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Books - मरे तो सही, पर बुद्धिमत्ता के साथ

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First 7 9 Last
किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसका पुनर्जन्म कितनी अवधि के उपरान्त होता है, यह प्रश्न लोगों को लम्बे समय से मथता रहा है। ऐसे प्रश्नकर्ताओं का पुनर्जन्म से आशय प्रायः इसी धरती पर उस आत्मा की नये शरीर में वापसी से होता है, मरणोत्तर लोक की स्थिति से नहीं।

इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न धर्ममतों की भिन्न-भिन्न धारणाएं हैं। इस्लाम मतानुयायियों की मान्यता है कि मृत्यु के उपरान्त जीवात्मा उसी कब्र में कयामत तक गड़ा, विश्राम करता है। कयामत के वक्त देवदूत जिब्राइल नफीरी बजाता है। कब्र से उठ-उठकर हर एक जीवात्मा खुदा के सामने हाजिर होती है। पैगम्बर मुहम्मद साहब वहीं पर मौजूद रहते हैं। वे बताते हैं कि अमुक ने इस्लाम कबूल किया है, अमुक ने नहीं। इस्लाम कबूल करने वालों को जन्नत मिलती है। काफिरों को दोजख की आग में जलना पड़ता है। इस प्रकार स्वर्ग-नरक और परलोक की बात मानता इस्लाम भी है। कयामत के दिन पुनर्जन्म की बात भी स्वीकार की जाती है। किन्तु इस नये जन्म और मौजूदा जिन्दगी के बीच का प्रसुप्ति काल इतना लम्बा बताया जाता है कि उससे ‘पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं’ वाला अटूट सिलसिला कायम नहीं दिखता और इस प्रकार पुनर्जन्म न मानने जैसी ही मान्यता रूढ़ हो गई हैं।

अति प्राचीन यूनान में प्रचलित ‘उरफिक’ नामक धर्ममत के अनुसार व्यक्ति मृत्यु के उपरान्त कुछ समय तक दिव्य लोक अथवा प्रेत-लोक में कर्मानुसार रहता है। यह समय भी सबके लिये एक-सा नहीं होता, अपितु कर्मों के अनुसार ही भिन्न-भिन्न होता है। तदनन्तर व्यक्ति का अपने पूर्व-संस्कारों के साथ पुनर्जन्म होता है। दार्शनिक प्लेटो और गणितज्ञ-चिन्तक पाइथागोरस आदि इसी मत के अनुयायी थे। इस मत के अनुयायी पुनर्जन्मवादी होने के ही कारण सात्विक जीवन पर बल देते थे और मांसाहार नहीं करते थे।

ईसाई मतानुयायी पुनर्जन्म के बारे में इस्लाम-जैसी ही मान्यता रखते हैं। उनके अनुसार भविष्य में एक दिन ‘लास्ट डे आफ जजमेंट’ यानी ‘न्याय-निर्णय का अन्तिम दिन’ होगा। उस दिन सभी लोग कब्रों से उठकर ईश्वर के सिंहासन के पास पहुंचेंगे। धार्मिक लोग ईश्वर के दाहिनी ओर रहेंगे और अ-धार्मिक लोग उनकी बांयी ओर। धार्मिक स्वर्ग पायेंगे, अधार्मिक नरक जायेंगे।

एक छोटी-सी जीवन-अवधि में किये हुये कर्मों से ही अनन्त-काल तक सुख या दुःख भोगते रहने की ये मान्यताएं न तो नैतिकता के युक्तियुक्त आधार प्रस्तुत कर पातीं और न ही पुनर्जन्म का कार्यकारण-आश्रित कोई तत्वज्ञान स्पष्ट कर पातीं। यदि कोई बालक पैदा होकर पांच मिनट बाद मर गया, तो कयामत के दिन या अन्तिम निर्णय के दिन उन्हीं पांच मिनटों के आचरण के अनुसार फैसला करना होगा। उस अवधि में बच्चे को धार्मिक कहा जायेगा या अधार्मिक? फिर, अनन्त काल तक अव्यक्त जीव पांच मिनट के लिये व्यक्त होकर पुनः कयामत तक के लिये अव्यक्त हो गया, यह बात युक्तियुक्त नहीं प्रतीत होती।

ईसाइयत और इस्लाम से पूर्व फ्रांस, इंग्लैंड, यूनान, रोम, अरब, ईरान, मिश्र आदि देशों में प्रचलित धर्ममतों की भिन्नता के बावजूद सर्वत्र मृत्यु के बाद, कर्मानुसार फलभोग और पुनर्जन्म की मान्यताएं थीं, इसके अनेक ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं।

बाइबिल में राजाओं की दूसरी पुस्तक पर्व-2 आयत 8,15 में कहा गया है—‘नबी एलियाह की आत्मा मृत्यु के बाद एलोशा में आ गयी। मत्ती-रचित सुसमाचार पर्व 11, आयत 10-13 के अनुसार पूर्वजन्म का नबी एलियाह ही नये जीवन में बपतिस्मा देने वाला यूहन्ना हुआ।

अनेक पाश्चात्य विचारक, कवि, मनीषी पुनर्जन्म का सिद्धान्त मानते तो हैं परन्तु उसकी विशद व्याख्या नहीं की है। ईसाई सन्त पाल और फ्रेंच धर्मप्रचारक मसिला पुनर्जन्म-सिद्धान्त मानते थे। दार्शनिक-मनोवैज्ञानिक मैक्ड्गल और मेक्टेगार्ट की भी पुनर्जन्म में आस्था थी। सर जेम्स फ्रेजर के अनुसार ‘सभी आदिम जातियां मरणोत्तर जीवन को निश्चयात्मक तथ्य मानती हैं, कोई अस्पष्ट या रहस्यमय कल्पना नहीं।’

प्रख्यात कवि विलियम वर्ड् सवर्थ ने अपनी कविता ‘‘इमिटेशन आव इममार्टलिटी’’ में कहा है—‘यह आत्मा सुदूर लोक से आयी है।’ दूसरे प्रसिद्ध अंग्रेज कवि टेनीसन ने ‘टू व्हाइसेज’ नामक कविता में कहा है, ‘यदि मैं निचली योनियों से इस मनुष्य योनि में आया हूं और मेरे मस्तिष्क में इन जन्मों के संस्कार अंकित हैं तो मैं अपने दुर्भाग्य को विस्मृत कर सकता हूं।

खुद ईसाइयों के अनुसार ईसा मसीह पिछले जन्म 7 में एलीसियस थे। उनके अवतार की भविष्यवाणी कई सौ वर्ष पहले की जा चुकी थी। बाइबिल के मैथ्यू रचित सुसमाचार (1-22, 23) के अनुसार वही भविष्यवाणी पूरी हुई और कुमारी के गर्भ से ईसा मसीह पैदा हुये तथा लोगों ने उन्हें एमैनुअल कहा।

अमरीकी कवि वाल्ट ह्विटमैन का कहना था कि ‘निस्सन्देह मैं इसके पहले हजार बार पैदा हो चुका और मर चुका हूं।’ दार्शनिक-विचारक ल्यूमिंग और प्रो. हक्सले, दोनों ही देहान्तरवाद के सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं।

दो जन्मों के बीच कितना अन्तराल रहता है, इस बारे में कोई भी मत इन विचारकों ने प्रकट नहीं किया है। परन्तु पुनर्जन्म में वर्तमान जीवन की आस्थाओं और प्रवृत्तियों का प्रभाव सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं।

थियासाफिस्टों के अनुसार मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति अपनी चेतना के स्तर के अनुसार सात लोगों या सात चेतना-स्तरों में से किसी एक में निवास करता है। उस समय वह ‘एस्ट्रल बाडी’ से ही विभिन्न अनुभूतियां करता है। संस्कारों के प्रभाव से और उपयुक्त अवसर की प्राप्ति के बाद व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है। इसमें सौ या हजार वर्ष से भी अधिक का समय लग जाता है।

आधुनिक परामनोवैज्ञानिकों ने पुनर्जन्म सम्बन्धी जो शोध-अध्ययन किये हैं, उनमें भी कुछ पलों से लेकर हजार वर्षों तक के मिले हैं। कोई कोई तो मृत्यु के कुछ ही पल बाद नये शरीर में प्रविष्ट एवं प्रकट हो गया, कोई अन्य लम्बे समय तक अज्ञात लोक में नींद या विश्राम जैसी स्थिति का अनुभव करने के उपरान्त पुनः धरती पर प्रकट हुआ। भारतीय मनीषियों ने पुनर्जन्म के स्वरूप पर विस्तार से विचार किया है। बौद्धों-जैनों समेत सभी भारतीय मतों की पुनर्जन्म में पूर्ण आस्था है। ‘जातक कथा’ में भगवान बुद्ध के अनेक जन्मों की कथाएं हैं। बौद्ध कर्मफल भोग और पुनर्जन्म को निश्चित मानते हैं। निर्वाण प्राप्ति के उपरान्त सामान्यतः पुनर्जन्म नहीं होता, किन्तु विधिसत्व विराट करुणा से द्रवित हो पुनर्जन्म धारण करते हैं।

जैन मत में भी पुनर्जन्म मान्य है। पापियों को नरक में और पुण्यात्माओं को देवलोक में जाना होता है। सात नरक और 16 स्वर्ग हैं, जो कर्मफल के अनुसार मिलते हैं। वहां दुःख या सुख भोगकर, पुनः मध्यलोक या मनुष्य लोक में आना पड़ता है। जो जीव शुद्ध दशा को प्राप्त कर लेता है, वह शिवलोक या ‘सिद्धालय’ में पहुंचकर आवागमन से मुक्त हो जाता है।

पुनर्जन्म और मोक्ष की धारणा सभी भारतीय धर्ममतों की हैं। दो जन्मों के बीच के अन्तराल के बारे में इनकी दृष्टियों या मान्यताओं को प्रधानतः तीन वर्गों में बांटा जा सकता है।

एक प्रतिपादन स्वामी विवेकानन्द समेत अनेक विचारकों का है, जिसके अनुसार मृत्यु के उपरान्त कुछ समय तक विश्राम की अवधि रहती है। जैसे गहरी थकान के बाद व्यक्ति को नींद या विश्राम की आवश्यकता होती है। यह अवधि व्यक्ति की अपनी प्रकृति या संस्कार और उनके पुनः शक्ति-संचय की सामर्थ्य के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है इस विश्राम-अवधि के उपरान्त जीवात्मा नयी स्फूर्ति नवीन ताजगी के साथ पुनः अपने संस्कारों के अनुरूप शरीर धारण कर सक्रिय हो जाता है।

दूसरी मान्यता स्वर्ग-नरक से सम्बद्ध है। जिसके अनुसार मृत्यु के उपरान्त शुभ कर्मों के फलभोग हेतु स्वर्ग और अशुभ कर्मों के भोग हेतु नरक वास करना होता है। भोगक्षय के बाद, पुनः कर्मानुसार योनि प्राप्त होती है। पापियों को निचली योनियां प्राप्त होती हैं। इस चक्र में भ्रमण करते हुए मनुष्य-योनि के रूप में पुनः अपने स्वतंत्र विकास का अवसर मिलता है। पुण्यात्माओं को स्वर्ग मिलता है। स्वर्गीय सुख भोगने से पुण्यों का क्षय होता है। जब पुण्य चुक जाते हैं, तब फिर मनुष्य-योनि मिलती है। यहां जैसा कर्म करेंगे, वैसी अगली गति होगी। पिछले मनुष्य जीवन में अन्त तक संस्कारों का जैसा विकास हुआ था, वैसे ही संस्कार नये जन्म में साथ रहते हैं। तीसरी मान्यता वह है जो वृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णित है—

‘‘तद्यथा तृणजलायुका तृणस्थान्त गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्याऽऽत्मानमुपँ हंरत्येवमेवायमात्मेदँ शरीरं निहत्याऽविद्यां गमयित्वा अन्यमाक्रमाक्रम्याऽऽत्मानमुपस हरति ।’’ (17।4।3)

अर्थात् जैसे जौंक जल में तृण में अन्त में पहुंचकर, दूसरे तृण पर जाती हुई, पहले तिनके को तब छोड़ती है जब वह दूसरे तिनके पर पांव जमा लेती है, इसी प्रकार जीवात्मा इस शरीर को छोड़कर तत्काल ही दूसरे को धारण कर लेता है।

गीता के अनुसार भी व्यक्ति अन्त में जिस परिपक्व भाव को स्मरण रखते हुए शरीर छोड़ता है, उसी भाव के अनुरूप नया शरीर प्राप्त करता है। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र त्यागकर दूसरे नये वस्त्र ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराना शरीर त्यागकर नयी देह धरता है।

इन सब तथ्यों-मान्यताओं का मनन—विश्लेषण इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि दो जन्मों के बीच का अन्तराल कितना होगा, इसकी कोई एक ही निश्चित अवधि नहीं है। जब दो व्यक्तियों का यह जीवन एक-सा और एक निश्चित अवधि का ही नहीं होता, तो पुनर्जन्म का भी कोई परिस्थिति-निरपेक्ष माप दण्ड होना सम्भव भी नहीं है। जिस प्रकार व्यक्तियों की खुराक अलग-अलग होती है, जरूरतें और रुचियां भिन्न-भिन्न होती हैं, क्रीड़ा, व्यायाम या विद्यार्जन की क्षमतायें भिन्न-भिन्न होती हैं। दो व्यक्तियों का स्वास्थ्य दोनों द्वारा एक जैसा आहार लेने पर भी, एक-सा नहीं होता। एक-सा जीवन-क्रम अपनाने पर भी दो व्यक्तियों के आरोग्य की स्थिति अलग-अलग हो सकती है। एक ही तप से दो व्यक्तियों के चेहरे, मन, बुद्धि एवं अन्तःकरण पर बिल्कुल एक ही प्रभाव नहीं पड़ता। उसी प्रकार दो जन्मों के बीच की अवधि भी सबके लिए एक नहीं हो सकती।

अन्तराल की अवधि और अनुभूति, दोनों ही जीवात्मा की मनःस्थिति और परिस्थिति पर निर्भर करती हैं। अपनी-अपनी आस्थाओं के अनुसार व्यक्ति को अनुभूतियां हुआ करती हैं। किसी के अन्तर्मन में चित्रगुप्त के निर्णय, लेखा-जोखा, दण्ड-विधान की बात बैठी है, तो उसे मृत्यु के बाद वही सब अनुभव में आयेगा। किसी दूसरे को गहरी नींद की अनुभूति हो सकती है। उद्देश्य और परिणति दोनों की एक ही है—स्मृति में जमी इच्छाओं-आकांक्षाओं का बोझ उतर जाये और नई स्फूर्ति नई ताजगी प्राप्त हो जाये। नींद में भी स्वप्न तो आते ही हैं। स्वर्ग-नरक की अनुभूतियां अन्तराल की इस विश्राम-अवधि का ही स्वप्न या दिवास्वप्न कही जा सकती हैं।

अपनी आस्था इस जीवन में ही नहीं, परवर्ती जीवन में भी क्रिया और प्रेरणा का आधार बनती हैं। इसी से श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है—

‘‘यो यच्छ्रद्धः, स एव सः’’

अर्थात् जिसकी अपने प्रति जैसी आस्था-श्रद्धा हुई, वैसा ही उसका व्यक्तित्व होता है।

मृत्यु के बाद की अनुभूतियां कैसी होंगी और अगले जन्म का अवसर कब आयेगा, इसकी चिन्ता में ही मन को दौड़ाने से कोई लाभ नहीं। उससे अधिक ध्यान अपने अन्तःकरण के परिष्कार और आस्थाओं के निखार तथा जीवन में उत्कृष्टताओं के समावेश की ओर दिया जाना चाहिए। मरणोत्तर अनुभूतियां और अगला जीवन, दोनों ही बिना किसी नियम के, यों ही नहीं होते। इस ब्रह्माण्ड का प्रत्येक क्रिया-कलाप सुव्यवस्थित और सुनियोजित है। किसी औंधे-सीधे चमत्कार की कुतूहल-प्रिय, बाल-कल्पनायें न तो इस जीवन में साकार हो पातीं, न ही अगले जीवन में।

साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा के सार्वभौम पुरुषार्थों द्वारा ही यह जीवन भी धन्य बनाया जा सकता है और अगले जीवन की भी श्रेष्ठता के प्रति निश्चित रहा जा सकता है। सचमुच मरणोत्तर जीवन कैसा होता होगा, अगला जन्म कैसा होगा, यह सब जान सकना भी साधना-विज्ञान के सहारे ही सम्भव है। अतः आवश्यकता अपने भीतर के उन तत्वों को उभारने और बलिष्ठ बनाने की है, जो जीवन में उत्कृष्टता का अभिवर्धन-पोषण करते चलें। उन क्षमताओं को अर्जित किया जाना चाहिये जो इस जीवन को भी सार्थक बना दें और अगले जीवन की भी श्रेष्ठता का पथ प्रशस्त कर दें।
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