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Books - मनुष्य चलता फिरता पेड़ नही है

Media: TEXT
Language: HINDI
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आत्मा-वैज्ञानिक प्रयोगशाला में

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वैज्ञानिक धारणा के अनुसार कोई भी व्यक्ति जैव-ट्रव के सक्रिय परमाणुओं का समूह होता है जो सारभूत रूप में करोड़ों वर्षों के जीव विकास क्रम की पुष्टि करता है। ये सक्रिय परमाणु सारे शरीर में उसकी अनुभूतियों में और मस्तिष्क में केन्द्रित होते हैं, इतना जान लेने के बाद विज्ञान अपने आप से प्रश्न करता है कि इन परमाणुओं की संरचना, गति और अनुभूतियों को रचने वाला, प्रेरणा और ग्रहण करने वाला कौन है? उनका उत्तर होता है—मौन। भारतीय-दर्शन वहीं से अध्यात्म का आविर्भाव मानता है और कहता है कि वह आत्मा है, आत्मा। उसे ही जानने का प्रयत्न करना चाहिये।

डा. टिमोदी लिपरी ने मन को ही सब कुछ माना और अध्यात्म की सत्ता वहीं तक स्वीकार की। मन एक रासायनिक तत्व है। अन्न के स्वभाव और गुण के अनुरूप उसका आविर्भाव होता है। मनश्चेतना के विस्तार तथा उसकी अभिव्यक्ति के लिये अनेक रासायनिक द्रव्यों का विकास हुआ है। भारतीय तन्त्र और तिब्बती तांत्रिक साधनाओं में भी रासायनिक तत्त्वों के आधार पर मनश्चेतना के प्रसार और उसके द्वारा विलक्षण अनुभूतियों और दूरवर्ती ज्ञान को प्राप्त कर लिया जाता है। एलन गिंसबर्ग ने भी उसी की पुष्टि की है और उनका विश्वास है कि जीव-चेतना का अन्त मन है, उसके आगे न कोई सूक्ष्म सत्ता है और न कोई अति मानस ज्ञान। पर अब पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने ही इन तांत्रिक साधनाओं के आधार पर ही अतीन्द्रिय और मनश्चेतना से परे किसी ऐसे तत्व का अस्तित्व स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया है जो सर्वदृष्टा, शाश्वत, मुक्त और स्वेच्छा से भ्रमण और स्वरूप ग्रहण करने वाला है, जो साक्षी चेतन और अपनी इच्छा से विकसित होने वाला है। इस विश्वास की पुष्टि और शोध के लिये ही ‘लीग फार स्पिरिचुअल डिसकवरी’ की स्थापना हुई है। यह संगठन अनेक घटनाओं के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहा है कि मनश्चेतना से परे भी कोई चेतन तत्त्व इस सृष्टि में विद्यमान है, शरीर धारियों का केन्द्र और मूल भी वही है।

स्काटलैण्ड के एक मकान में एक अंग्रेज दम्पत्ति रहते थे। दोनों को बहुत अधिक मदिरा पीने की आदत थी। 14 जुलाई 1876 को पति की मृत्यु हो गई। उसके दो वर्ष बाद ही पत्नी की भी अल्पायु में मृत्यु हो गई। अब इस मकान को कैप्टिन मार्टिन नामक एक अंग्रेज ने किराये पर ले लिया और उसी में अपनी धर्म-पत्नी तथा बच्चों के साथ रहने लगे।

एक दिन मार्टिन की स्त्री ने घर में एक काले वस्त्र धारण किये हुए स्त्री को देखा, उन्होंने समझा यह मेरी मां है, जैसे ही वह उससे मिलने के लिए आगे बढ़ी कि वह स्त्री सीढ़ियों से ऊपर चढ़ गई और ऊपर के कमरे में जल रही मोमबत्ती बुझा दी। फिर उसके बाद कोई दिखाई न दिया। इसके कई दिन बाद वैसी ही छाया फिर दिखाई दी, पर प्रयत्न करने पर भी न तो उससे कोई बात-चीत की जा सकी, न उससे मिला ही जा सका। आगे बढ़ते ही वह छाया अदृश्य हो जाती। इस घटना के बाद में पड़ौसियों ने भी देखा और यह माना की यह पूर्व अंग्रेज स्त्री की भटकती हुई आत्मा है। आत्माओं के इस तरह के क्रिया-कलापों की घटनायें भारतवर्ष में बहुतायत से होती हैं।

प्रसिद्ध साहित्यकार लार्ड ब्रोह्मा के जीवन की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना आत्मा के अस्तित्व पर प्रकाश डालती है। उनके एक मित्र थे, उन्हें आत्माओं के अस्तित्व के सम्बन्ध में जानने का बड़ा चाव रहता था। दोनों ऐसे लेख जिनमें कोई ऐसी जानकारी होती थी, ढूंढ़-ढूंढ़ कर पढ़ते थे। उन्होंने सुना था कि भारतवर्ष में कुछ ऐसे योगी हैं, जो मृतात्माओं के साथ साक्षात्कार कराते हैं। एक दिन इस पर दोनों मित्रों ने निश्चित किया—‘‘हम में से जिसकी मृत्यु हो वह दूसरे से मिलने अवश्य आये।’’ यह बात मस्तिष्क में गहराई तक बैठ जाय, इसके लिए उन्होंने उंगली काट कर एक कागज में हस्ताक्षर भी किये।

कुछ दिन बाद मित्र सर्विस के लिए भारतवर्ष चला आया। इसके बाद 19 दिसंबर 1799 की बात है, लार्ड ब्रोह्म अपने स्नानागार पहुंचे, कपड़े उतार कर कुर्सी में रखे और दरवाजा बन्द करके टब में स्नान करने लगे। ब्राह्म साहब लिखते हैं—‘जैसे ही मैंने टब से अपना सिर बाहर निकाला कि देखता हूं मेरे मित्र महोदय सामने कुर्सी पर बैठे हैं। दरवाजे बिल्कुल बन्द थे, मैं घबरा गया कि वह कोई प्रेत तो नहीं है और इसके बाद मुझे जब होश आया तो कुर्सी में कोई नहीं था, दरवाजे पहले की तरह बन्द थे। उसके 8-10 दिन बाद भारत से आया एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि 19 दिसंबर के दिन मित्र की मृत्यु हो गई है। इस घटना से मुझे पूरा विश्वास हो गया कि मृत्यु के बाद भी आत्मा रहती है और जागृत जीवन की उसमें तमाम स्मृतियां भी रहती हैं।’’

विलियम हण्टर नामक एक अंग्रेज की बहन अपने गांव में रहती थी और हण्टर दूर किसी शहर में सर्विस करता था। एक दिन बहन रात में सो रही थी। उसने स्वप्न में देखा कि एक रेल आ रही है उसका भाई पटरी पर आ गया, रेल उसे कुचलने वाली है, बहन भयंकर चीत्कार करके भाई को बचाने के लिये दौड़ी पर वह तो स्वप्न था, भंग हो गया न वहां कोई रेल थी और न कोई भाई।

दूसरे दिन सवेरे ही सूचना मिली कि उसका भाई रेल से कटकर मर गया है। यह घटना भी आत्मा के सूक्ष्म अस्तित्व और अमरता पर प्रकाश डालती है।

अहमद नगर जिले के श्री महोदय के सम्बन्ध में पहले भी लिखा जा चुका है, वे मृत आत्माओं को बुलाकर उनसे बातचीत करने के आचार्य माने जाते हैं। यह विद्या विदेशों में भी है। स्वर्गीय ‘‘श्री डब्ल्यू स्टेटिड’’ मृतक आत्माओं से बातचीत करने में सिद्धहस्त थे।

एक बार एक फोटोग्राफर ने ‘‘डा. पयोव वरहाजमान’’ का एक फोटो खींचा। जब फोटो खींच लिया गया तो डा. वरहाजमान ने कहा—मुझे ऐसा लगा जैसे फोटो खींचते समय कोई मेरे साथ हो, जब कि उनके साथ कोई भी दृश्य प्राणी खड़ा न हुआ था। लेकिन दूसरे दिन जब फिल्म धुल कर आई तो लोग यह देखकर दंग रह गये कि उस फोटो के साथ ही स्वर्गीय ग्लेडस्टोन का भी फोटो आ गया था।

हमारे यहां यह कहा जाता है कि कथा-कीर्तन, संगीत, भजन, चित्रकला, जप-तप, ध्यान-धारणा के आधार पर मन को एकाग्र करके उसे आत्म-तत्व की शोध में नियोजित किया जा सकता है अनिग्रहीत मन की सत्ता इतनी सूक्ष्म और गतिशील हो जाती है कि उसे कहीं भी दौड़ाया जा सकता है और दूरस्थ स्थान को भी देखा और सुना जा सकता है। मन को जब आत्मा में केन्द्रित कर देते हैं, तो समाधि सुख मिलता है।

दूसरे देशों में समाधि-सुख की कल्पना तो की गई है, पर उसका कारण और कर्त्ता आत्मा को न मानकर मन को माना जाता है। मन यद्यपि अत्यन्त सूक्ष्म सत्ता है, पर वह अन्न की गैसीय स्थिति है, अन्न से रस, रक्त, मांस, मेदा, मज्जा, अस्थि, वीर्य आदि सप्त धातुएं बनती हैं। वीर्य इनमें से स्थूल-तत्त्व की अन्तिम अवस्था है, वहां से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि अन्तःकरण चतुष्ट्य बनते हैं, इनको ज्ञान और मोक्ष का आधार माना गया है। अर्थात् यह मन के ऊपर अवलम्बित है कि वह सांसारिक पदार्थों में ही घिरा रहे अथवा सूक्ष्म सत्ता को प्राप्त कर समाधि सुख प्राप्त करे। मन तो भी एक रासायनिक तत्त्व ही है, आत्मा नहीं।

अमेरिका के डॉक्टर टिमोदीलियरी ने मन को अन्तिम स्थिति माना है और उसी के विस्तार को समाधि सुख। नशा और कुछ औषधियां मनश्चेतना का विस्तार कर देती है, जिससे अनेक गुना अधिक शक्ति अनुभव होती है, उस स्थिति में कामजन्य-सुख बहुत बढ़ जाता है। सामान्य स्थिति में भी अपने में शक्ति अनुभव होती है और बड़ा आनन्द आने लगता है। वह दरअसल चेतना को निम्न स्तर से उठाकर जगत् के मूल भूत तत्त्वों के साथ एकाकार कर देने की क्षणिक स्थिति मात्र है। पर वह उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना आध्यात्मिक साधन। उससे अतिमानस तत्त्व की सत्यता अनुभव की जा सकती है।

इस दिशा में जैकी केमन के मनो-विस्तारक प्रयोगों का बड़ा महत्त्व है। वे प्रकाश की किरणों को विविध आकृतियों में संयोजित करती हैं और पानी के माध्यम से उन आकृतियों के छाया-चित्र किसी पर्दे में प्रक्षेपित करती हैं। उन चित्रों को ध्यानपूर्वक देखने से मनुष्य सम्मोहन की स्थिति में पहुंच जाता है और उसे विचित्र प्रकार की अनुभूतियां होने लगती हैं, इससे भी आत्मा का अस्तित्व प्रमाणित होता है। यह अनुभूति यद्यपि क्षणिक होती है और पाश्चात्य वैज्ञानिक उसे सुख की संज्ञा दे देते हैं, पर यह वस्तुतः उस आत्मा के साथ एकाकार का क्षणिक आवेश है, समाधि सुख तो आत्मा में पूर्ण विलय के साथ ही मिलता है।

सोमरस के सम्बन्ध में भारतवर्ष में अनेक तरह की मान्यतायें प्रचलित हैं, उसका अलडुअस हक्सले ने बहुत गुणगान किया है। उत्तरी योरोप में उसी तरह का एक पेय फ्लाई एगेरिक नामक कुकुरमुत्ते से तैयार किया जाता है। फिजी द्वीप-समूह के लोग काबा नामक पेय पीते हैं। एन्डियन तराई (अमरीका) के लोग आयाहुस्का नामक पेय पीते हैं, इससे उन्हें दिवास्वप्न जैसी अनुभूतियां होने लगती हैं। कई बार इस अवस्था में भविष्य की और मृत आत्माओं की विचित्र और सत्य बातें फलित होती हैं। मन उस अवस्था में किसी बड़ी तत्त्व के साथ एकाकार करके ही वह क्षणिक अनुभूतियां प्राप्त करता है। वह तत्त्व यदि है तो उसे आत्मा कहेंगे। भले ही उसका स्वरूप समझने में विज्ञान जगत् को कुछ समय लगे।

आश्वत सुख हमारे जीवन का लक्ष्य है और आत्मा उसका केन्द्र। इन्द्रियां उसके विषय मात्र हैं, उन विषयों को को लक्ष्य न बनाकर आत्मा को जानने का प्रयत्न करना चाहिये, यही बात उपनिषद्कार ने कही है।

वैज्ञानिक प्रयोग :—

मृतक का सिलेन्डर में फोटो लेकर आत्मा का अस्तित्व

आत्मा के अस्तित्व के बारे में प्रयोगशालाओं के कुछ उत्साह वर्धक निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं। ‘विलसा क्लाउड चेम्बर’ के शोध निष्कर्ष अमेरिका में निकाले गये हैं पर उनकी जानकारी संसार के अन्य देशों ने भी प्राप्त की है और इस बात से आश्वस्त होना सम्भव हुआ है कि मृत्यु के उपरान्त भी प्राणी किसी रूप में बना रहता है। ‘विलसा क्लाउड चेम्बर’ एक खोखला पारदर्शी सिलेण्डर है, जिसके भीतर से हवा पूरी तरह निकाल दी जाती है। उसके भीतर रासायनिक घोल पोत दिये जाते हैं जिनसे विशेष प्रकार का चमकदार हलका सा कुहरा गैस उसके भीतर छा जाता है। इस कुहरे की विशेषता यह होती है कि एक भी इलेक्ट्रोन उसमें होकर गुजरे तो फिट किये गये शक्तिशाली कैमरे उसका फोटो तुरन्त उतार लेते हैं और यह पता चल जाता है कि सिलेण्डर के भीतर क्या हलचल हुई।

इस सिलेण्डर के एक कक्ष में जीवित चूहे और मेढ़क रखे गये। परीक्षण काल में उन प्राणियों में से एक-एक का प्राण हरण बिजली का करेन्ट लगाकर किया गया। मरने के उपरान्त क्या होता है इसकी फिल्म उतारी गई तो प्रतीत हुआ कि भूत प्राणी की हू-ब-हू आकृति उस रासायनिक कुहरे में तैर रही है। वह निश्चेष्ट नहीं थी वरन् वैसी ही हरकतें कर रही थी जैसी कि जीवित अवस्था में वह प्राणी किया करता है। छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़ों से लेकर चूहे, मेढ़क जितने विकसित प्राणियों तक का मरणोपरान्त हरकतों के सम्बन्ध में इस चेम्बर ने इतना प्रमाण तो दे ही दिया है कि खुली आंखों से न दीख पड़ने वाली-तोले जा सकने वाले पदार्थ स्तर से, अधिक हलकी कोई सत्ता विद्यमान रहती है और उसे विशेष उपायों में देखा जा सकता है। यह सत्ता क्रमशः धुंधली पड़ती जाती है और फिर कैमरे की पकड़ से भी बाहर चली जाती है। अधिक विकसित कैमरे यदि बन सके होते तो शायद उस धुंधली सत्ता के क्रिया-कलाप के सम्बन्ध में भी कुछ अधिक जानकारी मिलती।

चेकोस्लोवाकिया के वैज्ञानिक ब्रेतिस्लाव ने परीक्षणों द्वारा यह सिद्ध किया कि जब मनुष्य की मृत्यु हो जाती है तो उसके चारों ओर दिखाई देने वाला प्रभामण्डल लुप्त हो जाता है। इसके लिए उन्होंने एक मरणासन्न स्थिति में शैया पर पड़े एक रोगी के चित्र लिये। जब वह रोगी जीवित था तब उसके शरीर का प्रभामण्डल धीरे-धीरे धुंधलाता जा रहा था। जब डाक्टरों ने उसकी मृत्यु घोषित करा दी तब रोगी का जो चित्र लिया गया उसमें कहीं भी कोई प्रकाश नहीं दिखाई दिया।

डा. ब्रेतिस्लाव का कहना है कि यह प्रकाश बायोप्लाज्मा तत्व के सक्रिय रहने पर ही दिखाई देता है तथा मृत्यु के समय इसकी लपटें और चिंगारियां शून्य में विलीन हो जाती हैं।

आत्मा मस्तिष्क से भी परे

आदमी मर गया या अभी जीवित है, इसकी घोषित मान्यता यह है—कि मस्तिष्क काम करना बन्द करदे। इलेक्ट्रोएन से फेलौग्राम (ई.ई.जी.) मस्तिष्कीय कम्पनों की हरकत अंकित करने से इनकार करदे तो समझना चाहिए कि आदमी मर गया। ऐसे व्यक्ति को मृतक घोषित करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। चिकित्सा जगत की पूर्व मान्यता यही है। फ्रांस की नेशनल मेडिकल ऐकेडेमी के एक मृत्यु के फैसले को कानूनी मान्यता दिलाने के लिए विधिवत यह घोषणा करनी पड़ी थी कि यदि किसी व्यक्ति का ई.ई.जी. 48 घण्टे तक लगातार निष्क्रियता प्रकट करता रहे तो उसकी कानूनी मृत्यु घोषित की जा सकती है।

मृत्यु की परिभाषा करते हुए मस्तिष्क विशेषज्ञ डा. हैनीबल, हैयलिन ने भी यही कहा था—मस्तिष्क की मृत्यु को अन्तिम मृत्यु कहा जा सकता है। हारवर्ड मेडीकल कालेज के डा. राबर्ट एस. श्वाव ने भी यही मत निर्धारित किया था कि यदि मस्तिष्क जवाब दे गया है तो हृदय को पम्प करके जीवित रखने का प्रयत्न करना बेकार है।

इस पूर्व मान्यता को झुठलाने वाली एक घटना अंकारा युनिवर्सिटी के डॉक्टर ने स्वयं ही प्रस्तुत करदी। डा. रील 30 वर्ष के नवयुवक थे। वे एक मरीज एक्स-रे ले रहे थे कि गलती से बिजली का नंगा तार छू गये। जोर का आघात लगा और उनके दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया। ई.ई.जी. के हरकत न करने के आधार पर उन्हें मृतक घोषित कर दिया जाना चाहिए था, पर वैसा किया नहीं जा सका। क्योंकि उस हालत में भी उनके चेहरे पर और उंगलियों में हरकत पाई गई। उनकी आंखें खुली हुई थीं और कभी-कभी पलक झपकते देखे गये। डाक्टरों ने उनके मुंह में नली डालकर पेट में बेबीफुड, फलों का रस, सीरस आदि पहुंचाया फलतः उनका दिल तक दूसरे अंग काम करते रहे।

इस विलक्षण जीवित मृतक को देखने के लिए अमेरिका, जापान रूस, इंग्लैंड फ्रांस और जर्मनी के डॉक्टर हवाई जहाजों से अंकारा पहुंचे और यह देखकर चकित रह गये कि मस्तिष्क के पूर्णतया निष्क्रिय हो जाने पर भी डा. रील पौधे की तरह जी रहे थे और उन्हें मांस का पौधा कहा जाने लगा। यों रोगी को जीवित तो न किया जा सका, पर आशा से बहुत अधिक दिनों तक वे जिये।

इससे इस नये सिद्धान्त की पुष्टि हुई कि मस्तिष्क का वह भाग जो ई.ई.जी. की पकड़ में आता है उससे भी भीतर एवं उससे भी गहरी कोई और सत्ता है जो जीवन के लिए मूल रूप से उत्तरदायी है। मस्तिष्क तो उस चेतना का एक औजार मात्र है।

जापान की कोवे युनिवर्सिटी के प्रो. स्यूडा डा. के किओ और डा. सी. आदाशी के त्रिगुट्ट ने मृत दिमाग को जीवित और जीवित को मृतक बनाने में एक नई सफलता प्राप्त की है। उन्होंने बिल्ली का दिमाग निकाल कर शून्य से 20 डिग्री नीचे शीत वातावरण में जमा कर रखा और 103 दिन बाद उसे धीरे-धीरे तापमान देकर पुनः सक्रिय किया। भय था कि ऑक्सीजन के अभाव में मस्तिष्क की कोशिकाएं मर गई होंगी और दिमाग निकम्मा हो गया होगा, पर वैसा हुआ नहीं। 103 दिन तक भी दिमाग जीवित रहा और उसे फिर सक्रिय बनाकर दूसरी बिल्ली के मस्तिष्क में फिट किया जा सकता।

पिछले दिनों वैज्ञानिक क्षेत्रों में आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व की अमान्य ठहराया जाता रहा है और कहा जाता रहा है कि मस्तिष्क ही आत्मा है और उसकी गतिविधियां समाप्त होते ही आत्मा का अन्त हो जाता है। नास्तिकवादी मान्यता मनुष्य को चलता-फिरता पेड़-पौधा भर बताती रही है और कहती रही है कि शरीर के साथ ही जीवन का सदा के लिए अन्त हो जाता है। पर विज्ञान की नवीनतम शोधों ने सिद्ध किया है—मस्तिष्क चेतना के प्रकटीकरण का एक उपकरण मात्र है मूल चेतना उससे भिन्न है और मस्तिष्कीय गतिविधियां समाप्त हो जाने पर भी वह अपना काम करती रह सकती है। यह आस्तिकवादी सिद्धान्त का प्रकारान्तर से समर्थन ही माना जायगा।

वैज्ञानिक शोध

डा. गेट्स ने एक नई किरणों की खोज की है और उनसे आत्मा के अस्तित्व का पता लगाया है। इन किरणों का रंग कुछ कालापन लिये हुये लाल है, ये कुछ कुछ बनफशई रंग की कही जा सकती है पर इस रंग से इनका रंग कुछ गहरा होता है। ‘एक्स रेज’ जिस रंग की होती है, यह भी उनसे कुछ-कुछ मिलती-जुलती सही है, किन्तु कई बातों में इनका ‘एक्सरेज’ से बिल्कुल सम्बन्ध नहीं है। इनमें जो देदीप्यमान शक्ति रहती है वह अंधेरे में में नहीं दीख पड़ती उनके प्रकाश को मनुष्य आंख से नहीं देख सकता। किन्तु उन्होंने कमरे की दीवारों में ‘रोडापसिन’ नामक एक पदार्थ का लेप किया तो देखा कि इन किरणों के प्रभाव से उसका रंग बदल जाता है। इन किरणों में इतनी जबर्दस्त पारदर्शिता देखी गई कि वे हड्डी, धातु, लकड़ी और पत्थर को भी पार करके चमकने लगती है, यदि इन किरणों को दीवार में डाला जाय और बीच में कोई मनुष्य आ जाय तो उन्होंने देखा कि उसकी छाया स्पष्ट दिखाई देने लगती है।

तात्पर्य यह है कि यह किरणें जीवित प्राणी के शरीर का भेद नहीं कर सकती हैं। यह प्रकाश किरणें डॉक्टर गेट्स ने तुरन्त मरे हुए जानवरों की आंखों से इसे प्राप्त किया है। उन्होंने जीवित चूहे को गिलास में डालकर इन किरणों का अध्ययन किया पर सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक उनकी उपलब्धि यह थी कि जब एक मरणासन्न चूहे को गिलास में डालकर यह किरणें फेंकी गईं तो दीवार पर उसकी छाया पड़ी। जब तक चूहा जीवित रहा छाया बराबर बनी रही पर जैसे ही चूहे के प्राण निकल गये, उसका शरीर भी इन किरणों के लिये पारदर्शी हो गया। ठीक उसी क्षण एक छाया नली के भीतर जिसमें चूहा रखा गया था निकली और मसाला लगी हुई दीवार की तरफ जाकर जाकर कुछ दूर ऊपर लोप हो गई। परीक्षा के समय यह दृश्य दो और अध्यापक भी देखते रहे, उन्होंने इस छाया को दीवार पर ऊपर नीचे जाते हुए अच्छी तरह देखा। अब गेट्स इस प्रयत्न में है कि यह पता लगाया जाय कि जब यह छाया शरीर से निकलकर कहीं लोप हो जाती है, उस समय वह ज्ञान अवस्था में रहती है या नहीं। इस सम्बन्ध में यदि कुछ वैज्ञानिक हल निकल सका तो आत्मा के सूक्ष्म अस्तित्व की ओर अधिक पुष्टि की जा सकेगी। भूत-प्रेतों की लीलायें वास्तव में इसी तथ्य की पुष्टि करती है, इसका विवरण आगे देंगे।

यहां यह प्रश्न उठता है कि चूहा जीवित अवस्था में पारदर्शी क्यों नहीं होता। मृत्यु के उपरान्त ही क्यों होता है। डा. गेट्स ने इसका उत्तर देने के लिये गैलवानो मीटर (विद्युत्मापक यन्त्र) से किसी व्यक्ति के शरीर में संचालित विद्युत तरंगों की शक्ति को मापा और इसके बाद उन किरणों की शक्ति को। शारीरिक बिजली की शक्ति अधिक थी। अब गेट्स ने बताया कि जिस समय मनुष्य विचार करता है और उसकी नाड़ी और मज्जा-तन्तु काम करते रहते हैं, तब तक शरीर में विद्युत प्रवाह बना रहता है। इस प्रवाह की शक्ति अधिक होने के कारण जब यह किरणें उनके पास पहुंचती हैं तो पीछे धकेल दी जाती हैं पर जब प्राण-विद्युत निकल जाती हैं तो उनके लिये कोई बाधा नहीं हर जाती। उन्होंने शरीर की इस विद्युत-शक्ति को ही आत्मा की प्रकाश-शक्ति माना है। इस तथ्य से भी बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता।

आत्मा को तौलने और उसे विकिरण से सिद्ध करने की तरह ही उसके फोटो लेने के लिये भी प्रयत्न किये गये हैं। फ्रांस के डॉक्टर हेनरी बारादुक ने एक विशेष कैमरा बनवाया और मृत्यु की फोटो लेने की तैयारी की। संयोग से एक बार उनका लड़का बहुत तेजी से ज्वराक्रान्त हुआ। उसके बचने के कोई लक्षण दिखाई न दिये तो इस वैज्ञानिक ने परीक्षण करने की ही बात ठान ली ऐसा ही प्रयोग उसने अपनी मरणासन्न पत्नी पर भी किया और एक प्रकार की प्रकाश-किरणों की पुष्टि की पर उसके कठोर स्वभाव के कारण फ्रांसीसियों ने उसकी उपेक्षा कर दी और उसका सारा उत्साह वहीं ठण्डा पड़ गया। कैलीफोर्निया के दूसरे डा. एफ. एम. स्ट्रॉ ने तो इस प्रकार का एक सार्वजनिक प्रदर्शन ही किया था, जिसमें अखबार के प्रतिनिधियों ने साधारण कैमरों से कुछ रहस्यमय किरणों के चित्र प्राप्त किये। सब वैज्ञानिकों ने यह माना कि मनुष्य शरीर में कोई चैतन्य सत्त्व, कुछ रहस्यमय किरणें, कोई विलक्षण तत्त्व और प्रकाश है अवश्य पर उसका रहस्य वे नहीं जान पाये।

इंग्लैण्ड की राजधानी लन्दन के प्रख्यात सेंट जेम्स अस्पताल के डॉक्टर डब्ल्यू. जे. किल्नर को एक बार आत्मा के अस्तित्व को जानने की तीव्र जिज्ञासा पैदा हुई। यह जिज्ञासा एक आकस्मिक घटना के कारण हुई। एक दिन जब वे अस्पताल में रोगियों का परीक्षण कर रहे थे तो खुर्दबीन पर एक विशेष प्रकार का रंग जम गया। वह विशेष रासायनिक रंग था, जो इतना दुर्लभ था कि सेंट जेम्स तो दूर शायद इंग्लैण्ड की किसी भी प्रयोगशाला में उसका उपलब्ध होना कठिन था। वह रंग कहां से आया इस पर बहुत खोज की पर उस सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका।

मृत्यु—आत्मा का बहिर्गमन

वैज्ञानिक परीक्षण— दूसरे दिन वे अपने एक रोगी के कपड़े उतरवा कर खुर्दबीन से उसके शरीर की जांच कर रहे थे तो वह यह देखकर स्तब्ध रह गये कि उसी रासायनिक रंग की लहरें शीशे के सामने उड़ रही हैं। कपड़े बिल्कुल हटा देने पर उन्होंने पाया कि रोगी के छह सात इन्च की परिधि में वही प्रकाश एक मण्डल बनाये हुए स्थित है। यह देखकर वे इतना डर गये कि उनकी उंगलियां कांपने लगीं। उन्होंने बहुत जांच की पर उस प्रकाश को शरीर की किसी अवस्था का परिणाम नहीं पाया। तभी एक और विचित्र घटना हुई। उन्होंने देखा जब यह प्रकाश कुछ तीव्र रहा। तब तक रोगी चेतना की सी स्थिति में रहा पर जैसे ही प्रकाश मन्द पड़ना प्रारम्भ हुआ कि रोगी शरीर भी शिथिल पड़ने लगा। डा. किल्नर बराबर रोगी पर दृष्टि रख रहे थे। वह मरणासन्न था, धीरे-धीरे वह प्रकाश न जाने कहां विलुप्त हो गया और इसके बाद जब उन्होंने उसकी नाड़ी परीक्षा की तो उसे पूर्ण रूप से मृत पाया। सारा शरीर ठण्डा पड़ चुका था और वहां किसी भी प्रकार का रासायनिक रंग शेष नहीं रह गया था।

इस घटना की रिपोर्ट छपी तो सैंकड़ों लोग आश्चर्यचकित रह गये। डा. किल्नर ने बाद में ‘दि ह्यूमन एटमास्फियर’ नामक पुस्तक लिखी। उसमें उन्होंने वर्तमान भौतिक विज्ञान को चुनौती देने वाली तथ्य प्रस्तुत किये हैं और यह बताया है कि पश्चिम की यह बड़ी भारी भूल है कि वह जीवन जैसी अमूल्य और वास्तविक वस्तु की खोज करने की अपेक्षा जड़ वस्तुओं के चक्कर में पड़ा अपना अहित कर रहा है। अमेरिका के विलियम मैक्डूगल का ध्यान भी इस ओर आकर्षित हुआ और उन्होंने भी आत्मा के अस्तित्व को जानने के लिये प्रयोग प्रारम्भ कर दिये। उन्होंने रोगियों का वजन लेने के लिये एक ऐसा तराजू बनाया जो पलंग पर लेटे हुए रोगी का एक ग्राम से भी सैकड़ों अंश कम भार को भी तौल सके। एक बार एक मरणासन्न रोगी को उसमें लिटाकर वजन लिया उसके फेफड़ों में कितनी सांस रहती है, उसका तौल पहले ले लिया। कपड़ों सहित पलंग का वजन भी तैयार था। रोगी को जो भी औषधि दी गई, उसका तौल तराजू की सुई बराबर बताती रहती थी।

जब तक रोगी जीवित रहा तब तक वह सुई बराबर एक स्थान पर टिकी रही पर जिस क्षण उसके प्राण निकले सुई पीछे हटकर टिक गयी और जब अंग पढ़े गये तो यह देखा गया कि 1 औंस (आधी छटांक) वजन कम हो गया है। बाद में भी उन्होंने जितने भी मरणासन्न रोगियों पर यह प्रयोग किया, चौथाई औंस से लेकर डेढ़ औंस तक वजन कम पाया। उन्होंने इस सिद्धान्त की पुष्टि की कि शरीर में कोई अत्यन्त सूक्ष्मतत्त्व निश्चित रूप से है, वही जीवन का आधार है, उसकी तौल भी उन्होंने उपरोक्त प्रकार के परीक्षणों से प्राप्त की। लॉस एन्जिल्स के प्रोफेसर ट्वाहनिंग और कार्नल विश्वविद्यालय के डा. ओटो रान ने भी ऐसे प्रयोग किये। 1916 में डा. रान ने अपने प्रयोगों के आधार पर लिखा कि ‘‘इसमें सन्देह नहीं है कि प्रत्येक जीवित मनुष्य के चारों ओर कुछ रहस्यमय किरणों का आवरण रहता है पर वे मृत्यु के उपरान्त लुप्त हो जाती है। विज्ञान जब तक इन अतिसूक्ष्म प्रकाश कणों को नहीं जान पाता, तब तक वह अधूरा और भ्रामक ही रहेगा, क्योंकि जीवन का आधार इन सूक्ष्म किरणों में सन्निहित है और उसके विकास एवं अनुभूति की प्रणाली भिन्न है।

आदमी मर गया या अभी जीवित है, इसकी घोषित मान्यता यह है कि—मस्तिष्क काम करना बन्द करदे। इलेक्ट्रोन से फेलोग्राम ई.ई.जी. मस्तिष्कीय कम्पनों की हरकत अंकित करने से इनकार करदे तो समझना चाहिए कि आदमी मर गया। ऐसे व्यक्ति को मृतक घोषित करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। चिकित्सा जगत की पूर्व मान्यता यही है। फ्रांस की नेशनल मेडिकल ऐकेडेमी के एक मृत्यु के फैसले को कानूनी मान्यता दिलाने के लिए विधिवत यह घोषणा करनी पड़ी थी कि यदि किसी व्यक्ति का ई.ई.जी. 48 घण्टे तक लगातार निष्क्रियता प्रकट करता रहे तो उसकी ‘कानूनी मृत्यु’ घोषित की जा सकती है।

मृत्यु की परिभाषा करते हुए मस्तिष्क विशेषज्ञ डा. हैडनीवल, हैयलिन ने भी यही कहा था—मस्तिष्क की मृत्यु को अन्तिम मृत्यु कहा जा सकता है। हारवर्ड मेडीकल कालेज के डा. राबर्ट एस. श्वास ने भी यही मत निर्धारित किया था कि यदि मस्तिष्क जवाब दे गया है तो हृदय को पम्प करके जीवित रखने का प्रयत्न करना बेकार है।

इस पूर्व मान्यता को झुठलाने वाली एक घटना अंकारा युनिवर्सिटी के डॉक्टर ने स्वयं ही प्रस्तुत करदी। डा. रील 30 वर्ष के नवयुवक थे। वे एक मरीज एक्स-रे ले रहे थे कि गलती से बिजली का नंगा तार छू गये। जोर का आघात लगा और उनके दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया। ई.ई.जी. के हरकत न करने के आधार पर उन्हें मृतक घोषित कर दिया जाना चाहिए था, पर वैसा किया नहीं जा सका। क्योंकि उस हालत में भी उनके चेहरे पर और उंगलियों में हरकत पाई गई। उनकी आंखें खुली हुई थीं और कभी-कभी पलक झपकते देखे गये। डाक्टरों ने उनके मुंह में नली डालकर पेट में बेबीफुड, फलों का रस, सीरस आदि पहुंचाया फलतः उनका दिल तक दूसरे अंग काम करते रहे।

इस विलक्षण जीवित मृतक को देखने के लिए अमेरिका, जापान रूस, इंग्लैंड फ्रांस और जर्मनी के डॉक्टर हवाई जहाजों से अंकारा पहुंचे और यह देखकर चकित रह गये कि मस्तिष्क के पूर्णतया निष्क्रिय हो जाने पर भी डा. रील पौधे की तरह जी रहे थे और उन्हें मांस का पौधा कहा जाने लगा। यों रोगी को जीवित तो न किया जा सका, पर आशा से बहुत अधिक दिनों तक वे जिये।

इससे इस नये सिद्धान्त की पुष्टि हुई कि मस्तिष्क का वह भाग जो ई.ई.जी. की पकड़ में आता है उससे भी भीतर एवं उससे भी गहरी कोई और सत्ता है जो जीवन के लिए मूल रूप से उत्तरदायी है। मस्तिष्क तो उस चेतना का एक औजार मात्र है।

जापान की कोवे युनिवर्सिटी के प्रो. स्यूडा डा. के किओ और डा. सी. आदाशी के त्रिगुट्ट ने मृत दिमाग को जीवित और जीवित को मृतक बनाने में एक नई सफलता प्राप्त की है। उन्होंने बिल्ली का दिमाग निकाल कर शून्य से 20 डिग्री नीचे शीत वातावरण में जमा कर रखा और 103 दिन बाद उसे धीरे-धीरे तापमान देकर पुनः सक्रिय किया। भय था कि ऑक्सीजन के अभाव में मस्तिष्क की कोशिकाएं मर गई होंगी और दिमाग निकम्मा हो गया होगा, पर वैसा हुआ नहीं। 103 दिन तक भी दिमाग जीवित रहा और उसे फिर सक्रिय बनाकर दूसरी बिल्ली के मस्तिष्क में फिट किया जा सकता।

पिछले दिनों वैज्ञानिक क्षेत्रों में आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व की अमान्य ठहराया जाता रहा है और कहा जाता रहा है कि मस्तिष्क ही आत्मा है और उसकी गतिविधियां समाप्त होते ही आत्मा का अन्त हो जाता है। नास्तिकवादी मान्यता मनुष्य को चलता-फिरता पेड़-पौधा भर बताती रही है और कहती रही है कि शरीर के साथ ही जीवन का सदा के लिए अन्त हो जाता है। पर विज्ञान की नवीनतम शोधों ने सिद्ध किया है—मस्तिष्क चेतना के प्रकटीकरण का एक उपकरण मात्र है मूल चेतना उससे भिन्न है और मस्तिष्कीय गतिविधियां समाप्त हो जाने पर भी वह अपना काम करती रह सकती है। यह आस्तिकवादी सिद्धान्त का प्रकारान्तर से समर्थन ही माना जायगा।
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