मातृभूमि की सच्ची सेविका- श्रीमती सरोजिनी नायडू
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लगभग सौ वर्ष पूर्व की बात होगी कि इंगलैड की एक निजी गोष्ठी में एक १५- १६
वर्ष की भारतीय बाला उस देश के दो- चार प्रसिद्ध साहित्यिकों
से वार्तालाप कर रही थी। अंग्रेजी साहित्य का प्रसिद्ध आलोचक एडमंड गोसे भी उनमें से एक था। कुछ सोच- विचार कर उसने अपनी कुछ काव्य- रचनाएँ गोसे के हाथ में दीं और कहा- "इनके विषय में अपनी सम्मति देने की कृपा करें।"
गोसे ने बडे़ ध्यान से उन रचनाओं को पढा़, उन पर विचार किया और फिर कहने लगा- "शायद मेरी बात आपको बुरी जान पडे़, पर मेरी सच्ची राय यही है कि आप इन सब रचनाओं को रददी की टोकरी में डाल दें। इसका आशय यह नहीं कि यह अच्छी नहीं है। पर तुम जैसी एक बुद्धिमती भारतीय नारी से, जिसने पश्चिमी भाषा और काव्य- रचना में दक्षता प्राप्त कर ली है, हम योरोप के वातावरण और सभ्यता को लेकर लिखे गये काव्य से तुलना की अपेक्षा नहीं करते। वरन् हम चाहते हैं कि आप हमको ऐसी रचनाएँ दें, जिनमें हम न केवल भारत के वर पूरे पूर्व की आत्मा के दर्शन कर सकें।"
अपनी रचनाओं की यह आलोचना उस कवयित्री को बहुत हितकर जान पडी़ और उसी दिन से उसने गोसे को अपना गुरू मान लिया। उसके पश्चात् उसने जो काव्य- रचना की, उसमें योरोप की नकल करने के बजाय भारत और पूर्व में अंतर्निहित विशेषताओं के दर्शन ही योरोप वालों ने किये और सर्वत्र उनका बडा़ सम्मान होने लगा।
यह बाला और कोई नहीं 'भारत- कोकिला' के नाम से प्रसिद्ध श्रीमती सरोजिनी नायडू (सन् १८७९ से १९४९) ही थीं। वे एक जन्मजात कवयित्री थीं और अंग्रेजी भाषा पर इनका इतना अधिकार था कि उनकी बारह वर्ष की आयु में लिखी हुई कविताओं की भी लोगों ने बडी़ प्रशंसा की। उनकी शिक्षा- दीक्षा भी विशेष रूप से योरोप में हुई थी और वे वहाँ के शिष्टाचार और रहन- सहन के नियमों में पारंगत थीं। पर इतना होने पर भी वे भारतीय संस्कृति को ही सर्वश्रेष्ठ मानती थीं और उसके लिये उनको बडा़ गौरव था। इसका वे सदैव कितना अधिक ध्यान रखती थीं, इसका कुछ आभास एक भारतीय पत्रकार के निम्न संस्मरण से हो सकता है-
श्री रामकृष्ण नामक युवक को एक छात्रवृत्ति अमेरिका जाकर पत्रकारिता की उच्च शिक्षा प्राप्त करने को दी गई। विदेशों के रहन- सहन का कोई अनुभव न होने से उन्होंने श्रीमती नायडू से भेंट की और कहा- "मैं ऐसी सूचनाओं की तलाश में हूँ जिनसे अमेरिका की सही झाँकी मुझे मिल सके। इस संबंध में मैं कई लोगों से बातचीत कर चुका हूँ और पुस्तकें भी काफी संख्या में पढ़ डाली हैं। मेरी इच्छा है कि जब मैं वहाँ की जमीन पर पैर रखूँ तो कोई मुझे वहाँ की सभ्यता, संस्कृति से अनभिज्ञ न समझ पाये?"
श्रीमती नायडू- "लेकिन खुद अपने देश के विषय में तुमने कितनी जानकारी संग्रहित की है? मुझे मालूम है, तुम्हें पढ़ने- लिखने का शौक है। गीता से लेकर गौतम और गांधी तक सबको पढ़ चुके होंगे तुम, इसका भी मैं विश्वास कर सकती हूँ। लेकिन अपनी उस धरती, उस धरती पर रहने वाले लोगों के बारे में तुम्हें कितनी जानकारी है, जिस पर तुम खुद पैदा हुए हो, पले, पनपे और बढे़ हो? तुम्हें इस बात पर विश्वास है कि क्या तुम विदेश पहुँचकर अपने प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर सकोगे?
यह थीं श्रीमती सरोजिनी की विचारधारा, जिसने उन्हें भारत माता की एक सच्ची पुत्री बना दिया था। वे कहती थीं कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है और संकुचितता को त्यागकर संसार का सब तरह का जितना अधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सके, करना अच्छा ही है। पर यदि कोई विदेशी सभ्यता- संस्कृति की जानकारी की धुन में अपनी सभ्यता को भूल जाय, तो यह एक अपराध होगा।
श्रीमती नायडू यद्यपि बंगाली थीं पर उनके पूर्वज बहुत समय पहले हैदराबाद (दक्खिन) में आ बसे थे। सरोजिनी के पिता डॉ० अघोरनाथ चट्टोपाध्याय का जन्म हैदराबाद में ही हुआ था और वे वहाँ पर एक बडे़ सरकारी पद पर काम करते थे। वे स्वंय बड़े़ विद्वान् थे और इंगलैंड जाकर उन्होंने विज्ञान की सर्वोच्च उपाधि डी॰एस॰सी॰ प्राप्त की थी। इसलिए सरोजिनी को आरंभ से ही अंग्रेजी भाषा और रहन- सहन से परिचित होने का सुयोग प्राप्त हो गया। कुछ बडी़ हो जाने पर तो अघोरनाथ जी ने उसे पढ़ाने के लिए अंग्रेजी शिक्षिका रख दी थी। सरोजिनी पढ़ने में काफी परिश्रम करती थीं। इसके फलस्वरूप उन्होंने बारह वर्ष की आयु में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। उसी समय उनकी एक रचना पर प्रसन्न होकर, हैदराबाद के नवाब ने उनको विलायत जाकर अध्ययन करने के लिए एक बड़ी छात्रवृत्ति दे दी, जिससे वह चौदह वर्ष की आयु में ही वहाँ पहुँचकर 'किंग्स कॉलेज' में दाखिल हो गईं।
यद्यपि वर्तमान समय में बहुसंख्यक मुसलमानों की विचारधारा इन विचारों के अनुकूल नहीं है और पाकिस्तान बनाकर तो उन्होंने 'मातृभूमि' के साथ विश्वासघात किया ही है, तो भी हम संकीर्ण सांप्रदायिकता को अच्छा नहीं बतला सकते। इससे प्रत्येक दल की हानि ही होती है और यह मानवता के भी विरूद्ध है। विकास सिद्धांत के अनुसार मनुष्य ने जो कुछ प्रगति की है, वह सहयोग और संगठन द्वारा ही संभव हो सकी है। अकेला मनुष्य जंगली अवस्था से शायद ही छुटकारा पा सकता। पर जैसे- जैसे सहयोग का क्षेत्र विस्तीर्ण होता गया, मनुष्य अपनी शक्ति को बढ़ाकर नये- नये क्षेत्रों पर अधिकार करता गया। इसलिए श्रीमती नायडू ने एकता के लिए जो विचार प्रकट किये थे, वस्तुतः देश और समाज की दृष्टि से कल्याणकारी ही थे। यह दूसरी बात है कि एक तीसरी शक्ति की चालों से दोनों पक्षों का मतभेद बढ़ता गया, जिससे अंत में करोड़ों हिंदू- मुसलमानों को हानि उठानी पड़ी।
हिंदू- मुस्लिम संस्कृतियों के समन्वय पर अधिक जोर देने से कुछ लोग श्रीमती नायडू पर मुसलमानों की पक्षपाती होने का आरोप लगाते हुए सुने गए हैं। पर यह उनका अज्ञान ही है। श्रीमती नायडू ने देश और विदेशों में सदैव भारत की प्राचीन संस्कृति की प्रशंसा की थी। बड़े गर्व के साथ कहा करती थीं- मैं उस जाति की वंशजा हूँ, जिसकी माताओं के समक्ष सीता की पवित्रता, सावित्री के साहस और दयमंती के विश्वास का आदर्श है।"उनकी इस मनोभावना पर ध्यान देने पर कोई भी उन्हें हिंदू- संस्कृति से प्रतिकूल अथवा उदासीन कहने का साहस नहीं कर सकता।
देश- सेवा की लगन-
इस तरह आरंभ से ही विदेशी वातावरण में रहने से अनेक लोगों को यह आशंका होने लगती है कि ऐसा व्यक्ति अपनी जातीयता के प्रति उपेक्षा प्रदर्शित करने लग जायेगा। इसमें संदेह नहीं कि यह आंशका सर्वथा निर्मूल नहीं है और गत सौ- पचास वर्षों में बहुसंख्यक व्यक्ति उच्च अंग्रेजी शिक्षा पाकर 'काले अंग्रेज' बन चुके हैं। पर यह आक्षेप सब लोगों पर लागू नहीं होता, वरन् अरविंद, सरोजिनी नायडू ओर सुभाष बाबू के उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि जो प्रतिभाशाली वास्तव में ज्ञान की उच्च चोटी पर पहुँच जायेगा, वह अपनी जातीयता का और भी अधिक सुदृढ़ अनुयायी बन जायेगा। श्रीमती सरोजिनी के संबंध में यह बात पूरी तरह से सत्य सिद्ध हुई। सन् १८९८ में इंगलैंड से लौटने पर उन्होंने मेजर नायडू से विवाह कर लिया और इसके ४ वर्ष बाद ही उनका ध्यान भारतीय राजनीति की तरफ आकर्षित होने लग गया। सन् १९०८ में जब वे भारत के प्रसिद्ध नेता स्व० श्री गोखले से मिलीं, तो उन्होंने इनसे कहा-
"यहाँ मेरे साथ खड़ी हो जाओ और इन तारों तथा पहाडि़यों को साक्षी बनाकर अपना जीवन, योग्यता, विचार, स्वप्न और सभी कुछ भारत माता को अर्पित कर दो। हे कवयित्री ! इस पहाड़ी की चोटी से महान् सत्य के दर्शन करके तुम भारत के सहस्त्रों गाँवों में बसे हुए किसानों तक आशा का संदेश फैला दो। तभी तुम्हारी यह सदैव प्रदत्त अनुपम काव्य- शक्ति सार्थक हो सकेगी।"
और यही मार्ग है, जिस पर चलकर किसी सच्ची आत्मा वाले और कर्तव्य परायण व्यक्ति को सांत्वना और शक्ति मिल सकती है। अगर कोई मनुष्य अपनी योग्यता और सामर्थ्य का उपयोग अपने ही लिये करता है, समाज के उत्थान और उपकार का ध्यान नहीं रखता, तो वह कभी वास्तविक सम्मान का अधिकारी नहीं हो सकता। ऐसे ही व्यक्तियों के विषय में इंगलैंड के कविवर ‘स्काट’ ने लिखा है- ।
केवल स्वारथ साधन में ही सब समय गँवायो।
मन स्वदेश हित साधन में कबहूँ न लगायो।।
चाहे पदवी बाकी होय बहुत ही भारी।
दुनिया बाको नाम बड़ो कर जाने सारी।।
सुरपति के अनुकूल होय बाको अतुलित धन।
कविता वाके हेत तऊ नहिं करहहिं कविगन।।
श्रीमती नायडू ने इस तथ्य को आंरभ से ही समझ लिया था और इसलिए एक संपन्न घराने की सुकुमार और सुसंस्कृत महिला होते हुए भी उन्होंने देश- सेवा के उस मार्ग को चुना, जिसमें त्याग और तपस्या की अनिवार्य आवश्यकता होती है। जब उनसे यह प्रश्न किया गया कि आपने एक प्रसिद्ध कवयित्री होते हुए भी राजनीति के कार्य में भाग लेना क्यों स्वीकार किया, तो उन्होंने कहा-
"बार- बार लोगों ने मुझसे प्रश्न किया है कि तुम कवियों स्वप्नलोक की हस्तिदंत- निर्मित मीनार के उच्च शिखर को छोड़कर इस हाट- बाजार में क्यों उतर आई हो? क्यों काव्य की गायिका और मुरलिया का रूप छोड़कर, उन लोगों की रणभेरी बनने के लिए अग्रसर हुई हो, जो कि युद्ध के लिए आह्वान कर रहे हैं? मेरा उत्तर यह है कि कवि का कर्तव्य गुलाब की पुष्प- वाटिका में स्थित हस्तिदंत- निर्मित मीनार के एकांत में, दुनिया से अलग बैठे रहना नहीं हैं, बल्कि उसका स्थान सर्वसाधारण के बीच सड़क की धूलि में है। उसका भाग्य तो बँधा है, संग्राम के उतार- चढ़ाव के साथ ही। सच तो यह है कि उसके कवि होने की सार्थकता ही इसमें है कि संकट की घड़ी में, निराशा एवं पराजय के क्षणों में, वह भविष्य के निर्माण का स्वप्न देखने वालों को साहस और आशा का संदेश दे सके। इसलिए संग्राम की इस घड़ी में, जबकि देश के लिए विजय प्राप्त करना तुम्हारे ही हाथों में हैं, मैं एक स्त्री, होकर अपना घर आँगन छोड़कर आ खड़ी हुई हूँ इस हाट- बाजार में। और मैं, जो कि स्वप्नों की दुनिया में विचारने वाली रही, आज यहाँ खड़ी होकर पुकार रही हूँ- साथियों, आगे बढ़ो और विजय प्राप्त करो।
राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले श्रीमती सरोजिनी ने इसके उतार- चढ़ाव पर अच्छी तरह विचार कर लिया था। वे जानती थीं कि इस प्रकार का परिवर्तन हो जाने पर, आज जो अंग्रेज उनके प्रशंसक और पुरस्कर्ता रहे हैं, विरोधी बन जायेंगे। खासकर भारत सरकार स्वराज्य के आंदोलन करने वालों को जिस निगाह से देखती थीं, उसको समझते हुए इस क्षेत्र में उस समय कठिनाई और हानि के अतिरिक्त और कोई आशा नहीं थीं। फिर भी जब उन्होंने देखा कि हमारा देश दिन पर दिन गरीब बनता जा रहा है, जिससे करोड़ों लोगों को भरपेट अन्न और वस्त्र भी नहीं मिलते। लाखों बालक कूड़े में से उठाकर चाहे जो खा लेते हैं, स्त्रियाँ वस्त्राभाव से ठीक तरह लज्जा- निवारण भी नहीं कर सकती। ऐसी दशा में सुरम्य प्राकृतिक दृश्यों का अवलोकन करके मधुर कविता बनाते रहना, निरर्थक ही नहीं कर्तव्यहीनता है। ऐसे समय में तो प्रत्येक नर- नारी का कर्तव्य है कि चाहे उसके विचार, रुचि, उद्देश्य कुछ भी हों, वह देश के उद्धार के लिए यथाशक्ति प्रयत्न अवश्य करें।
यही विचार करके वे कांग्रेस में भाग लेने लगीं। धीरे- धीरे उनका प्रभाव देश की जनता पर पड़ने लगा। स्त्री होने और स्वर- माधुर्य से श्रोतागण उनके भाषण सुनने को उत्सुक रहते थे और कुछ समय बाद सभा- सम्मेलनों में उनकी इतनी माँग होने लगी कि उसकी पूर्ति कर सकना भी कठिन हो गया। सन् १९०७ से १९१५ तक कांग्रेस पर नरमदल वालों का अधिकार रहा, जिसके नेता गोखले, फीरोजशाह मेहता, डी॰वी॰ वाचा, तेजबहादुर सप्रू आदि थे। इसलिए वे उन्हीं के सिद्धांतानुसार जनता की विविध माँगों को पूरा कराने का आंदोलन करती रहती थीं।
फिर जब श्रीमती बेकेंट ने होमरूल आंदोलन चलाया तो ये उनका साथ देने लगीं और इंगलैंड जाकर भारतीय माँगों के पक्ष में जोरदार आंदोलन किया। श्रीमती नायडू ने विशेष रूप से जाँच करने वाली कमेटी के सामने भारतीय स्त्रियों का पक्ष उपस्थित किया। इस कार्य को उन्होंने इतने उत्तम ढ़ंग से किया कि कमेटी अध्यक्ष ने उनको धन्यवाद दिया और कहा- "यदि अनुचित न समझा जाय तो मैं यह कहूँगा कि आपके आने से हमारे ‘नीरस साहित्य’ में सरस कविता की एक रेखा मिल गई।" उन्होंने भारतीय स्त्रियों के पक्ष में विलायत की सभाओं में अनेक प्रभावशाली भाषण भी दिये।
असहयोग आंदोलन में-
वे अभी इंगलैंड में काम कर ही रही थीं कि गांधी जी ने भारतवर्ष में असहयोग का शंखनाद कर दिया। ऐसे अवसर पर उनको देश से बाहर रहना ठीक न जान पडा़ बस वे तुरंत भारत चली आईं और महात्मा गांधी के संदेश को चारों ओर घूमकर नगर- नगर में पहुँचाने लगीं। इस संबंध में उन्होंने इतना अधिक काम किया कि वे बीमार पड़ गईं। इसके बाद डॉक्टरों की सलाह से उनको पुनः इंगलैंड जाना पड़ा। पर वहाँ पहुँचकर भी वे चुपचाप नहीं बैठी रहीं। उन्होंने जालियाँवाला हत्याकांड और पंजाब के अन्य नगरों में होने वाले अत्याचारों के संबंध में इतना अधिक प्रचार किया कि वहाँ की जनता सब बातों को समझकर सरकारी नीति के विरुद्ध हो गई। नतीजा यह हुआ कि पार्लियामेंट में इस संबंध में सवालों की झड़ी लग गई। अंत में सरकार को अपनी भूल स्वीकार करके कहना पड़ा कि भारतीय अधिकारियों ने बड़ी गलती की है।
इन्हीं दिनों भारतीय मुसलमानों का एक डेप्युटेशन ‘खिलाफत’ के संबंध में विलायत गया था। उसने ब्रिटिश सरकार से कहा कि अगर वह ‘खिलाफत’ का अंत करने की कोई कार्यवाही करेगा तो भारत के मुसलमान भी अंग्रेजों के विरुद्ध हो जायेंगे। श्रीमती नायडू ने भी इस डेप्युटेशन को सहयोग दिया और कहा कि यदि ‘खिलाफत’ आंदोलन आंरभ किया गया तो वह केवल मुसलमानों का ही नहीं होगा, वरन् हिंदू भी उसमें भाग लेंगे, क्योंकि हम जिस प्रकार अपनी स्वाधीनता की माँग करते हैं, उसी प्रकार दूसरों की स्वाधीनता की भी कदर करते हैं, हम इस बात को पंसद नहीं करते कि सैनिक शक्ति की दृष्टि से बलवान् देश किसी निर्बल देश को अन्यायपूर्वक दबाने की चेष्टा करें। संसार में छोटे‐बड़े सभी को अपने घर मे बिना किसी प्रकार के बाह्य हस्तक्षेप के रह सकने का अधिकार मिलना चाहिये।
इस विदेश- यात्रा के अवसर पर योरोप में होने वाले 'अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन' में भी आपने भाग लिया। आपके भाषण का वहाँ इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि भारत के संबंध में सब प्रतिनिधियों की धारणा ही बदल गई। अभी तक तो अंग्रेज लेखक उनको यही बतलाया करते थे कि भारत एक पिछड़ा हुआ देश है, और हम वहाँ के अर्द्धसभ्य लोगों को शिक्षा देकर सभ्य और सुसंस्कृत बन रहे हैं। पर जब उन्होंने श्रीमती सरोजिनी का विद्वतापूर्ण भाषण सुना और अनुभव किया कि उनका अंग्रेजी भाषा और साहित्य पर इतना अधिकार है, जितना कि अनेक अंग्रेजी विद्वानों का भी नहीं है, तो उनका भ्रम दूर हो गया। वे कहने लगीं कि जिस देश में ऐसी विदुषी महिलायें हो सकती हैं, उसे 'असभ्य' कैसे कहा जा सकता है? सम्मेलन में श्रीमती नायडू की भारतीय वेशभूषा का भी बड़ा प्रभाव पड़ा और योरोप की स्त्रियों में भी इस देश में पहनी जाने वाली साड़ी के प्रति आकर्षण उत्पन्न होने लगा।
भारत सरकार से संघर्ष-
इधर श्रीमती नायडू विलायत में भारत के स्वराज्य आंदोलन का समर्थन करके वहाँ की जनता को उसके पक्ष में कर रही थीं और उधर भारत में असहयोग आंदोलन गंभीर रूप धारण करता चला जा रहा था। यह देखकर वे शीघ्र ही वापस आईं और गांधी जी द्वारा प्रस्तुत किये गये असहयोग के प्रतिज्ञा- पत्र पर सबसे पहले उन्होंने हस्ताक्षर किये। उनके अनुसार उन्होंने अपनी ‘केसरी हिंद’ की उपाधि, जिसको उस जमाने में एक बड़ी प्रतिष्ठा की चीज माना जाता था, त्याग दी और इस संबंध में भारत के वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड को एक पत्र में लिखा-
"इस समय कितने ही वर्षों से भारतीय जाति को असहाय समझकर अपमानित किया जा रहा है। उसका घोर दमन किया जा रहा है और उसके साथ जो प्रतिज्ञाएँ की गई थीं, वे भंग की जा रही हैं। इन सब बातों के अतिरिक्त दो और बड़े पाप किये गये हैं। एक तो पंजाब का हत्याकांड और दूसरा मुसलमानों को 'खिलाफत' के संबंध में दिये गए आश्वासन की अवहेलना। यह मेरे सम्मान और विचारों के प्रतिकूल बात होगी कि मैं इन अत्याचारों को देखती रहूँ और उस सरकार का, जो ब्रिटिश न्याय का तिरस्कार कर रही हैं, समर्थन करती रहूँ।"
राजनीतिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं होता कि यह अन्यायी के विरुद्ध शस्त्र लेकर खड़ा हो जाय और उसे उचित दंड दे। पर उससे संपर्क न रखना, उसकी नीति का खुले रूप में विरोध करना, प्रत्येक न्यायप्रिय और अपनी आत्मा के प्रति सच्चे मनुष्य के लिए संभव है। श्रीमती नायडू ने उसी मार्ग का अवलंबन किया और भारत सरकार की अन्यायपूर्ण नीति के प्रति अपनी विरोधी- भावना उसकी प्रदान की हुई उपाधि को लौटाकर स्पष्ट कर दिया।
अब असहयोग ने एक घमासान आंदोलन का रूप धारण कर लिया था और श्रीमती नायडू ने अपने आपको पूर्णत या इस कार्य के लिए अर्पित कर दिया था। वे विनोद में कहा करती थीं कि- "मैं तो गांधीरूपी कृष्ण की मुरली हूँ और वास्तव में उन्होंने गांधी जी के संदेश को देश भर में फैलाने में और उनके प्रत्येक कार्य में सहायता पहुँचाते रहने में इतना अधिक परिश्रम किया कि उसका अनुमान किया जा सकना भी कठिन है।
उसी समय विलायत से ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ भारत- यात्रा के लिए आये। कांग्रेस ने सरकारी दुर्व्यवहारों के विरोध में उनके स्वागत का बहिष्कार करने का निश्चय किया और इसमें बहुत बड़ी सफलता भी मिली। भारत सरकार इस पर बहुत अधिक नाराज हुई और कहा कि- यह 'ब्रिटिश सिंहासन और सम्राट' का अपमान है। उसने कांग्रेस से बदला लेने के लिए बंबई में हिंदू- मुस्लिम दंगा करा दिया। इस भयंकर अवसर पर श्रीमती नायडू ने बड़े साहस के साथ खतरे के स्थानों में जाकर बलवा को शांत कराया और दोनों संप्रदायों के लड़ने वाले नेताओं को समझाकर मेल कराया। इसके कुछ समय बाद ही सरकार ने लोगों को भड़काकर दक्षिण में 'मोपला- विद्रोह' करा दिया, जहाँ पर हिंदुओं पर अनेक अत्याचार किये गए। श्रीमती नायडू ने सरकार के इस षड्यंत्र का प्रमाणों सहित ऐसा भंडाफोड़ किया कि मद्रास की सरकार की सर्वत्र बदनामी होने लगी। उसने इनसे अपना भाषण वापस लेने को कहा तो उत्तर दिया गया- "यदि सरकार मेरा बयान झूठ समझती है, तो वह मुझ पर मुकदमा चलावे।" पर सरकार तो वास्तव में दोषी थी, इसलिए चुप रह गई।
जब चौत्रीचौरा की दुर्घटना के पश्चा सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया और गांधी जी पर मुकदमा चलाकर उन्हें ६ वर्ष का कारावास दंड सुना दिया गया, तब भी श्रीमती नायडू उनके साथ थीं। जेल जाते समय गांधी जी नें उनसे कहा कि- "सांप्रदायिक एकता कायम रखने का काम मैं तुम्हारे जिम्मे छोडे़ जाता हूँ। "श्रीमती नायडू ने उक्त आदेश का पालन इतने परिश्रम से किया कि लगातार भ्रमण और सभाओं में भाषण करते रहने से उनका स्वास्थ्य फिर गिरने लगा। तब डॉक्टरों की सलाह से वे जलवायु परिवर्तन के लिए लंका चली गईं, पर वहाँ भी वे पूर्णतया निष्क्रिय न रहीं। अनेक सभाओं में उन्होंने महात्मा गांधी के सिद्धांतो का प्रचार किया और लंका के लोकमत को भारतीय आंदोलन के प्रति सहानुभूतिजनक बनाने की चेष्टा की।
लंका से वापस आने पर आपको बंबई कॉर्पोरेशन की सदस्या और वहाँ की प्रांतीय कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। उसी समय आप कांग्रेस की वर्किंग कमेटी में सम्मिलित की गईं और अंतिम समय तक उस पद पर बनी रहीं। भारत के राष्ट्रीय संगठन में यह पद बड़ा महत्त्वपूर्ण है और इसमें योग्यता, सच्चाई और दूरदर्शिता आदि सभी गुणों की बहुत अधिक आवश्यकता पड़ती है।
भारत के राजनीतिक- संघर्ष में भाग लेकर और बड़े- बड़े महत्त्वपूर्ण कार्यों में सफलता प्राप्त करके श्रीमती सरोजिनी ने यह सिद्ध कर दिया कि यदि अवसर मिले तो भारतीय स्त्रियाँ भी प्रत्येक क्षेत्र में अपनी योग्यता प्रदर्शित कर सकती हैं। देश की वर्तमान दशा को देखकर हम कह सकते हैं कि श्रीमती सरोजिनी का परिश्रम और उदाहरण व्यर्थ नहीं गया। यद्यपि अभी इस दृष्टि से सुयोग्य महिलाओं की संख्या अधिक नहीं है, तो भी भारत में स्त्रियों को जितने अधिकार मिल गये हैं, उतने संसार के किसी बड़े देश में भी प्राप्त नहीं हो सके हैं। यहाँ स्त्रियों को वर्षों से राज्यपाल, राजदूत, मंत्री, मुख्य मंत्री आदि के पद दिये जा रहे हैं। इस प्रकार भारत ने, जो अभी तक सामाजिक प्रगति में बहुत पिछड़ा हुआ माना जाता था, स्त्रियों को समानता के अधिकार देने में सर्वोपरि आदर्श उपस्थित किया है। श्रीमती सरोजिनी के लिए यह कम गौरव की बात नहीं थी कि इस दुर्लभ परंपरा को स्थापित करा सकने का श्रेय उन्हीं को है। यदि यह कहा जाय कि इस युग में कोई भी स्त्री- विद्या, बुद्धि, योग्यता तथा विविध प्रकार से राष्ट्रीय महत्व के कार्यों में श्रीमती सरोजिनी से आगे नहीं बढ़ सकी है, तो इसमें तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं बतलाई जा सकती।
अफ्रीका यात्रा-
कुछ महीने पश्चात् जब महात्मा गांधी को विशेष आज्ञा द्वारा छोड़ दिया गया तो उन्होंने श्रीमती नायडू से अफ्रीका जाकर वहाँ के प्रवासी भारतवासियों को सहायता करने का अनुरोध किया। इन लोगों की समस्या दिन पर दिन कठिन होती जाती थी और वहाँ की सरकार उनको अधिकारच्युत करने के लिए तरह- तरह की चालें चलती रहती थी। यद्यपि महात्मा गांधी ने उनके साथ न्याय किये जाने के उद्देश्य से कई बार सत्याग्रह किया था और अनेक कष्ट सहन करके उनको कुछ अधिकार दिलाये थे। पर अब उस बात को सात- आठ वर्ष बीत जाने पर, वहाँ के प्रदेशों में फिर नये- नये अन्यायपूर्ण नियम बनाकर भारतवासियों को तंग किया जा रहा था। महात्मा गांधी के कंधो पर तो इस समय समस्त भारतीय आंदोलन का बोझा था, इसलिए किसी अन्य प्रभावशाली व्यक्ति को ही वहाँ भेजना उचित समझा और इसके लिए श्रीमती नायडू ही सबसे अधिक उपयुक्त जान पडी़।
जिस समय श्रीमती नायडू ने जहाज से उतरकर अफ्रीका की भूमि पर पैर रखा, उसी समय संवाददाताओं ने उनको घेरकर तरह- तरह के प्रश्न करने आंरभ कर दिये। एक संवाददाता ने कहा- "जनरल स्मट इज़ ए स्ट्रॉन्ग मैन" (अर्थात् दक्षिण अफ्रीका का शासक जनरल स्मट बड़ा़ जोरदार आदमी है।) इस पर श्रीमती सरोजिनी ने उत्तर दिया- "आई एम टू ए स्ट्रॉन्ग वूमैन।"(अर्थात् मैं भी बड़ी जोरदार औरत हूँ।) इस पर उपस्थित जनों में बड़ी़ हास्य- ध्वनि हुई।
दक्षिण अफ्रीका और कीनिया आदि प्रदेशों का दौरा करके आपने प्रवासी- भारतवासियों को हर प्रकार से आश्वासन दिया और बताया कि- "अब भारत में भी काफी जाग्रति हो गई है। वह प्रवासी भारतवासियों का सब प्रकार से समर्थन करेगा और सक्रिय सहायता भी देगा।"
श्रीमती नायडू को इन उपनिवेशों में भारतीयों के साथ किये जाने वाले दुर्व्यवहारों और खासकर वहाँ की भारतीय स्त्रियों की दुर्दशा का सदा से बडा़ ध्यान रहता था और जब कभी अवसर मिलता था, वे इस संबंध में कुछ न कुछ प्रयत्न करती ही रहती थीं। जब मि० एंडरूज ने फिजी टापू की कुली प्रथा को बंद कराने का आंदोलन शुरू किया था और वहाँ भेजी जाने वाली स्त्रियों के प्रति किये जाने वाले लज्जाजनक व्यवहार का रहस्योद्घाटन किया था तो श्रीमती नायडू ने एक सार्वजनिक सभा में कहा था-
"तुम लोग जो स्वराज्य- आंदोलन कर रहे हो, तुम लोग देश भक्ति के जो सपने देख रहे हो, यदि तुम समुद्र पार से सुनाई पड़ने वाली करुण पुकारों को नहीं रोक सकते, तो क्या तुम देश- भक्त कहला सकते हो? यह करुण पुकार उन देश के भाइयों की हैं, जिनकी दशा कुत्ते से भी बुरी है। यह पुकार उन बहिनों की है, जिनके साथ जानवरों का- सा बर्ताव हो रहा है। तुम स्वराज्य आखिर किसके लिए चाहते हो? क्यों चाहते हो? क्या उन लोगों के लिए चाहते हो, जो अपनी महिलाओं का क्रंदन सुनकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं, जो घोरतम अपमान सहते हुए भी मौन रहते हैं। धन हमारे लिए क्या वस्तु है? बल लेकर हम क्या करेंगे? महिमा से हमें क्या प्रयोजन? जब हम अपनी स्त्रियों के सतीत्व तक की रक्षा नहीं कर सकते, तो ऐसे धन, बल, महिमा से क्या लाभ?’’
"आज मैं अपने भीतर उस यातना का अनुभव कर रही हूँ, जिसे वर्षों से वे बहिनें सहन करती रही हैं, जिनको अब मृत्यु से ही शांति मिल सकती है। मैं स्वयं कुली प्रथा में निहित अकथनीय लज्जा और ग्लानि का अनुभव कर रही हूँ।"
श्रीमती नायडू के भाषणों को देश और विदेशों में बड़ा प्रभाव पड़ा और कुली- प्रथा का आंदोलन दिन पर दिन बढ़ने लगा। लोगों को मालूम हुआ कि हमारे लाखों भाई- बहिनों को दूर देशों में ले जाकर कितना कष्ट दिया जाता है और अपमानपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य किया जाता है। इन उपनिवेशों में सामाजिक कारणों से स्त्रियों को जिस प्रकार का निर्लज्ज
गोसे ने बडे़ ध्यान से उन रचनाओं को पढा़, उन पर विचार किया और फिर कहने लगा- "शायद मेरी बात आपको बुरी जान पडे़, पर मेरी सच्ची राय यही है कि आप इन सब रचनाओं को रददी की टोकरी में डाल दें। इसका आशय यह नहीं कि यह अच्छी नहीं है। पर तुम जैसी एक बुद्धिमती भारतीय नारी से, जिसने पश्चिमी भाषा और काव्य- रचना में दक्षता प्राप्त कर ली है, हम योरोप के वातावरण और सभ्यता को लेकर लिखे गये काव्य से तुलना की अपेक्षा नहीं करते। वरन् हम चाहते हैं कि आप हमको ऐसी रचनाएँ दें, जिनमें हम न केवल भारत के वर पूरे पूर्व की आत्मा के दर्शन कर सकें।"
अपनी रचनाओं की यह आलोचना उस कवयित्री को बहुत हितकर जान पडी़ और उसी दिन से उसने गोसे को अपना गुरू मान लिया। उसके पश्चात् उसने जो काव्य- रचना की, उसमें योरोप की नकल करने के बजाय भारत और पूर्व में अंतर्निहित विशेषताओं के दर्शन ही योरोप वालों ने किये और सर्वत्र उनका बडा़ सम्मान होने लगा।
यह बाला और कोई नहीं 'भारत- कोकिला' के नाम से प्रसिद्ध श्रीमती सरोजिनी नायडू (सन् १८७९ से १९४९) ही थीं। वे एक जन्मजात कवयित्री थीं और अंग्रेजी भाषा पर इनका इतना अधिकार था कि उनकी बारह वर्ष की आयु में लिखी हुई कविताओं की भी लोगों ने बडी़ प्रशंसा की। उनकी शिक्षा- दीक्षा भी विशेष रूप से योरोप में हुई थी और वे वहाँ के शिष्टाचार और रहन- सहन के नियमों में पारंगत थीं। पर इतना होने पर भी वे भारतीय संस्कृति को ही सर्वश्रेष्ठ मानती थीं और उसके लिये उनको बडा़ गौरव था। इसका वे सदैव कितना अधिक ध्यान रखती थीं, इसका कुछ आभास एक भारतीय पत्रकार के निम्न संस्मरण से हो सकता है-
श्री रामकृष्ण नामक युवक को एक छात्रवृत्ति अमेरिका जाकर पत्रकारिता की उच्च शिक्षा प्राप्त करने को दी गई। विदेशों के रहन- सहन का कोई अनुभव न होने से उन्होंने श्रीमती नायडू से भेंट की और कहा- "मैं ऐसी सूचनाओं की तलाश में हूँ जिनसे अमेरिका की सही झाँकी मुझे मिल सके। इस संबंध में मैं कई लोगों से बातचीत कर चुका हूँ और पुस्तकें भी काफी संख्या में पढ़ डाली हैं। मेरी इच्छा है कि जब मैं वहाँ की जमीन पर पैर रखूँ तो कोई मुझे वहाँ की सभ्यता, संस्कृति से अनभिज्ञ न समझ पाये?"
श्रीमती नायडू- "लेकिन खुद अपने देश के विषय में तुमने कितनी जानकारी संग्रहित की है? मुझे मालूम है, तुम्हें पढ़ने- लिखने का शौक है। गीता से लेकर गौतम और गांधी तक सबको पढ़ चुके होंगे तुम, इसका भी मैं विश्वास कर सकती हूँ। लेकिन अपनी उस धरती, उस धरती पर रहने वाले लोगों के बारे में तुम्हें कितनी जानकारी है, जिस पर तुम खुद पैदा हुए हो, पले, पनपे और बढे़ हो? तुम्हें इस बात पर विश्वास है कि क्या तुम विदेश पहुँचकर अपने प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर सकोगे?
यह थीं श्रीमती सरोजिनी की विचारधारा, जिसने उन्हें भारत माता की एक सच्ची पुत्री बना दिया था। वे कहती थीं कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है और संकुचितता को त्यागकर संसार का सब तरह का जितना अधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सके, करना अच्छा ही है। पर यदि कोई विदेशी सभ्यता- संस्कृति की जानकारी की धुन में अपनी सभ्यता को भूल जाय, तो यह एक अपराध होगा।
श्रीमती नायडू यद्यपि बंगाली थीं पर उनके पूर्वज बहुत समय पहले हैदराबाद (दक्खिन) में आ बसे थे। सरोजिनी के पिता डॉ० अघोरनाथ चट्टोपाध्याय का जन्म हैदराबाद में ही हुआ था और वे वहाँ पर एक बडे़ सरकारी पद पर काम करते थे। वे स्वंय बड़े़ विद्वान् थे और इंगलैंड जाकर उन्होंने विज्ञान की सर्वोच्च उपाधि डी॰एस॰सी॰ प्राप्त की थी। इसलिए सरोजिनी को आरंभ से ही अंग्रेजी भाषा और रहन- सहन से परिचित होने का सुयोग प्राप्त हो गया। कुछ बडी़ हो जाने पर तो अघोरनाथ जी ने उसे पढ़ाने के लिए अंग्रेजी शिक्षिका रख दी थी। सरोजिनी पढ़ने में काफी परिश्रम करती थीं। इसके फलस्वरूप उन्होंने बारह वर्ष की आयु में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। उसी समय उनकी एक रचना पर प्रसन्न होकर, हैदराबाद के नवाब ने उनको विलायत जाकर अध्ययन करने के लिए एक बड़ी छात्रवृत्ति दे दी, जिससे वह चौदह वर्ष की आयु में ही वहाँ पहुँचकर 'किंग्स कॉलेज' में दाखिल हो गईं।
यद्यपि वर्तमान समय में बहुसंख्यक मुसलमानों की विचारधारा इन विचारों के अनुकूल नहीं है और पाकिस्तान बनाकर तो उन्होंने 'मातृभूमि' के साथ विश्वासघात किया ही है, तो भी हम संकीर्ण सांप्रदायिकता को अच्छा नहीं बतला सकते। इससे प्रत्येक दल की हानि ही होती है और यह मानवता के भी विरूद्ध है। विकास सिद्धांत के अनुसार मनुष्य ने जो कुछ प्रगति की है, वह सहयोग और संगठन द्वारा ही संभव हो सकी है। अकेला मनुष्य जंगली अवस्था से शायद ही छुटकारा पा सकता। पर जैसे- जैसे सहयोग का क्षेत्र विस्तीर्ण होता गया, मनुष्य अपनी शक्ति को बढ़ाकर नये- नये क्षेत्रों पर अधिकार करता गया। इसलिए श्रीमती नायडू ने एकता के लिए जो विचार प्रकट किये थे, वस्तुतः देश और समाज की दृष्टि से कल्याणकारी ही थे। यह दूसरी बात है कि एक तीसरी शक्ति की चालों से दोनों पक्षों का मतभेद बढ़ता गया, जिससे अंत में करोड़ों हिंदू- मुसलमानों को हानि उठानी पड़ी।
हिंदू- मुस्लिम संस्कृतियों के समन्वय पर अधिक जोर देने से कुछ लोग श्रीमती नायडू पर मुसलमानों की पक्षपाती होने का आरोप लगाते हुए सुने गए हैं। पर यह उनका अज्ञान ही है। श्रीमती नायडू ने देश और विदेशों में सदैव भारत की प्राचीन संस्कृति की प्रशंसा की थी। बड़े गर्व के साथ कहा करती थीं- मैं उस जाति की वंशजा हूँ, जिसकी माताओं के समक्ष सीता की पवित्रता, सावित्री के साहस और दयमंती के विश्वास का आदर्श है।"उनकी इस मनोभावना पर ध्यान देने पर कोई भी उन्हें हिंदू- संस्कृति से प्रतिकूल अथवा उदासीन कहने का साहस नहीं कर सकता।
देश- सेवा की लगन-
इस तरह आरंभ से ही विदेशी वातावरण में रहने से अनेक लोगों को यह आशंका होने लगती है कि ऐसा व्यक्ति अपनी जातीयता के प्रति उपेक्षा प्रदर्शित करने लग जायेगा। इसमें संदेह नहीं कि यह आंशका सर्वथा निर्मूल नहीं है और गत सौ- पचास वर्षों में बहुसंख्यक व्यक्ति उच्च अंग्रेजी शिक्षा पाकर 'काले अंग्रेज' बन चुके हैं। पर यह आक्षेप सब लोगों पर लागू नहीं होता, वरन् अरविंद, सरोजिनी नायडू ओर सुभाष बाबू के उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि जो प्रतिभाशाली वास्तव में ज्ञान की उच्च चोटी पर पहुँच जायेगा, वह अपनी जातीयता का और भी अधिक सुदृढ़ अनुयायी बन जायेगा। श्रीमती सरोजिनी के संबंध में यह बात पूरी तरह से सत्य सिद्ध हुई। सन् १८९८ में इंगलैंड से लौटने पर उन्होंने मेजर नायडू से विवाह कर लिया और इसके ४ वर्ष बाद ही उनका ध्यान भारतीय राजनीति की तरफ आकर्षित होने लग गया। सन् १९०८ में जब वे भारत के प्रसिद्ध नेता स्व० श्री गोखले से मिलीं, तो उन्होंने इनसे कहा-
"यहाँ मेरे साथ खड़ी हो जाओ और इन तारों तथा पहाडि़यों को साक्षी बनाकर अपना जीवन, योग्यता, विचार, स्वप्न और सभी कुछ भारत माता को अर्पित कर दो। हे कवयित्री ! इस पहाड़ी की चोटी से महान् सत्य के दर्शन करके तुम भारत के सहस्त्रों गाँवों में बसे हुए किसानों तक आशा का संदेश फैला दो। तभी तुम्हारी यह सदैव प्रदत्त अनुपम काव्य- शक्ति सार्थक हो सकेगी।"
और यही मार्ग है, जिस पर चलकर किसी सच्ची आत्मा वाले और कर्तव्य परायण व्यक्ति को सांत्वना और शक्ति मिल सकती है। अगर कोई मनुष्य अपनी योग्यता और सामर्थ्य का उपयोग अपने ही लिये करता है, समाज के उत्थान और उपकार का ध्यान नहीं रखता, तो वह कभी वास्तविक सम्मान का अधिकारी नहीं हो सकता। ऐसे ही व्यक्तियों के विषय में इंगलैंड के कविवर ‘स्काट’ ने लिखा है- ।
केवल स्वारथ साधन में ही सब समय गँवायो।
मन स्वदेश हित साधन में कबहूँ न लगायो।।
चाहे पदवी बाकी होय बहुत ही भारी।
दुनिया बाको नाम बड़ो कर जाने सारी।।
सुरपति के अनुकूल होय बाको अतुलित धन।
कविता वाके हेत तऊ नहिं करहहिं कविगन।।
श्रीमती नायडू ने इस तथ्य को आंरभ से ही समझ लिया था और इसलिए एक संपन्न घराने की सुकुमार और सुसंस्कृत महिला होते हुए भी उन्होंने देश- सेवा के उस मार्ग को चुना, जिसमें त्याग और तपस्या की अनिवार्य आवश्यकता होती है। जब उनसे यह प्रश्न किया गया कि आपने एक प्रसिद्ध कवयित्री होते हुए भी राजनीति के कार्य में भाग लेना क्यों स्वीकार किया, तो उन्होंने कहा-
"बार- बार लोगों ने मुझसे प्रश्न किया है कि तुम कवियों स्वप्नलोक की हस्तिदंत- निर्मित मीनार के उच्च शिखर को छोड़कर इस हाट- बाजार में क्यों उतर आई हो? क्यों काव्य की गायिका और मुरलिया का रूप छोड़कर, उन लोगों की रणभेरी बनने के लिए अग्रसर हुई हो, जो कि युद्ध के लिए आह्वान कर रहे हैं? मेरा उत्तर यह है कि कवि का कर्तव्य गुलाब की पुष्प- वाटिका में स्थित हस्तिदंत- निर्मित मीनार के एकांत में, दुनिया से अलग बैठे रहना नहीं हैं, बल्कि उसका स्थान सर्वसाधारण के बीच सड़क की धूलि में है। उसका भाग्य तो बँधा है, संग्राम के उतार- चढ़ाव के साथ ही। सच तो यह है कि उसके कवि होने की सार्थकता ही इसमें है कि संकट की घड़ी में, निराशा एवं पराजय के क्षणों में, वह भविष्य के निर्माण का स्वप्न देखने वालों को साहस और आशा का संदेश दे सके। इसलिए संग्राम की इस घड़ी में, जबकि देश के लिए विजय प्राप्त करना तुम्हारे ही हाथों में हैं, मैं एक स्त्री, होकर अपना घर आँगन छोड़कर आ खड़ी हुई हूँ इस हाट- बाजार में। और मैं, जो कि स्वप्नों की दुनिया में विचारने वाली रही, आज यहाँ खड़ी होकर पुकार रही हूँ- साथियों, आगे बढ़ो और विजय प्राप्त करो।
राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले श्रीमती सरोजिनी ने इसके उतार- चढ़ाव पर अच्छी तरह विचार कर लिया था। वे जानती थीं कि इस प्रकार का परिवर्तन हो जाने पर, आज जो अंग्रेज उनके प्रशंसक और पुरस्कर्ता रहे हैं, विरोधी बन जायेंगे। खासकर भारत सरकार स्वराज्य के आंदोलन करने वालों को जिस निगाह से देखती थीं, उसको समझते हुए इस क्षेत्र में उस समय कठिनाई और हानि के अतिरिक्त और कोई आशा नहीं थीं। फिर भी जब उन्होंने देखा कि हमारा देश दिन पर दिन गरीब बनता जा रहा है, जिससे करोड़ों लोगों को भरपेट अन्न और वस्त्र भी नहीं मिलते। लाखों बालक कूड़े में से उठाकर चाहे जो खा लेते हैं, स्त्रियाँ वस्त्राभाव से ठीक तरह लज्जा- निवारण भी नहीं कर सकती। ऐसी दशा में सुरम्य प्राकृतिक दृश्यों का अवलोकन करके मधुर कविता बनाते रहना, निरर्थक ही नहीं कर्तव्यहीनता है। ऐसे समय में तो प्रत्येक नर- नारी का कर्तव्य है कि चाहे उसके विचार, रुचि, उद्देश्य कुछ भी हों, वह देश के उद्धार के लिए यथाशक्ति प्रयत्न अवश्य करें।
यही विचार करके वे कांग्रेस में भाग लेने लगीं। धीरे- धीरे उनका प्रभाव देश की जनता पर पड़ने लगा। स्त्री होने और स्वर- माधुर्य से श्रोतागण उनके भाषण सुनने को उत्सुक रहते थे और कुछ समय बाद सभा- सम्मेलनों में उनकी इतनी माँग होने लगी कि उसकी पूर्ति कर सकना भी कठिन हो गया। सन् १९०७ से १९१५ तक कांग्रेस पर नरमदल वालों का अधिकार रहा, जिसके नेता गोखले, फीरोजशाह मेहता, डी॰वी॰ वाचा, तेजबहादुर सप्रू आदि थे। इसलिए वे उन्हीं के सिद्धांतानुसार जनता की विविध माँगों को पूरा कराने का आंदोलन करती रहती थीं।
फिर जब श्रीमती बेकेंट ने होमरूल आंदोलन चलाया तो ये उनका साथ देने लगीं और इंगलैंड जाकर भारतीय माँगों के पक्ष में जोरदार आंदोलन किया। श्रीमती नायडू ने विशेष रूप से जाँच करने वाली कमेटी के सामने भारतीय स्त्रियों का पक्ष उपस्थित किया। इस कार्य को उन्होंने इतने उत्तम ढ़ंग से किया कि कमेटी अध्यक्ष ने उनको धन्यवाद दिया और कहा- "यदि अनुचित न समझा जाय तो मैं यह कहूँगा कि आपके आने से हमारे ‘नीरस साहित्य’ में सरस कविता की एक रेखा मिल गई।" उन्होंने भारतीय स्त्रियों के पक्ष में विलायत की सभाओं में अनेक प्रभावशाली भाषण भी दिये।
असहयोग आंदोलन में-
वे अभी इंगलैंड में काम कर ही रही थीं कि गांधी जी ने भारतवर्ष में असहयोग का शंखनाद कर दिया। ऐसे अवसर पर उनको देश से बाहर रहना ठीक न जान पडा़ बस वे तुरंत भारत चली आईं और महात्मा गांधी के संदेश को चारों ओर घूमकर नगर- नगर में पहुँचाने लगीं। इस संबंध में उन्होंने इतना अधिक काम किया कि वे बीमार पड़ गईं। इसके बाद डॉक्टरों की सलाह से उनको पुनः इंगलैंड जाना पड़ा। पर वहाँ पहुँचकर भी वे चुपचाप नहीं बैठी रहीं। उन्होंने जालियाँवाला हत्याकांड और पंजाब के अन्य नगरों में होने वाले अत्याचारों के संबंध में इतना अधिक प्रचार किया कि वहाँ की जनता सब बातों को समझकर सरकारी नीति के विरुद्ध हो गई। नतीजा यह हुआ कि पार्लियामेंट में इस संबंध में सवालों की झड़ी लग गई। अंत में सरकार को अपनी भूल स्वीकार करके कहना पड़ा कि भारतीय अधिकारियों ने बड़ी गलती की है।
इन्हीं दिनों भारतीय मुसलमानों का एक डेप्युटेशन ‘खिलाफत’ के संबंध में विलायत गया था। उसने ब्रिटिश सरकार से कहा कि अगर वह ‘खिलाफत’ का अंत करने की कोई कार्यवाही करेगा तो भारत के मुसलमान भी अंग्रेजों के विरुद्ध हो जायेंगे। श्रीमती नायडू ने भी इस डेप्युटेशन को सहयोग दिया और कहा कि यदि ‘खिलाफत’ आंदोलन आंरभ किया गया तो वह केवल मुसलमानों का ही नहीं होगा, वरन् हिंदू भी उसमें भाग लेंगे, क्योंकि हम जिस प्रकार अपनी स्वाधीनता की माँग करते हैं, उसी प्रकार दूसरों की स्वाधीनता की भी कदर करते हैं, हम इस बात को पंसद नहीं करते कि सैनिक शक्ति की दृष्टि से बलवान् देश किसी निर्बल देश को अन्यायपूर्वक दबाने की चेष्टा करें। संसार में छोटे‐बड़े सभी को अपने घर मे बिना किसी प्रकार के बाह्य हस्तक्षेप के रह सकने का अधिकार मिलना चाहिये।
इस विदेश- यात्रा के अवसर पर योरोप में होने वाले 'अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन' में भी आपने भाग लिया। आपके भाषण का वहाँ इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि भारत के संबंध में सब प्रतिनिधियों की धारणा ही बदल गई। अभी तक तो अंग्रेज लेखक उनको यही बतलाया करते थे कि भारत एक पिछड़ा हुआ देश है, और हम वहाँ के अर्द्धसभ्य लोगों को शिक्षा देकर सभ्य और सुसंस्कृत बन रहे हैं। पर जब उन्होंने श्रीमती सरोजिनी का विद्वतापूर्ण भाषण सुना और अनुभव किया कि उनका अंग्रेजी भाषा और साहित्य पर इतना अधिकार है, जितना कि अनेक अंग्रेजी विद्वानों का भी नहीं है, तो उनका भ्रम दूर हो गया। वे कहने लगीं कि जिस देश में ऐसी विदुषी महिलायें हो सकती हैं, उसे 'असभ्य' कैसे कहा जा सकता है? सम्मेलन में श्रीमती नायडू की भारतीय वेशभूषा का भी बड़ा प्रभाव पड़ा और योरोप की स्त्रियों में भी इस देश में पहनी जाने वाली साड़ी के प्रति आकर्षण उत्पन्न होने लगा।
भारत सरकार से संघर्ष-
इधर श्रीमती नायडू विलायत में भारत के स्वराज्य आंदोलन का समर्थन करके वहाँ की जनता को उसके पक्ष में कर रही थीं और उधर भारत में असहयोग आंदोलन गंभीर रूप धारण करता चला जा रहा था। यह देखकर वे शीघ्र ही वापस आईं और गांधी जी द्वारा प्रस्तुत किये गये असहयोग के प्रतिज्ञा- पत्र पर सबसे पहले उन्होंने हस्ताक्षर किये। उनके अनुसार उन्होंने अपनी ‘केसरी हिंद’ की उपाधि, जिसको उस जमाने में एक बड़ी प्रतिष्ठा की चीज माना जाता था, त्याग दी और इस संबंध में भारत के वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड को एक पत्र में लिखा-
"इस समय कितने ही वर्षों से भारतीय जाति को असहाय समझकर अपमानित किया जा रहा है। उसका घोर दमन किया जा रहा है और उसके साथ जो प्रतिज्ञाएँ की गई थीं, वे भंग की जा रही हैं। इन सब बातों के अतिरिक्त दो और बड़े पाप किये गये हैं। एक तो पंजाब का हत्याकांड और दूसरा मुसलमानों को 'खिलाफत' के संबंध में दिये गए आश्वासन की अवहेलना। यह मेरे सम्मान और विचारों के प्रतिकूल बात होगी कि मैं इन अत्याचारों को देखती रहूँ और उस सरकार का, जो ब्रिटिश न्याय का तिरस्कार कर रही हैं, समर्थन करती रहूँ।"
राजनीतिक क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं होता कि यह अन्यायी के विरुद्ध शस्त्र लेकर खड़ा हो जाय और उसे उचित दंड दे। पर उससे संपर्क न रखना, उसकी नीति का खुले रूप में विरोध करना, प्रत्येक न्यायप्रिय और अपनी आत्मा के प्रति सच्चे मनुष्य के लिए संभव है। श्रीमती नायडू ने उसी मार्ग का अवलंबन किया और भारत सरकार की अन्यायपूर्ण नीति के प्रति अपनी विरोधी- भावना उसकी प्रदान की हुई उपाधि को लौटाकर स्पष्ट कर दिया।
अब असहयोग ने एक घमासान आंदोलन का रूप धारण कर लिया था और श्रीमती नायडू ने अपने आपको पूर्णत या इस कार्य के लिए अर्पित कर दिया था। वे विनोद में कहा करती थीं कि- "मैं तो गांधीरूपी कृष्ण की मुरली हूँ और वास्तव में उन्होंने गांधी जी के संदेश को देश भर में फैलाने में और उनके प्रत्येक कार्य में सहायता पहुँचाते रहने में इतना अधिक परिश्रम किया कि उसका अनुमान किया जा सकना भी कठिन है।
उसी समय विलायत से ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ भारत- यात्रा के लिए आये। कांग्रेस ने सरकारी दुर्व्यवहारों के विरोध में उनके स्वागत का बहिष्कार करने का निश्चय किया और इसमें बहुत बड़ी सफलता भी मिली। भारत सरकार इस पर बहुत अधिक नाराज हुई और कहा कि- यह 'ब्रिटिश सिंहासन और सम्राट' का अपमान है। उसने कांग्रेस से बदला लेने के लिए बंबई में हिंदू- मुस्लिम दंगा करा दिया। इस भयंकर अवसर पर श्रीमती नायडू ने बड़े साहस के साथ खतरे के स्थानों में जाकर बलवा को शांत कराया और दोनों संप्रदायों के लड़ने वाले नेताओं को समझाकर मेल कराया। इसके कुछ समय बाद ही सरकार ने लोगों को भड़काकर दक्षिण में 'मोपला- विद्रोह' करा दिया, जहाँ पर हिंदुओं पर अनेक अत्याचार किये गए। श्रीमती नायडू ने सरकार के इस षड्यंत्र का प्रमाणों सहित ऐसा भंडाफोड़ किया कि मद्रास की सरकार की सर्वत्र बदनामी होने लगी। उसने इनसे अपना भाषण वापस लेने को कहा तो उत्तर दिया गया- "यदि सरकार मेरा बयान झूठ समझती है, तो वह मुझ पर मुकदमा चलावे।" पर सरकार तो वास्तव में दोषी थी, इसलिए चुप रह गई।
जब चौत्रीचौरा की दुर्घटना के पश्चा सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया और गांधी जी पर मुकदमा चलाकर उन्हें ६ वर्ष का कारावास दंड सुना दिया गया, तब भी श्रीमती नायडू उनके साथ थीं। जेल जाते समय गांधी जी नें उनसे कहा कि- "सांप्रदायिक एकता कायम रखने का काम मैं तुम्हारे जिम्मे छोडे़ जाता हूँ। "श्रीमती नायडू ने उक्त आदेश का पालन इतने परिश्रम से किया कि लगातार भ्रमण और सभाओं में भाषण करते रहने से उनका स्वास्थ्य फिर गिरने लगा। तब डॉक्टरों की सलाह से वे जलवायु परिवर्तन के लिए लंका चली गईं, पर वहाँ भी वे पूर्णतया निष्क्रिय न रहीं। अनेक सभाओं में उन्होंने महात्मा गांधी के सिद्धांतो का प्रचार किया और लंका के लोकमत को भारतीय आंदोलन के प्रति सहानुभूतिजनक बनाने की चेष्टा की।
लंका से वापस आने पर आपको बंबई कॉर्पोरेशन की सदस्या और वहाँ की प्रांतीय कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। उसी समय आप कांग्रेस की वर्किंग कमेटी में सम्मिलित की गईं और अंतिम समय तक उस पद पर बनी रहीं। भारत के राष्ट्रीय संगठन में यह पद बड़ा महत्त्वपूर्ण है और इसमें योग्यता, सच्चाई और दूरदर्शिता आदि सभी गुणों की बहुत अधिक आवश्यकता पड़ती है।
भारत के राजनीतिक- संघर्ष में भाग लेकर और बड़े- बड़े महत्त्वपूर्ण कार्यों में सफलता प्राप्त करके श्रीमती सरोजिनी ने यह सिद्ध कर दिया कि यदि अवसर मिले तो भारतीय स्त्रियाँ भी प्रत्येक क्षेत्र में अपनी योग्यता प्रदर्शित कर सकती हैं। देश की वर्तमान दशा को देखकर हम कह सकते हैं कि श्रीमती सरोजिनी का परिश्रम और उदाहरण व्यर्थ नहीं गया। यद्यपि अभी इस दृष्टि से सुयोग्य महिलाओं की संख्या अधिक नहीं है, तो भी भारत में स्त्रियों को जितने अधिकार मिल गये हैं, उतने संसार के किसी बड़े देश में भी प्राप्त नहीं हो सके हैं। यहाँ स्त्रियों को वर्षों से राज्यपाल, राजदूत, मंत्री, मुख्य मंत्री आदि के पद दिये जा रहे हैं। इस प्रकार भारत ने, जो अभी तक सामाजिक प्रगति में बहुत पिछड़ा हुआ माना जाता था, स्त्रियों को समानता के अधिकार देने में सर्वोपरि आदर्श उपस्थित किया है। श्रीमती सरोजिनी के लिए यह कम गौरव की बात नहीं थी कि इस दुर्लभ परंपरा को स्थापित करा सकने का श्रेय उन्हीं को है। यदि यह कहा जाय कि इस युग में कोई भी स्त्री- विद्या, बुद्धि, योग्यता तथा विविध प्रकार से राष्ट्रीय महत्व के कार्यों में श्रीमती सरोजिनी से आगे नहीं बढ़ सकी है, तो इसमें तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं बतलाई जा सकती।
अफ्रीका यात्रा-
कुछ महीने पश्चात् जब महात्मा गांधी को विशेष आज्ञा द्वारा छोड़ दिया गया तो उन्होंने श्रीमती नायडू से अफ्रीका जाकर वहाँ के प्रवासी भारतवासियों को सहायता करने का अनुरोध किया। इन लोगों की समस्या दिन पर दिन कठिन होती जाती थी और वहाँ की सरकार उनको अधिकारच्युत करने के लिए तरह- तरह की चालें चलती रहती थी। यद्यपि महात्मा गांधी ने उनके साथ न्याय किये जाने के उद्देश्य से कई बार सत्याग्रह किया था और अनेक कष्ट सहन करके उनको कुछ अधिकार दिलाये थे। पर अब उस बात को सात- आठ वर्ष बीत जाने पर, वहाँ के प्रदेशों में फिर नये- नये अन्यायपूर्ण नियम बनाकर भारतवासियों को तंग किया जा रहा था। महात्मा गांधी के कंधो पर तो इस समय समस्त भारतीय आंदोलन का बोझा था, इसलिए किसी अन्य प्रभावशाली व्यक्ति को ही वहाँ भेजना उचित समझा और इसके लिए श्रीमती नायडू ही सबसे अधिक उपयुक्त जान पडी़।
जिस समय श्रीमती नायडू ने जहाज से उतरकर अफ्रीका की भूमि पर पैर रखा, उसी समय संवाददाताओं ने उनको घेरकर तरह- तरह के प्रश्न करने आंरभ कर दिये। एक संवाददाता ने कहा- "जनरल स्मट इज़ ए स्ट्रॉन्ग मैन" (अर्थात् दक्षिण अफ्रीका का शासक जनरल स्मट बड़ा़ जोरदार आदमी है।) इस पर श्रीमती सरोजिनी ने उत्तर दिया- "आई एम टू ए स्ट्रॉन्ग वूमैन।"(अर्थात् मैं भी बड़ी जोरदार औरत हूँ।) इस पर उपस्थित जनों में बड़ी़ हास्य- ध्वनि हुई।
दक्षिण अफ्रीका और कीनिया आदि प्रदेशों का दौरा करके आपने प्रवासी- भारतवासियों को हर प्रकार से आश्वासन दिया और बताया कि- "अब भारत में भी काफी जाग्रति हो गई है। वह प्रवासी भारतवासियों का सब प्रकार से समर्थन करेगा और सक्रिय सहायता भी देगा।"
श्रीमती नायडू को इन उपनिवेशों में भारतीयों के साथ किये जाने वाले दुर्व्यवहारों और खासकर वहाँ की भारतीय स्त्रियों की दुर्दशा का सदा से बडा़ ध्यान रहता था और जब कभी अवसर मिलता था, वे इस संबंध में कुछ न कुछ प्रयत्न करती ही रहती थीं। जब मि० एंडरूज ने फिजी टापू की कुली प्रथा को बंद कराने का आंदोलन शुरू किया था और वहाँ भेजी जाने वाली स्त्रियों के प्रति किये जाने वाले लज्जाजनक व्यवहार का रहस्योद्घाटन किया था तो श्रीमती नायडू ने एक सार्वजनिक सभा में कहा था-
"तुम लोग जो स्वराज्य- आंदोलन कर रहे हो, तुम लोग देश भक्ति के जो सपने देख रहे हो, यदि तुम समुद्र पार से सुनाई पड़ने वाली करुण पुकारों को नहीं रोक सकते, तो क्या तुम देश- भक्त कहला सकते हो? यह करुण पुकार उन देश के भाइयों की हैं, जिनकी दशा कुत्ते से भी बुरी है। यह पुकार उन बहिनों की है, जिनके साथ जानवरों का- सा बर्ताव हो रहा है। तुम स्वराज्य आखिर किसके लिए चाहते हो? क्यों चाहते हो? क्या उन लोगों के लिए चाहते हो, जो अपनी महिलाओं का क्रंदन सुनकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं, जो घोरतम अपमान सहते हुए भी मौन रहते हैं। धन हमारे लिए क्या वस्तु है? बल लेकर हम क्या करेंगे? महिमा से हमें क्या प्रयोजन? जब हम अपनी स्त्रियों के सतीत्व तक की रक्षा नहीं कर सकते, तो ऐसे धन, बल, महिमा से क्या लाभ?’’
"आज मैं अपने भीतर उस यातना का अनुभव कर रही हूँ, जिसे वर्षों से वे बहिनें सहन करती रही हैं, जिनको अब मृत्यु से ही शांति मिल सकती है। मैं स्वयं कुली प्रथा में निहित अकथनीय लज्जा और ग्लानि का अनुभव कर रही हूँ।"
श्रीमती नायडू के भाषणों को देश और विदेशों में बड़ा प्रभाव पड़ा और कुली- प्रथा का आंदोलन दिन पर दिन बढ़ने लगा। लोगों को मालूम हुआ कि हमारे लाखों भाई- बहिनों को दूर देशों में ले जाकर कितना कष्ट दिया जाता है और अपमानपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य किया जाता है। इन उपनिवेशों में सामाजिक कारणों से स्त्रियों को जिस प्रकार का निर्लज्ज