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Books - सर्वोपयोगी गायत्री साधना

Media: TEXT
Language: HINDI
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जप से चेतना परिष्कार

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प्रतीक उपासना की पार्थिव पूजा के कितने ही कर्मकाण्डों का प्रचलन है। तीर्थयात्रा, देवदर्शन, स्तवन, पाठ, षोडशोपचार, परिक्रमा, अभिषेक, शोभायात्रा, श्रद्धांजलि, रात्रि-जागरण, कीर्तन आदि अनेकों विधियां विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों में अपने-अपने ढंग से विनिर्मित और प्रचलित हैं। इससे आगे का अगला स्तर वह है, जिसमें उपकरणों का प्रयोग न्यूनतम होता है और अधिकांश कृत्य मानसिक एवं भावनात्मक रूप से ही सम्पन्न करने पड़ते हैं। यों शारीरिक हलचलों, श्रम और प्रक्रियाओं का समन्वय उनमें भी रहता ही है।
उच्चस्तरीय साधना क्रम में मध्यवर्ती विधान के अन्तर्गत दो कृत्य आते हैं—(1) जप (2) ध्यान। न केवल भारतीय परम्परा में वरन् समस्त विश्व के विभिन्न साधना प्रचलनों में भी किसी न किसी रूप से इन्हीं का सहारा लिया गया है। प्रकार कई हो सकते हैं, पर उन्हें इन दो वर्गों के ही अंग-प्रत्यंग के रूप में देखा जा सकता है।
जप द्वारा अध्यात्म ही उस परमेश्वर को पुकारता है जिसे हम एक प्रकार से भूल ही चुके हैं। मणि विहीन सर्प जिस तरह अशक्त एवं हताश बना बैठा रहता है, उसी प्रकार हम परमात्मा से बिछड़ कर अनाथ बालक की तरह डरे, सहमे बैठे हैं। अपने को असुरक्षित और आपत्ति ग्रस्त स्थिति में अनुभव कर रहे हैं। लगता है हमारा कुछ बहुमूल्य खो गया है। जप की पुकार उसी को खोजने के लिए है।
द्रौपदी का शरीर ही निर्वसन हो रहा था, पर आत्मा की शालीनता का आवरण उतर जाने से उसका बहिरंग और अन्तरंग दोनों ही लज्जास्पद बनते चले जा रहे हैं। ऐसी दशा में गज रूपी मन और आत्मा रूपी द्रौपदी का भगवान को पुकारना उचित ही है। जप में भगवत नाम की रट पतन के गर्त में से हाथ पकड़कर ऊपर उबारने के लिए ही लगाई जाती है। भगवत् स्मरण उपासना का प्रधान अंग है। नाम के आधार पर ही किसी सत्ता का बोध और स्मरण हमें होता है। ईश्वर को स्मृति पटल पर प्रतिष्ठापित करने के लिए उसके नाम का सहारा लेना पड़ता है। स्मरण से आह्वान—आह्वान से स्थापना और स्थापना से उपलब्धि का क्रम चल पड़ना मनोविज्ञान शास्त्र द्वारा समर्थित है।
चेतना को प्रशिक्षित करने के लिए मनोविज्ञान शास्त्र में चार आधार और स्तर बताये गये हैं। इनमें प्रथम हैं शिक्षण—जिसे अंग्रेजी में ‘लर्निंग’ कहते हैं। स्कूल के बच्चों को इसी स्तर पर पढ़ाया जाता है। उसे तरह-तरह की जानकारियां दी जाती हैं। उन जानकारियों को सुन लेने भर से काम नहीं चलता। विद्यार्थी उन्हें बार-बार दुहराते हैं। स्कूली पढ़ाई का सारा क्रम ही दुहराने—याद करने के सहारे खड़ा होता है। पहाड़े याद करने पड़ते हैं। संस्कृत को तो रटन्त विद्या ही कहा जाता है। प्रकारान्तर से यह रटाई किसी न किसी प्रकार हर छात्र को करनी पड़ती है। स्मृति पटल पर किसी नई बात को जमाने के लिए बार-बार दुहराये जाने की क्रिया अपनाये बिना और कोई रास्ता नहीं।
एक बार याद कर लेने से कुछ बातें तो देर तक याद बनी रहती हैं, पर कुछ ऐसी हैं जो थोड़े दिन अभ्यास छोड़ देने से एक प्रकार से विस्मरण ही हो जाती हैं। स्कूली पढ़ाई छोड़ देने के उपरांत यदि वे विषय काम में न आते रहें तो कुछ समय बाद विस्मृत हो जाते हैं। फौजी सिपाहियों को नित्य ही परेड करनी पड़ती है। पहलवान लोग बिना नागा अखाड़े में जाते और रोज ही दण्ड बैठक करते हैं। संगीतकारों के लिये नित्य का रियाज आवश्यक हो जाता है। कुछ समय के लिये भी वे गाने बजाने का अभ्यास छोड़ दें तो उंगलियां लड़खड़ाने लगेंगी और ताल स्वरों में अड़चन उत्पन्न होने लगेंगी।
शिक्षण की दूसरी परत है—‘रिटेन्शन’ अर्थात् प्रस्तुत जानकारी को स्वभाव का अंग बना लेना। तीसरी भूमिका है—‘री काल’ अर्थात् भूतकाल की किन्हीं विस्मृत परिस्थितियों को कुरेद बीन कर फिर से सजीव कर लेना। चौथी भूमिका है—‘रीकाग्नीशन’ अर्थात् मान्यता प्रदान कर देना। निष्ठा, आस्था—श्रद्धा एवं विश्वास में परिणत कर देना। उपासना में इन्हीं सब प्रयोजनों को पूरा करना पड़ता है। यह चारों ही परतें छेड़नी होती हैं। भगवान की समीपता अनुभव कराने वाली प्रतीक पूजा ‘रिटेन्शन’ है। ईश्वर के साथ आत्मा के अति प्राचीन सम्बन्धों को भूल जाने के कारण ही जीवन में भटकाव होता है। पतंग उड़ाने वाले के हाथ से डोरी छूट जाती है तभी वह इधर-उधर छितराती फिरती है। बाजीगर की उंगलियों से बंधे कठपुतली के सम्बन्ध सूत्र टूट जायें तो फिर वे लकड़ी के टुकड़े नाच किस प्रकार दिखा सकेंगे। कनेक्शन तार टूट जाने पर बिजली के यन्त्र अपना काम करना बन्द कर देते हैं। ईश्वर और जीव का संबन्ध सनातन है पर वह माया में अत्यधिक प्रवृत्ति के कारण एक प्रकार से टूट ही गया है। इसे फिर से सोचने, सूत्र को नये सिरे से ढूंढ़ने और टूटे सम्बन्धों को फिर से जोड़ने की प्रक्रिया ‘री काल’ है। जप द्वारा यह उद्देश्य भी पूरा होता है। चौथी भूमिका ‘रीकाग्नीशन’ में पहुंचने पर जीवात्मा की मान्यता अपने भीतर ईश्वरीय प्रकाश विद्यमान होने की बनती है और वह वेदान्त तत्वज्ञान की भाषा में ‘अयमात्मा ब्रह्म’—‘तत्वमसि’ सोहमस्मि—चिदानंदोहम्—शिवोहम की निष्ठा जीवित करता है। यह शब्दोच्चार नहीं वरन् मान्यता का स्तर है। जिसमें पहुंचे हुए मनुष्य का गुण, कर्म, स्वभाव, दृष्टिकोण एवं क्रिया-कालप ईश्वर जैसे स्तर का बन जाता है। उसकी स्थिति महात्मा एवं परमात्मा जैसी देखी और अनुभव की जा सकती है।
आत्मिक प्रगति के लिए चिन्तन क्षेत्र की जुताई करनी पड़ती है, तभी उसमें उपयोगी फसल उगती है। खेत को बार-बार जोतने से ही उसकी उर्वरा शक्ति बढ़ती है। नाम जप को एक प्रकार से खेत की जुताई कह सकते हैं। अंतरात्मा द्वारा एक मन और दश इन्द्रियों को पढ़ाने के लिए खोली गई पाठशाला को उपासना कृत्य समझा जा सकता है उसमें नाम जप की रटाई कराई जाती है ताकि यह छात्र वर्णमाला, गिनती पहाड़े भली प्रकार याद कर सके। एक ही विधान को लगातार दुहराते रहने के पीछे यही बात शिक्षण की प्रक्रिया काम करती है।
कपड़े को देर तक रंग भरी नाद में डुबोये रहने से उस पर पक्का रंग चढ़ जाता है। चन्दन वृक्ष के समीप उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी सुगन्धित हो जाते हैं। गुलाब के फूल जिस मिट्टी पर टूट-टूट कर गिरते रहते हैं वह भी सुगन्धित हो जाती है सान्निध्य का लाभ सर्वविदित है। सत्संग और कुसंग के भले बुरे परिणाम आये दिन सामने आते रहते हैं। उपासना कृत्य भगवान की समीपता है, उसका सत्परिणाम सामने आये बिना नहीं रह सकता। कीट भृंग का उदाहरण प्रख्यात है।
जप के लिए भारतीय धर्म में सर्वविदित और सर्वोपरि मन्त्र गायत्री मन्त्र का प्रतिपादन है। उसे गुरुमन्त्र कहा गया है। अन्तः चेतना को परिष्कृत करने में उसका जप बहुत ही सहायक सिद्ध होता है। वेदमाता उसे इसलिए कहा गया है कि वेदों में सन्निहित ज्ञान विज्ञान का सारा वैभव बीज रूप से इन थोड़े से अक्षरों में ही सन्निहित है।
मुख को अग्निचक्र कहा गया है। मोटे अर्थों में उसकी संगति जठराग्नि से मिलाई जा सकती है। मन्दाग्नि, तीव्राग्नि का वर्णन मुंह से लेकर आमाशय अन्त्रि संस्थान तक विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई पाचन ग्रन्थियों की निष्क्रियता-सक्रियता का परिचय देने के रूप में ही किया जाता है। मुंह चबाता है और पचाने का प्राथमिक कार्य अपने गह्वर में पूरा करता है। आगे चलकर आहार की पाचन क्रिया अन्यान्य रूपों में विकसित होती जाती है। मुख का अग्निचक्र स्थूल रूप से पाचन का—सूक्ष्म रूप में उच्चारण का और कारण रूप से चेतनात्मक दिव्य प्रवाह उत्पन्न करने का कार्य करता है। उसके तीनों कार्य एक से एक बढ़ कर हैं। पाचन और उच्चारण की महत्ता सर्वविदित है। दिव्य प्रवाह संचार की बात कोई-कोई ही जानते हैं। जपयोग का सारा विज्ञान इसी रहस्यमयी सामर्थ्य के साथ सम्बद्ध है।
शब्दों का उच्चारण मात्र जानकारी ही नहीं देता वरन् उनके साथ अनेकानेक भाव अभिव्यंजनाएं—संवेदनाएं—प्रेरणाएं एवं शक्तियां भी जुड़ी होती हैं। यदि ऐसा न होता तो वाणी में मित्रता एवं शत्रुता उत्पन्न करने की सामर्थ्य न होती। दूसरों को उठाने गिराने में उसका उपयोग न हो पाता। कटु शब्द सुनकर क्रोध का आवेश चढ़ जाता है और न कहने योग्य कहने तथा करने की स्थिति बन जाती है। चिन्ता का समाचार सुनकर भूख-प्यास और नींद चली जाती है। शोक संवाद सुनकर मनुष्य अर्ध मूर्छित जैसा हो जाता है तर्क तथ्य, उत्साह एवं भावुकता भरा शब्द प्रवाह देखते-देखते जन समूह का विचार बदल देता है और उस उत्तेजना से सम्मोहित असंख्य मनुष्य कुशल वक्ता का अनुसरण करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इन तथ्यों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि वाणी का काम जानकारी देना भर नहीं है। शब्द प्रवाह के साथ-साथ उनके प्रभावोत्पादन चेतन तत्व भी जुड़े रहते हैं और वे ध्वनि कम्पनों के साथ घुले रह कर जहां भी टकराते हैं वह चेतनात्मक हलचल उत्पन्न करते हैं। शब्द को पदार्थ विभाग की कसौटी पर भौतिक तरंग स्पन्दन भर कहा जा सकता है, पर उसकी चेतना को प्रभावित करने वाली—संवेदनात्मक क्षमता की भौतिक व्याख्या नहीं हो सकतीं। वह विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक है।
जपयोग में शब्द शक्ति के इसी आध्यात्मिक प्रभाव को जान कर काम में लाया जाता है। नीबू का रस निचोड़ कर उसका छिलका एक ओर रख दिया जाता है। दूध में से घी निकाल कर छाछ को महत्वहीन ठहरा दिया जाता है। जपयोग में ऐसा ही होता है। उसके द्वारा ऐसी चेतन शक्ति का उद्भव होता है, जो जपकर्त्ता के शरीर एवं मन में विचित्र प्रकार की हलचलें उत्पन्न करती हैं और अनन्त आकाश में उड़कर विशिष्ट व्यक्तियों को—विशेष परिस्थितियों को तथा समूचे वातावरण को प्रभावित करती है।
मन्त्रों का चयन ध्वनि-विज्ञान को आधार मानकर किया गया है। अर्थ का समावेश गौण है। गायत्री मन्त्र की सामर्थ्य अद्भुत है। पर उसका अर्थ अति सामान्य है। भगवान् से सद्बुद्धि की कामना भर उसमें की गई है। इसी अर्थ प्रयोजन को व्यक्त करने वाले मन्त्र श्लोक हजारों हैं। हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में भी ऐसी कविताओं की कमी नहीं जिनमें परमात्मा से सद्बुद्धि की प्रार्थना की गई है। फिर उन सब कविताओं को गायत्री मन्त्र के समकक्ष क्यों नहीं रखा जाता और उनका उच्चारण क्यों उतना फलप्रद नहीं होता? वस्तुतः मन्त्र सृष्टाओं की दृष्टि में शब्दों का गुंथन ही महत्वपूर्ण रहा है। कितने बीज मन्त्र ऐसे हैं जिनका खींचतान के ही कुछ अर्थ भले ही गढ़ा जाय पर वस्तुतः उनका कुछ अर्थ है नहीं। ह्रीं, श्रीं, क्लीं, ऐ, हुं, यं, फट् आदि शब्दों का क्या अर्थ हो सकता है, इस प्रश्न पर माथापच्ची करना बेकार है। उनका सृजन यह ध्यान में रखते हुए किया गया है कि उनका उच्चारण किस स्तर का शक्ति कम्पन उत्पन्न करता है और उनका जपकर्ता, बाह्य वातावरण तथा अभीष्ट प्रयोजन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
मानसिक, वाचिक एवं उपांशु जप में ध्वनियों के हलके भारी किये जाने की प्रक्रिया काम में लाई जाती है। वेद मन्त्रों के अक्षरों के साथ-साथ उदात्त-अनुदात्त और त्वरित क्रम से उनका उच्चारण नीचे ऊंचे तथा मध्यवर्ती उतार-चढ़ाव के साथ किया जाता है। उनके सस्वर उच्चारण की परम्परा है। यह सब विधान इसी दृष्टि से बनाने पड़े हैं कि उन मन्त्रों का जप अभीष्ट उद्देश्य पूरा कर सकने वाला शक्ति प्रवाह उत्पन्न कर सके। जप का ध्वनि प्रवाह—समुद्र की गहराई से चलने वाली जल-धाराओं की तरह तथा ऊपर आकाश में छितराई हुई उड़ने वाली हवा की परतों की तरह अपनी हलचलें उत्पन्न करता है। उनके कारण शरीर में यत्र-तत्र, सन्निहित अनेकों ‘चक्रों’ तथा ‘उपत्यिका’ ग्रन्थियों में विशिष्ट स्तर का शक्ति संचार होता है।
जप लगातार करना पड़ता है और एक ही क्रम से इस प्रक्रिया के परिणामों को विज्ञान की प्रयोगशाला में अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। एक टन भारी लोहे का गार्टर किसी छत के बीचों बीच लटका दिया जाय और उस पर पांच ग्राम भारी हलके से कार्क के लगातार आघात लगाने प्रारम्भ कर दिये जायें तो कुछ ही समय में वह सारा गार्डर कांपने लगेगा। यह लगातार—एक गति से—आघात क्रम से उत्पन्न होने वाली शक्ति का चमत्कार है। मन्त्र जप यदि विधिवत् किया गया है तो उसका परिणाम भी यही होता है। सूक्ष्म शरीर में—अवस्थित चक्रों और ग्रन्थियों को जप ध्वनि का अनवत प्रभाव अपने ढंग से प्रभावित करता है और उत्पन्न हुई हलचल उनकी मूर्छना दूर करके जागृति का अभिनव दौर उत्पन्न करती है। ग्रन्थिभेदन तथा चक्र जागरण का सत्परिणाम जपकर्त्ता को प्राप्त होता है। जपे हुए यह दिव्य संस्थान साधक में आत्मबल का नया संचार करते हैं। उसे ऐसा कुछ अपने भीतर जगा, उगा प्रतीत होता है जो पहले नहीं था। इस नवीन उपलब्धि के लाभ भी उसे प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर होते हैं।
टाइप राइटर के उदाहरण से इस तथ्य को और भी अच्छी तरह समझा जा सकता है। उंगली से चाबियां दबाई जाती हैं और कागज पर तीलियां गिर कर अक्षर छापने लगती हैं। मुख में लगे उच्चारण में प्रयुक्त होने वाले कलपुर्जों को टाइप राइटर की कुंजियां कह सकते हैं। मन्त्रोच्चार उंगली से उन्हें दबाना हुआ। यहां से उत्पन्न शक्ति प्रवाह नाड़ी तन्तुओं की तीलियों के सहारे सूक्ष्म चक्रों और दिव्य ग्रन्थियों तक पहुंचता है और उन्हें झकझोर कर जगाने, खड़ा करने में संलग्न होता है। अक्षरों का छपना वह उपलब्धि है जो इन जागृत चक्रों द्वारा रहस्यमयी सिद्धियों के रूप में साधक को मिलती है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि यदि जपयोग को विधिवत् साधा गया होगा तो उसका सत्परिणाम उत्पन्न होगा ही।
जप में शब्दों की पुनरावृत्ति होते रहने से उच्चारण का एक चक्र-व्यूह—सर्किल बनता है। क्रमिक परिभ्रमण से शक्ति उत्पन्न होती है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उस परिभ्रमण से आकर्षण शक्ति तथा भूलोक में सन्निहित अनेक स्तर की क्षमताएं उत्पन्न होती हैं। यदि पृथ्वी का परिभ्रमण बन्द हो जाय तो उस पर घोर नीरवता, निर्जीवता एवं अशक्तता छा जायगी। शक्ति उत्पादन के लिए परिभ्रमण कितना आवश्यक है इसे डायनेमो के प्रयोगकर्त्ता जानते हैं। घुमाव बन्द होते ही बिजली बनना बन्द हो जाती है। स्थूल और सूक्ष्म शरीर में विशिष्ट स्तर के विद्युत प्रवाह उत्पन्न करने के लिए विशिष्ट शब्दों का—विशिष्ट गति एवं विधि से उच्चारण करना पड़ता है। मन्त्र जप का सामान्य विज्ञान यही है।
जप में एक शब्दावली को एक क्रम और एक गति से बिना विश्राम दिये गतिशील रखा जाता है। साधारण वार्तालाप में अनेकों शब्द अनेक अभिव्यक्तियां लिये हुये अनेक रस और भावों सहित उच्चारित होते हैं। अस्तु इनमें न तो एकरूपता होती है न एक गति। कभी विराम, कभी प्रवाह, कभी आवेश व्यक्त होते रहते हैं, पारस्परिक वार्तालाप में प्रतिपादन का एक केन्द्र या एक स्तर नहीं होता। अतएव उससे वार्ताजन्य प्रभाव भर उत्पन्न होता है, कोई विशिष्ट शक्तिधारा प्रवाहित नहीं होती। जप की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। उसमें सीमित शब्दावली ही प्रयुक्त होती है और वही लगातार बोली जाती रहती है। घड़ी और माला-गणना पर ध्यान लगाये रहकर नये साधक को अपने जप की गति को एक रस—एक सम बनाना पड़ता है। उतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि शब्द गति का चक्र बन गया और उसके आधार पर तन्त्र विज्ञान के विशिष्ट परिणाम उत्पन्न होंगे। विशेष पुरश्चरणों में जप विद्या के निष्णात साधक इसीलिए बिठाये जाते हैं कि उनकी सही क्रम-प्रक्रिया, सही परिणाम उत्पन्न कर सके।
गति जब गोलाई में घूमने लगती है तो उससे उत्पन्न होने वाले चमत्कार हम अपने दैनिक जीवन में नित्य ही देखते रहते हैं। बच्चे छोटी ‘फिरकनी’ अथवा लट्टू जमीन पर घुमाने का खेल-खेलते हैं। एकबार होशियारी से घुमा देने पर यह खिलौने देर तक अपनी धुरी पर घूमते रहते हैं और गिरते नहीं। जबकि गति बन्द होते ही वे जमीन पर गिर जाते हैं। यह गति का चमत्कार ही है कि एकबार का धक्का देर तक काम देता है और उत्पन्न गति प्रवाह को देर तक चलते रहने की स्थिति उत्पन्न करता है। जप के द्वारा उत्पन्न गति भी साधना काल के बहुत पश्चात् तक चलती रहती है और साधक की आत्मिक विशेषता को गतिशील एवं सुस्थिर बनाये रहती है।
तेजी के साथ गोलाई का घुमाव ‘‘सैन्ट्री फ्यूगल फौर्स’’ उत्पन्न करता है। गोफन में कंकड़ रखकर घुमाने और उसे छोड़कर पक्षी भगाने का कार्य पकी फसल रखाने के लिए किसानों को बहुधा करना पड़ता है। ज्वार, बाजरा, मक्का जैसे खुले दाने की फसलों को अक्सर तोते, कौए खराब करने लगते हैं, तब यह गोफन घुमाकर कंकड़ फेंकने की प्रक्रिया रखवाली के काम आती है। यह घुमाव से उत्पन्न हुई शक्ति ही है जो कंकड़ इतनी तेजी पर होता है कि कोई पक्षी उसका निशाना बन जाने पर ढेर होकर ही रहता है।
सरकसों में एक लकड़ी के घेरे पर मोटरसाइकिल घुमाने का खेल अक्सर देखा जाता है, इसे मौत का कुंआ कहते हैं। दर्शक चकित रह जाते हैं कि साइकिल सवार बिलकुल तिरछा घूम रहा है फिर भी गिरता नहीं।
लोटे में पानी भरा जाय, उसकी गरदन में रस्सी बांधकर घुमाया जाय तो पानी उस लोटे में ही भरा रहेगा, गिरेगा नहीं।
घुमाव की शक्ति के यह आश्चर्यचकित करने वाले परिणाम साधारणतया देखने में आते रहते हैं। जप के माध्यम से गतिशील शब्द शक्ति का प्रतिफल भी वैसा ही होता है। झूले पर बैठे बच्चों को जिस तरह अधिक बड़े दायरे में तेजी से घूमने का और गिरने की आशंका होने पर भी न गिरने का आनन्द मिलता है, उसी प्रकार अन्तःचेतना की सीमा परिधि छोटी सीमा से बढ़कर कहीं अधिक व्यापक क्षेत्र तक अपना विस्तार देखती है और दुर्भावनाओं एवं दुष्प्रवृत्तियों के कारण अधःपतन की जो आशंका रहती है, उसके बचाव की सहज सम्भावना बन जाती है। गोफन द्वारा फेंके गये कंकड़ की तरह साधक अभीष्ट लक्ष्य की ओर द्रुतगति से दौड़ता है और यदि फेंकने वाले के हाथ सधे हुए हैं तो वह ठीक निशाने पर भी जा लगता है। घुमाव की स्थिति में रहने पर तिरछा हो जाने पर भी लोटे का पानी नहीं फैलता। उसी प्रकार अपने भीतर भरे जीवन तत्व के, संसार के अवांछनीय आकर्षणों में गिर पड़ने का संकट घट जाता है। लोटा धीमे घुमाया गया हो तो बात दूसरी है, पर तेजी का घुमाव पानी को नहीं ही गिरने देता। जप के साथ जुड़ा विधान और भावना-स्तर यदि सही हो तो आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों से आये दिन जूझने और कदम-कदम पर असफल होने की कठिनाई दूर हो जाती है।
मौत के कुएं में मोटर साइकिल घुमाने वाला सवार तिरछेपन और दौड़ने के लिये स्थान कम होने के कारण संकट उत्पन्न होने की आशंका से बचा रहता है। जप-साधना का साधक भी प्रगति के मार्ग में उत्पन्न होते रहने वाले अनेक अवरोधों पर विजय प्राप्त करता है और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आगे बढ़ता चला जाता है।
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