• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • धीरे-धीरे आती जाती मृत्यु समीप
    • ​​​मृत्यु की मीठी गहरी नींद जरूरी
    • ​​​अर्धमृत न रहें, पूर्ण जीवित बनें
    • ​​​मरण सृजन का अभिनव पर्व—उल्लासप्रद उत्सव
    • ​​​आसक्ति मनुष्य को मृत्यु के बाद भी घुमाती है
    • ​​​मृतात्मा को क्षुब्ध नहीं, तृप्त करें
    • ​​​सुदीर्घ विश्राम की अवधि को सार्थक बनाएं
    • ​​​पूर्वजों के प्रति श्रद्धा को क्रिया से जोड़ें
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • धीरे-धीरे आती जाती मृत्यु समीप
    • ​​​मृत्यु की मीठी गहरी नींद जरूरी
    • ​​​अर्धमृत न रहें, पूर्ण जीवित बनें
    • ​​​मरण सृजन का अभिनव पर्व—उल्लासप्रद उत्सव
    • ​​​आसक्ति मनुष्य को मृत्यु के बाद भी घुमाती है
    • ​​​मृतात्मा को क्षुब्ध नहीं, तृप्त करें
    • ​​​सुदीर्घ विश्राम की अवधि को सार्थक बनाएं
    • ​​​पूर्वजों के प्रति श्रद्धा को क्रिया से जोड़ें
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Books - मरे तो सही, पर बुद्धिमत्ता के साथ

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT


​​​मृत्यु की मीठी गहरी नींद जरूरी

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 1 3 Last
दीर्घ जीवन के दो प्रमुख आधार यह माने जाते हैं कि श्वांस धीमे लिये जायं तथा शीत वातावरण में रहा जाय। योगी लोगों की प्राणायाम क्रिया तथा हिमि-कंदराओं में निवास को प्रमुखता देने का एक कारण यह भी है कि वे शरीर को अमर या दीर्घजीवी बनाकर अपना और पराया अधिक श्रेय साधन कर सके।

रीछ, सर्प, कछुए, मेंढक शीत ऋतु आने पर अपने को सिकोड़ कर बैठ जाते हैं। ताप की तीव्रता से जो शक्ति का क्षरण होता है वह उन दिनों न होने से वे जीव निराहार पड़े रहते हैं। गति शरीर संचालन भर के लिये आवश्यक है। यदि उसे अव्यवस्थित ढंग से खर्च किया जाय तो सांसें तेज चलने लगेंगी और उससे दीर्घ जीवन में कमी आ जायगी। सृष्टि विज्ञान पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि जिन जीवों का श्वांस संचालन मन्द गति से होता है वे अधिक दिनों जीवित रहते हैं, इसके विपरीत जिनकी सांसें तेजी से चलती हैं वे कम समय जी पाते हैं। इस सम्बन्ध में प्रति मिनट सांस लेने और आयुष्य प्राप्त करने सम्बन्धी अनुमानित विवरण इस प्रकार है—कछुआ सांस 5 आयु 150 वर्ष। सर्प सांस 8 आयु 120 वर्ष। हाथी 2 आयु 100 वर्ष। मनुष्य 12 आयु 100 वर्ष। घोड़ा 18 आयु 50 वर्ष। बिल्ली 25 आयु 12 वर्ष। बकरी 25 आयु 12 वर्ष। कबूतर 36 आयु 8 वर्ष। खरगोश 40 आयु 7 वर्ष।

नृतत्व विज्ञान वेत्ता बताते हैं कि प्राचीन काल में मनुष्यों की श्वांस प्रश्वांस संख्या 11-12 थी। पर अब मानसिक उत्तेजन एवं शारीरिक उष्णता में—आहार-विहार अव्यवस्था एवं बौद्धिक उद्वेगों से परिस्थिति बदल गई और आदमी अधिक गरम रहने लगा। फल-स्वरूप श्वांस संख्या बढ़कर 13-16 प्रति मिनट पहुंच गई है। जल्दबाज, उद्विग्न, आवेश ग्रस्त, सामर्थ्य से अधिक काम करने वाला, तनाव भरा जीवन वस्तुतः गरम जीवन ही कहा जा सकता है। धैर्यवान, शान्त चित्त, दूरदर्शी, प्रवृत्ति के मनोविकारों एवं इन्द्रिय उत्तेजनाओं को नियन्त्रण में रखने वाले—आहार-विहार में सात्विकता बरतने वाले ही—शान्त एवं शीत प्रकृति के कहे जा सकते हैं। उन्हीं का हृदय, फेफड़ा, स्नायु, संस्थान तथा रक्त प्रवाह सौम्य शान्त एवं स्वाभाविक रीति से काम करता है। फलतः उनकी आयु भी लम्बी होती है गर्मागर्म गर्मी से भरे हुए लोग जल्दी उफनते और जल्दी चलते हैं। उनका आयुष्य कम हो तो इसमें आश्चर्य ही क्या?

शीतऋतु और ठण्डे वातावरण का भी स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है। ठण्डे देशों के मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ, सुडौल एवं दीर्घजीवी होते हैं। गर्म देशों के लोग दुर्बल भी पाये जाते हैं और अल्पायु भी। इसे हम भारतवर्ष के ही पंजाब और बंगाल के लोगों की शारीरिक तुलना करके सहज ही जान सकते हैं। रूस के उजेविकिस्तान प्रांत में लोग अधिक दीर्घजीवी पाये जाते हैं इसमें वहां के जलवायु की सौम्य शीतलता ही प्रधान कारण है। लोग तपश्चर्या के लिये हिमालय जाते हैं। बड़े लोग आमोद-प्रमोद के लिये गर्मी के दिनों में ठण्डी जलवायु के स्थानों में चले जाते हैं। शीतऋतु तथा वातावरण का निस्सन्देह स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। इतना ही नहीं ठण्डे स्वभाव एवं सात्विक आहार-विहार को भी शीत प्रक्रिया में ही गिना जा सकता है और उस तरह का जीवन क्रम बनाने वाले स्वभावतः अधिक दिन जीते हैं।

रेफ्रिजरेटरों में रखी रहने वाली खाद्य सामग्री तथा दवाएं खराब नहीं होतीं। बर्फ में दबी हुई लाशें मुद्दतों पीछे निकालने पर भी ज्यों की त्यों निकली हैं। वैज्ञानिक मनुष्य काया को देर तक सुरक्षित रखकर थोड़े विश्राम के बाद पुनर्जीवित करने की जो योजना बना रहे हैं उसमें मृत शरीर को शीत आवरण में बन्द करने की प्रक्रिया ही काम में लाई जायगी। खगोल शास्त्री ऐसे अति दूरवर्ती ग्रहों पर मनुष्य को भेजने की बात सोच रहे हैं जिनकी यात्रा में अधिकतम तीव्र गति वाले राकेट को भी जाने और लौटने में एक हजार वर्ष लगेंगे। इतने दिन तक आदमी को कैसे जीवित रखा जाय। इस सन्दर्भ में यही सोचा गया है कि यात्री को उस यान में बिठाकर शीत से जमा दिया जाय फलतः उसकी शक्तियों का क्षरण न होगा और न आयु वृद्धि का कोई प्रभाव पड़ेगा। जब उसे लौटाया जाय तो पृथ्वी से संकेत तरंगों द्वारा यान की शीतलता घटा दी जाय फलतः यात्री जीवित हो जावेगा। और एक हजार वर्ष में भी उसकी मृत्यु न होगी। अभी भी प्राणियों के अंगों को विभिन्न प्रयोगों के लिये देर तक सुरक्षित रखने के लिये यह शिथिलीकरण प्रक्रिया ही काम में लाई जाती है।

विश्व विख्यात वैज्ञानिक जैकत लूवे अपने प्रयोग से अन्य प्राणियों का शारीरिक तापमान घटाकर उन्हें दीर्घजीवन दे सकने में समर्थ हुए हैं। उनका कहना है कि यदि मनुष्य का तापमान 986 फारेन हाइट से घटाकर 49.5 किया जा सके तो वह सरलता से 2000 वर्ष जी सकता है। उनका कहना है कि वर्तमान तापमान पर जीव कोषों का क्षय जिस गति से होता है आधा तापमान रह जाने पर उससे 20 गुनी कमी आ जायगी। अस्तु 20 गुनी आयु का बढ़ जाना भी कुछ कठिन नहीं है।

विशिष्ट प्रयासों की यह परम्परा अपने स्थान पर है और मृत्यु की एक सुनिश्चित तथ्य के रूप में विद्यमानता अपनी जगह। सर्व-सामान्य के लिये यही शरीर सदा-सर्वदा के लिये अविनाशी बनाए रखना शायद ही कभी सम्भव हो। अतः मृत्यु के एक अवश्यम्भावी घटना मानते हुये उसकी क्रमिक प्रक्रिया को भलीभांति समझने की जरूरत है। तीस वर्ष की आयु से ही मृत्यु की क्रमिक प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है, यद्यपि यह पूरी तरह कब सम्पन्न होती है, यह भी शरीर-विज्ञानियों की दृष्टि में विवादास्पद विषय है। किन्तु आवश्यकता इसी बात की है कि तीस वर्ष की यौवनावस्था से ही मृत्यु के स्वागत की तैयारी करनी चाहिये, ताकि मृत्यु एक पछतावा नहीं एक भव्य घटना बन सके। मृत्यु का भय अधिकतर सताता उन्हीं लोगों को है जो इस मानव-जीवन का महत्व नहीं समझते और इसकी लम्बी अवधि को आलस्य, विलास एवं प्रमाद में बिता देते हैं और अपने आवश्यक कर्त्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों के प्रति ईमानदार नहीं रहते। कामों को अधूरा छोड़कर ढेर लगा लेने वाले जब देखते हैं कि उनकी जीवन अवधि की परिसमाप्ति निकट आ गई है और उनके तमाम काम अधूरे पड़े हैं तब वे मृत्यु के भय से कांप उठते हैं। सोचते हैं मेरी जिन्दगी बढ़ जाती, मृत्यु का निरन्तर बढ़ा चला आ रहा अभियान रुक जाता तो मैं अपने काम पूरे का लेता। किन्तु उनकी यह कामना पूरी नहीं हो पाती। मृत्यु आती है और अकर्मण्यता के फलस्वरूप उनकी चोटी पकड़कर घसीट ले जाती है। इसके विपरीत जिसने अपने कर्त्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों को रुचि एवं तत्परता से पूरा किया है, जीवन के करणीय कार्यों की अपेक्षा नहीं की है, आयु के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग किया है, उसे मृत्यु से डरने का कोई कारण ही नहीं रह जाता। वह मृत्यु आने पर हंसता मुसकाता हुआ उसका स्वागत करता है और मृत्यु उससे सन्तुष्ट माता की तरह प्यार से गोद में उठाकर ले जाती और उन दिव्य स्थानों में पहुंचा देती है जहां उसके कर्त्तव्य से पुरस्कार उसकी प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। अकर्त्तव्यता एवं अकर्मण्यता दोनों ही ऐसे दोष हैं जो मृत्यु भय को न केवल जागृत ही रखते हैं बल्कि बढ़ाकर भयानक से भयानक तर बना देते हैं। मृत्यु का भय कायर की वृत्ति है कर्मवीर तो उसे मित्र तथा माता मानकर किसी समय भी उसका स्वागत करने को तैयार रहा करते हैं।

यदि मृत्यु से भयभीत होने का स्वभाव स्थायी हो गया है और वह किसी प्रकार भी बदलते नहीं बनता तो भी उसका लाभ उठाया जा सकता है। जिस प्रकार शत्रु का भय सदैव सतर्क एवं सन्नद्ध बना देता है, सुरक्षा के प्रबन्धों तथा व्यवस्था के लिए सक्रिय रखता है उसी प्रकार मृत्यु को एक आकस्मिक आपत्ति समझकर सतर्क एवं सावधान हुआ जा सकता है। यह बात सत्य है कि मनुष्य शरीर छोड़ने से उतना नहीं डरता जितना ‘मृत्यु के बाद न जाने क्या गति होगी’—इस विचार भयभीत होता है। उसे आशंका रहती है कि मृत्यु के बाद उसे भयानक तथा अंधेरे लोगों में भटकना होगा। कीट-पतंगों की निकृष्ट योनियों में जाना होगा। बैल, भैंसा, ऊंट, घोड़ा गधा आदि बनकर वह सब दण्ड भोगना होगा, वह सब यातना सहनी होगी जिसे हम आज अपनी आंखों से उन्हें भोगते देख रहे हैं।

यदि यह आशंका मृत्यु भय को जन्म देती है—तब क्यों न ऐसे कर्मों, ऐसी गतिविधियों में संलग्न हो जाया जाये जिससे कि अंधेरे लोकों तथा अधम योनियों की आशंका ही दूर हो जाये। अधिक से अधिक जितना प्रकाश, जितना आलोक और जितना उजला हम इकट्ठा कर सकें क्यों न करलें। जिससे कि प्रगति में अपनी आत्मा के प्रकाश से अपना पथ प्रकाशित करलें। इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि उजाले की प्राप्ति उज्ज्वल एवं आदर्श कर्मों से ही होती है। पुण्य, परमार्थ, परोपकार, परसेवा और पावन जीवन पद्धति से आत्मा में अक्षय प्रकाश के भण्डार भर जाते हैं। इससे पूर्व कि मृत्यु आये और अपमान पूर्वक चोटी पकड़ कर घसीट ले जाये क्यों न सत्पथ पर अग्रसर होकर प्रकाश का प्रबन्ध कर लिया जाय। क्यों न उस पुण्य प्रधान संबल को एकत्र कर लिया जाये जो हमारा, हमारी आत्मा का अनन्त एवं अगत पथ में सहायक बने। इस विषय में साधन सामान की शिकायत करना उचित नहीं। कोई भी सत्कर्म फिर चाहे वह छोटा अथवा बड़ा यदि सच्ची परमार्थ भावना से किया गया है समान फल ही उत्पन्न करता है। क्योंकि कर्म से भावना ही प्रधान होती है उसका आकार प्रकार नहीं आइये, हम अपनी वासनाओं तृष्णाओं तथा एषणाओं को त्याग कर स्वार्थ तथा संकीर्णता को तिलांजलि देकर क्रूरता, कपट और असत्य को बहिष्कृत कर द्वेष, दुर्भाव तथा दयनीयता को छोड़कर-दया दाक्षिण्य, उदारता, प्रेम, सौहाद्रर्य, दान तथा धर्म भावना के अक्षम दीप जला लें तब देखें मृत्यु का भय, परलोक का अन्धकार हमारी तटस्थ बुद्धि को किस प्रकार विचलित कर सकता है। अपने अधूरे कामों को पूरा करने में जुट जाइये, अपने कर्त्तव्यों से मुंह न चुराइये, पुण्य परोपकार का कोई अवसर न जाने दीजिये और अपनी आत्मा पर विश्वास कर जीवन को प्रखर गति से आगे बढ़ाइये, मृत्यु से भयभीत होने का कोई कारण न रह जायेगा। हो सकता है एक लम्बे प्रमाद के कारण आपके इतने काम अधूरे रह गये हैं। जिन्हें अब अवशेष अवधि में पूरा करना सम्भव नहीं तब भी चिन्ता की कोई बात नहीं आपको उन्हें पूरा करने का फिर अवसर मिलेगा। भावना के बदलते ही पश्चाताप के साथ क्रियाशील हो उठने पर मनुष्य के पूर्व अपराध क्षमा कर दिये जाते हैं और उसे एकबार फिर अपना सुधार करने और सुपथ निर्माण करने के लिये समय व अवसर दिया जाता है। यह तो साधारण सांसारिक व्यवहार में भी होता रहता है फिर उस परमपिता की सुन्दर, करुण तथा दयापूर्ण विधान धार में तो यह और भी सरल है।

इस साधारण पक्ष के साथ-साथ मृत्यु के सम्बन्ध में एक अधिक गहरा और सत्य पक्ष भी है। जो इसका दार्शनिक पक्ष कहा जाता है। मनुष्य का जीवन दो तत्वों से मिलकर बना है। शरीर और उसमें निवास करने वाली चेतना। जीवन का चेतन-तत्व ही तो वास्तव में हम हैं। यह मृतिका पिंड तो उस चेतन की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र है। उसका वाहन भर ही है। रथ में बैठकर चलने वाला मनुष्य यदि स्वयं को रथ मान ले तो उसके नष्ट हो जाने पर मनुष्य को स्वयं अपने को ही नष्ट मान लेना चाहिये। किन्तु ऐसा होता कहां है। रथ अथवा वाहन के नष्ट हो जाने पर भी उसका रथी अथवा सवार यथावत बना ही रहता है। हां जब उसको अपने वाहन के प्रति अनुचित ममता हो जाती है उसे ही अपना अस्तित्व एवं सर्वस्व मान बैठता है तो अवश्य ही उसके नष्ट होने अथवा नष्ट होने की कल्पना से दुख होता है। किन्तु यह तो अज्ञान है। इसको किसी भी प्रकार से मान्यता नहीं दी जा सकती।

अपने को शरीर समझने वाले अज्ञानी व्यक्ति ही तो मृत्यु अर्थात् देहावसान से भयभीत रहा करते हैं। जो बुद्धिमान अपने को चेतन स्वरूप समझते हैं—जो कि वास्तव में उनका स्वरूप है भी—वह मृत्यु के भय से कदापि क्लांत नहीं होते। क्योंकि उनकी मृत्यु होती ही नहीं है। चेतन अथवा आत्मा अक्षय तथा अजर-अमर है उसकी मृत्यु होना तो दूर उसे कोई विचार तक नहीं घेरता। और यही अमर आत्मा ही तो मनुष्य का वास्तविक अस्तित्व उसका सच्चा स्वरूप है। देहाभिमान ही मृत्यु का मूल कारण है। इसे छोड़कर अपने सत्य स्वरूप आत्मा में विश्वास करिये आपकी मृत्यु का भय होने का कोई कारण ही न रह जायेगा। शरीर तो आत्मा की सहायता, उसका अलंकरण तथा प्रकाश करने के लिये बदलते ही रहते हैं। हर पात के बाद आत्मा को एक नया तथा सुन्दर शरीर मिलता रहता है—तब यह तो हर्ष तथा प्रसन्नता की ही बात हुई इसमें खेद अथवा दुःख करने का क्या प्रयोजन हो सकता है।

इस सत्य से कौन इनकार कर सकता है कि दिन भर काम करने के बाद शरीर थक जाता है तो रात्रि में विश्राम की आवश्यकता होती है। मनुष्य मीठी नींद सोकर दूसरे दिन के लिये नई स्फूर्ति तथा शक्ति से भर जाता है। तब जीवन की एक लम्बी अवधि तक चलते रहने पर आत्मा यदि विश्राम करने के लिये मृत्यु रूपी नींद की गोद में चली जाती है तो इसमें खेद की क्या बात है। मृत्यु का एक विश्राम लेकर वह पुनः किसी दूसरे शरीर में जागती है और नवीन स्फूर्ति नये उत्साह में अपने लक्ष्य मोक्ष की ओर अग्रसर हो चलती है। अतः बुद्धिमत्ता इसी में है कि मृत्यु की यह अनिवार्य नींद मीठी, सुखद, गहरी और निश्चित हो। ऐसा जीवन जियें? ताकि नव-जागरण के बाद की, नई सुबह और नई जिन्दगी, नई स्फूर्ति से शुरू हो।

मृत्यु एक दिन में नहीं आती। वह धीरे-धीरे समीप आती रहती है। उसे सुखद, नव-स्फूर्तिप्रद भी एक दिन में किसी एक कर्मकांड या क्रिया विशेष से नहीं बनाया जा सकता। अपितु सम्पूर्ण जीवन क्रम ही मृत्यु का स्वरूप भी निर्धारित करता रहता है। सात्विक, सौम्य, श्रेष्ठ, सदाचार युक्त जीवनक्रम ही शानदार, सुन्दर, सन्तोषदायक, शक्ति-वर्धक मृत्यु, निद्रा का आधार बनता है जो बुद्धिमत्ता पूर्वक जीता है, उसी की मृत्यु भी उत्तम स्तर की होती है। उत्तम स्तर से अभिप्राय बाजे-गाजे के साथ या किसी बड़े पद पर आसीन रहकर मरने के नहीं। सन्तोष-शान्ति, आनन्द-उल्लास, अनासक्ति और प्रसन्नता के साथ मृत्यु का वरण करने से हैं, क्योंकि उसी स्थिति में जीवात्मा निश्चित भाव से मीठी नींद लेती और नई ताजगी के साथ नया जीवन प्रारम्भ करती है। मृत्यु एक सुनिश्चित घटना है, वह होनी है जो होकर ही रहेगी, मनुष्य के वश में बस इतना ही है कि वह इस घटना को भव्य और गरिमा-युक्त, श्रेष्ठ और शुभप्रद बना सके। अन्यथा अनिच्छा, अनुत्साह और अशान्ति के साथ ही सही, मरना तो पड़ेगा ही। तब फिर शानदार मौत ही क्यों न मरें? निश्चित, भाव से, शान्त चित्त से ही क्यों न मृत्यु देवी का स्वागत करें। बुद्धिमानी तो तभी है जब इस अटल विधान को उत्साह स्वीकार करें।

प्रकृति-जननी प्रत्येक श्रांत-क्लांतजीव को समान भाव से, सुनिश्चित तौर पर मृत्यु का उपहार दिया करती है, उसे विनम्रता और उल्लास के साथ स्वीकार करना ही उचित है। मृत्यु का वरण शान्ति और गम्भीरता से करें, इसी में मानवीय गरिमा और बुद्धिमत्ता की रक्षा होती है। पर यह सम्भव तभी है, जब जीवन का पूरा ढांचा ही बुद्धिमत्ता-पूर्वक खड़ा किया जाय उसे श्रेष्ठता से सनत संयुक्त रखा जाय।
First 1 3 Last


Other Version of this book



मरे तो सही, पर बुद्धिमत्ता के साथ
Type: SCAN
Language: EN
...

मरे तो सही, पर बुद्धिमत्ता के साथ
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books



गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

The Absolute Law of Karma
Type: SCAN
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

Pragya Puran Stories -2
Type: TEXT
Language: ENGLISH
...

गहना कर्मणोगतिः
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Articles of Books

  • धीरे-धीरे आती जाती मृत्यु समीप
  • ​​​मृत्यु की मीठी गहरी नींद जरूरी
  • ​​​अर्धमृत न रहें, पूर्ण जीवित बनें
  • ​​​मरण सृजन का अभिनव पर्व—उल्लासप्रद उत्सव
  • ​​​आसक्ति मनुष्य को मृत्यु के बाद भी घुमाती है
  • ​​​मृतात्मा को क्षुब्ध नहीं, तृप्त करें
  • ​​​सुदीर्घ विश्राम की अवधि को सार्थक बनाएं
  • ​​​पूर्वजों के प्रति श्रद्धा को क्रिया से जोड़ें
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj