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Books - मनुष्य चलता फिरता पेड़ नही है

Media: TEXT
Language: HINDI
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आत्मा का अस्तित्व अमान्य न किया जाय

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आत्मा को झुठलाएं नहीं

जड़ जगत को ही सब कुछ मान लेना और चेतना को भी जड़ के पीछे काम करने वाली हलचलों की प्रतिक्रिया समझ बैठना जड़वाद का अन्ध समर्थन मात्र है। चेतना के अस्तित्व को झुठलाया जाना अपने युग का बौद्धिक-दुर्भाग्य ही कहा जायगा। जिस चेतना ने जड़ पदार्थों को साज संभाल कर उपयोगी एवं सुन्दर बनाया—जिस चेतना ने अपनी सूक्ष्म बुद्धि से प्रकृति के अनेकानेक रहस्यों को जाना और उनसे लाभान्वित हो सकने की स्थिति तक मनुष्य को पहुंचाया, उसी चेतना के अस्तित्व तक से हम इनकार करने लगे तो इसे आत्म विस्मृति के अतिरिक्त और क्या कहा जायगा?

कठिनाई यह है कि विज्ञान जगत् प्रत्यक्ष भौतिक प्रयोग परीक्षणों को ही सब कुछ मान बैठता है और प्रयोग शालाओं की सिद्धि को ही प्रामाणिक ठहराता है जब कि तर्क और तथ्य यह भी कहते हैं कि इस विश्व के रहस्यों को—विशेषतया चेतन तथ्यों को जानने के लिए प्रयोगशालाओं की उपलब्धियों तक ही सीमित नहीं रहा जा सकता। पदार्थों में पाई जाने वाली हलचल स्वसंचालित हो सकती है यह प्रतिपादन गले नहीं उतरता। चेतन संचालक के बिना वस्तुएं निश्चेष्ट और अस्त-व्यस्त पड़ी रहती हैं। बहुमूल्य जलयान, वायुयान, रेल इंजन आदि बिना ड्राइवर के नहीं चलते फिर असीम ब्रह्माण्ड व्यापी अन्तर्ग्रही और सीमित परमाणु सत्ता में जो सुव्यवस्थित अनवरत गति चक्र चल रहा है वह अनायास स्वसंचालित कैसे हो सकता है? इसके पीछे चेतन शक्ति की प्रेरणा एवं व्यवस्था होनी आवश्यक है। यदि विवेक, तर्क एवं बुद्धि को भी यान्त्रिक उपकरणों की तरह ही साक्षी साधन मान लिया जाय तो फिर ईश्वर के अस्तित्व को समझने-स्वीकार करने में कोई कठिनाई न रहेगी।

आत्मा के अस्तित्व को प्रयोगशालाओं में तो सिद्ध नहीं किया जा सका, पर अन्य ऐसे अकाट्य प्रमाण मौजूद हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मरने के बाद भी जीव चेतना का अस्तित्व बना रहता है। इस तथ्य की साक्षी में प्रेतात्माओं की हलचलें तथा पुनर्जन्म की ऐसी घटनाएं प्रस्तुत की जा सकती हैं जो प्रामाणिक व्यक्तियों के अनुभव में आई है और उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता इसी प्रकार पुनर्जन्म के भी अगणित प्रमाण मिलते हैं। जिनसे सिद्ध होता है कि पिछले जन्म की ऐसी अनेक घटनाओं का विवरण नये जन्म में स्मरण बना रह सकता है जो अन्य लोगों को विदित नहीं था। किसी ने सिखा पढ़ा कर पूर्व जन्म विवरण का कौतूहल तो खड़ा नहीं कर दिया है इस आशंका की काट उन प्रमाणों से हो जाती है जिनमें बालकों ने अपने पूर्वजन्म के सम्बन्धियों को पहचाना और नाम लेकर पुकारा है। इसी प्रकार उनने नितान्त व्यक्तिगत ऐसी घटनाएं सुनाई हैं जो सम्बद्ध व्यक्तियों के अतिरिक्त अन्य लोगों को विदित नहीं हो सकती थीं। जमीन में अपना गढ़ा हुआ धन बता कर उसे निकलवाना पूर्वस्मृति का ठोस प्रमाण समझा जा सकता है। प्रेतात्माओं के अस्तित्व और पुनर्जन्म के प्रत्यक्ष प्रमाणों को भी यदि प्रयोगशाला सिद्ध तथ्यों की तुलना में माना जा सके तो फिर आत्मा और परमात्मा के अस्तित्व में सन्देश की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती।

गणित शास्त्री ओस्पेन्स्की ने तीन ग्रन्थों में गणित के आधार पर चेतना के व्यापक अस्तित्व को सिद्ध करने का अकाट्य प्रयत्न किया है। इस सन्दर्भ में उनके द्वारा लिखे गये ग्रन्थों में ‘इन सर्च आफ दि मिरेकुलस—टर्टियम आर्गेनमथ्योरी आफ इन्टरनल लाइफ’ अधिक प्रसिद्ध है।

भौतिकी के आचार्य राबर्ट मायर ने ऊर्जा के दर्शन पर जो खोजें की हैं वे बताती हैं कि उसकी अधिकाधिक सूक्ष्म स्थिति में जो तत्व शेष रह जाता है उसे चेतना की संज्ञा दी जा सकती है। यह उच्च स्तर पर एकरस और सर्व-व्यापी स्थिति में बनी रहती है। उसका उत्पादन और विलयन क्रम तो स्थूल रूप से ही चलता है।

मनोविज्ञानी जे.बी. राइन ने मानवी मनःचेतना को पराजागतिक और परा भौतिक की संज्ञा दी है। वे उसका स्वरूप विद्युतीय एवं चुम्बकीय स्तर की ऐसी स्वतन्त्र इकाई के रूप में मानते हैं जो मरने के बाद भी अपनी सत्ता बनाये रहता है। उसमें इतने प्रबल संकल्प भी जुड़े रहते हैं जिनके सहारे पुराने स्तर की तथा नये प्रकार की किसी आकृति का सृजन और धारण कर सके। उनकी दृष्टि में यह व्यक्ति चेतना दृश्य अथवा अदृश्य स्थिति में अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये रहने में पूर्णतया समर्थ है। आइन्स्टाइन ने सृष्टि के मूल में चेतना को सक्रिय माना था। जे.ए. थामसन, जेम्स जोन्स, ए.एस. एडिग्रन आदि ने विज्ञान की नवीन दिशाओं का अलग-अलग विवेचन करते हुए एक ही बात कही—विज्ञान के पास जीवन के प्रारम्भ होने की कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है। वैज्ञानिक अन्वेषण अब चेतना और विचार जगत की ओर बढ़ रहे हैं।

भारतीय दर्शन और संस्कृति आदिकाल से आत्मा की अखण्डता पर आस्थावान है। अणु मात्र होकर भी वह संपूर्ण शरीर पर आधिपत्य रखता है। भावनात्मक परिष्कार से आत्मबल बढ़ाता है और अपने स्वरूप को जानने वाला जीवात्मा परमात्म-सत्ता से एक रूप हो जाता है।

नोबुल पुरस्कार विजेता भौतिकीविद श्री पिपरे दि कोम्ते ने आत्मा को विश्वात्मा से सम्बन्धित बताया है तथा इसी आधार पर उसे अमर भी कहा है, क्योंकि विश्व चेतना अमर है और आत्मा उसी की छोटी इकाई मात्र है।

इलेक्ट्रो डायनेमिक सिद्धान्तों के अनुसार ‘ईगो’ की छानबीन की जाने पर ये तथ्य सामने आए हैं कि जनम-मरण—चक्र में भ्रमण करती हुई, भिन्न-भिन्न आकृति-प्रकृति अपनाते हुए भी, मूल-सत्ता अक्षुण्ण रहती है।

विभिन्न खोजों के बाद विश्वविख्यात वैज्ञानिक फ्रेड हायल तथा जयन्त विष्णु नार्लीकर ने यह स्थापना की है कि विश्व रचना में कारणभूत अणु और मानवीय शरीर की संरचना में कारणभूत जीवाणु की मूल संरचना एक-सी है।

केनोपनिषद में एक कथानक आता है उसमें जीवात्मा की सर्व-शक्तिमत्ता और सर्वोपरिता पर बहुत महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है एक बार समस्त देवताओं को अहंकार हो गया कि वे ही सर्व समर्थ हैं और सृष्टि को चलाते हैं—देवता, अर्थात् इन्द्रियां-इन्द्रियां भी मनुष्य को बहका देती हैं कि वे ही सर्व समर्थ और मानवीय इष्ट है किंतु यह भ्रम देर तक टिकता नहीं।

इन्द्र अग्नि, वायु, आकाश आदि सभी देवताओं का ब्रह्म ने आवाहन किया। उनके सामने एक तिनका रखा और कहा—इसे उठाओ, जलाओ और उड़ाओ पर एक नन्हें से तिनके को हस्तान्तरित करने में कोई भी समर्थ न हुआ तब ब्रह्म ने उस तिनके को उठाया, फूंक मारकर उड़ाया और जलाकर भी दिखा दिया। पराभूत देवताओं को उपदेश देते हुए केनोपनिषद में ब्रह्म ने समझाया कि शक्ति का केन्द्र शरीर नहीं आत्म-चेतना है। शरीर तो जड़ है, उसका अभिमान नहीं करना चाहिये।

इस आख्यायिका में बताया है कि मनुष्य के शरीर में विभिन्न पदार्थों की सम्मिलित शक्ति होने पर भी यदि चेतना नहीं है तो मात्र पिण्ड कुछ नहीं कर सकता—सर्व शक्तिमान चेतना है—आत्मा है जड़ शरीर नहीं, यह चेतना शरीर से स्वतन्त्र अस्तित्व है।

ऋग्वेद का कथन है—

अश्वयं गोपामनिद्यमानमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम् । स सध्रीचाः स विचूचीवज्ञान आवरी वर्ति भुवनेष्वन्तः ।। —ऋग्वेद 1। 177। 3

अर्थात्—यह जीवात्मा अनेक मार्गों द्वारा शरीर में आता है (शरीर से पैदा नहीं होता) शरीर से पृथक् होता है अविनाशी और इन्द्रियों का रक्षक होता है। वह शरीर के साथ भी रहता है शरीर को छोड़कर भी रहता है।

पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी कोई ऐसा प्रयोग नहीं कर पाये जिससे आत्म-चेतना के अस्तित्व की पृथक् अनुभूति की जा सके। पर योग-साधनाओं द्वारा आत्मा को बोधगम्य बनाने वाले भारतीय योगियों ने ऐसे प्रमाण प्रत्यक्ष प्रदर्शनों द्वारा प्रस्तुत किये हैं जिनसे पता चलता है कि आत्मा अज्ञान वश शरीर के व्यापार में आसक्त पड़ा रहे यह अलग बात है पर वह है स्वशासी, अपने नियन्त्रण में आप। एकबार सुप्रसिद्ध योगी देशबन्धु की इस मान्यता को कुछ डाक्टरों ने अमान्य किया। फलस्वरूप बम्बई मेडिकल यूनियन की ओर से श्री देशबन्धु का प्रदर्शन कराया गया। उसे देखने के लिये बम्बई मेडिकल कालेज के छात्र स्टाफ तथा अन्य विशिष्ट नागरिक भी एकत्र हुये। डा. बसन्त जी रैले उनके शरीर परीक्षण के लिये नियुक्त किये गये। श्री देशबन्धु से कहा गया यदि आप मानते हैं कि चेतना को शरीर से भिन्न किया जा सकता है तो आप दाहिने हाथ की नाड़ी-क्रिया को शून्य करके दिखाइये?

श्री देशबन्धु ने लम्बी श्वांस-प्रश्वांस क्रिया की। गहरी सांस ली और उसे बाहर निकाल दिया। दाहिना और बांया दोनों हाथ बाहर निकाल दिया। श्री रैले ने देखा बायें हाथ की नाड़ी यथावत् धक्-धक् कर रही थी पर दाहिने हाथ की नाड़ी में संचालन की जरा भी गति नहीं थी। दुबारा फिर वैसा ही करके उन्होंने दाहिने हाथ की नाड़ी चलाकर दिखा दी और बायें हाथ की नाड़ी गति को शून्य कर दिया। डाक्टरों की टीम आश्चर्य चकित तब रह गई जबकि योगी देशबन्धु ने विभिन्न प्राणायाम क्रियाओं द्वारा सारे शरीर की नाड़ी संस्थानों को तो गतिशील रखा किन्तु हृदय गति बिलकुल रोक दिया। हृदय गति रुक जाने पर मनुष्य एक भी क्षण जीवित नहीं रह सकता। पश्चिम अभी तक कोई ऐसा प्रयोग नहीं कर सका कि शून्य गति हृदय को गति देकर मृतक को जिन्दा कर दिया हो जबकि प्रत्यक्ष उदाहरण यह था कि शेष शरीर जी रहा था और शरीर का इंजिन हृदय फेल पड़ा था। श्री देशबन्धु ने कहा—आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है उस पर केन्द्रस्थ होकर आश्चर्यजनक दिखने वाला हर काम सम्भव है।

डाक्टरों ने उस समय यह तर्क किया कि सम्भव है यह सब आपने हिप्नोटिज्म द्वारा लोगों को सम्मोहित करके दिखाया हो। इस पर उन्होंने दुबारा प्रयोग किया। इस बार एक्सरे कार्डियो ग्राम द्वारा विधिवत् हृदय-गति की जांच की तो भी परिणाम ज्यों का त्यों रहा। श्री देशबन्धु ने इसे महज खेल बताते हुए कहा—आत्म-चेतना नाड़ी संस्थानों द्वारा इस शरीर से सम्बद्ध है। यह क्रियायें और कुछ नहीं केवल मात्र ‘वेगस नर्व’ के नियन्त्रण का परिणाम है। भली भांति नियन्त्रित आत्म-चेतना से दूरगमन परलोक अनुभूति, परकाया प्रवेश, ईशत्व वशित्व आदि विलक्षण सिद्धियां और सामर्थ्य अर्जित की जा सकती हैं। अणु से विराट् बनने का श्रेय इन साधनाओं द्वारा ही समुपलब्ध होता है।

योग मार्ग न सही ऐसे अनुभव पाश्चात्य लोगों ने भी किये हैं और माना है कि शरीर की मुख्य चेतना अपने स्वतन्त्र अस्तित्व में वस्तुतः रह सकती है। द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान अगस्त सन् 1944 को एक फौजी अफसर को हुआ। ऐसा ही अनुभव वह ऑफिसर स्काउट कार द्वारा जा रहा था तभी जर्मनी की एण्टी टैंक तोपों का सीधा प्रहार हुआ। ऑफीसर जिस गाड़ी में था उसमें भी विस्फोटक पदार्थ भरे थे उनमें विस्फोट हो गया। उस समय की स्थिति का वर्णन करते हुए ऑफिसर ने द्वितीय विश्व युद्ध के मित्र राष्ट्र गजेटियर में लिखा है—जैसे ही विस्फोट हुआ मैं 20 फुट दूर जा गिरा। ऐसा लगा मैं दो भागों में विभक्त हो गया। मेरा एक शरीर नीचे जमीन में पड़ा तड़प रहा है उसके कपड़ों में आग लगी है। भय से वह अपने हाथ पैर बुरी तरह हिला रहा है। किन्तु दूसरा शरीर इस शरीर के ऊपर आकाश में हवा की तरह तैर रहा था मैं अपने रूप को स्वयं पहचानने में असमर्थ था पर वहां की हर वस्तु, सड़क के पार का युद्ध दृश्य, झाड़ियां जलती कार में सब कुछ देख रहा था। मुझे भीतर से एक अन्तः प्रेरणा उठी कि तड़फड़ाने से कुछ लाभ नहीं जल्दी-जल्दी शरीर को जमीन से रगड़ो ताकि आग बुझ जाये। शरीर ने ऐसा ही किया। वह लुढ़क कर बगल की खाई में जा गिरा। खाई में कुछ नमी थी, आग बुझ गई और मुझे ऐसा लगा जैसे एक पक्षी द्वारा घोंसले में प्रवेश की तरह मैं फिर उसी शरीर में आ गया। अब मुझे शरीर की पीड़ा का पुनः भान होने लगा जबकि थोड़ी देर पूर्व यही दृश्य मैं मात्र दर्शक बना देख रहा था।

यह उदाहरण विवेक चूड़ामणि की इस सत्यता का ही बोध कराते हैं—

असंङ्गोऽहमनङ्गो हमलिंङ्गोऽहमभङगरः । प्रशान्तोऽहमन्तोऽहमतानतोऽहं चिरन्तनः ।।

मैं (आत्म-चेतना) असंग हूं, अशरीर हूं, मेरा कोई लिंग भेद नहीं मेरा नाश होता, अत्यन्त शांत अनंत अतान्त और पुरातन हूं मेरा कोई आदि अन्त नहीं।

भारतीय दर्शन के इन गूढ़ रहस्यों का मर्म श्री रामकृष्ण परमहंस बहुत सीधे सादे उदाहरण से समझाया करते कहा करते—जिस तरह प्याज की गांठ का छिलका उतार दो दूसरा छिलका आ जाता है छिलके उतारते जाओ अन्त में उसका बीज मात्र रह जाता है उसी प्रकार शरीर के पदार्थ की समीक्षा, उसका विश्लेषण करते जाओ तो समस्त स्थूल पदार्थों के बाद जो शेष बचेगा वह आत्म-चेतना ही होगी। इसकी विधिवत अनुभूति लम्बी योग-साधनाओं से सम्भव है पर कई बार आकस्मिक घटना भी आत्म-चेतना के प्रथक अस्तित्व का बोध करा देती है। जम्मू में शिक्षा विभाग के एक मध्यम श्रेणी कर्मचारी श्री गोपी कृष्ण ने किसी पुस्तक में पढ़ा—मस्तिष्क के मध्य ज्योतिर्लिंग का ध्यान करने से परमात्मा की अनुभूति होती है। एक दिन वे इसी तरह ध्यान कर रहे थे। जिज्ञासा की प्रखरता में बड़ी प्रबल शक्ति है। मन की चंचलता के कारण ध्यान का जो लाभ कुछ लोग वर्षों अभ्यास के बाद भी नहीं ले पाते वह उनकी तीव्र जिज्ञासा ने क्षण भर में प्रदान कर दिया उन्हें सहस्रार की स्पष्ट अनुभूति अकस्मात हो गई। वे समझ न सके यह क्या हुआ वे दिव्य लोक में खोये से रहने लगे एक दिन वे तवी पुल पार कर रहे थे तभी उस प्रकाश के बोध के साथ ही उनके मस्तिष्क में बहुत ही दिव्य भाव छन्द बद्ध काव्य के रूप में उदित हुये। साधारण शिक्षित व्यक्ति में असाधारण कवित्व शक्ति का उदय उनके लिये एक आश्चर्य बन गया। वे कवितायें लिखने लगे। आश्चर्य तब और भी गहरा हो गया जब उनके मस्तिष्क में जर्मन फ्रेंच इटेलियन, अरबी जिनका के उन्हें ज्ञान भी नहीं था नियमित काव्य धारायें उतरने लगीं। उनके इस काव्यों और विलक्षण मानसिक शक्तियों का परीक्षण अनेक पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने भी किया और उन विचारों को श्रृंखला बद्ध नियमित और व्याकरण के नियमों से नियन्त्रित पाया। रहस्य को न समझने पर भी सबने माना कि श्री गोपीकृष्ण के शरीर में किसी ऐसी सत्ता का विकास हो गया है जो शरीर और मन की पहुंच से बहुत व्यापक पहुंच वाली है। यह विलक्षण घटनायें देखकर योग वशिष्ठ के यह कथन याद आते हैं—

आत्मा शरीर सम्बन्धी शरीरमपि नात्मनि भिथो विलक्षणावेतो प्रकाश तमसी यथा। 5। 5। 25

अर्थात् आत्मा का शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं। अन्धकार और प्रकाश की तरह दोनों दो विलक्षण पदार्थ हैं। सोना कीचड़ में गिर जाने से उस पर कीचड़ का आवरण चढ़ गया जान पड़ता है तथापि सोने कणों की शुद्धता में कोई अन्तर नहीं आता उसी प्रकार शरीर में आ जाने पर भी आत्मा के अस्तित्व में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आता। आधुनिक वैज्ञानिक चेतना को प्राकृतिक मानते हैं। उनका कहना है कि चेतन ‘‘प्रोटोप्लाज्म’’ (नमक को इतना पीसा जाय कि फिर उसके टुकड़े न हो सके उसे नमक का परमाणु कहते हैं, शरीर जिस पदार्थ से बना है उसकी लघुत्तम इकाई का नाम ‘‘सेल’’ है सेल या कोश जिन तत्वों से बनता है उसे प्रोटोप्लाज्म में शहर के समान नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बन, फास्फोरस आदि बारह पदार्थों से बना एक तरल पदार्थ होता है जिसे साइटोप्लाज्म कहते हैं। यह भौतिक पदार्थ भी इलेक्ट्रान, प्रोट्रॉन, न्यूट्रॉन, पाजिट्रान और नाभिक से बने है। हक्सले के हवाले से वैज्ञानिक कहते हैं कि इलेक्ट्रान निरन्तर गतिशील रहते हैं। प्रकृति के बदलते रहने से इलेक्ट्रानों धारा निरन्तर बहती रहती है उसी से निरन्तर चेतना का क्रम बना रहता है उसे ही चेतना या जीवन कहते हैं।

किन्तु प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर ओलिवर लाज ने अपनी पुस्तक और धर्म (साइन्स एण्ड रिलीजन) के पेज 18 में स्पष्ट किया है कि प्रत्येक परमाणु कई इलेक्ट्रान से मिलकर बना होता है यह इलेक्ट्रान गति भी करते हैं पर वे एक दूसरे से चिपके नहीं रहते वरन् जिस तरह आकाश में ग्रह-नक्षत्र दूर-दूर परिभ्रमण करते हैं उसी तरह यह भी अलग-अलग रहकर परिभ्रमण करते हैं इससे इलेक्ट्रान्स की निरन्तर प्रवाह प्रक्रिया को चेतना या जीवन नहीं कहा जा सकता। किसी निश्चित निष्कर्ष पर न पहुंच पाने पर भी आज के विज्ञान ने यह मान लिया है कि चेतना अजर-अमर तत्व है। इलेक्ट्रान तो मन जैसी प्रचण्ड वेग वाली पदार्थ जन्य शक्ति का नाम है। आत्मा उससे भी भिन्न है।

‘‘दि सूट्स आफ कोइन्सिडेन्स’’ के लेखक आथरडा कोएस्लर ने जीवसत्ता को आणविक या रासायनिक संघात से सर्वथा भिन्न माना है।

‘‘यू डू टेक इट विद यू’’ के लेखक डिविट मिलर ने मस्तिष्कीय कोशों में ही घुली हुई एक अतिरिक्त चेतना को माना है तथा उसका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया है। यह चेतना मस्तिष्क के कोशों को प्रभावित करती है।

हमारा विश्व एक विराट शक्ति-सागर है। यह शक्ति-सागर जड़-चेतन से मिश्रित है। प्राणियों की सत्ता इसमें एक बुल-बुले की तरह स्वतन्त्र अस्तित्व बनाती है, विकसित होती है और समयानुसार विलीन हो जाती है।

मूर्धन्य वैज्ञानिकों की मान्यता है कि इस विराट् शक्ति सागर में एक भौतिक शक्तिधारा है, दूसरी प्राणिज। दोनों एक अविच्छिन्न युग्म बनाती हैं।

विकासमान विज्ञान अब जीवन को रासायनिक संयोग मात्र नहीं मानता। मनश्चेतना की मरणोत्तर सत्ता को स्वीकार ही करली गई है। अब चेतना जगत की स्वतन्त्र सत्ता को एक घटक मानने की बारी है।

इन दिनों ब्रह्माण्डीय चेतना की वैज्ञानिक क्षेत्रों में बहुत चर्चा है। उसे परा प्रकृति की स्वीकृति, माना जाना चाहिए। प्रकृति के दो स्तर हैं एक ‘परा’ दूसरा ‘अपरा’। ‘परा’ वह है जिसे पंच भौतिक कह सकते हैं। इन्द्रिय चेतना से जो अनुभव की जा सकती है अथवा यन्त्र उपकरणों की सहायता से जो प्रत्यक्ष हो सकती है। भौतिक विज्ञान का कार्यक्षेत्र यहीं तक सीमित है। कुछ समय पूर्व तक वैज्ञानिक इतने थे। चेतना की व्याख्या आणविक एवं कम्पन परक हलचलों की ही प्रतिक्रिया कहते थे। अब बात आगे बढ़ गई। विज्ञान के बचपन ने किशोरावस्था में प्रवेश किया है। फलतः अपरा प्रकृति का अस्तित्व सहमते-झिझकते स्वीकार किया गया है। इस नये कार्य क्षेत्र को सूक्ष्म जगत कहा जाने लगा है। इसकी हलचलें आणविक गतिविधियां नहीं कही जा सकतीं और न ताप, प्रकाश शब्द के कम्पनों से उसकी कोई तुलना है। उसे समष्टि मस्तिष्क माना गया है। बल्ब में जल ने वाली बिजली-अन्तरिक्ष में व्यापक विद्युत शक्ति की एक चिनगारी समझी जाती थी और दोनों का परस्पर सघन सम्बन्ध स्वीकार किया जाता था। अब व्यष्टि मस्तिष्क की एक चिनगारी और समष्टि मस्तिष्क की व्यापक अग्नि के समकक्ष माना गया है। व्यक्तिगत मस्तिष्क की अपनी सत्ता और क्षमता है किन्तु वह सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है वरन् वह समष्टि मस्तिष्क का एक अंग है जिसे इन दिनों वैज्ञानिक क्षेत्र में ‘ब्रह्माण्डीय चेतना’ नाम दिया गया है। व्यक्ति समाज का एक अविच्छिन्न अंग है। एकाकी रहने लगे तो भी वह समष्टि से पृथक होने का दावा नहीं कर सकता। उसे अब तक जो ज्ञान अनुभव, संस्कार, कौशल आदि मिला है—शरीर पोषण हुआ है।—वह सब समाज का ही अनुदान है। एकाकी निर्वाह में भी आखिर कुछ उपकरण तो साथ रखे ही गये हैं। माला, कमण्डल, कोपीन, कुल्हाड़ी, जैसे साधनों के बिना तो गुफा में रहने वाले भी काम नहीं चल पाते। अग्नि का आविष्कार उस एकाकी व्यक्ति ने स्वयं नहीं किया है। इस प्रकार एकान्तवादी कहलाने वाले का भूतकालीन और वर्तमान क्रिया कलाप समाज सम्बद्ध रहा। आगे भी अन्तरिक्ष में चलने वाली असंख्य व्यक्तियों की असंख्य विचार तरंगें अप्रत्यक्ष रूप से उसे प्रभावित करेंगी और वह स्वयं दूसरों को अपनी मनःतरंगों से प्रभावित करेगा, यह भी सामाजिक आदान-प्रदान हुआ।

व्यक्ति का शरीर निर्वाह एवं विकास समाज पर आश्रित है और अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध है। ठीक इसी प्रकार व्यष्टि मस्तिष्क स्वतन्त्र दीखने पर भी वह समष्टि मस्तिष्क का एक अंग है। युद्ध और शान्ति दोनों वातावरण में कितना अन्तर होता है और लोक-मानस की चिन्तन प्रक्रिया में कितना उतार-चढ़ाव रहता है—यह सर्वविदित है। एक समय की लोक रुचि-मान्यता दूसरे समय से भिन्न होती है लोगों का चिन्तन प्रवाह अपने समय में प्रायः एक ही दिशा में होता है। मनस्वी और स्वतन्त्र चिन्तकों के कुछ अपवाद तो सर्वथा पाये जाते रहते हैं पर सामान्यतः चिन्तन प्रवाह की धारा एक ही दिशा में बहती है। अपने समय में पूर्वजों के कथन को प्रामाणिक मान लेने की श्रद्धा उखड़ रही है और तर्क तथा प्रमाणों पर आधारित बुद्धिवाद को मान्यता मिली है। किसी जमाने में त्याग बलिदान और आदर्शवाद अपनाने में एक, दूसरे से प्रतिस्पर्धा लगाता था और इस क्षेत्र में जो जितना सफल होता था उतना ही गौरव अनुभव करता था। आज स्थिति उससे सर्वथा भिन्न है। अपने समय में विलासिता की धूम है। संग्रह, उपभोग, पद प्रदर्शन के प्रलोभन का भूत हर मस्तिष्क पर छाया हुआ है। इसे लोक-मानस कहा जा सकता है। समय-समय पर कई तरह के फैशन—कई तरह के व्यसन—कई तरह के क्रिया-कलाप अनायास ही पनपते और देखते-देखते एक प्रथा प्रचलन बन जाते हैं। सामान्य लोग उस प्रवाह में अनजाने ही बहने लगते हैं। इसे लोक प्रवाह कहा जा सकता है।

‘समूह मस्तिष्क’ के अस्तित्व और उसके ‘व्यक्ति मस्तिष्क’ के साथ आदान-प्रदान की बात अब दिन-दिन अधिक स्पष्ट होती और अधिक प्रामाणिक बनती चली जा रही है। मनुष्य का अचेतन मन अत्यधिक अद्भुत और रहस्यमय होने की बात तथ्य रूप में स्वीकार कर ली गई है। चेतन मन की बुद्धि क्षमता उसकी तुलना में अति तुच्छ है। इसी प्रकार अन्तरिक्ष में मनुष्यों के छोड़े हुए विचार और उनके आदान-प्रदान की जानकारी भी ऐसी ही उथली और कम महत्व की समझी जाने लगी है और रहस्यमय उस प्रवाह को माना जाने लगा है जो समष्टि की अचेतन-चेतना से सम्बद्ध है।

मानवी चेतना मोटे तौर से शरीर निर्वाह एवं अहंता की तुष्टि तथा विस्तृति में संलग्न हलचल मात्र दृष्टिगोचर होती है। उसका प्रयोजन शरीर को सुखी तथा सक्रिय बनाये रहना भर प्रतीत होता है। लगता है शरीर मुख्य है और उसकी तृप्ति, पुष्टि, सुरक्षा एवं प्रगति के लिए सरंजाम जुटाने भर के लिए उसका सृजन एवं उदय हुआ है। आमतौर से ऐसा ही समझा जाता है। उपयोग भी इसी स्तर पर होता है। मस्तिष्क का शरीर सुख के लिए जितना अधिक उपयोग हो सके उतनी ही उसकी सफलता एवं सार्थकता मानी जाती है।

गहराई में उतरने पर बात कुछ दूसरी ही दृष्टिगोचर होती है। मस्तिष्क—चेतना के निवास का केन्द्रीय शक्ति संस्थान है। यहां ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ जीव चेतना का मिलन संगम होता है और उस आदान-प्रदान के आधार पर प्राणि जगत को अनेकानेक सुविधाएं एवं सम्वेदनाएं उपलब्ध होती हैं। यह मस्तिष्कीय केन्द्र इतना अधिक शक्तिशाली है कि उसके माध्यम से पिण्ड और ब्रह्माण्ड की एकता का अनुभव एवं लाभ आश्चर्यजनक मात्रा में उपलब्ध किया जा सकता है।

पृथ्वी यों मोटे तौर से एकाकी लगती है। उसकी सम्पदा एवं हलचल अपनी ही परिधि में—अपने ही लिए—काम करती दिखाई पड़ती है, पर वस्तुतः वह अन्तर्ग्रही आदान-प्रदान पर जीवित है। सूर्य की ऊर्जा का शोषण पृथ्वी का वातावरण करता है और उस ईंधन से जड़ परमाणुओं और चेतन जीवाणुओं की विभिन्न प्रकार की गति-विधियां चल सकने की सामर्थ्य मिलती है। पृथ्वी अपनी विशिष्टताओं को बनाये रहने में बहुत कुछ सूर्य पर निर्भर है। दूर रहते हुए भी वह पृथ्वी को इतना उदार दुलार देता है कि उसे देखते हुए पति-पत्नी अथवा प्रेमी-प्रेमिका जैसा रिश्ता मानने को जी करता है। पृथ्वी भी तो उसी का मुंह निहारते और परिक्रमा करते रहने में अपने जीवन की सार्थकता मानती है।

चन्द्रमा का पृथ्वी पर कितना प्रभाव पड़ता है यह समुद्र तट पर जाकर प्रतिदिन के सामान्य और पूर्णिमा अमावस्या के ज्वार-भाटे देखकर सहज ही जाना जा सकता है। चन्द्रमा को रसराज कहा गया है। कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष में वनस्पतियों तथा प्राणियों में सरसता की जो घट-बढ़ होती रहती है उससे पता चलता है कि न केवल समुद्र को वरन् पृथ्वी की समग्र सरसता को वह व्यापक रूप से प्रभावित करता है।

यही बात अन्य ग्रहों की है। सौरमण्डल के ग्रह-उपग्रह अपने-अपने स्तर के रंग-बिरंगे—छोटे-बड़े उपहार पृथ्वी को अनवरत रूप से भेजते हैं। पृथ्वी भी चुप नहीं बैठी रहती वह भी आदान-प्रदान का शिष्टाचार और समूह-कर्त्तव्य समझती है तदनुसार अपने अनुदान अन्य ग्रहों को भेजती है। इन प्रेषणों का लाभ वे ग्रह भी उसी प्रकार उठाते हैं जिस प्रकार कि पृथ्वी उनसे। इस आदान-प्रदान का महत्वपूर्ण केन्द्र ध्रुवीय क्षेत्र है। अन्तर्ग्रही आदान-प्रदान इन्हीं छिद्रों से आते जाते हैं। उत्तरी ध्रुव से ग्रहण की और दक्षिणी ध्रुव से विसर्जन की प्रक्रिया सम्पन्न होती रहती है। उत्तर में आदान का और दक्षिण में प्रदान का संयन्त्र नियति ने फिट करके रखा है। उत्तर को मुख और दक्षिण को मलद्वार कह सकते हैं। जितना उपयोगी है उतना पचाकर पृथ्वी का शरीर अपने में धारण कर लेता है और जो अनावश्यक है उसे मल रूप में विसर्जित कर देता है। प्राणि शरीर की तरह धरती भी एक शरीर है जिसे अपनी जीवन चर्या की सामग्री अन्तर्ग्रही शक्ति भण्डार से उपलब्ध करनी पड़ती है। शरीर को हवा, पानी और अन्न भी तो बाहर से ही उपलब्ध करना पड़ता है। अन्तर्ग्रही हाट से आवश्यक वस्तुएं खरीदे बिना धरती की गुजर नहीं हो सकती। ठीक इसी प्रकार प्राणी को भी अपनी सूक्ष्म चेतनात्मक उपलब्धियों के लिए अन्तर्ग्रही—ब्रह्माण्डीय चेतना पर निर्भर रहना पड़ता है। मस्तिष्क मुख है। ग्रहण शक्ति उसी में है। जननेन्द्रिय विसर्जन संस्थान है। दोनों को प्राणि सत्ता के ध्रुव केन्द्र कहा जा सकता है। ऊर्ध्व केन्द्र को शिव और अधः संस्थान को शक्ति संस्थान माना गया है। इन्हें ब्रह्म वर्चस् ओर कुण्डलिनी केन्द्र भी कहते हैं। इनके बीच पारस्परिक सम्बन्ध सन्तुलन ठीक बना रहे तो सब कुछ ठीक बना रहेगा और अभीष्ट प्रगति का लक्ष्य पूरा होता रहेगा। इनके बीच असन्तुलन या अवरोध उत्पन्न होने से अपच और तज्जनित अनेकों रोग-विकार उत्पन्न होने लगते हैं।

इन पंक्तियों में चर्चा दक्षिण ध्रुव की नहीं, उत्तर ध्रुव की मस्तिष्क की, की जा रही है। सामान्य मस्तिष्क शरीर और उससे सम्बन्धित अनेकों प्रयोजनों पर सोचता-निर्णय करता एवं व्यवस्था बनाता है। असामान्य की स्थिति उच्चस्तरीय होती है वह ब्रह्माण्ड चेतना के आदान-प्रदान की गति को तीव्र करता है और ऐसी उपलब्धियां उपार्जित कर लेता है जिन्हें आश्चर्यजनक सिद्धियों के नाम से पुकारा जा सके।

हमें सामान्य जानकारियां इन्द्रिय शक्ति के आधार पर मिलती हैं। पर यदि प्रसुप्त अतीन्द्रिय शक्ति को जागृत किया जा सके तो व्यापक ब्रह्माण्ड सत्ता के साथ अपना सम्पर्क जुड़ सकता है और ससीम से असीम स्थिति में पहुंचा जा सकता है।

इस विश्व में जड़ और चेतना की द्विधा अपने-अपने नियत प्रयोजनों में संलग्न है। उनका वैभव भी महासमुद्र की तरह है जिसके किनारे पर बैठकर मनुष्य ने सीप और घोंघे ही ढूंढ़े हैं। प्रकृति परमाणुओं में और जीवाणु घटकों में जो सामर्थ्य तथा चेतना विद्यमान है उसका बहुत छोटा अंश ही जानना, हथियाना, सम्भव हो सका है। सब कुछ पाना खींच-तान से—छीना झपटी से नहीं उसमें घुल जाने से ही सम्भव हो सकता है। समुद्र के पानी को कोई घड़ा कितनी मात्रा में अपने में भर सकेगा? सम्पूर्ण समुद्र के साथ एकता स्थापित करनी हो तो घड़े को अपना जल समुद्र में मिला देना पड़ेगा तभी तुच्छता को सुविस्तृत स्थिति में अनुभव कर सकना सम्भव होगा।

योग साधना का प्रयोजन अपनी ससीमता को असीमता के साथ जोड़ देना है। इस प्रयोजन में जितनी ही सफलता मिलती जाती है उतनी ही मात्रा में मनुष्य उस वैभव पर आधिपत्य जमाता जाता है जिसके प्रभाव को हम जड़-चेतन जगत में अपने चारों और फैल हुआ देखते हैं। सीमाबद्ध स्थिति में हम तुच्छ और दारिद्र होते हैं, पर असीम के साथ जुड़ जाने पर महानता प्राप्त करने में कोई कमी नहीं रह जाती। सम्पन्नता से—भरे पूरे भण्डार से हमारी भागीदारी जितनी अधिक होती है उतनी ही अपनी स्थिति भी विभूतिमयी बनती चली जाती है। सिद्ध पुरुषों में देखी गई विशिष्ट क्षमताएं ओर कुछ नहीं विराट् के साथ उनकी घनिष्ठता का आरम्भिक उपहार भर है। बढ़ी-चढ़ी स्थिति तो ऐसी बन जाती है जिसमें आत्मा और परमात्मा के बीच कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं रह जाता, दोनों समतुल्य ही दीखते हैं।
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