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Books - रामकृष्ण परमहंस

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श्रीरामकृष्ण परमहंस उपदेश

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जो हीन बुद्धि है, वे ही सिद्धाई चाहते हैं बीमारी के अच्छा मना, मुकदमा जिला देना, जल के ऊपर से चलना- ये सब (सिद्धाई) हैं जो भगवान् के भक्त है, वे ईश्वर के पादपद्यों के छोड़ कर और कुछ भी नहीं चाहते है। जिनकी थोड़ी बहुत सिद्धाई हो, उनकी प्रतिष्ठ लोकमान्य होती है।

व्याकुल हो कर भगवान की प्रार्थना करो। विवेक के लिए प्रार्थना करो। ईश्वर ही सत्य है और सब अनित्य है, इसी का नाम विवेक है। जल- छादन (जल छानने के महीन कपड़े) से जल छान लेना होता है। मैला- कूड़ा- करकट एक तरफ रहता है और अच्छा जल दूसरे तरफ पड़ता है। तुम उनके (ईश्वर से) जान कर संसार के छोड़ो इसी का नाम विद्या का संसार है।

नाना मत हैं। मत का पन्थ पम्प अर्थात् जिनने मत है उतने ही पन्थ है किन्तु सभी मानते हैं मेरा मत ही ठीक है- मेरी ही घड़ी ठीक चल रही है।

सत्य कथा- सत्य बोलना- कलि की तपस्या है। कलियुग में अन्य तपस्या कठिन है। सत्य मार्ग पर रहने से भगवान् पाया जाता है

अवतार या अवतार के अंश को ईश्वर कोटि कहते हैं और साधारण लोगों को जीव या जीव- कोटि जो जीव कोटि के हैं, वे साधनाएँ कर ईश्वर का लाभ कर सकते है वे (निर्विकल्प) समाधि से फिर लौटते नहीं हैं।

जो ईश्वर कोटि है, वे मानो राजा के बेटे हैं और मानो सात मंजिल वाले मकान की चाबी उसके हाथ मे है वे सातों मंजिलों तक चढ़ जाते हैं, फिर इच्छानुसार उतर भी आ सकते हैं। जीव कोटि मानो छोटे कर्मचारी (नौकर हैं, वे सात मंजिल के कुछ दूर तक पहुँच सकते है। जनक ज्ञानी थे। साधनाएँ कर उन्होंने ज्ञान लाभ किया था। शुकदेव थे ज्ञान की मूर्ति। शुकदेव से साधनाएँ कर ज्ञान लाभ करना नहीं हुआ था। नारद में भी शुकदेव के जैसा ब्रह्मज्ञान था किंतु वह भक्ति लेकर था। लोकशिक्षा के लिए प्रहलाद कभी 'सोSहं' भाव में रहते फिर कभी दास भाव मे और कभी सन्तान भाव में रहते थे हनुमान की भी वैसी अवस्था थी।

भगवान् को लाभ करना हो तो संसार से तीव्र- वैराग्य चाहिये। जो कुछ ईश्वर के मार्ग के विरोधी मालूम हो, उसे तत्क्षण त्यागना चाहिये। पीछे होगा यह सोच कर छोड़ रखना ठीक नहीं है काम- कांचन ईश्वर- मार्ग के विरोधी है उनसे मन हटा लेना चाहिये। दीर्घसूत्री होने से परमार्थ का लाभ नहीं होगा। कोई एक अंगोछा लेकर स्नान करने को जा रहा था। उसकी औरत ने उससे कहा तुम किसी भी काम के नहीं हो उम्र बढ़ रही है, अब भी यह सब (व्यवहार) छोड़ नही सके। मुझको छोड़कर तुम एक दिन भी नही रह सकते। किन्तु देखो, वह रामदेव कैसा त्यागी है। पति ने कहा- क्यों उसने क्या किया '' औरत ने कहा- उसकी सोलह औरत है। वह एक- एक करके उनको त्याग रहा है। तुम कभी त्याग कर नहीं सकोगे। पति ने कहा- ''क्या वह एक- एक करके त्याग रहा है। अरे पगली। वह कभी त्याग कर नहीं सकेगा। जो त्याग करता है वह क्या थोड़ा- थोड़ा करके त्याग करता है '' औरत ने मुस्कराकर कहा- तो भी तुम से अच्छा है। पति ने कहा- पगली, तू नहीं समझती है त्याग करना उसका काम नहीं है। अर्थात् उसके कहने से त्याग नहीं होगा, मै ही त्याग कर सकूँगा यह देख, मैं चल देता हूँ ।। '' ''

इसी का नाम तीव्र वैराग्य है। उस आदमी से क्यों वैराग्य आ गया त्यो ही उसने त्याग किया अंगोछा कन्धे में ही जा वह चल दिया। वह संसार का कुछ ठीक ठाक नहीं कर पाया घर से ओर एक बार पीछे लौट कर देखा भी नही'

जो त्याग करेगा उसको मनोबल चाहिये। लुटेरों का भाव। लूटने से पहले जैसे डाकू लोग कहते हैं, ऐ मारो। लूटो। सटी। अर्थात् पीछे क्या होगा इसका ख्याल न कर खूब मनोबल के साथ आगे बढ़ना चाहिये।

तुम और क्या करोंगे ?उनके (ईश्वर के) प्रति भक्ति और प्रेम लाभ कर दिन बिताना है। श्रीकृष्ण के दर्शन से यशोदा पगली जैसी बनकर श्रीमती (राधा) के पास गई श्रीमती ने उनका शोक देख कर आद्य शक्ति के रूप से उनमें दर्शन दिया और उसने कहा 'माँ' वर फिर क्या लूँ, तो इतना ही कहो मै तन ,मन, वचन से कृष्ण की ही सेवा कर सकूँ, इन्हीं आँखो से उनके भक्तों का दर्शन हो। जहाँ- जहाँ- जहाँ उनकी लीलाएँ हों इन पैरों से वही जा सकूँ। इन हाथों से उनके ही प्रेमी भक्तों की सेवा हो। सब इंद्रियाँ उन्हीं के दर्शन श्रवणादि मे लगें

इधर का (ईश्वरीय) आनन्द मिलने से उसके (वैषयिक) आनन्द अच्छा लगता है। ईश्वरीय आनन्द लाभ करने से संसार नमक का (शाक जैसा) नि :: रस भान होता है शाल मिलने से फिर वनात अच्छा नहीं लगता है।

जो 'संसार के धर्म' संसार मे रह कर ही धर्माचरण करना ठीक है यह कहते हैं, वे यदि एक बार भगवान् का आनन्द पावें तो उनकों फिर और कुछ अच्छा नही लगता। कभी के लिए आसक्ति कम होती जाता है। क्रमश ज्यों- ज्यों आनन्द बढ़ता जाता है त्यों- त्यों- फिर कर्म भी कर नहीं सकते हैं। केवल उसी आनन्द से ढूँढ़ते फिरते हैं। ईश्वरीय आनन्द के पास फिर विषयानन्द और रमणानन्द तुच्छ हो जाते है, एक बार स्वरूपानन्द का स्वाद मिलने पर उसी आनन्द के लिए व्याकुल होकर फिरते हैं, तब संसार गृहस्थी रहे चाहे न रहे। उसके लिए कोई परवाह नहीं रहती है।

संसारी लोग कहते है दोनों तरफ रहेंगे। दो आने कई शराब पीने से मनुष्य दोनों ओर ठीक रहना चाहते है। किंतु अधिक शराब पीने से क्या फिर दोनों तरफ नजर रखी जा सकती है ''

इंश्वरीयं आनन्द मिलने से फिर कुछ सांसारिक कार्य अच्छा नहीं लगता है। तब काम- कांचन की बातें मानो हृदय में चोट- सी लगती है। बाहरी बाते अच्छी नहीं लगती हैं 1 तब मनुष्य ईश्वर के लिए पागल होता है। रुपये- पैसे कुछ भी अच्छे नहीं लगते है।

ईश्वर लाभ के बाद कोई संसार है तो वह होता है- विद्या का संसार। उसमें कामिनी- कांचन का प्रभाव नहीं रहता है, उसमें रहते हैं, केवल भक्ति, भक्त और भगवान्

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