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Books - नव निर्माण की पृष्ठभूमि

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Language: HINDI
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समग्र परिवर्तन की रूप-रेखा

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युगान्तरीय चेतना को अग्रगामी बनाने के लिए यदि मिल-जुल कर काम करना संभव हो सके, तो उसके फल निश्चित रूप से और भी अधिक उत्साहवर्धक हो सकता है। एक जैसे विचार वाले, एक जैसे उत्साह संजोये रखने वाले दो व्यक्ति मिलें, तो एक और एक ग्यारह बनने की उक्ति चरितार्थ होती है। अधिक संख्या में लोग एक मन एक दिल होकर एक ही उद्देश्य के लिए काम करें तब तो कहना ही क्या? संगठन की शक्ति सभी जानते हैं। तिनकों से मिलकर रस्सा और धागों से मिलकर कपड़ा बनते सभी देखते हैं। लोक मंगल के लिए मिल जुलकर किए गये प्रयासों के चमत्कारी परिणामों को कभी भी देखा-सुना जा सकता है।

वर्तमान समय में देव वृत्तियों को उभारने एवं संगठित करने के लिए दीप यज्ञों को माध्यम बनाया गया है। दीप यज्ञ आयोजनों ने पिछले एक वर्ष में विचार क्रान्ति की दिशा में असाधारण भूमिका सम्पन्न की है। इससे धर्म तंत्र से लोक शिक्षण का महान उद्देश्य जितनी सरलता और जितनी सफलता के साथ सम्पन्न हो रहा है, उसे निकट से देखने वाले प्रत्येक विचारशील को आश्चर्य ही होता है। उसे नवयुग के अरुणोदय काल की, सामूहिक दीपदान अभ्यर्थना का नाम दिया जा रहा है। लगता है यह प्रक्रिया अगले दिनों बुद्ध की ‘‘धर्म चक्र प्रवर्तन’’ की दूसरी अनुकृति बनकर रहेगी। हर जगह सज्जनों-सद्भावनाशील प्रतिभाओं के संगठन बनते जा रहे हैं। बीजांकुर की प्रगति देखते हुए इस विधा को वट वृक्ष की तरह विकसित और पल्लवित होने की असाधारण संभावना व्यक्ति की जा रही है।

साहसिक प्रयत्नों में दूसरा चरण है—नारी जागरण अभियान। मिशन की पत्रिका के पांच लाख स्थायी ग्राहकों में से प्रत्येक को कहा गया है कि वे अपने घर की एक प्रतिभावान महिला को, इस आधी जनसंख्या को पुनर्जीवन प्रदान करने वाले आन्दोलनों के निमित्त कुछ करने की छूट दें। उन्हें उत्साहित करें, मार्ग दर्शन दें, साधन जुटाएं और अवसर प्रदान करें। इस प्रकार पांच-पांच सदस्यों वाले एक लाख नारी संगठन खड़े होंगे। हर सदस्या अपने सम्पर्क क्षेत्र में घर-घर जाकर पांच सदस्य बनायेंगी। इस प्रकार एक लाख संगठन बन जाएंगे और उनकी लाखों सदस्याएं होंगी। ‘‘हम पांच-हमारे पच्चीस’’ के क्रम से इस आन्दोलन के बढ़ने और चलने की पूरी संभावना बन गई है। हर संगठन-शिक्षा संवर्धन, स्वास्थ्य संरक्षण, स्वावलम्बन, कुरीति निवारण और सत्प्रवृत्ति संवर्धन के रचनात्मक कामों में जुटेगा, तो उसकी प्रतिक्रिया असाधारण होगी। आधी जनसंख्या में नवजीवन का संचार एक ऐसा काम है, जिस पर इतिहास में अब तक हुई समस्त क्रान्तियों को न्यौछावर किया जा सकता है। इक्कीसवीं सदी में नव युग के अवतरण की संभावना को यदि नारी जागरण आन्दोलन के साथ जोड़ा जाय, तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी।

संगठित प्रयत्नों द्वारा अनेकानेक रचनात्मक कार्य बन पड़ने की पूरी-पूरी संभावना है। प्रौढ़ शिक्षा अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इसके लिए मुहल्ले मुहल्ले, गांव-गांव अवकाश के समय चलने वाली नर और नारियों की पाठशालाएं तो खड़ी करानी और चलानी ही पड़ेगी। पर साथ ही इस आन्दोलन में यह भी प्राण फूंकने पड़ेंगे, कि हर शिक्षित व्यक्ति अशिक्षितों को पढ़ाने का संकल्प लें और उसे हर हालत में पूरा करके रहें। स्वयं समय न निकाल सकने पर अन्य किसी को पैसा देकर वह कार्य पूरा कराया जाय। यह कार्य जन स्तर पर ही हो सकता है। सरकार के लिए इतनी बड़ी राशि जुटाना और इतनी लगन, इतनी चेतना उभारना संभव न होगा।

साक्षरता के आगे का कदम है—सद्ज्ञान सम्वर्धन। इसके लिए देव मन्दिरों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रत्यक्ष पुण्य फलदायक पुस्तकालयों को समझा जाना चाहिए। कारण यह कि शिक्षा का मुख्य प्रयोजन ‘‘सद्ज्ञान संवर्धन’’ उन्हीं के द्वारा पूरा होता है। अन्यथा साक्षर भर रहने से इतना ही बन पड़ता है कि घरेलू हिसाब-किताब लिखने जैसी छोटी-मोटी आवश्यकतायें पूरी कर ली जायें। पुस्तकालय की अपनी इमारत हो और उसकी व्यवस्था के लिए एक व्यक्ति नियुक्त रहे, तब तो सबसे अच्छा हो; अन्यथा कोई सेवा भावी व्यक्ति अपने घर की एक ही अलमारी इसके लिए सुरक्षित रख सकता है और अपना निजी काम धंधा करने के साथ-साथ मांगने वालों को पुस्तकें देते-लेते रहने या उनके घर पहुंचाने का काम भी स्वयं संभाल सकता है। अपने साथियों से भी मदद ले सकता है। जीवन के प्रत्यक्ष पहलुओं पर सही प्रकाश डालने वाली पुस्तकें बाजार में नहीं के बराबर मिलती है। बुक सेलरों की दुकानें मनोरंजन वाले साहित्य से भरी पड़ी रहती हैं। उन्हीं की मांग भी रहती है। इसलिए लेखकों, प्रकाशकों, विक्रेताओं की अभिरुचि उस वाले पक्ष पर ही रहती हैं। इतने पर भी जहां-तहां से ढूंढ़ कर कुछ न कुछ साहित्य अपने काम का पाया ही जा सकता है। पुस्तकालयों में ऐसी ही सद्ज्ञान संवर्धक सामग्री रहनी चाहिए, भले ही उनकी संख्या कम ही क्यों न हो। विचार क्रान्ति अभियान में समग्रता उसी आधार पर आ सकती है।

अच्छा होता एक ऐसी सुनिश्चित व्यवस्था बनती जो समय की वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक समस्याओं पर समग्र विचार प्रस्तुत करने में समर्थ हो। इसके लिए लेखक तैयार करके लेखन प्रकाशन का ऐसा तंत्र बने जो सस्ते मूल्य पर उपयुक्त साहित्य तैयार करे। पुस्तक निर्माता ऐसे काम में कम लाभ देखकर स्वयं हाथ नहीं डाल सकते। इसलिए उसका विक्रय तंत्र भी ऐसा खड़ा करना होगा, जो मिशनरी भावना से युग साहित्य को जन-जन तक पहुंचाये। कमीशन के लोभ लालच को प्रधानता न दे। इस आदर्शवादी योजना को आद्योपान्त कार्यान्वित करने के लिए एक समर्थ तंत्र खड़ा होना चाहिए, जो लेखन, प्रकाशन, विक्रय की अपनी स्वतंत्र व्यवस्था खड़ी कर सकें। यह बात कठिन मालूम होती हैं। पर यदि ईसाई मिशनों, कम्युनिस्ट प्रकाशनों और वितरकों की कार्य विधि पर ध्यान दिया जाय, तो निश्चित रूप से उस महती आवश्यकता की पूर्ति की जा सकती है, जिस पर कि देश का-विश्व का, मानव का भविष्य पूरी तरह निर्भर है। सोयी मानवीय अन्तरात्मा सदियों बाद सोकर उठी है। इसे यथार्थवादी मार्गदर्शन की अत्यधिक भूख है। इसे पूरा न किया जायगा तो भूख कुछ भी खाने लगेगी और उसका दुष्परिणाम कुछ भी भुगतना पड़ सकता है। सदियों बाद गुलामी से उबरे, अन्धकार युग से बाहर निकलने का अवसर पाने की इस बेला में, सबसे महती आवश्यकता यह है कि लोक चिन्तन को सही दिशा देने की महती आवश्यकता पूरी की जाय। यह कार्य घर-घर ज्ञान आलोक पहुंचाने वाले लोगों के माध्यम से ही सम्भव हो सकता है।

सुयोग संयोग की बात है कि ऐसा तन्त्र युग निर्माण योजना ने विनिर्मित और सक्रिय किया है। यदि लोक क्रान्ति का कार्य सत्साहित्य के माध्यम से करने का दायित्व सौंपा जाय, तो विश्वास किया जाना चाहिए कि वह उसका निर्वाह करने से पीछे नहीं हटेगा। आवश्यकता इस बात की है कि धीमी गति से चलने वाले युग साहित्य सृजन को नवीन चेतना और उत्साह स्फूर्ति प्रदान की जाय। उसके लिए अभीष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामर्थ्य और सामग्री जुटायी जाय। उसके लिए यही उपयुक्त समय है। भारत में प्रायः 14 भाषाएं प्रमुख रूप से बोली और लिखी जाती हैं। हर किसी के लिए अपने क्षेत्र की भाषा ही ज्ञान वृद्धि का प्रमुख माध्यम बनी हुई है। इस हेतु आवश्यक यह है कि इन दिनों जिन महत्त्वपूर्ण प्रेरणाओं को जन-जन तक पहुंचाया जाना है,उसे देश की सभी भाषाओं में प्रकाशित किया जाय और उसे जन-जन तक पहुंचाने के झोला पुस्तकालयों की, ज्ञानरथों की योजना को कार्य रूप में परिणत किया जाय।

इन दिनों दिग्भ्रान्त और हेय विचारों के प्रवाह ने, व्यक्ति का चिन्तन-चरित्र और व्यवहार सभी कुछ उलट कर रख दिया है। उस उल्टे को उलट कर सीधा करने की आवश्यकता है। उसके बिना न सही राह मिलेगी और न सही लक्ष्य तक पहुंचा जायगा। लोग विलासिता तृष्णा और अहंता के व्यामोह में अपनी बहुमूल्य शक्तियों को बर्बाद करते रहेंगे और उत्थान के स्थान पर पतन की राह पकड़ेंगे। आवश्यकता इस बात की है, कि समूची मानवी सत्ता पर बेतरह आक्रमण कर रहे इन विषाणुओं को नष्ट करने के लिए, ज्ञान यज्ञ की प्रचण्ड ज्वाला जलायी जाय। भटकाव से विमुख कर लोक चेतना को राजमार्ग पर चलाया जाय।

इसके लिए एक ऐसा विशालकाय तंत्र खड़ा होना चाहिए, जिसमें लेखनी और वाणी का समान रूप से प्रयोग किया जाय। महत्त्वपूर्ण निर्धारण युग दृष्टाओं के चिन्तन से निकल कर बाहर आते हैं, इसके बाद अनेकों युग प्रचारक उन्हें अपनी वाणी द्वारा जन-जन तक पहुंचाते हैं। अनुपयुक्त को छोड़ने और उपयुक्त को अपनाने के लिए रचनात्मक कामों की दृश्यमान प्रक्रिया भी खड़ी करनी पड़ती है। रचनात्मक कार्यक्रम इन्हीं को कहते हैं। इन तीनों के समन्वय से ही वह विधा बन पड़ती है जो युग क्रान्ति की सर्वतोमुखी आवश्यकता को पूरी कर सके। आज की परिस्थितियों में यह कार्य प्रमुखता देने योग्य है।

यहां एक बात और भी ध्यान में रखने योग्य है कि लोक चेतना को दिशा देने में संगीत का अपना स्थान है। गायन वादन हृदय की भाव लहरी को लहराता है। उसमें जहां कामुकता आक्रामकता जैसी दुष्प्रवृत्तियों को भड़काने का काम सफलता पूर्वक सम्पन्न होता देखा गया है, वहां यह भी पूरी तरह संभव है कि उत्कृष्ट आदर्शवादिता के लिए एक नयी निर्झरणी उमगायी और बहायी जा सके। युग चिन्तन को उत्कृष्टता की ओर ले जाने के लिये जहां लेखनी, वाणी के रचनात्मक क्रिया कलापों को उभारने की आवश्यकता है, वहां यह भी एक अनिवार्य आवश्यकता है कि अभीष्ट परिवर्तन की प्रेरणा से भरा-पूरा लोक संगीत सृजा जाय और उसका अनुवाद देश की हर भाषा में उपलब्ध कराया जाय।

कभी कथा साहित्य द्वारा लोक शिक्षण का कार्य धीमी गति से—परोक्ष रूप से पूरा किया जाता था। आज आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति द्वारा अपनाये गये गुण कर्म स्वभाव की कड़ी जांच पड़ताल की जाय और नीर क्षीर विवेक के आधार पर उसका परिमार्जन किया जाय। इसी प्रकार समाज में कुप्रचलनों की भरमार है। प्रथा परम्पराओं ने झूठी मान्यताओं का स्तर अपना लिया है। उसमें अनैतिकता, अवांछनीयता और अदूरदर्शिता के तत्व बेतरह भर गये हैं। इन्हें सम्हालने, सुधारने के लिये युगान्तरीय चेतना को दावानल की तरह अपनी क्रान्तिकारी भूमिका निभानी होगी।
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