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Books - सावित्री कुण्डलिनी एवं तंत्र

Media: TEXT
Language: HINDI
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गायत्री और सावित्री की एकता-पृथकता

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पुराणों में सृष्टि के आरंभ का वर्णन करते हुए लिखा है कि विष्णु की नाभि से कमल उत्पन्न हुआ । कमल पुष्प पर ब्रह्मा विराजे । विधाता ने आकाशवाणी के माध्यम से ब्रह्मा से कहा-आपको सृष्टि सरंचना के लिए उत्पन्न किया गया है । उसकी क्षमता उत्पन्न करने के लिए तप कीजिए । तप से शक्ति उपलब्ध होती है और उसी विशिष्टता के आधार पर महत्वपूर्ण कार्य बन पड़ते हैं ।

ब्रह्माजी ने तप का आधार व स्वरूप पूछा तो आकाशवाणी ने कहा-''गायत्री मंत्र की सम्यक् उपासना की तप है'' । पीछे उन्हें गायत्री मंत्र बताया गया, जिसकी वे उपासना करने लगे । इस आधार पर उनकी चेतना जगी और सृष्टि निर्माण का ताना-बाना बुन लिया गया । उसकी सुव्यवस्थित योजना बना ली गयी।

किन्त उस समय महाप्रलय का जल ही सर्वत्र भरा पड़ा था । कोई पदार्थ नहीं था । अब सृष्टि बने तो किस आधार पर बने? इसके लिए लिए पदार्थ की आवश्यकता पड़ी । उसे जुटाने के लिए उन्हें दुबारा तप करना पड़ा । इस बार उन्हें सावित्री का आश्रय लेना पड़ा सावित्री प्रकट हुई और उसका उन्होंने उपयोग करके सृष्टि की संरचना कर डाली।

इस कथानक के अनुसार गायत्री और सावित्री दो का सहयोग ब्रह्माजी को लेना पड़ा । इसलिए यह दोनों उनकी सहायिकाएँ, सहभागिनी, पत्नियाँ कहलाई गायत्री अर्थात भौतिकी । भौतिकी का मूल भूत आधार पंच तत्व हैं । तत्व जड़ है । इसलिए प्रकृति को जड़ कहा जाता है।

जड़ प्रकृति से समस्त ब्रह्माण्ड भरा पड़ा है । उसमें अनेकों ग्रह, पिण्ड और छुट्टल पदार्थ प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं, पर उनमें चेतना न होने से मात्र क्रिया भर होती है । उनके परमाणु और पिण्ड अपनी धुरी एवं कक्षा में भ्रमण करते हैं । कणों के साथ-साथ पिण्ड की मूलभूत सरंचना में प्रतिकण भी विद्यमान हैं । छाया व्यापार सब ओर चल रहा है । यह प्रक्रिया भी किन्हीं नियमों के अन्तर्गत व्यवस्थित रूप से इकालॉजी विज्ञान के अनुशासनों के अन्तर्गत चलती है।

पृथ्वी पर बिखरा हुआ पदार्थ भी इसका अपवाद नहीं है, पर जड़ सृष्टि अपर्याप्त है । उसका न कोई उद्देश्य है, न प्रयास, न प्रतिफल, न आनन्द । इसका समावेश हुए बिना जड़ पदार्थ दृश्यमान, गतिशील होते हुए भी निरर्थक ही बना रहा । इस अभाव की पूर्ति के लिए ब्रह्माजी को आत्मिकी का-गायत्री का उपयोग करना पड़ा । इसी आधार पर प्राणी बने । इस प्रसंग का माहात्य शास्त्रों में बड़े विशद रूप में प्रकट हुआ है।

परब्रह्मस्वरूप च निर्वाण पद दायिनी।
ब्रह्मतेजोमयी शक्तिस्तदधिष्ठात् देवता॥ -देवी भागवत् स्कन्द ९ अ० १/४२
गायत्री मोक्ष देने वाली परमात्मास्वरूप और ब्रह्मतेज से युक्त शक्ति है और मंत्रों की अधिष्ठात्री है ।

गायत्री इदं सर्वम् ।
नृसिंहपूर्वतापनीयोप० ४/२
यह समस्त जो कुछ है गायत्री स्वरूप है ।

गायत्री परमात्मा ।
गायत्री तत्त्वे०
गायत्री ही परमात्मा है ।
ब्रह्म गायत्रीति-ब्रह्म वै गायत्री । -शतपथ ब्राह्मण ८/५/३/७/-ऐतरेय ब्रह्म० अ० २७ ख० ५
ब्रह्म गायत्री है, गायत्री ही ब्रह्म है ।

परमात्मनस्तु या लोके ब्रह्म शक्तिर्विराजते ।
सूक्ष्मा च सात्विकी चैव गायत्रीत्यभिधीयते॥ ९
संसार में परमात्मा की जो सूक्ष्म और सात्विक ब्रह्म-शक्ति विद्यमान है, वह ही गायत्री कही जाती है ।

प्रभावादेत गायत्र्य भूतानामभिजायते ।
अंतःकरणेषु दैवानां तत्त्वानां हि समुद्भवः॥ १०
प्राणियों के अंतःकरण में दैवी तत्वों का प्रादुर्भाव गायत्री के प्रभाव से ही होता है ।

प्राणियों के, सभी जीवधारियें के शरीर तो पदार्थ विनिर्मित थे । पर इसके अंतर्गत चेतना का समावेश एक विलक्षणता थी । चेतना न होने पर प्राणी अपने शरीरों का उपयोग किस प्रकार, किस निमित्त कर पाते । संसार में बिखरे हुए साधनों का किस प्रकार उपयोग कर पाते? इस उपयोग के बिना उन्हें संतोष, उत्कर्ष और आनन्द की प्राप्ति कैसे होती? यह काम चेतना का है ।

प्राणियों के शरीर पंच तत्त्वों से बने हैं और उनके भीतर काम करने वाली चेतना गायत्री है । इस चेतना को प्राण कहा गया है । प्राण रहने तक ही प्राणी जीवित रहते हैं । इनके निकल जाने पर शरीर मृतक बन जाता है । अपनी सत्ता नष्ट करने के लिए अपने भीतर से ही सड़न के कृमि-कीटक उत्पन्न हो जाते हैं और वे उसका सफाया करक स्वयं भी समाप्त हो जाते हैं । अन्यथा चील, कौए, सियार, कुत्ते आदि उसे खाकर समाप्त कर देते हैं । जल में डाल देने पर मछलियाँ, कछुए आदि उसे खा जाते हैं ।

इस प्रकार चेतना के बिना शरीर का स्वस्थ सक्रिय रहना तो दूर, अपनी सत्ता को बनाये रहने में भी समर्थ नहीं होता । इसलिए सावित्री से गायत्री का महत्त्व अधिक माना जा सकता है । किन्तु यह मान्यता भी अपूर्ण है । क्योंकि चेतना की चिन्तनात्मक क्षमता आधार हीन होने पर अपने पराक्रम का, अस्तित्व का परिचय नहीं दे सकती । इस तर्क के अनुसार सावित्री की भी समान महत्ता स्वीकार करनी पड़ती है ।

जहाँ तक चेतन का सम्बन्ध है, वहाँ आत्मिकी और भौतिकी की सम्मिश्रित प्रक्रिया ही काम करती दिखती है और दोनों एक-दूसरे पर निर्भर प्रतीत होती हैं । दो पत्नियाँ होने पर वे मिलजुल कर सृष्टि की समग्र गृह व्यवस्था चलाती हैं । इसी प्रकार चेतन जगत का समस्त क्रिया-कलाप सावित्री और गायत्री के, भौतिकी और आत्मिकी के, संयुक्त प्रयास से ही चलना प्रत्यक्ष है ।

गायत्री पंच प्राणों से विनिर्मित है । प्राणों की गणना पाँच में होती है । उस प्राण भी पाँच ही हैं । इसलिए उसे प्राण विद्या कहा गया है । शास्त्रकारों ने गायत्री का स्वरूप निर्धारित करते समय उसे प्राण चेतना या प्राण विद्या कहा है । इस सम्बन्ध में शास्त्र मतों को देखा जा सकता है ।

पाँच प्रश्नों की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए ''सर्व-सारोपनिषद'' में कहा गया है-
अन्नकार्यांणां कोशानां समूहऽन्नमयकोश इत्युच्यते
प्राणादि चतुर्दश अन्नमय कोशे यदा वर्तन्ते तदा
प्राणमय-कोश इत्युच्यते । एतत्कोश द्वय संसक्त मन ।
आदि चतुर्दशकरणरात्मा शब्दादि विषय संकल्पदिर्मानु
यदा करोति तदा मनोमय कोश इत्युच्यते ।
एतत्कोशत्रयसंसक्त तद्गत विशेषज्ञो यदा भासते तदा
विज्ञानमय कोश इत्युच्यते । एतत्कोश चतुष्टय संसक्त
स्वाकारणा-ज्ञाने वटकनिकायामिव वृक्षों तदा वर्तते तदा
आनन्दमय कोश इत्युच्यते ।

अर्थात-अन्न से अन्न के स्वरूप एवं शक्ति सत्ता से, प्रत्यक्षतः विनिर्मित कोशों को अन्नमय कोश कहते हैं । इन अन्नमय कोश में संचरित प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान इन पंच प्राणों पंच उपप्राणों आदि प्राणवायु के सभी शरीरस्थ रूपों का समुच्चय प्राणमय कोश है ।

मन समेत इंद्रियों द्वारा किए जाने और किए जा सकने वाले सूक्ष्म कार्य-क्षेत्र का नाम मनोमय कोश है । इन तीनों कोशों के संयुक्त स्वरूप से आत्मा बुद्धि द्वारा जो कुछ ज्ञानात्मक क्रिया-व्यापार करती है, उसे विज्ञानमय कोश कहते हैं । इन चारों कोशों से संसक्त आत्मा जब अपने कारण रूप के प्रति अनभिज्ञ रहती है और स्वतः में ही रमती रहती है, जैसे बटबीज में वृक्ष रहता है, तब उसे आनन्दमय कोश कहते हैं ।

पाँच प्राणों को ही पाँच देव बताया गया है-
पंचदेव मयं जीव, पंच प्राणमयं शिव ।
कुण्डली शक्ति संयुक्त, शुभ्र विद्युल्लतोपम॥

यह जीव पाँच देव सहित है । प्राणवान होने पर शिव है । यह परिकर कुण्डलिनी शक्तियुक्त है । इनका आकार चमकती बिजली के समान है ।
सावित्री विद्या समर्थिंत पंच कोशों के जागरण से उत्पन्न ब्राह्मी शक्ति की पराशक्ति के रूप में अभ्यर्थना की गई है ।

देवी भागवत में कहा गया है-
पंचप्राणधिदेवी या पंचप्राण स्वरूपिणी ।
प्राणाधिकप्रियतमा सर्वाभ्यः सुन्दरी परा॥ -देवी भागवत
पाँच प्राण उसी पंचकोश सम्पदा के पाँच स्वरूप हैं । प्राणों की अधिष्ठात्री देवी वे ही हैं । सर्वाङ सुन्दरी है । पराशक्ति है । भगवान को प्राणों से प्यारी है
‍
वस्तुतः गायत्री प्राणी सत्ता में समाई हुई है इसलिए उसे वह अपने सदृश ही मानता है । मनुष्य की उपासना में वह मानुषी है और उसकी आकृति वैसी ही है । दो हाथ, दो पैर ज्ञानेन्द्रियाँ भी उतनी हैं । किसी और प्राणी को यदि मनुष्य जैसी बुद्धिमत्ता होती तो वह अपनी जैसी आकृति जैसा चेतना के स्वरूप को समझ पाता । बैल का भगवान बैल जैसा और पक्षी का भगवान पक्षी जैसा होता ।

चर्चा प्रतीक के प्रसंग में चल रही है । गायत्री महाविज्ञान का ऊहापोह करते समय उपासना विज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश के लिए ध्यान की अनिवार्य आवश्यकता प्रतीत होती है । एकाग्रता और श्रद्धा के आधार पर ही ध्यान बन पड़ता है । इसलिए उस हेतु कोई न कोई नाम रूप वाली प्रतिमा बुद्धि कल्पित करती है । कल्पना बेपर की उड़ान भर हो हो तो बात दूसरी है अन्यथा वह ध्यान के अनुरूप ही साधक की आकृति बना लेती है । यदि ध्यान, श्रद्धा एवं विश्वास के संयोग से ठीक उसी प्रकार फलित होने लगता है, जैसे कि उस पर आस्था जमाई गई थी ।

इसी दृष्टि से गायत्री की प्रतिमा ठीक मानुषी जैसी गढ़ी गई है । उसके साथ दो उपकरण जोड़े गये हैं । एक जल भरा कमण्डल, दूसरे हाथ में पुस्तक । पुस्तक विवेक का प्रतिनिधित्व करती है और जल भावना का । विवेक और भावना का समन्वय ही मानवी गरिमा आस्था एवं आकांक्षा उत्पन्न करता है ।

गायत्री का वाहन हंस है । यह हंस भी साधक की अंतःचेतना के स्तर की ओर ही इंगित करता है । गायत्री का वाहन राजहंस है । सामान्य जलाशयों में रहने वाला हंस नामक पक्षी नहीं । हंस और राजहंस में मौलिक अन्तर है । राजहंस नीर, क्षीर, विवेक से सम्पन्न है । दूध और पानी मिला होने पर उसमें से दूध पीता है और पानी को छाँट देता है । इसी प्रकार वह मोती चुगता है । न मिलने पर प्राण त्याग देता है । यह विशेषताएँ साधारण हंसों में नहीं होती । वे जलाशयों में पाये जाने वाले कीड़े-मकोड़े खाते हैं । दूध उन बेचारों को कहाँ मिलता है? इसी प्रकार वे मोती पाने की स्थिति में भी नहीं होते । मोती बहुत गहरे पानी में मिलते हैं । उतनी डुबकी साधारण हंस नहीं लगा सकते ।
राजहंस नाम का कोई पक्षी भी नहीं होता । यह एक अलंकारिक कल्पना है जिसका तात्पर्य आदर्शवादिता से है । जो आत्मिकी का, चेतना का, असाधारण अनुदान प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें अपना जीवन सर्वथा श्वेत, उज्जवल रखना चाहिए । कषायों की, विकारों की कलौंच तनिक भी नहीं रहने देनी चाहिए । किन्तु साधारण हंसों में तो चोंच के इर्द-गिर्द तथा पंखों के नीचे कालापन में होता है । इसलिए यह अलंकारिक निरूपण ही समझा जा सकता है ।

सावित्री की, भौतिकी की सूक्ष्म विशिष्टता अपने शरीर में जिन्हे जागृत करनी होती है, उन्हें अध्यात्म की भाषा में उसी के साथ तद्रूप होना पड़ता है । ध्यान की तन्मयता स्तर तक विकसित करनी होती है । इसके लिए भी अलंकारिक चित्रण किया गया है । सावित्री पंचमुखी है । उसकी दश भुजाएँ हैं । कमलासन पर विराजमान है । आयुधों और आभूषणों से सुसज्जित है ।

पंचमुखी अर्थात् प्रकृति के पाँच तत्व और चेतना के पाँच प्राण । दश भुजाएँ अर्थात् पाँच ज्ञानेन्द्रियों का समुच्चय । आभूषण, आयुध का अर्थ सुविधा सम्पन्न करने वाले साधन और कठिनाईयों को निरस्त करने वाले उपकरण भौतिकी के क्षेत्र में प्रगति करने वालों के लिए यह सारा सरंजाम जुटाना आवश्यक है ।

सावित्री का वाहन-आसन कमल पुष्प है । इसके कई तात्पर्य हैं । हृदय को कमल कहा गया है । हृदय सम्वेदना, सहानुभूति, सहयोग जैसी प्रवृत्तियों का उद्गम माना गया है । उसे मात्र रक्त समेटने-फेंकने की थैली तो शरीर शास्त्री ही मानते हैं । आत्मिकी के तत्त्ववेताओं ने शरीर अवयवों के साथ प्रवृत्तियों को भी जोड़ा है । मस्तिष्क के मध्य में रहने वाला सहस्रार कमल भी कमल पुष्प की उपमा में प्रयुक्त होता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि मस्तिष्क की बुद्धि तीक्ष्ण् और हृदय का, स्वभाव सम्वेदना सहकारिता का, संतुलन का, माध्यम होना चाहिए, इस प्रकार गायत्री और सावित्री और की प्रतिमाओं का पृथक्करण होता है ।

इस संदर्भ में शास्त्रकारों का अभिमत स्पष्ट है ।
सविता सर्व भूतानां सर्व भापाश्च सूयत ।
सर्वनात्पे्ररणाच्च्व सविता तेन चोत्यते॥
अर्थात्-समस्त तत्वों, सभी प्राणियों और समस्त भावनाओं की प्रेरणा देने के कारण ही उस शक्ति को सविता कहा गया है । प्रतीक रूप में सविता देवता की उपासना की जाने का विधान है । (गायत्री तंत्र)

इसी प्रकार कहा गया है ।
गायत्री को सद्भावनाओं का और सावित्री को सत्प्रवृत्तियों का माध्यम मानना चाहिए । सद्भभावनाओं के सहारे मनुष्य आत्मिक क्षेत्र में ऊँचा उठना है । महामानव, ऋषि, देवता बनता है । उसकी श्रद्धा, निष्ठा बलवती होती है । दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाता है और पवित्र जीवन वाला बनता है । निजी कठिनाईयों से जुझता और उन्हें परास्त करता है । ऐसी सूझ-बूझ दिशाधारा और रिति-नीति अपनाता है जिससे आत्मिक कल्याण हो सके और दूसरों को भी उपयुक्त प्रकाश मिल सके ।

भौतिक क्षेत्र में वैसी ही दो आवश्यकतायें पड़ती हैं जैसी आत्मिकी के क्षेत्र में । कठिनाई से जूझना और गुत्थियों को सुलझाना अपने-अपने ढंग से दोनों ही क्षेत्रों में अभीष्ट हैं । साधनों को जुटाना और उपयोगी सहयोग अर्जित करना दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से आवश्यक हैं । स्वरूप और तरीके दोनों क्षेत्रों के अलग-अलग अवश्य हैं ।

संघर्ष के बिना कोई गति नहीं । आत्मिक क्षेत्र में कुसंस्कारों, दुर्गुणों, पाप-कर्मों के अधोगामी प्रवाह को रोकना पड़ता है । संयमशील और तपस्वी बनकर आत्मशोधन करना होता है । इतना ही नहीं ऋषियों, विभूतियों को उपलब्ध करने के लिए व्यक्तित्व को अधिक पवित्र और प्रखर बनाना पड़ता है । इससे कम में कोई इन्हें पाने का अधिकारी बन नहीं सकता ।
यही बात भौतिक क्षेत्र के सम्बन्ध में भी है । स्वभावगत आलस्य प्रमाद को परास्त करके अपने को नियमित व्यवस्थित, सक्रिय बनाना होता है और साथ ही बहिरंग क्षेत्र के ईर्षालुओं, प्रतिद्वन्दियों, दुष्टों, आक्रामक-आततायियों से अपनी आत्मरक्षा के लिए इतनी साहसिकता और सहकारिता अर्जित करनी पड़ती है कि उसे देखते हुए आक्रामक दुष्प्रवृत्तियों का साहस ही शिथिल हो जाय और यदि वे दुस्साहस करें भी तो उन्हें नीचा देखना पड़े । इस प्रकार की तैयारी रखने वाले ही भौतिक के क्षेत्र में सफल होते हैं ।

जिस प्रकार शरीर और प्राण-पुरुषार्थ और स्वस्थ चित्त के समन्वय से ही कोई व्यक्ति आत्मिक विभूतियों का धनी बन सकता है, ठीक उसी प्रकार आन्तरिक साहस और बाह्म पुरुषार्थ के बलबूते भौतिक क्षेत्र की समृद्धि, सम्पति, प्रतिभा, विजय जैसी सिद्धियाँ हस्तगत होती हैं । दोनों क्षेत्रों में दोनों ही प्रकार की विशेषताओं की आवश्यकता पड़ती हैं । इसलिए दोनों सर्वथा परस्पर सम्बद्ध माना जाता है । एक क्षेत्र की तैयारियाँ समग्र एवं स्थिर प्रगति का आधार नहीं बन सकतीं । सुपात्र साधक जब साधना की परिपक्वता पा लेते हैं तो उनमें दैवी चेतन शक्ति का प्रादुर्भाव होता है । श्रुति कहती है-

प्रादूर्यवन्ति वे सूक्ष्माश्चतुर्विशंति शक्तः ।
अक्षरेभ्यस्तु गायत्र्य मानवाहां ह मानसे॥ -गायत्री संहिता
''मनुष्य के अंतःकरण में गायत्री के चौबीस अक्षरों से चौबीस सूक्ष्म शक्तियाँ प्रकट होती हैं ।''

जाग्रत ग्रन्थयस्त्वेताः सूक्ष्माः मानसे ।
दिव्यशक्तिसमुद्रभूति क्षिप्रं कुर्वन्त्यसंशयम्॥
जागृत हुई ये सूक्ष्म यौगिक ग्रन्थियाँ साधक के मन में निःसंदेह शीघ्र ही दिव्य शक्तियों को पैदा कर देती हैं ।

जनयन्ति कृते पुंसामेता वै दिव्यशक्तयः ।
विविधान् वै परिणामान् भव्यान् मंगलपूरितान्॥
ये दिव्य शक्तियाँ मनुष्यों के लिए नाना प्रकार के मंगलमय परिणामों को उत्पन्न करती हैं । ये हैं-१. प्रज्ञा, २.वैभव, ३. सहयोग, ४. तिभा, ५. ओजस्, ६. तेजस्, ७. वर्चस्, ८. साहसिकता, १०. दिव्य दृष्टि, ११. पूर्वाभास, १२. विचार संचार, १३. वरदान, १४. शाप, १५. शांति, १६. प्राण प्रयोग, १७. देहान्तर सम्पर्क, १८. प्राणाकर्षण, १९.एश्वर्य, २० दूर-श्रवण, २१. दूर-दर्शन, २२. लोकान्तर सम्पर्क, २३. देव सम्पर्क, २४. कीर्ति । इन्हीं को गायत्री की २४ सिद्धियाँ कहा जाता है ।

गायत्री व सावित्री साधना के समन्वय के विषय में शास्त्रकारों का समत स्पष्ट है-
पृष्ठतोऽस्याः साधनाया राजतेऽतितरां सदा ।
मनस्विसाधकानां हि बहूनां साधनाबूलम्॥
इस साधनाओं के पीछे आदि काल से लेकर अब तक असंख्य मनस्वी साधकों का साधन बल शोभित है ।

इस समन्वय के पीछे भी दोनों का अपना महत्व है । अपना-अपना स्वरूप भी । इसलिए शास्त्रकारों ने जान-बूझकर या अनजाने दोनों का ही बहुत जगहों पर एक ही स्तर पर वर्णन किया है और एक ही नाम से पुकारा है । एक ही प्रकार का प्रतिफल बताया है जब कि दोनों की दिशा धाराएँ पृथक-पृथक हैं । त्रिवेणी में गंगा यमुना का संगम होने से उनका एकीकरण हो जाने की बात भी सही है । पर यह भी गलत नहीं कि दोनों का उद्गम और प्रवाह क्षेत्र अलग-अलग है । इनका समन्वय एकीकरण तो बहुत आगे चलकर होता है ।

एकता के बीच भिन्नता का निरूपण करने के लिए गायत्री और सावित्री के दो रूप विनिर्मित किये गये हैं । गायत्री एकमुखी एवं द्विभुजी । सावित्री पंचमुखी एवं दस भुजी । दोनों के वाहन और अस्त्र आयुध भी भिन्न-भिन्न हैं । हमें दोनों की एकता भी समझनी चाहिए और भिन्नता भी । आत्मिक प्रगति के लिए गायत्री का आश्रय लिया जाता है और भौतिक समस्याओं के लिए सावित्री का अवलम्बन ग्रहण करता होता है । इसी को कहते हैं, द्वेत में अद्वैत की दृष्टि और अद्वैत में द्वेत का पर्ववेक्षण ।
(सावित्री कुण्डलिनी एवं तंत्र- पृ-1.4)





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