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Books - सावित्री कुण्डलिनी एवं तंत्र

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जीवन एक यज्ञ है । इसके भी पुरोहित देवता और उपकरण होते हैं । इन सबकी संगति शास्त्रकारों ने बिठाई है । कुण्डलिनी यज्ञ का विशेष वर्णन करते हुए मुण्डकोपनिषद के २/१/८ संदर्भ में कहा गया है- ''सत्तप्राणी उसी से उत्पन्न हुए । अग्नि की सात ज्वालाएँ उसी से प्रकट हुईं । यही सप्त समिधाएँ हैं, यही सात हवि हैं । इनकी ऊर्जा उन सात लोकों तक जाती जिनका सृजन परमेश्वर ने उच्च प्रयोजनों के लिए किया गया है ।''

सप्त लोकों का देवी भागवत में अन्य प्रकार से उल्लेख हुआ है । उसमें भूः में धरित्री भुवः में वायु स्वः में तेजस महः में महानता, जनः में जनसमुदाय, तपः में तपश्चर्या एवं सत्य में सिद्धवाण्-वाक सिद्धि रूप सात शक्तियाँ समाहित बतायी गयी हैं । इस प्रकार कुण्डलिनी योग के अंतर्गत चक्र समुदाय में वह सभी कुछ आ जाता है, जिसकी कि भौतिक और आत्मिक प्रयोजनों के लिए आवश्यकता पड़ती है ।

मानवी काया को एक प्रकार से भूलोक के समान माना गया है । इसमें अवस्थित मूलाधार चक्र को पृथ्वी की और सहस्रार को सूर्य की उपमा दी गई है । दोनों के बीच चलने वाले आदान-प्रदान माध्यम को मेरुदण्ड कहा गया है । सूर्य की गर्मी से पृथ्वी का सारा काम चलता है । ब्रह्मरंध्र ब्रह्मण्ड का प्रतीक है । सूर्य का तेजस धारण करने से ही पृथ्वी को बहुमूल्य जड़ चेतन सम्पदा-प्रवाह को उत्पन्न और निर्वाह करते रहने की क्षमता मिलती है ।

ठीक इसी प्रकार सहस्रार लोक ब्रह्मण्डीय चेतना का अवतरण केन्द्र है और इस महान् भाण्डागार में से मूलाधार को जिस प्रयोजन के लिए जितनी मात्रा में जिस स्तर की सामर्थ्य अपेक्षित होती है उसकी पूर्ति सतत् होती रहती है ।

यह अनुदान किस प्रकार बरसता है, इसकी एक झाँकी ध्रुव प्रदेशों में जाकर देखी जा सकती है, क्योंकि ब्रह्मरंध्र को मस्तिष्क को उत्तरी ध्रुव भी माना गया है, जहाँ सूर्य की तथा अन्य ग्रहों की महत्वपूर्ण शक्तियाँ निरंतर बरसती रहती हैं । इसमें कौन क्या कितनी मात्रा में बटोरता है, यह साधक के कौशल पर निर्भर है ।

पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव क्षेत्र (आर्कटिका) प्रायः ५० हजार वर्ग ३० मील का है । दक्षिणी, ध्रुव (एण्टार्कटिक)लगभग ३० हजार वर्ग मील क्षेत्र में फैला हुआ है । उत्तरी ध्रुव पर ध्रुवप्रभा मेरु प्रकाश के रूप में आती है और वह चित्र-विचित्र रूपों में दिखती है । यह प्रकाश (अरोरा बोरिएलिस) दोनों ध्रुवों पर अपने-अपने निराले रूपों में जिस प्रकार दृष्टिगोचर होता है, उसे देखकर चकित रह जाना पड़ता है ।

ध्रुव प्रकाश सूर्य किरणों की वक्रता के कारण विचित्र रूप में सर्च लाइट की तरह दिखता, गायब होता रहता है । उत्तरी ध्रुव पर चमक कुछ अधिक होती है । उत्तरी ध्रुव पर एस्किमो जाति के मनुष्य भालू, रैन्डियर, मछली आदि प्राणियों का अस्तित्व पाया जाता है । दक्षिणी ध्रुव पर पेंगुइन पक्षी पाया जाता है, जिसकी प्रकृति में असीम प्यार भरा है । उत्तरी ध्रुववासी एस्किमो स्वभावतः असीम साहसी होते हैं ।8
ध्रुव क्षेत्रों पर सूर्य किरणों की अनेक विचित्रताएँ दृष्टिगोचर होती हैं । उत्तरी ध्रुव यात्री जनि वायर्ड ने एक बार वहाँ सूर्य को बिल्कुल हरे रंग का देखा था । वहाँ दूर की वस्तुएँ हवा में लहराती दिखाई पड़ती हैं । टोली की ऊँचाई जितनी होती है, उससे कई गुनी ऊँची दिखाई पड़ती है । कई बार अनेक सूर्य एक साथ उगते हुए दीखते हैं । इसी प्रकार चन्द्रमा भी बर्फ पर, हवा में तथा आकाश में अलग-अलग दिखते हैं । उत्तरी ध्रुव पर रात्रि छः महीने की होती है । सूर्य वर्ष में मात्र १६ दिन पूरी तरह चमक से निकलता है ।

चन्द्रमा की चमक कई बार इतनी होती है, जितनी तुलना सूर्य से की जा सके । रोशनी रंग बदलती और झिलमिलाती रहती है । कई बार वह टार्च के प्रकाश की तरह लम्बाई में दौड़ती चली जाती है । चुम्बकीय तूफान निरंतर आते रहते हैं । उत्तरी ध्रुव का प्रदूषण आण्विक धूलि से उत्सर्जित पायी जाती है । एक ध्रुव गहरा है, दूसरा उठा हुआ आवाजें कभी बहुत दूर की पास सुनाई देती हैं, कभी बहुत पास की भी सुनाई नहीं पड़ती । यह विवरण काया के दोनों लोक मूलाधार व सहस्रार-दक्षिणी व उत्तरी ध्रुव से भली-भाँति संगति खाता है ।

मस्तिष्क उत्तरी धु्व है और जननेन्द्रिय मूल-मूलाधार-दक्षिणी धु्रव । दोनों की परिस्थितियों और विशेषताओं की पूरी-पूरी संगति बैठ जाती है । कामवासना का प्रवाह भी मस्तिष्क से चलता है और जननेन्द्रिय पर अपनी उत्तेजना पटकता है । इस आदान-प्रदान में रोकथाम और मर्यादा बनी रहे, इस प्रयोजन के लिए मेरुदण्ड का एक लम्बा मार्ग है और उसमें भी छः चक्र-छः व्यवधान खड़े हुए हैं ।

कितने ही पौराणिक उपाख्यानों की संगति कुण्डलिनी योग से बैठती है । यह संसार शेष नाग के फन पर टिका है एवं शरीर मूलाधार स्थित सर्प पर । इस क्षेत्र में गड़बड़ी पड़ जाने पर मनुष्य अशक्त अपाहिज, नपंसक हो जाता है । विष्णु भगवान शेषनाग पर सोते हैं । शंकर जी के गले में साँप है । यह ब्रह्म रंध्र का वर्णन है । यह सभी सर्प एक-दूसरे का सहयोग करते हैं और धारणकर्त्ता को उस ऊर्जा से लाभान्वित करते-रहते हैं जो विष्णु व शिव से जुड़े होने के कारण अलंकारिक रूप से उनमें पाई बतायी जाती है ।

जहाँ मूलाधार की प्रसुप्त महासर्पिणी नारी तत्त्व की बोधक है, वहाँ सहस्रार में विद्यमान महासर्प नर है । दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं और दोनों के मिलन की असीम उत्कंटा की पूर्ति मेरुदण्ड कुण्डलिनी योग के माध्यम से करता है ।
रतिक्रिया में मिलने वाले विषयानंद को मस्तिष्कीय ऊर्जा झकझोरने पर ब्रह्मनंद का एक छोटा रूप बताया गया है । दोनों ही क्षेत्र आमतौर से सोये रहते हैं एवं उमंग उठने पर ही वे उत्तेजित होते हैं ।

कुण्डलिनी की मूलाधार स्थित ऊर्जा को प्राण प्रवाह, जीवन शक्ति, सृजन प्रेरणा, जिजीविषा, उमंग-उत्साह-विनोद क्रीडा़-पौरूष आदि के रूप में प्रकट होता देखा जाता है । वह क्षेत्र प्रसुप्त हो तो मनुष्य निराश अशक्त स्थिति में रहने लगता है ।
कुण्डलिनी के उर्ध्व लोक सहस्रार चक्र में बुद्धि विचारणा, विवेकशीलता, भक्ति भावना, आदर्शवादिता, संयमशीलता, स्नेह, श्रद्धा, सद्भाव, कर्मनिष्ठा आदि का निवास है ।

काम क्रीड़ा में अतिवाद बरता जाये तो नीचे और ऊपर के दोनों ही केन्द्र लड़खड़ाने लगते हैं । शारीरिक और मानसिक दोनों ही क्षेत्रों में अशक्तता आ जाती है । यदि इन केन्द्रों का सीमित एवं मात्र सत्प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया जाये तो उससे असाधारण फल श्रुतियाँ भी मिलती हैं ।

कहा जा चुका है कि कुण्डलिनी शक्ति स्थूल शरीर में प्रजनन तथा क्रीड़ा विनोद भर काम करती हैं उसका गम्भीर स्वरूप सूक्ष्म शरीर में सन्निहित है । शरीर की चीर फाड़ की जाये तो चक्र तो नहीं पर निर्धारित स्थानों के आस-पास छोटे-छोटे नाड़ी गुच्छक दृष्टिगोचर होते हैं, जिनकी एनाटामीकल संगति का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है । चक्र वस्तुतःविद्युत प्रवाह के प्रतीक केन्द्र हैं ।

प्रस्तुत दिव्य प्रवाहों को रक्त-प्रवाह, नाड़ी चक्र, ज्ञान तन्तु, प्रवाह कोशा स्फल्लिग आदि के रूप में नहीं जाना जा सकता । इन मान्यताओं को अपनाकर चलने वाले वस्तुस्थिति को नहीं समझ पाते हैं और न तथ्यों की सही विवेचना ही कर पाते हैं । यह चेतनात्मका प्राप्त प्रवाह का विषय है, जिसे भौतिक विद्युत के संभतः नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसक प्रवाह लकड़ी रबड़ जैसी वस्तुओं पर प्रभाव नहीं डालता जब कि प्राण की चेतना में ही नहीं जड़ में भी गति है

कुण्डलिनी प्रसंग योग वशिष्ठ, योग चूड़ामणि, देवी भवगत्, शारदा तिलक, शान्डिल्योसपनिषद मुक्ति-कोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णन तंत्र, योगिनी तंत्र बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र सौन्दर्य लहरी आदि गंथों में विस्तार पूर्वक दिया गया है । तो भी वह वैसा नहीं जिससे साधना के उतार-चढ़ावों को सरलता पूर्वक समझा जा सके और साधना का विधि-विधान समझ कर निर्धारित लक्ष्य तक पहुचने की सफलता को प्राप्त किया जा सके ।

यही कारण है कि ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं- हे ''प्राणाग्नि! मेरे जीवन में ऊषा बनकर प्रकटों अज्ञान का अंधकार दूर करों, ऐसा बल प्रदान करो जिससे देव शक्तियाँ खिंची चली आएँ ।'' त्रिशिखिब्रहोपनिषद में शास्त्रकार ने कहा है-''योग साधना द्वारा जगाई हुई कुण्डलिनी बिजली के समान लडपती और चमकती है । उससे जो है सोया सा जागता है । जो जागता है, वह दौड़ने लगता है ।''

अजित मुकर्जी की ''द तांत्रिक वे'' स्वामी अगेहानन्द की ''तांत्रिक परम्परा'' एवं ''यौन ऊर्जा'' हैस जैक्सन की ''पाश्चात्य मनोविज्ञान एवं भारतीय साधना'' ओमर गैरीसन की ''तंत्र-यौन योग'' उखिल हॉस की ''कमेण्टी ऑन हठयोग प्रदीपिका'' फिलीप राखेन की ''तांत्रिककला'' जान ब्राइट की ''चेतना का सीमान्त'' हेंस रिग्मीजर की ''भारतीय धर्म उपाख्यान और प्रतीक'' एवं सर जॉन वुडरफ की 'र्सपेण्टाइन पावर' में कुण्डलिनी योग के संदर्भ में आधुनिक मनोविज्ञान, परामनोविज्ञान एवं साधनाशास्त्र के ऊपर विस्तृत प्रकाश डाला है एवं बताया है कि यह विद्या ऐसे सुनिश्चित तथ्यों पर आधारित है कि उसको प्रयोग में लाने वाले लाभान्वित् हुए बिना रह ही नहीं सकते ।

महामंत्र में वर्णन आता है-''जाग्रत हुई कुण्डलिनी असीम शक्ति का प्रसव करती है । उससे नाद बिन्दू, कला के तीनों अभ्यास स्वयंमेव सध जाते हैं । परा, पश्यन्ति मध्यमा और बैटरी चारों वाणियाँ मुखर हो उठती हैं । इच्छा शक्ति ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति उभार आता है । शरीर-वीणा के सभी ताप क्रमबद्ध हो जाते हैं और मधुर ध्वनि में बजते हुए अन्तराल को झंकृत करते हैं । शब्दब्रह्म की यह सिद्धि मनुष्य को जीवनमुक्त कर देवात्मा बना देती है । ''

चक्रों के भाव पक्ष को आधार मानकर चलने वाल उनमें कई-कई रंगों कई शब्दों कई कणों, कई वाहनों को आरोपण करते हैं । ध्यान की गहनता में तो वैसा स्वरूप भी दिख सकता है और वैसी विशेशताएँ भी प्रतीत हो सकती हैं । किन्तु यदि तथ्यों को आधार रखकर चला जाय तो उनकी वायु में पड़ने वाले चक्रवातों, ज्वालामुखी से प्रकट होने वाले लावा-अग्नि ऊर्जा के शोलों एवं नदी में पड़ने वाली भँवरों से तुलना की जा सकती है, जिसमें असाधारण सामर्थ्य काम करती रहती है ।

इस सामर्थ्यों के द्वारा-परोक्ष जगत में व्यापक हलचल उत्पन्न की जा सकती है, साथ ही आत्मिक प्रगति के सर्वोच्च सोपानों तक पहुँचा जा सकता है ।

(सावित्री कुण्डलिनी एवं तन्त्र : पृ-5.87)


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