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Books - परिवार को सुव्यवस्थित कैसे बनायें?

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Language: HINDI
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परिवार का सुनियोजित गठन : उत्कर्ष

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******* परिवार गठन का लाभ और श्रेय तभी है जब उस परिकर में व्यवहारिक सुव्यवस्था और भावनात्मक सुसंस्कारिता की निरन्तर अभिवृद्धि होती चले। इन दिनों सब कुछ धन के आधार पर नापा और आंका जाता है, जिसके पास जितनी अधिक समृद्धि है वह उतना ही लोगों की आंखों में चमत्कार बनकर दीखता है, साथ ही सराहा भी जाता है। इसी कारण लोग अपने को अमीर दिखाने को सुविधा-साधनों से लदा हुआ दीखने का प्रयत्न करते हैं, इस हेतु अधिक धन की आवश्यकता होती है। लोग उसी को सही-गलत तरीके से कमाने में लगे रहते हैं और उससे निजी प्रयोजन तथा परिवार के सुविधा-साधन बढ़ाने में लगे रहते हैं। समर्थों को अपनी सफलता इसी में दीख पड़ती है, पर वस्तुस्थिति ऐसी है नहीं। किसी परिवार की वास्तविक प्रतिष्ठा उसकी शालीनता और सुसंस्कारिता पर ही निर्भर है। यदि उसमें कमी पड़े तो समझना चाहिए कि बढ़ा हुआ वैभव और ठाठ-बाट उसका उपभोग करने वालों के लिए पतन पराभव का कारण बनेगा। अमीरी प्रदर्शित करने वाला ठाठ-बाट क्रमशः अधिक बड़ी शान-शौकत मांगने लगता है, अधिक धन की आवश्यकता पड़ती है। ईमानदारी और परिश्रम से तो उस सीमा तक ही कमाया जा सकता है जिसमें औसत नागरिक स्तर का निर्वाह हो सके। निजी वैभव जमाने के लिए तो बढ़-चढ़कर हाथ-पैर मारने पड़ते हैं और उसके लिए उचित-अनुचित का, न्याय-अन्याय का विचार छोड़ना पड़ता है। वैभव के पीछे प्रायः उपार्जन में नीतिमत्ता नाम मात्र को भी जुड़ी नहीं रह पाती। कोई अधिक कमाने भी लगे तो उस बचत को सत्प्रवृत्ति के सम्वर्धन में लगाने की उत्कण्ठा भी नहीं रही। ऐसी मनःस्थिति में विलास-वैभव के प्रदर्शन के लिए गुंजाइश ही नहीं रहती, यदि परिवार को ठाठ-बाट के आधार पर बड़ा बनाने की सोच रही हो तो उसमें मानवी गरिमा के अनुरूप शालीनता का निर्वाह न बन पड़ेगा और दिशा प्रवाह नैतिक दृष्टि से पतन-पराभव की दिशा में ही बह रहा होगा। यह स्थिति जहां भी बन रही होगी वहां दुखदायी परिणाम ही उत्पन्न होंगे, परिवार परिकर में भी इस दुष्प्रवृत्ति को प्रश्रय नहीं मिलना चाहिए। परिवार क्षेत्र में बनने वाली दुष्प्रवृत्तियां आरम्भ में छोटे क्षेत्र की छोटी घटनायें प्रतीत हो सकती हैं, पर वे पोषण प्राप्त करती रहने पर क्रमश: बढ़ती और फूलती-फलती रहती हैं। परिपक्व होने पर वे घर के हर सदस्य के स्वभाव का एक अंग बन जाती हैं और वह असामाजिक स्तर का बन जाता है, भले ही वह पद या वैभव कितने ही ऊंचे स्तर का प्राप्त क्यों न कर ले। मनुष्य का सर्वतोमुखी विकास उसके स्वभाव में सुनियोजित की हुई सत्प्रवृत्तियों के आधार पर ही सम्भव होता है। इस तथ्य को समझ लेने के उपरान्त यह एक मार्ग सूझ पड़ता है कि गृह संचालकों का प्रमुख प्रयास इस केन्द्र पर केन्द्रित हो कि उस छोटी सी परिधि में सत्प्रवृत्तियों को अधिकाधिक प्रश्रय मिले। सभ्यता और शिष्टता, सज्जनता से परिवार के हर सदस्य को अभ्यस्त बनाया जाय। सत्प्रवृत्तियां अनेकों हैं, पर व्यवहारिक जीवन में पंचशीलों को ही प्रतिष्ठा प्राप्त है। श्रमशीलता, मितव्ययिता, शिष्टता, सुव्यवस्था और सहकारिता—घर के क्रिया-कलापों में परिवार के सदस्यों में इन पंचशीलों का समावेश प्रत्यक्ष दीख पड़ना चाहिए। हर सदस्य को हर क्रिया-कलाप में इन सद्गुणों की प्रत्यक्ष झलक मिलनी भी चाहिये। भावना क्षेत्र के भी चार धर्म कर्तव्य हैं—समझदारी, ईमानदारी, बहादुरी, जिम्मेदारी। इन चारों को आदर्शवादिता के साथ समन्वित किया जाता है, पंचशील और चार सत्य मिलाकर नौ होते हैं, इनको नवरत्नों की उपमा दी जा सकती है। सौरमण्डल नौ ग्रहों का समुच्चय है। गायत्री मन्त्र के नौ शब्दों में, यज्ञोपवीत की नौ लड़ों में इन्हीं आदर्शवादी अवधारणाओं का समावेश है। सत्प्रवृत्तियों के मणि-मुक्तकों से विनिर्मित इस नौ लाख मूल्य वाले हार के समतुल्य वैभव को उपलब्ध कराने का प्रयत्न करना चाहिए, यह सब कहते-सुनते रहने से ही नहीं बन पड़ता। अन्य साथी उन सत्प्रवृत्तियों को अपनाने लगें, इसके लिए यह आवश्यक है कि परिवार के वरिष्ठ सूत्र संचालक अपने निजी जीवन में इन्हें इस प्रकार समाविष्ट करें कि वे दूसरों को भी प्रत्यक्ष चरितार्थ होती हुई दीख पड़ें। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि सुसंस्कारिता प्रशिक्षण का आधा पथ पूरा हुआ, जो आधा और शेष बच जाता है, उसे एक आंख दुलार की, एक आंख सुधार की रखकर करें। साथियों को औचित्य अपनाने के लिए सहमत किया जाना चाहिए, सभी कलाकार उपलब्ध उपकरणों और साधनों का सही प्रयोग करके सृजन की बहुमूल्य कलाकृति बनाते हैं। यह निर्माण और सृजन कार्य परिवार परिकर में चलते रहना चाहिए, इस सन्दर्भ में आवश्यक अनुशासन बरते जाने की प्रथा-परम्परा हर परिवार में चलनी चाहिए और उसमें सहयोग देने के लिए सभी सदस्यों को मानस बनाने और सहयोग देने के लिए तत्पर किया जाना चाहिए। सहकारी संस्था के रूप में किसी परिवार को इसी आधार पर समुन्नत बनाया जा सकता है और उसके सदस्यों में से प्रत्येक को इसी आधार पर नररत्न बनने का सुयोग्य-सौभाग्य प्राप्त हो सकता है। व्यक्ति और समाज की भलाई इसी में है कि व्यवहार में सत्प्रवृत्तियों का अधिकाधिक समावेश हो और अवांछनीयता के उन्मूलन का प्रयास निरन्तर चलता रहे। यह दोनों कार्य परिवार क्षेत्र से आरम्भ करते हुए सभी साथियों की सेवा-साधना की जा सकती है। परिवार निर्माण के साथ व्यक्ति को भी अपने व्यक्तित्व को अधिकाधिक सुसंस्कृत बनाने का अवसर मिलता है, समाज की सेवा भी इसी से आरम्भ की जाय तो ठीक है। अपने परिवार के सदस्य यदि सद्गुणी बन सके तो उनके माध्यम से चलने वाली अगली वंश बेल भी उसी ढांचे में ढलेगी। विकसित व्यक्तित्व का अपना प्रभाव क्षेत्र होता है। दुष्टता इसी प्रकार आतंक का वातावरण बनाती है, उसी प्रकार सज्जनता से भी एक सम्पर्क क्षेत्र प्रभावित होता है और उसकी सराहनीय चर्चा जहां तक पहुंचती है वैसी ही अनुकरण भावना पनपती जाती है। सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों ही अपने-अपने स्तर पर वातावरण को प्रभावित करती हैं। रावण-दुर्योधन आदि का समूचा परिवार एवं सम्पर्क क्षेत्र उसी प्रकार के अनाचार का पक्षधर बन गया था। सज्जनता में हरिश्चन्द्र-जनक आदि सम्पन्नों और ऋषि परिकर के लोकसेवियों वाले परिवार इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णिम अक्षरों से अंकित होते रहे हैं। अवांछनीयताओं का उन्मूलन भी लोकसेवा का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। समाज के प्रचलन से व्यक्ति और परिवार प्रभावित होते हैं, पर साथ ही यह भी सच है कि मनस्वी प्रतिभायें किसी सत्प्रयोजन को स्वयं अपनाकर अपने प्रभाव क्षेत्र में सुधारवादी हलचलें उत्पन्न कर सकती हैं। कुप्रचलनों का विरोध करने के लिए यदि कहीं अन्यत्र मोर्चा लगाने की परिस्थितियां न हो तो उस कार्य को अपने प्रभाव क्षेत्र परिवार से तो आरम्भ किया ही जा सकता है। सेनापति का अनुशासन बटालियन के सैनिक मानते ही हैं, वैसी ही परिस्थितियां अपने अधिकार क्षेत्र में क्यों नहीं बनाई जा सकतीं? असहयोग विरोध और संघर्ष की प्रक्रिया बड़े न सही छोटे रूप में तो छोटे स्तर पर अपने घर में भी चल सकती हैं। प्रयोग-प्रशिक्षण, बीजारोपण—अभिवर्धन एवं सुधार परिष्कार के लिए परिवार से बढ़कर और कोई प्रयोगशाला नहीं हो सकती। शर्त एक ही है कि उसकी व्यवस्था सुनियोजित ढंग से की जाय। घुणाक्षर न्याय से, घुनकीड़ा बिना किसी योजना के किधर भी बढ़ता चलता है। संयोगवश उस क्रिया में किसी भाषा के कोई अक्षर भी बन जाते हैं, यह आकस्मिक संयोग भर है। योजनाबद्ध रूप से किया गया प्रयत्न नहीं। इसी प्रकार अधिकांश लोग गृहस्थी बसा लेते हैं, किसी परिवार के अंग बन जाते हैं, पर उसके पीछे कोई सुनियोजित योजना न होने से उसका स्वरूप और भविष्य किसी भी प्रकार का कुछ बन जाता है। सदस्यों में से कुछ भले निकलते हैं कुछ बुरे, कुछ कर्तव्य पालते हैं, कुछ बने को बिगाड़ते हैं। यह बिना सोची, बिना तैयारी की, बिना लक्ष्य की क्रिया-प्रतिक्रिया है। विचारशीलों को परिवार संस्था के साथ ऐसी उपेक्षा, ऐसी दिल्लगी नहीं करनी चाहिए। उद्यान लगाने वाले माली को पौधों की सिंचाई, निराई, गुड़ाई बराबर करनी होती है। खर-पतवार उखाड़ने, रखवाली में चौकस रहने की जागरूकता अपनानी पड़ती है। ठीक यही बात परिवार के सम्बन्ध में भी है, उसके हर सदस्य की आदतों, अभिरुचि, योग्यता को ध्यान में रखते हुए उसे आगे बढ़ाने का सरंजाम जुटाना होता है। अवांछनीय है उसे सुधारने, बदलने, उखाड़ने के लिए दूरदर्शिता भरे साहस का परिचय देना होता है, प्रगति का यही मार्ग है। अवांछनीयताओं को समाज से हटाने के लिए बड़े प्रयास और साहस की आवश्यकता होती है, पर उसे प्रयोजन को परिवार क्षेत्र में आसानी से सम्पन्न किया जा सकता है। आलस्य-प्रमाद में समय गंवाना, दुर्व्यसनों का शिकार होना, कुरीतियों को अपनाये रहना जैसी अवांछनीयतायें समाज में प्रचलित पाई जाती हैं, उन्हें घटाने और हटाने का मन होता है, पर वह अपनी इच्छा शक्ति के अभाव में बन नहीं पड़ता। दूसरों से कहा भर जा सकता है, मानना, न मानना उनकी मर्जी पर निर्भर रहता है किन्तु वह कठिनाई उतनी अधिक मात्रा में परिवार क्षेत्र में नहीं होती। घर के बड़े-वरिष्ठों का व्यक्तिगत प्रभाव और दबाव न्यूनाधिक मात्रा में सभी सदस्यों पर होता है, वे समझाने या धमकाने से मानने भी लगते हैं। बताये हुए मार्ग पर चलने में बहुत आनाकानी नहीं करते। नशेबाजी, फैशनबाजी, आवारागर्दी, गन्दगी, हरामखोरी जैसी बुरी आदतों से बचाने के लिए हर सदस्य को उसकी मन:स्थिति के अनुरूप समझाने-बुझाने का प्रयत्न करना चाहिये। समाज की प्रचलित दुष्प्रवृत्तियां अपने परिवार को प्रभावित न करें, इसके लिए सभी में दूरदर्शी विवेकशीलता जगाने का प्रयत्न करना चाहिए ताकि वे अन्य परम्परा न अपनाकर जो उचित है उसी को स्वीकार करने का मन बनायें। बाल विवाह, कन्या विक्रय, वर विक्रय, मृतकभोज, भिक्षा व्यवसाय, पर्दा प्रथा, जातिगत ऊंच-नीच जैसी प्रथायें प्रचलित पाई जाती हैं। इनका अन्धानुकरण करने के लिए अपनों में से किसी का मानस नहीं बनने देना चाहिए। परिवार की सदस्य संख्या बढ़ने पर भी बिखराव उत्पन्न होता है और दरिद्रता-विग्रह जैसे अनेक कारण घुसपैठ करते हैं। औसत नागरिक स्तर से अधिक ऊंचा रहन-सहन बनाने, फिजूलखर्ची के लिए हाथ खुला रखने पर भी अनेकानेक बुराइयां उपजती हैं और शालीनता को डगमगा देने की स्थिति उत्पन्न करती हैं। परिजनों को स्वावलम्बी, सुसंस्कारी बनाना कर्तव्य समझा जाय। किसी को भी असभ्य, अनगढ़ और परावलम्बी न रहने दिया जाय। कायरता, कृपणता भी अभिशाप है, किसी को भी अनावश्यक रूप से दब्बू-संकोची नहीं रहने देना चाहिए। शिष्टता और नम्रता को सुस्थिर रखते हुए इतना साहस हर किसी में होना चाहिए कि अनौचित्य को मुखर होकर कहा जा सके। नीति-निष्ठा बनाये रखने के लिए यह एक उपयुक्त आवश्यकता है। हाथ में लिए काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर उसे समग्र तत्परता और तन्मयता के साथ करना, जिम्मेदारी निभाना आना चाहिए। कौन कितना कर्तव्य परायण है? यह उसके क्रिया-कलाप के साथ जुड़े हुए कौशल को देखकर ही समझा जा सकता है, सम्मान और सन्तोष प्राप्त करने का यही तरीका है। ऊंचे उठाना, आगे बढ़ाना भी इन्हीं आधारों को अपनाने से सम्भव होता है। इन तथ्यों को उन सभी को तो समझाना-हृदयंगम कराया ही जाना चाहिए जो अपनों की परिधि में आते हैं। आदर्शों की परम्परा भी चलती है और वह वातावरण में सद्भावना भरने का प्रयोजन पूरा करती है। 
*** शुभारम्भ इस प्रकार हो ******* गृह लक्ष्मी का अर्थ होता है उदारचेता और सुव्यवस्था की अभ्यस्त सुसंस्कारी महिलायें। वे रंग-रूप की दृष्टि से कैसी ही क्यों न हों। वस्तुतः उनके सहारे झोंपड़ी के आंगन में स्वर्ग उतरता और वे ही साधारण परिस्थितियों को आनन्द-उल्लास से भर देती हैं। ऐसी गृह लक्ष्मियां कहां से आयें? उन्हें कहां पायें? इसे खोजने की आवश्यकता नहीं है। हर नारी में इसके बीजांकुर जन्मजात रूप से विद्यमान रहते हैं। आवश्यकता मात्र उन्हें खाद-पानी देने की होती है। नारी को भावुकता, कोमलता, सुन्दरता और कलाकारिता के समन्वय से सृष्टा ने सृजा है। मात्र इन हीरकों को खराद पर उतारने का काम ही परिवार के लोगों को मिल-जुलकर करना होता है। इस कर्तव्य की उपेक्षा-अवहेलना होने पर वे छुई-मुई के पौधे की तरह कुम्हला भी जाती हैं और घुटन भरे वातावरण में व्यक्तित्व को अनुपयुक्त भी बना लेती हैं। जिन घरों में नारी समुदाय की स्थिति गयी-गुजरी रहेगी वहां कितना ही वैभव अथवा वर्चस्व क्यों न हो, आन्तरिक वातावरण ऐसा ही रहेगा जिसमें खिन्नता-विपन्नता किसी के हटाये हट नहीं सकेगी। जिस घर में गृहलक्ष्मी मुरझाई, कुम्हलाई, बाधित, पीड़ित और बंधी जकड़ी रहेगी, वहां उसकी प्रसुप्त प्रतिभा को जागृत होने का अवसर ही नहीं मिलेगा, उसके लिए मानवोचित जीवनयापन कर सकना तक न बन पड़ेगा। हर किसी को विश्वास करना चाहिए कि इक्कीसवीं सदी नारी वर्चस्व वाली कालावधि है। उस नवयुग को प्रकट, प्रत्यक्ष करने में नारी की बढ़ी-चढ़ी भूमिका होगी। नर ने अहंमन्यता और कठोरता अपनाकर जो उद्दण्डता विकसित की है उसका परिमार्जन नारी की भाव संवेदना और सेवा-साधना वाली जन्मजात सत्प्रवृत्ति से ही सम्भव बन पड़ेगा। परिवारों को नर-रत्नों की खदान उन्हीं की सहायता द्वारा किया जा सकेगा। देव-मानवों का अवतरण नई पीढ़ी में उन्हीं के द्वारा संभव होगा। नर के कृत्यों वाले इतिहास में सृजन की तुलना में ध्वंस अधिक हुआ है। स्नेह-सहयोग कम और उद्धत अनाचार का माहौल अधिक बनता रहा है। अब इस उल्टे प्रवाह को नारी में सन्निहित दिव्यता ही सीधा करेगी। इस सद्भावना के अनुरूप विचारशीलों का कर्तव्य हो जाता है कि नारी को अगले दिन दुहरा उत्तरदायित्व संभालने की क्षमता विकसित करने में समुचित सहयोग प्रदान करें। नर को शिक्षित, समर्थ, स्वावलम्बी बनाने के लिए अब तक जो प्रयत्न होते रहे हैं उन्हीं को इस समतावादी युग में नारी के लिए भी उपलब्ध कराना होगा। अलग-पिंजड़ों में कैद रहने के कारण उनकी संयुक्त शक्ति का संरक्षण एवं विकास न हो सका। अब उसे सम्भव बनाने के लिए न केवल घनघोर प्रयत्न करना पड़ेगा वरन् उस सामन्तवादी दृष्टिकोण को भी उलटना पड़ेगा जिसमें नारी का स्थान दासी के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। इस समूचे परिवर्तन में भूतकाल की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक क्रान्तियों की तुलना में अधिक जीवट को संजोये जाने की आवश्यकता पड़ेगी। साथ ही यह भी निश्चित है कि परिवर्तनकारी आन्दोलनों ने अब तक जितनी उपलब्धियां अर्जित की हैं, उसकी तुलना में नारी जागरण अभियान के माध्यम से कम नहीं वरन् अधिक ऊंचे स्तर की अधिक प्रभावोत्पादक उपलब्धियां सम्भव होंगी। नारी जागरण अभियान को प्रभातकालीन अरुणोदय की तरह उभरता हुआ और मध्याह्न की प्रखरता अपनाने के लिए दौड़ता इन्हीं आंखों से देखा जा सकता है। सुनिश्चित भवितव्यता का साथ देने में ही समझदारी भी है और बहादुरी भी। इतने प्रचण्ड प्रवाह में जो रोड़े बनेंगे, जो उपेक्षा बरतेंगे समय को न पहचान सकने का पश्चात्ताप ही करते रहेंगे। विज्ञजनों में से प्रत्येक को इस महा अभियान का शुभारम्भ अपने-अपने घरों से करना चाहिए। अशिक्षितों को शिक्षित, शिक्षितों को सुविज्ञ बनाने वाली शिक्षा पद्धति का कार्यान्वयन अपने घरों के छोटे दायरे से तो कोई भी कर सकता है। उनका बौद्धिक प्रशिक्षण ऐसा होना चाहिए जिससे मूढ़ मान्यताओं और कुरीतियों का उन्मूलन हो सके। नारी अपने कर्तव्य और अधिकार का परिवहन करने के लिए समर्थ एवं समुद्यत हो सके। उन्हें स्वावलम्बी बनने का अवसर दिया जाये। गृह उद्योगों के माध्यम से वे अपनी उपार्जन क्षमता और दक्षता की अभिवृद्धि कर सके, साथ ही घर से बाहर निकलने की सुविधा पाकर पड़ौस-परिकर में एक छोटा संगठन खड़ा कर सके। बड़े परिवर्तन संगठित प्रयासों से ही संभव हुए हैं। महिला मण्डल इसी प्रयोजन के लिए गठित किया जा रहा है। पुरुषों को चाहिए कि वे अपने ढंग से अपने प्रभाव क्षेत्र की नारियों को प्रगति प्रयोजन के लिए संगठित करने का प्रयास करें। अपने घरों की प्रतिभाओं को इस कार्य के लिए घर से बाहर जाने और अपने वर्ग से सम्पर्क बढ़ाने के लिए सहयोगी की भूमिका निबाहने दें। संगठन को आरंभिक काम एक सौंपा गया है—साप्ताहिक सत्संग। इसमें धार्मिकता का पुट रहने से एकत्रीकरण में अड़चन नहीं आती जितना कोई अन्य आन्दोलन खड़ा करने पर अपने ही परिवार का विरोध खड़ा होने के रूप में सामने आता है। यह प्रारम्भिक ढाल है। इससे कम में नारी प्रगति की योजनायें एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकतीं। घर-परिवार तक सीमाबद्ध रहने पर वे प्रवृत्तियां व्यापक नहीं बन सकतीं, जिन्हें अगले ही दिनों आन्दोलन का रूप धारण करना है। सुधार एवं सृजन से सम्बन्धित अनेकानेक कार्यक्रमों को नये ढांचे के रूप में खड़ा करना है। जो शिक्षित महिलायें घरेलू काम-काज से थोड़ा अवकाश प्राप्त करती हैं, उनका कर्तव्य विशेष रूप से यह बनता है कि विचारशील नारियों से सम्पर्क साधने निकलें और उनका समीपवर्ती क्षेत्र वाला संगठन तैयार करें। साप्ताहिक सत्संगों का क्रम आरम्भ करायें। साथ ही प्रौढ़ शिक्षा, कुटीर उद्योग, स्वास्थ्य रक्षा, सुधरी हुई पाक विद्या, शिशु पालन, परिवारों में प्रगतिशीलता का संस्थापन कुरीतियों का उन्मूलन आदि काम हाथ में लें। कदम-कदम बढ़ाते हुए पहुंचना वहां तक है जहां नारी को समग्र समता का लाभ मिल सके और वह अपनी प्रतिभा को प्रदर्शित करते हुए नव सृजन के क्षेत्र में महती भूमिका सम्पन्न कर सके। प्रतियोगितायें-प्रतिस्पर्द्धायें प्रायः सभी क्षेत्रों में चलती रहती हैं। जो विजेताओं को लाभ, यश एवं गौरव प्रदान करती हैं। इन दिनों हर विचारशील को इस प्रयास के लिए कमर कसनी चाहिए कि वह अपने संपर्क के कार्यक्षेत्र में कितनी प्रतिभायें उतारने में समर्थ हो सका इस कर्तव्य को बढ़े-चढ़े सेनापतियों और लोकनायकों के महान कर्तव्यों के समतुल्य ही माना जायगा, भले ही वह बीजांकुर की तरह छोटा ही दृष्टिगोचर क्यों न हो। नारी जागृति आन्दोलन में एक संघर्षपरक मोर्चा भी है—दहेज विरोधी आन्दोलन का। इसे गांधी जी के नमक सत्याग्रह स्तर का श्रीगणेश माना जा सकता है, जिसके पीछे नर-नारी के बीच विद्यमान भयावह विषमता की जड़ पर कुठाराघात के समतुल्य समझा जा सकता है। धूमधाम वाली, दहेज-जेवर के भार से लदी हुई शादियां हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। इस कुप्रचलन के कारण नर और नारी के बीच छोटे-बड़े की, श्रेष्ठ और निकृष्ट की परम्परायें चली हैं। यदि इस कुप्रचलन का पूरी तरह अन्त किया जा सके और विवाह मात्र एक घरेलू उत्सव की तरह बिना खर्च के सम्पन्न होने लगे तो समझना चाहिए कि नवयुग का शुभारम्भ हुआ, उस अन्यान्य अनेक कुरीतियों की अवधारणाओं की इतिश्री सम्भव हुई माना जाना चाहिए। 




***
*समाप्त*


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