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Books - परिवार को सुव्यवस्थित कैसे बनायें?

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सहजीवन, प्रगति और प्रसन्नता का आधार

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परिवार का अर्थ है—परिकर, समूह, समुदाय। उसे इतनी संकीर्ण सीमा में आबद्ध नहीं करना चाहिये कि उस दायरे में स्त्री-बच्चे के अतिरिक्त और किसी का प्रवेश ही न हो सके। यों वंशगत कुटुम्ब को ही आमतौर से परिवार कहा जाता है, क्योंकि उस समूह के लोग एक-साथ मिल-जुलकर एक ही मकान में रहते हैं। उनका आर्थिक स्रोत भी सम्मिलित ही होता है और सदस्यों को एकमान्य अनुशासन में रहना होता है। एक ही आचार संहिता अपनानी पड़ती है। इसमें इच्छानुसार बरतने की छूट एक सीमा तक ही रहती है, यदि यही सब वंश परिकर के अतिरिक्त अन्य लोग भी मिलकर अपनालें, तो वह भी एक परिवार ही बन जायगा। यह अनिवार्य नहीं कि सम्मिलित कुटुम्ब को ही परिवार माना जाय उसके लिए विवाह करना या सन्तानोत्पादन में प्रवृत्त होना बिल्कुल भी आवश्यक नहीं। यों प्रचलन आजकल ऐसा ही है, पर आवश्यक नहीं कि जो कुछ हो रहा है वह सब उचित, पर्याप्त या अनिवार्य ही हो। अनेक व्यक्ति ऐसे हैं, जो स्वेच्छा या परिस्थितिवश विवाह या सन्तानोत्पादन की स्थिति में नहीं होते। यह स्वेच्छापूर्वक भी हो सकता है और विवशता में भी। इतने पर भी उन्हें रहना परिवार की छत्रछाया में ही चाहिये। समूह व्यवस्था के अन्तर्गत ही निर्वाह की आवश्यकता से लेकर परिशोधन और प्रगति का अनुभव, अभ्यास बहुत कुछ इसी आधार पर बन पड़ता है। इस स्थिति में उगे बीजांकुर ही बड़े होने पर अधिक फलते-फूलते और ऐसे स्वभाव के रूप में विकसित होते हैं जो उत्थान-पतन के लिए प्रधान रूप से जिम्मेदार होते हैं। विचार साम्य के आधार पर क्रिया-कलाप की एकता को लेकर भी परिकर बनते हैं। छात्रों के छात्रावास—सेना की बैरकें इसी आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। साधुओं के आश्रम, गुरुकुल, आरण्यक भी इसी आधार पर अपने को सुविकसित करते हैं। जिन्हें विदेशों में अपरिचितों के साथ रहना पड़ता है वे भी सर्वथा एकाकी नहीं रहते। किसी होटल, सराय आदि का आश्रय लेते हैं। सर्वथा एकाकी रहने के प्रयोग कई एकान्तवासी कहे जाने वाले साधु-सन्तों ने किया तो है, पर वह एक प्रकार से अपूर्ण है। शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी सर्वथा आत्म निर्भर रहने पर बन न पाई उन्हें भी अनिवार्य साधन सामग्री के लिए दूसरों के अनुदान की अपेक्षा पड़ी। मनःक्षेत्र में उठते रहने वाले अनेकों उतार-चढ़ावों का जब स्वयं समाधान होने की स्थिति नहीं बन पड़ती, तब भी दूसरों के साथ विचार-विनिमय करके ही किसी उपयोगी निष्कर्ष तक पहुंचना पड़ता है। यह कार्य यदि किसी साहित्य के आधार पर किया जाय तो भी वह प्रकारान्तर से उनके लेखकों के साथ विचार क्षेत्र में जुड़ना ही हुआ। एकान्तवासी भी कल्पनायें करने से निवृत्त नहीं हो सकते। कल्पनायें ऐसे वातावरण के संदर्भ में ही उठती हैं जो अपेक्षाकृत अधिक अनुकूल हो। यह क्षेत्र भी जनशून्य नहीं हो सकता। निस्तब्धता तो व्यवहार में ही नहीं, कल्पना के लिए कठिन एवं अरुचि तक लगती है। भेड़ियों की मांद में पला रामू बालक चौदह वर्ष की आयु तक मनोवैज्ञानिकों के संरक्षण में पला और जिया, पर उसे शैशव के आरम्भ के दिनों में जिस रीति-नीति को अपनाना पड़ा वे ही उसका स्थाई स्वभाव बन पायीं। वह मनुष्यों की तरह बोलना न सीख सका और हाथ पैरों के सहारे पशुओं की तरह चलने की आदत न छोड़ सका। किसी को जन्म से ही एकान्त में रहना पड़े तो वह वनमानुषों जैसा ही कुछ हो सकता है। एकान्तवासी बनकर रहने वाले भी इस निवास से पूर्व समाज के सान्निध्य-संरक्षण में ही रहे होते हैं। उनकी चेतना, ज्ञान सम्पदा, अर्चना, अनुभव अभ्यास, निष्कर्ष आदि उपलब्धियों में पूर्व अनुभवों का ही समावेश होता है। वे सभी समाज परिकर में ही रहकर संचित किये गये होते हैं। इस प्रकार विचार क्षेत्र में जो कुछ संचय है वह सामाजिक अनुदान ही होता है। यह जहां से, जिन लोगों में बटोरा गया है उसे भूतपूर्व परिवार ही कह सकते हैं। भविष्य के लिए किसी ने मधुर कल्पनायें संजो रखी हों तो वे भी किसी समुदाय के साथ ही जुड़ी हुई होंगी। भले ही वे देवताओं के स्वर्ग परिकर के साथ ही क्यों न जुड़ती हों। ब्रह्मलोक आदि की सरस कल्पनायें करते इसीलिए बन पड़ती हैं कि वहां किन्हीं उच्चस्तरीय प्राणियों का निवास या प्रभाव सुखद परिस्थितियों का सृजन कर रहा होगा। सर्वथा जनशून्य परलोक की कल्पना करने पर तो वहां भी भयंकर निस्तब्धता की अनुभूति होगी और जी घबराने लगेगा। शरीर भी एक परिवार है। उसके अंग-अवयव सदस्यगण हैं। उन सबका भरण-पोषण करना पड़ता है। कहीं कोई गड़बड़ी उठ खड़ी हो तो उसका समाधान सोचना पड़ता है। कुटुम्बियों में से प्रत्येक के सम्बन्ध में जिस प्रकार बहुमुखी व्यवस्था जुटानी पड़ती है उसी प्रकार काय कलेवर के सभी अंगों, अवयवों, विभागों को सही स्थिति में रखने के लिए पग-पग पर सतर्कता बरतनी पड़ती है। मन:क्षेत्र में भी मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का, सचेतन, अचेतन, सुपर चेतन का समुदाय है। ज्ञान तन्तुओं का चित्र-विचित्र क्षमताओं से भरा-पूरा एक विशालकाय परिकर है। इस प्रकार न तो शरीर किसी पत्थर की तरह एकाकी है और न मनःक्षेत्र भी संस्कारों से रहित है। यह एकाकी लगने वाले क्षेत्र अपने-अपने स्तर के दृश्य-अदृश्य सहयोगियों को, परिजनों को संजोये हुए बैठे दिखाई पड़ेंगे। मरने के बाद भी जिस परलोक की कल्पना की जाती है। वह भी स्वर्ग-नरक का अपने ढंग का समूह परिकर है। प्रेत लोक में भी प्राणी एकाकी नहीं रहता, वहां भी उसकी बिरादरी के अनेक सदस्य पहले से ही जमे या आते-जाते दीख पड़ते हैं। सर्वथा एकाकीपन की कल्पना कर सकना तो मनुष्य जैसे विकसित स्तर के प्राणी के लिए संभव नहीं। जीवाणु, विषाणु, मृदा जन्तु जलजीव भले ही विचार शक्ति के अभाव में अपने को एकाकी स्थिति में मानते हैं, पर चेतना का हल्का-सा उभार आते ही अपने चारों ओर साथी-सहयोगियों से भरापूरा संसार दिखाई पड़ता है। पूर्णता की स्थिति में पहुंचने वाले दिव्यदर्शी, परमहंस भी विराट् ब्रह्म की प्रत्यक्ष झांकी विशाल विश्व के रूप में ही करते हैं। उनका परिवार किसी घर की छोटी सीमा में आबद्ध न रहकर वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता अपना लेता है उसे समस्त विश्व ही अपने निजी परिवार की तरह दीख पड़ता है। स्वयं ईश्वर भी एकाकी नहीं रह सका। उसने ‘एकोऽहं बहुस्याम’ की आकांक्षा की और अपने वैभव विस्तार का परिचय देने, उसके साथ क्रीड़ा-कल्लोल करने के लिए यह सुविस्तृत संसार रच डाला। उसकी सहयोगिनी माया भी प्रकृति बनकर असंख्य स्तर के घटकों के साथ जुड़कर अपने विशालकाय परिकर का परिचय देने लगी। जीव का जन्म तक माता-पिता के सहयोग समन्वय और भाव भरे समर्पण से ही संभव होता है। मरने के उपरान्त निर्जीव काया को सड़न से बचाने के लिए अन्य लोग अन्त्येष्टि का प्रबन्ध मिल-जुलकर करते हैं। यदि सभी मुंह मोड़ लें तो भी निर्जीव काया में से ही ऐसे कृमि उपज पड़ते हैं जो उस निरर्थक कचरे को खाकर समाप्त कर दें। इस कार्य में वन्य पशु-पक्षी भी यथासम्भव सहयोग प्रदान करते हैं। इस सृष्टि में किसी के लिए भी ऐसा स्थान नहीं है, जहां वह मात्र अकेला रह सके। ऐसा शून्य तो सोचते भी नहीं बन पड़ता। यह सब इसीलिए कहा जा रहा है कि किसी के मन में संकीर्ण स्वार्थपरता का एकाकीपन जड़ न जमाने पाये। वह सर्वथा असम्भव है साथ ही उस दिशा में सोचने-चलने में पग-पग पर असुविधाओं विसंगतियों और विडम्बनाओं का ऐसा सामना करना पड़ता है, जिसमें असुविधाओं और विपत्तियों के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगता ही नहीं। सामाजिकता की सुविधाओं और संभावनाओं का समुच्चय है। सबसे अलग रहकर नितान्त स्वार्थी बनने के लिए भी समूह का परित्याग नहीं किया जा सकता। शोषण, अपहरण, आक्रमण के लिए भी तो अन्य लोग चाहिए ही। प्रशंसा एवं प्रतिष्ठा बढ़ानी हो तो भी जय-जयकार करने वाले कोई अन्य लोग ही चाहिए। जिन्हें रिझाना, दबाना या प्रभावित करना है वे भी तो कोई और ही होंगे। इस प्रकार भले या बुरे प्रयोजनों के लिए किन्हीं अन्यों के साथ किसी न किसी प्रकार का सम्पर्क जुड़ना आवश्यक हो जाता है। भ्रूण की स्थिति में जीव माता के उदर में रहता है और उसी के अनुदानों से ही पलता और बढ़ता है। जन्म लेने के उपरान्त उसकी सामान्य सी आवश्यकताओं को भी अभिभावक ही पूरा करते हैं। अपने आप तो वह दूध पीने के लिये भी उस केन्द्र तक नहीं पहुंच सकता। करवट तक नहीं बदल सकता। मल-मूत्र की सफाई तक करना उसके लिए सम्भव नहीं होता। यदि यह व्यवस्था न बन पड़े तो समझना चाहिये कि उस नवजात का जीवित रह सकना भी संभव नहीं। अन्य प्राणियों के बच्चे किसी प्रकार भले ही जीवन धारण किये रह सकें। वस्तुस्थिति हर किसी को समझनी चाहिए और समाज के साथ सम्पर्क बनाने के प्रथम आधार परिवार परिकर को साथ लेकर जीवनयापन करने की बात सोचनी चाहिये। व्यक्ति अपने हित की बात सोचता है यह बुरा नहीं, पर उस सोच को इतना संकीर्ण नहीं होना चाहिए कि अपना तात्कालिक स्वार्थ ही सब कुछ बनकर रह जाय। अनुशासन, अनुबन्ध का निर्वाह करने में उच्छृंखलता बरती जाय। अपने कर्तव्यों और दूसरों के अधिकारों की उपेक्षा चल पड़े। ऐसी एक पक्षीय स्वार्थपरता परिणाम में अनर्थ बनकर ही सामने आती है। सन्तुलन नहीं निभ पाता है और वह स्थिरता एवं सफलता का आधारभूत कारण नहीं बनता है। समूह की उपेक्षा करके अपनाया गया स्वार्थ अपने और दूसरों के लिये संकट और अवरोध ही खड़े करता है। पारिवारिकता मनुष्य के सहजीवन की एक सुनिश्चित विधा और अनिवार्य आवश्यकता है। जिसकी उपेक्षा करके सुख, शान्ति और प्रगति का लाभ उठा सकना तो दूर सामान्य निर्वाह भी असम्भव है। संयुक्त परिवार की आवश्यकता मानवी विकास के आरम्भ काल से ही समझी जाती रही है। वनमानुष जैसी आदिमकाल की अनगढ़ स्थिति से ऊंचे उठते-उठते आज सृष्टि का मुकुट-मणि बन सकना उसके लिये इसी आधार पर सम्भव हुआ है। बौद्धिक और भौतिक उपलब्धियां पारस्परिक आदान-प्रदान के आधार पर ही बनती, बढ़ती और एक-दूसरे को हस्तान्तरित होती चली आई है। प्रगतियों का, उपलब्धियों का कोई भी पक्ष क्यों न हो, विकास का सरंजाम इसी आधार पर जुट सकता है। अलगाव की व्यक्तिवादी स्वार्थपरता किसी प्रकार का छद्म अथवा अनाचार अपनाकर कुछ देर के लिये लाभ लेने का गर्व कर सकती है। कलई खुलने पर तो वे सर्वथा एकाकी ही रह जाते हैं। लाभ तक साझेदार रहने वाले तथाकथित मित्रों का भी पता नहीं चलता। अपने मतलब से मतलब रखने वाले समझते भर इतना हैं कि हम चतुरता कर रहे हैं। स्वयं किसी के काम नहीं आते, पर अपना उल्लू सीधा करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि यहां सब कुछ आदान-प्रदान के आधार पर ही चल और बढ़ रहा है। नियति का अतिक्रमण करके किसी का सुख चैन से रह सकना संभव नहीं। अकेलेपन की प्रवृत्ति, सरसता और प्रसन्नता के समस्त स्रोत सुखा देती है। हर दृष्टि से हर क्षेत्र में संकीर्णता हानिकारक ही सिद्ध होती है। इसलिये मिल-जुलकर रहना सिखाने वाली पारिवारिकता को ही श्रेय, सौभाग्य और समझदारी के साथ जोड़ा गया है। 
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