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Books - नव निर्माण की पृष्ठभूमि

Media: TEXT
Language: HINDI
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अन्धकार से निपटने के लिए प्रकाश प्रज्वलन करें

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प्रकाश न होने का ही नाम अन्धकार है। प्रकाश ही लाया ले जाया जाता है। अन्धकार लाया या ले जाया नहीं जा सकता। प्रकाश जो चाहते हैं, वे अन्धकार से लाठी लेकर नहीं लड़ते, बल्कि दीपक जलाने जैसे प्रयास करते हैं। क्रम चल पड़ता है तो सूर्य-चंद्र जैसे प्रकाश पुंज भी उदय हो जाते हैं।

संसार की तमाम विपत्तियों का कारण दुश्चिन्तन और दुराचरण ही है। उन्हें दूर करना ही व्यक्ति कल्याण और लोक निर्माण का उपाय है। इसलिए सुख शान्ति चाहने वालों और प्रगति की योजनायें बनाने वालों के लिए भी उचित है कि इसी केन्द्र पर अपना ध्यान लाये। प्रगति के लिए प्रथम चरण यही है कि भटकाव में पड़े लोगों को ऐसा मार्गदर्शन दिया जाय; ताकि वे उलझने सुलझाते हुए उज्ज्वल भविष्य के अधिकारी बन सकें।

इस संदर्भ में सिद्धान्त समझाने के लिए सामूहिक गोष्ठियों का उपयोग किया जा सकता है। व्यावहारिक चरण समझाने, सिखाने के लिए व्यक्ति की निजी परिस्थितियों का ध्यान रखते हुए मार्गदर्शन दिया जाता है। किसी को कुछ समझाने के पहले यह आवश्यक है कि उसे विश्वास में लिया जाय। यदि विश्वास की कमी के कारण कोई अपनी सलाह नहीं मानता है, तो उस पर झल्लाना नहीं चाहिए। यदि व्यवहार में कटुता आ गई तो उचित परामर्श भी न मानना, प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है। यदि सद्भाव बना रहे, तो एक ढंग से न सही दूसरे ढंग से, इस बार न सही अगली बार बात समझायी जा सकती है।

अनौचित्य के प्रति रोष, अवांछनीयता के प्रति आक्रोश स्वाभाविक रूप से आता है। उसे रोकने के उपाय करने को मन करता है। अनीति का प्रतिरोध करने के सम्बन्ध में दो मत नहीं हो सकते। परन्तु ध्यान रहे, प्रतिरोध का उद्देश्य भी सुधार ही होता है। कहीं ऐसा न हो कि होम करते हाथ जले। कहीं ऐसा न हो कि सुधार तो हो न पाय, पर परस्पर विग्रह खड़ा हो जाय। चिढ़ पैदा हो जाने पर सरल काम भी कठिन हो जाता है।

प्रतिरोध सद्भाव पूर्वक किया जा सकता है। भर्त्सना प्रताड़ना का प्रयोग लगता तो सुगम है, पर बहुधा वह वैमनस्य और विग्रह पैदा कर देते हैं। सुधार के स्थान पर चुनौतियों का भद्दा क्रम चल पड़ता है। सुधारकों को, विशेष करके विचार परिवर्तन का लक्ष्य लेकर चलने वालों को, इस उलझन से बचकर वह राह पकड़नी चाहिए, जिससे लक्ष्य की दूरी और बढ़ न जाय।

जन साधारण के लिए अनीति के विरुद्ध अड़ जाने की नीति ही ठीक है। अन्यान्य के आगे सिर न झुकाने में ही मनुष्य की गरिमा है अनुचित के साथ असहयोग, विरोध संघर्ष करना जैसा को तैसा की लोक रीति ही सही है। विरोध न होने से दुष्टों का साहस बढ़ता है। किसी को आतंक से, किसी को लालच से वे अपनी ओर कर लेते हैं इसलिए समाज में अनीति के विरुद्ध संघर्ष की नीति ही सही है। कानून, सुरक्षा कमी, सुरक्षा स्वयं सेवक सब इसी काम में लगे रहते हैं।

इतना सब होते हुए भी, समाज सुधार जैसे व्यापक उद्देश्य लेकर चलने वालों को औरों की अपेक्षा अधिक उदारचेता होना चाहिए। उन्हें आदर्श डॉक्टर्स जैसी रीति-नीति अपनानी होती है। रोगी विरोध करे, दुर्व्यवहार करे, कटुवचन कहे, तो भी डॉक्टर उसके व्यवहार को नहीं, अपने कर्तव्य को ही महत्त्व देता है। मान-अपमान निन्दा-प्रशंसा पर ध्यान दिये बिना वह उसी योजना पर आगे बढ़ता रहता है, जिससे रोग को मारा और रोगी को बचाया जा सके। दुष्प्रवृत्तियों का विरोध भी उन्हें रोकता है और सुधार भी उन्हें दूर करता है। जन सामान्य विरोध का मार्ग अपन सकता हैं, परन्तु लोकसेवी को सुधार का क्रम ही अपनाना चाहिए।

अपने को झंझट से बचाने के लिए ‘‘अपने काम से काम’’ वाली नीति कायरता पूर्ण है। इससे समाज में दुष्प्रवृत्तियां बढ़ती है और सत्प्रवृत्तियों पर चोट पड़ती है। स्वयं को झंझट से बचाने वाला लोगों की निगाह में सिद्धान्तहीन-कायर ठहराया जाता है। ऐसे व्यक्ति अन्ततः अकेले छोड़ दिये जाते हैं। इसलिए मनुष्य में समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी के साथ-साथ बहादुरी भी होनी चाहिए। अनीति अपने साथ हो या किसी और के साथ, उसके विरोध असहयोग प्रकट किया ही जाना चाहिए। सार्वजनिक हित को अपने व्यक्तिगत हित से अलग नहीं सोचना चाहिए। दुष्प्रवृत्तियों से निपटने के लिए ऐसी विशेषतायें बहुत आवश्यक है।

लोक सेवी को अपनी विशेषतायें और अधिक प्रखर बनानी होती है। वह अनाचार के कारणों की जड़ तक जाता है, और उनका उपचार करता है। आमतौर से लोगों को यह भान नहीं होता कि दुर्गुण दुष्प्रवृत्तियों से अपने निजी जीवन और सम्पर्क क्षेत्र को कितनी हानि उठानी पड़ती है। अपने मौज-मजे की संकीर्ण स्वार्थपरता में डूबा हुआ व्यक्ति, यह नहीं देख पाता कि उसके अनुचित कार्यों से कितने अनर्थ पैदा हो रहे हैं। इसलिए लोग नशेबाजी दहेज, जाति-पांति, विलसित, महिला उत्पीड़न जैसे कुकृत्यों को अपने जीवन का अंग बना लेते हैं। इन प्रचलनों का अनुकरण करना उन्हें कुछ अनुचित नहीं लगता।

लोगों की इस नादानी को दूर करना विचारशील लोक सेवियों का कार्य है। विचारशीलता की दिशा में उनके उपेक्षा भाव को दूर करने के लिए, उनके सामान्य लगने वाले घातक पक्ष उजागर किये जाने चाहिए। इनके कारण कितनों को कितना कष्ट क्लेश सहना पड़ता है, यह स्पष्ट किया जाना चाहिए। करुणा और आक्रोश जगाना दो बड़े उपाय हैं। इसके लिए अन्यायी को सीधी गालियां देना पर्याप्त नहीं है। हानियों और हानि उठाने वाले वर्ग की पीड़ा को इतना उजागर किया जाय, कि सुनने वाले की भाव-संवेदनायें उसके साथ उमड़ पड़। वह इतना संवेदनशील हो उठे कि उनसे निपटने के लिए उसमें प्रबल संकल्प जाग उठे।

किसी की निन्दा करने से तो उसे व्यक्तिगत राग द्वेष मान लिया जाता है। ऐसी स्थिति में लोग अपने आपको अलग ही कर लेना चाहते हैं। अनीति के सुधार उन्मूलन की बात टल ही जाती है; परन्तु यदि किसी व्यक्ति का उल्लेख न करके पीड़ित वर्ग की पीड़ा का सजीव चित्रण किया जाय, तो बात बनती है। अनीति करने वाले से लेकर, देखने वालों तक को उसके उन्मूलन के लिए कुछ करने की प्रेरणा मिलती है। उसके अनुकरण के दोष से लोग बचते हैं, और क्षेत्र में उस अनाचार को फैलने न देने का प्रयास करते हैं। अनीति पर उतारू व्यक्ति भी अपने इस दोष को दूर करने के लिए उपचार या सर्जरी जैसी प्रक्रिया स्वीकार करने को तैयार हो जाते हैं।

ध्यान रखा जाय, अनीति से बचने के लिए प्रतिरोध और सुधार दोनों ही मार्ग हैं। लोक सेवियों को सुधार के लिए किसी दोनों की निन्दा आलोचना में उत्पन्न दुर्दशा का कम चित्रण करके करुणा उभारने में अधिक रुचि लेना चाहिए। विरोध और सुधार के लिए यही तरीका अधिक कारगर है। ऐसा करने से सुधारक की शालीनता भी सुरक्षित रहती है और सफलता भी अधिक मिलती है। प्रकाश फैलाने की इस विधा को जितनी कुशलता से अपनाया जाय, उतना ही कार्य अधिक अच्छा और अधिक मात्रा में किया जा सकता है।
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