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Books - सही और सशक्त तीर्थ यात्रा

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रस्तुत उत्तरदायित्व

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अभिनव कार्यक्रमों में युग सृजन आन्दोलन ने प्रव्रज्या को प्रमुखता दी है। प्रस्तुत प्रज्ञापुत्रों को अपने अपने क्षेत्र में जन सम्पर्क के लिए पद-यात्राएं छोटे या बड़े रूप में आरम्भ कर देनी चाहिए। आत्म निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण के लिए इन्हीं दिनों क्या करना है उसका आलोक वितरण करने में किसी घर, गांव, मुहल्ले को उपेक्षित नहीं रहने देना चाहिए। घर-घर अलख जगाने का संकल्प अधूरा नहीं रहना चाहिए।

यह कार्य ‘‘दीपयज्ञों’’ को निमित्त-माध्यम मानकर किया जा रहा है। इन आयोजनों को युग चेतना का प्रतीक मान कर चला जा रहा है। इनमें उपस्थित होने वाले भावनाशीलों में से जो भी प्रतिभावान दीख पड़ें, उन्हें संगठित करने के लिए प्रज्ञामंडलों का गठन कर देना चाहिए और उनके साप्ताहिक सत्संग-उपक्रम ठीक प्रकार चलते रहें, उसकी सुनियोजित व्यवस्था बना देनी चाहिए। इसी प्रकार उनके साथ अनेकों उन रचनात्मक क्रिया-कलापों को जोड़ दिया गया है, जो उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। इन कार्यक्रमों में नारी जागरण का विशेष महत्त्व है; क्योंकि उससे विश्व की आधी जनसंख्या को अबला के स्तर से ऊंचा उठाकर शक्ति की अधिष्ठात्री के उच्च शिखर तक पहुंचाया जाना है।

युग निर्माण मिशन के प्राणवान प्रज्ञा पुत्रों के जिम्मे यह कार्य सौंपा जा रहा है कि वे अपने प्रभाव क्षेत्र में उन गतिविधियों को चलाते रहें, जो अब तक चलती रही हैं और आगे भी चलाई जानी हैं। स्थानीय क्षेत्र में काम करने वालों के लिए पद-यात्रा के माध्यम से प्रभाव क्षेत्र के साथ सम्पर्क साधते रहने के लिए कहा गया है। झोला-पुस्तकालय और ज्ञानरथ घुमाते रहना इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत आते हैं।

दायरा कुछ मील आगे तक बढ़ाना है। निकटवर्ती दस-पांच गांवों में अलख जगाने को दायित्व वहन करने का साहस उभरे, तो फिर साइकिल प्रवास समय-समय पर नियोजित करते रह सकते हैं। दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन, सहगान कीर्तन और युग साहित्य का प्रचार साइकिल यात्री करते रहें, तो इतने भर से देखने में छोटा, किन्तु परिणाम में बड़ा कार्य हो सकता है।

शान्तिकुंज की प्रचारक टोलियां अब तक जीप-गाड़ियों द्वारा बड़े दीप यज्ञों में पहुंचती रही हैं। अब उस आवश्यकता की पूर्ति आस-पास के लोग ही मिल-जुलकर कर लिया करें, तो उनका परावलम्बन समाप्त होगा और स्वावलम्बन के सहारे नया साहस मिलेगा। नया अनुभव होगा और एक दर्जा ऊपर चढ़ जाने का सुयोग बनेगा।

शान्तिकुंज की प्रचारक जीप-गाड़ियां भी सीमित क्षेत्र में ही घूमते रहने की अपेक्षा आगे कदम बढ़ायेंगी और नया क्षेत्र अपने प्रभाव-परिकर में ही प्रधान रूप से नव निर्माण का कार्य होता रहा है। गुजरात को छोड़कर अन्य भाषाई क्षेत्रों में यह आलोक नाममात्र के लिए ही पहुंचा है। शेष 14 भाषाओं या दायरे वाला क्षेत्र अभी एक प्रकार से अछूता ही पड़ा है। फिर युग परिवर्तन की नव चेतना का विस्तार तो समस्त संसार में होना है। अपनी परम्परा ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की रही है, फिर संसार के अन्य क्षेत्रों को कैसे उपेक्षित छोड़ दिया जायेगा? कुछ हल चलें प्रवासी हिन्दू भारतीयों में ही पिछले दिनों चलती रही हैं। अब भाषाओं, सम्प्रदायों और देशों की परिधि में युग चेतना का सीमित नहीं रखा जा सकता। उसे विश्वव्यापी बनाने की अपनी योजना प्रायः इस स्तर तक सोची जा चुकी है कि उसे कार्य रूप में परिणत करने में कठिनाइयां भले ही आवें, पर उसे असंभव मानने की निराशा कहीं भी किसी में भी दृष्टिगोचर न हो।

नये निश्चय के अनुसार शान्ति-कुंज की दस प्रचार टोलियां फिलहाल हरिद्वार से सभी दिशाओं में इसी वर्ष भेजना आरम्भ किया जा रहा है। सुविधाएं जैसे-जैसे हस्तगत होती जायेंगी, वैसे-वैसे उन्हें अधिक संख्या में बनाया और अनेक देशों-सुदूर क्षेत्रों तक फैल जाने के लिए भेजा जाना आरम्भ हो जायेगा।

यों हिन्दी-भाषी क्षेत्रों में अधिकांश भाग ऐसा है, जहां युग-चेतना का उल्लास-उमंगाना शेष है। प्रयत्न यह किया जाना है कि निकटवर्ती वर्तमान प्रभाव क्षेत्र की सम्पूर्ण परिधि में, नव सृजन के लिए आवश्यक जानकारी पहुंचाने से लेकर उमंगें उभारने तक का कार्य पूरा कर लिया जाय। जिस-तिस क्षेत्र में जहां-तहां छिटपुट काम करने की अपेक्षा यह अच्छा है कि एक क्षेत्र को जागृत को जागृत करते चला जाय, साथ ही अपरिचित क्षेत्रों में प्रवेश भी करते चला जाय।

भारत को तो अगली शताब्दी में नेतृत्व करना है, इसलिए उसे तो इस स्थिति में होनी ही चाहिए कि अपना घर संभालने के कार्य को प्रमुखता देते हुए, पड़ोस को साफ-सुथरा और समुन्नत बनाने का कार्य को भी हाथ में लिया जाता रहे। युग संधि के इस दूसरे वर्ष में प्रचारकों की  टोलियां बुद्ध-परिव्राजकों का अनुसरण करते हुए सुदूर क्षेत्रों को प्रयाण करेंगी और जिस क्षेत्र में अब तक काम किया जाता रहा है, उसी तक सीमित न रहेंगी। अपने काम को इस अन्दाज से आगे बढ़ाया जाना है, जैसे कि वामन अवतार ने कुछ ही डगों में सारे संसार को नाप लिया था। मत्स्यावतार की कथा में भी एक छोटे कमण्डल में पैदा हुई मछली विस्तार करते-करते समूचे समुद्र पर छा गयी थी।

इस सन्दर्भ में शान्तिकुंज का सुविस्तृत प्रव्रज्या कार्यक्रम, अभिनव योजनाओं के साथ हाथ में लिया जा रहा है और उसे बढ़ाते-बढ़ाते समूचे विश्व की परिधि में कैसे पहुंचा जाय, इस पर विचार-चिन्तन चल रहा है। कार्यक्रम बन रहा है और साधन जुटाने, माध्यम उभारने के लिए आवश्यक ताना-बाना बुना जा रहा है।

इस वर्ष वर्तमान कार्यकर्त्ताओं को अपने-अपने समीपवर्ती कार्य क्षेत्र स्वयं संभालने की तैयारी करनी चाहिए। इसके लिए दो कार्य ऐसे हैं, जिन्हें बिना समय गंवाये अभी से जारी रखना चाहिए। एक यह, कि जो प्रतिदिन समयदान का न्यूनतम दो घंटे जितना अनुदान नित्य दे सकने की स्थिति में हों, उन्हें ढूंढ़-ढूंढ़कर शान्तिकुंज के युगशिल्पी सत्रों में एक माह रहने के लिए भेजा जाय। जिनके पास समय कम हो, उन्हें भी यह शिक्षण किसी प्रकार पूरा कराया जा सकता है। ऐसे प्रशिक्षित युग सृजेता जिन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में होंगे, वहां आलोक वितरण के क्रिया-कलापों में शिथिलता न आने पायेगी।

दूसरा कार्यक्रम यह है कि अब तक जो लोग मिशन के सम्पर्क में आ चुके हैं, उन्हें बैटरी-चार्ज कराने के लिए नौ दिवसीय वर्तमान साधना सत्रों में नये सिरे से सम्मिलित होना चाहिए; ताकि वे युग संधि पुरश्चरण में सम्मिलित होने की एक शर्त पूरी करने के अतिरिक्त, इतनी चेतना नये सिरे से प्राप्त कर सकें, कि इस महान मिशन के सच्चे सदस्य होने की कसौटी पर कसे जाने पर खरे सिद्ध हो सकें। शान्तिकुंज में उपरोक्त दोनों सत्र नयी तैयारी के साथ आरंभ किए गये हैं।  इनमें सम्मिलित होने के लिए सभी क्षेत्रों से ऐसे व्यक्ति भेजना चाहिए, जिनसे कुछ पौरुष प्रदर्शित करने की आशा हो। बूढ़े, अनियंत्रित, रोगी, छोटे बच्चों को, ऐसी भीड़ को सत्रों में नहीं ठेल देना चाहिए, जिनकी रुचि मात्र सैर सपाटे में हो, जो यहां आकर अनुशासन बिगाड़ते और जिनके साथ आते हैं, उनके लिए भी कुछ सीख सकना असंभव कर देते हैं। मात्र चुने हुए शिविरार्थियों की ही आवश्यकता समझी जा रही है और आवश्यक भीड़ पर रोक-थाम अधिक कड़ाई से लगाई जा रही है।

दीप यज्ञों का उपक्रम तो अनवरत रूप से आगामी दस वर्षों तक चलता रहेगा। उन्हें विशाल रूप न देकर ऐसे छोटे-छोटे खण्डों में सम्पन्न करना चाहिए, जिनमें उपस्थिति 100-200 से अधिक न हो। ऐसा सम्पर्क घनिष्ठता बढ़ाता है, परिचय को सुदृढ़ करता है और ऐसे प्रयत्न उत्पन्न करता है, जो आगे चल कर मिशन के कार्यों में काम आते हैं। बड़े कार्यक्रम में धूम-धाम भी होती है और उत्साह भी उभरता है। अनेक व्यक्तियों की बातें सुनने का अवसर भी मिलता है; पर जैसे ही भीड़ें चली आती हैं, उसका परिणाम शून्य रह जाता है। इसलिए बड़े आयोजनों के फेर में पड़ने की अपेक्षा ईसाई मिशनों की रीति-नीति ही अपनानी  चाहिए और घर-घर जाकर, सम्पर्क बनाने की सफल सिद्ध हुई प्रक्रिया को हस्तगत करना चाहिए।

अच्छा हो, अब बड़े दीपयज्ञ अपवाद रूप में ही सम्पन्न हों और जहां तक हो सके, शान्तिकुंज की प्रचार-टोलियों को व्यापक कार्य क्षेत्र में ही उस नये और दूरवर्ती क्षेत्र में प्रवेश करने देना चाहिए, जिनके लिए कि उन्हें तैयार किया गया है और जो अत्यन्त दूरगामी संभावनाओं से भरा-पूरा भी है।

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