश्वास था। यह एक आदरपूर्ण उपलब्धि थी, एक गहरा सम्मान था। तथापि अहिल्या में इससे भी कोई मनोविकार न आया और यथावत् सौम्य, सरल तथा शालीन बनी रही।
हल्के धरातल वाली स्त्रियाँ प्रायः पति से आगे बढ़ जाने पर ठीक तथा निरंकुश हो जाया करती हैं और पति पर शासन करने का प्रयत्न किया करती हैं। किंतु अहिल्याबाई ऐसे हल्की अथवा उथली मनोभूमि वाली नारी न थी, उसमें भारतीय ललना का आदर्श कूट-कूट कर भरा हुआ था। वह दांपत्य जीवन में शासन भावना को पारस्परिक प्रेम के लिए कुठार समझती थी। वह जानती थी कि जो सुख, जो संतोष और जो शीतलता पारस्परिक प्रेम में होता है, वह शासन अथवा अधिकार भावना में नहीं होता। वह शासन के मद पीकर दांपत्य सौम्यता को बलिदान करने वाली नारी न थी। सेवा के सुख को अनुभव कर लेने वाली सत्नारियाँ निरंकुशता की तीक्ष्णता को कभी पंसद नहीं करती। जो सुख और सुरक्षा पति के आधीन रहने में होती है, वह उच्छृंखल, निरंकुश अथवा स्वच्छंद रहने में कहाँ ? पति के प्रति पत्नी का संपूर्ण आत्म-समर्पण ही तो वह वशीकरण है, जो पुरूष को नारी की सुकुमार मुट्ठी में दृढ़ता से ला दिया करता है। बुद्धिमान् अहिल्या ललनाओं के इस जादू से अनभिज्ञ नहीं थी। अपनी प्रिया की महत्ता बढ़ते देखकर खंडेराव का प्रेम उस पर और बढ़ गया। वे यह सोचकर अति प्रसन्न तथा पुलकित रहने लगे कि राज्य संचालन में उनके लिए एक बहुत विश्वस्त,अभिन्न तथा अनुकूल साथी, सचिव एवं अंतरंग का निर्माण हो रहा है। सोने जैसी अहिल्या अलंकार के रूप में गढी़ जा रही थी और उसकी अनुकूलता, उपयुक्तता एवं पात्रता भरपूर सिद्ध होती जा रही थी।
बहू हो तो अहिल्या जैसी, पर श्वसुर भी हो तो महाराज मल्हार होल्कर जैसा उदार तथा महान् ! अहिल्या को राज-काज का व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए, जब कभी वे किसी काम से बाहर जाते थे तो शासन सूत्र अहिल्या को सौंप जाते थे। अहिल्या इस उत्तरदायित्व को पूरी तत्परता, संलग्नता तथा सत्यता के साथ पालन करती थी। वह प्रमाद में पड़कर न तो किसी काम को कर्मचारियों पर टालती थी और न किसी काम में विलंब करती थी। जो काम जिस समय करना आवश्यक होता था, उस काम को वह उसी समय ही करती थी। उतावली अथवा विलंब को वह अपने पास भटकने न देती थी।
दीर्घसूत्रता अथवा अपेक्षा उसकी सीमा से बाहर की बात थी। काम छोटा हो अथवा बडा़, वह उसको एक जैसी तत्परता तथा लगनशीलता से किया करती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि वह राज-काज में आश्चर्यजनक रूप से दक्ष हो गई। उसने प्रयत्नपूर्वक आत्मोत्सुकता से राज्य के सभी विभागों के कामों को प्रायः समझ-बूझ लिया था। अहिल्या को शासन-सूत्र देकर जाने के बाद जब महाराज मल्हार राव वापस आते थे तो पाते कि अहिल्या ने सौंपा हुआ काम इतनी निपुणता से किया हैं, जितनी की उन्हें आशा न थी। इस प्रकार अवसर का लाभ उठाकर और अपनी समग्र मन, बुद्धि की शक्ति लगाकर अहिल्या जल्दी ही एक कुशल प्रशासिका बन गई। श्रम एवं संलग्नता एक ऐसा आधार मूल गुण है, जो अपने को आश्रित करने वाले को ऐसा कोई काम नहीं, जिसमें कुशल न बना दे। इन गुणों के धनी लोग सेवा से लेकर शासन और शिल्प से लेकर व्यापार तक के काम को एक ही तत्परता, लगन तथा पूर्ण निष्ठा के साथ समान रूप से ही किया करते हैं, जिससे उन्हें किसी भी क्षेत्र में क्यों न डाल दिया जाए, वे उसमें सफल होकर दिखला देते हैं। अहिल्या योग्य होती गई और मल्हार राव का विश्वास अपनी पुत्र-वधू की योग्यता में दिन-दिन बढ़ता गया। अहिल्याबाई की यह प्रतिष्ठा उसकी उस कर्तव्यनिष्ठा का पुरस्कार ही समझना चाहिए, जिसका विकास उसने अपने जीवन में क्रम से नियम एवं संयमपूर्वक किया था।
विवाह के बाद अहिल्याबाई के एक पुत्र और एक पुत्री दो संतानें हुई, जिनका नाम मालीराव और मुक्ताबाई रखा गया। इस प्रकार नौ वर्ष तक शिक्षा-दिक्षा के बीच आनंद और उत्साह के साथ जीवन बिताने के बाद अहिल्याबाई की अग्नि-परीक्षा प्रारंभ हुई। धैर्यवती अहिल्याबाई को जिस अग्नि-परीक्षा के बीच से गुजरना पडा़, उसमें से अविचलित रहकर निकल जाना उन जैसे ही लक्ष्यवान् व्यक्तियों का काम है। अपने जीवन की अग्नि-परीक्षाओं को अहिल्याबाई ने अपने उस आत्म-विश्वास एवं आत्म-संयम के बल पर ही उर्तीण किया, जिसका संचय उन्होंने सतत् उपासना के आधार पर किया था।
उपासना के माध्यम से परमात्मा के समीप रहने वाले व्यक्तियों पर जिन गुणों का अनुग्रह होता है, उनमें से धैर्य तथा सहिष्णुता मुख्य हैं। संसार में दुःखद घटनाएँ सदा संभाव्य मानी गई हैं। वे प्रायः सभी के जीवन में आती हैं। तथापि धीर व्यक्ति उनको सामान्य घटनाओं की तरह सहकर अपनी आत्मा को प्रभावित नहीं होने देते। अहिल्याबाई में धैर्य तथा सहिष्णुता की कमी नहीं थी।