
माता धात्री ही नहीं निर्मात्री भी है
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बालक के निर्माण में माता का अंश अधिक होता है। पिता तो बिन्दु मात्र का सहयोगी होता है, बालक की बाकी सब रचना माता ही किया करती है। उसके ही रक्त मांस से उसका शरीर बनता और बढ़ता है नौ माह तक गर्भ में अपने जीवन तत्व से उसे पालती और जन्म के बाद भी स्तनों द्वारा अपना जीवन तत्त्व पिलाकर अनेक वर्षों तक पालती है। दूध छूट जाने पर भी बच्चा अनेक वर्षों तक माता पर ही निर्भर रहता है। उसी के हाथ से खाता-पीता और उसी के साथ सोता-जागता है। जब तक उसका शरीर और चेतना काफी विकसित नहीं हो जाती तब तक वह माता पर निर्भर रहकर अधिकतर उसके सम्पर्क में ही रहता है।
गर्भ में आने के समय से लेकर विकसित होने तक का यह समय बालक के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण समय है। इसी समय में उसके जो संस्कार बनने होते हैं बन जाते हैं। इसी काल में उसका चरित्र जिस सांचे में ढलना होता है ढल जाता है और उसके भविष्य-जीवन की भूमिका तैयार हो जाती है। भविष्य का उसका सारा जीवन इस काल के बीजों के अनुसार ही प्रस्फुटित एवं पल्लवित होता है।
एकबार एक स्त्री अपने बच्चे को लेकर सुकरात के पास पहुंची और पूछा—‘महात्मन्! में अपने इस बच्चे की शिक्षा कब से आरम्भ करूं।’’ सुकरात ने जानना चाहा कि बच्चे की आयु कितनी है? स्त्री ने बतलाया—सात वर्ष। इस पर सुकरात ने खेद प्रकट करते हुए कहा—कि तब तो आप इस बच्चे की शिक्षा में सात साल नौ महीने पिछड़ गईं।
यह छोटी सी घटना इस बात की पुष्टि करती है कि बच्चे की शिक्षा गर्भ में आते ही प्रारम्भ हो जानी चाहिये। क्योंकि गर्भस्थ बच्चे पर शिक्षा एवं संस्कारों का जितना प्रभाव पड़ता है उतना स्थायी तथा गहरा प्रभाव जन्मोपरान्त उस पर नहीं पड़ता। गर्भस्थ बालक की शिक्षा संस्कारों के रूप में उसकी माता के आचार-विचारों द्वारा ही पूरी होती है। उस काल में माता के आचार-विचार, आहार-विहार में जितनी पवित्रता, प्रबुद्धता और सात्त्विकता रहेगी बच्चे का चरित्र भी उसी आदर्श के आधार पर संस्कार रूप में ढलता चला जायगा।
यों तो पिता तथा शिक्षा गुरु भी बालक के निर्माण में योगदाता माने जाते हैं। पर वास्तविक बात यह है कि मूलतः माता ही उसकी पथ-प्रदर्शक, सृष्टा तथा निर्माता हुआ करती है। बच्चा माता के शरीर से रक्त, मांस, जीवन व प्राण-तत्त्व लेने के साथ उसके आन्तरिक कोष से गुण, कर्म, स्वभाव के बीज भी ग्रहण करता है जो उसके जीवन पथ पर प्रमुख भूमिका प्रस्तुत करते हैं। जब तक बालक की स्वतन्त्र विचार-शक्ति परिपक्व नहीं हो जाती, वह इसके लिये माता पर ही निर्भर रहता है। वह उसके अनुसार ही सांसारिक ज्ञान का अभिज्ञाता बनता है। माता द्वारा प्रारम्भ में दिये हुये संस्कारों के आधार पर ही उसकी विचारणा एवं ग्रहणशीलता का विकास होता है। उन्हीं के अनुसार वह आगे चलकर आत्म जातीय संस्कार तत्त्वों को खोज-खोजकर अपने गुण-अवगुण की वृद्धि करता और उसके परिणामों से स्वयं भी प्रभावित होता और समाज को भी करता है। इस प्रकार संस्कारवान् तथा उच्चादर्शिनी माताओं के बच्चे आगे चलकर आदर्श नागरिक और महामानव तक बन जाते हैं और इसके विपरीत चरित्र वाली माताओं की सन्तानें समाज के लिये कलंक रूप सिद्ध होती हैं।
गर्भ-कल में बालक माता के बाह्य क्रिया-कलाप से ही प्रभावित नहीं होता और न वह माता के बाह्याचरण मात्र सन्तुलित एवं शुद्ध रहने से महान् संस्कारवान् बन सकता है। माता के वाह्याचरण का प्रभाव बालक के निर्माण पर पड़ता तो अवश्य है किन्तु गहरा नहीं। गहरा तथा प्रमुख प्रभाव तो उस पर उसकी माता की अन्तःस्थिति के अनुसार ही पड़ता है। गर्भ में आने पर बालक का जहां शरीर बनता और विकसित होता है वहां उसी शरीर में उसके मस्तिष्क की रचना भी प्रारम्भ हो जाती है और मानसिक क्रियायें भी स्पन्दित होने लगती हैं। गर्भस्थ बालक की चेतना बहुत ही प्रखर, सूक्ष्म तथा ग्रहणशील होती है। माता के मनोसंस्थान से सम्बन्धित रहने के कारण उसकी विचारणा शक्ति माता के मनोनुकूल ही विकसित होती है। इसलिये आवश्यक है कि वाह्य व्यवहारों के साथ माता का अन्तर भी शुद्ध, बुद्ध तथा निरंजन बना रहना चाहिये।
माता का यह मानसिक महत्त्व तभी सम्भव है जब उसके रहन-सहन की व्यवस्था तथा आस-पास का वातावरण तद्नुरूप हो। घर में हर समय कलह-क्लेश मचा रहे, ईर्ष्या द्वेष तथा उद्वेग का प्रवाह बहता रहे, जरा-जरा-सी बात पर महाभारत उठता रहे—तब ऐसी दशा में किसी भावी जननी की मनोदशा किस प्रकार शान्त, सन्तुष्ट तथा निर्द्वन्द्व रह सकती है। सामान्यतः माताओं में वह मनोबल कहां होता है, जिसके आधार पर वे प्रतिकूल परिस्थितियों से अप्रभावित रहकर अपनी मनोदशा को विचलित न होने दें। उसकी इस आवश्यकता तथा कर्त्तव्य में, घर वालों तथा मुख्यतः पति को चाहिये कि सहयोग करे। गर्भिणी नारी का बड़ा महत्त्व है। उसे हर प्रकार से प्रसन्न तथा पुष्ट रखना बहुत जरूरी है। वह अपनी कुक्षि में किसी समाज तथा राष्ट्र की वह धरोहर धारण किये होती है, जिस पर संसार का बहुत कुछ निर्भर हो सकता है।
किन्तु लोगों में इस प्रकार का विचार स्फुरण हो तो तभी सकता है, जब वे भावी सन्तान का मूल्य महत्त्व समझें। जो संतान-जन्म को एक साधारण प्राकृतिक प्रक्रिया अथवा आकस्मिक घटना मानते और उसको अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझते हैं उनसे इस प्रकार के महान् तथा सार्वभौम विचार की आशा की भी किस प्रकार जा सकती है? जबकि प्रत्येक सन्तान एक स्वतन्त्र जीवात्मा है जो अपनी विकास-यात्रा पूरी करने के लिये किन्हीं माता-पिता के माध्यम से अवतार लेती है। उसकी इस यात्रा में सहयोग करना प्रत्येक माता-पिता का परम पावन कर्त्तव्य है। यों तो पिता का भी सहयोग, जिसके विन्दुयान में आकर जीवात्मा देही होने के लिये गर्भस्थ होती है, कुछ कम महत्त्व नहीं रखता। तथापि उसकी तुलना में माता का सहयोग बहुत महत्त्व रखता है। क्योंकि तदनन्तर माता ही उस गर्भ को धारण करती, पकाती और जन्म देने के बाद उसकी देख-रेख, रक्षा और पालन-पोषण करती है। यदि माता संस्कारवती, बुद्धिमती और सुयोग्य है। तब तो वह निश्चय ही उस शरणागत जीवात्मा को समुचित सांचे में ढालकर उसका बेड़ा पार कर देगी अन्यथा जन्म-मरण की चौरासी लाख योनियों की यातनाओं से विथकित तथा संत्रस्त वह जीवात्मा जो युग-युग के बाद किसी प्रकार मनुष्य की मांगलिक योनि का सुयोग प्राप्त कर सका है फिर उसी चक्र में लौट जायेगा और इस प्रकार उसका किनारे आया हुआ जीवन बेड़ा भव-सागर में डूब जायेगा। उसका जन्म उसकी यात्रा निष्फल हो जायेगी।
मदालसा एक ऐसी ही महान् एवं आदर्श माता थी। उसके गर्भ में त्राण पाने के लिये जिस जीवात्मा ने शरण लेकर उसके पुत्र रूप में जन्म लिया उसको दुबारा जन्म लेने की आवश्यकता न पड़ी। माता मदालसा के संस्कारों तथा उसकी शिक्षाओं ने उन्हें इस प्रकार विनिर्मित किया कि वे तत्त्व-ज्ञानी होकर भव-सागर के पार उतर गये। जिस मदालसा जैसी माता की, गर्भ काल से लेकर सन्तान के प्रबुद्ध होने तक की लोरियों तथा शिक्षाओं के बोल इस प्रकार के होते हों उसकी सन्तानें महान् से महानतम होकर उस परम गति को क्यों न पा लेंगी जो मानव जीवन की वास्तविक श्रेय मानी गई है—
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि,
संसार माया परिवर्जितोऽसि ।
संसार स्वप्नं त्यज मोहनिद्रां,
मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम् ।।
—‘‘हे पुत्र! तू अपनी जननी मदालसा के शब्द सुन। तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है, संसार की माया से रहित है। यह संसार स्वप्न मात्र है। उठ, जाग्रत हो, मोह निद्रा का परित्याग कर। तू सच्चिदानन्द आत्मा है, अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर।’’
संसार में आदि से लेकर अब तक जितने भी महान् एवं आदर्श पुरुष हुए हैं। उनके निर्माण में माता का विशेष हाथ रहा है। सुभद्रा को जितना गौरव अर्जुन की पत्नी होने से मिला उससे कहीं अधिक गौरव वीरवर अभिमन्यु की माता होने से प्राप्त हुआ है। वीर पत्नी होने का गौरव तो उन्हें अर्जुन से विवाह मात्र हो जाने से यों ही मिल गया किन्तु वीर माता होने का गौरव सुभद्रा ने अपनी योग्यता, संस्कार एवं संयम की निष्ठा से प्राप्त किया, स्वयं प्राप्त किया।
उन्हें इसका ज्ञान था कि गर्भकाल में बालक पर जो संस्कार डाले जाते हैं वे स्थायी तथा अमिट होते हैं। वे यह भी चाहती थीं कि उनका गर्भस्थ पुत्र पिता से बढ़कर यशस्वी तथा वीर बने। यदि वह मात्र पिता के गुणों तक ही पहुंच सका तो इसमें मुझ माता के सहयोग की क्या विशेषता रहेगी। बीज के अनुसार पौधे का होना तो स्वाभाविक ही है। यदि मैं अपने संस्कारों तथा शिक्षाओं द्वारा अपने पुत्र को पति के गुणों से अधिक गुणवान् बना सकी तो अपना मातृत्व सफल समझूंगी और वीर पुत्र की माता होने का गौरव ग्रहण करूंगी! और सुभद्रा ने वैसा ही कर दिखाया। जिस चक्र व्यूह का भेदन अर्जुन ने प्रौढ़ होकर गुरु द्रौण से एक दीर्घकालीन अभ्यास के बाद सीख पाया और तब भी उसकी परीक्षा का अवसर न दे सके। उसी चक्र व्यूह का भेदन सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु ने गर्भकाल में ही सीख लिया और सोलह वर्ष की आयु में ही एक साथ सात-सात महारथियों के छक्के छुड़ाकर उस शौर्य का परिचय देकर संसार को चकित कर दिया। यह सब पुत्र पर माता के संस्कारों उसके उच्चादर्शों तथा सन्तान निर्माण में विश्वास की कृपा थी।
पाण्डु जन्म जात रोगी थे। उन क्षीण वीर्य पिता के गर्भ को कुन्ती तथा माद्री जैसी महान् माताओं ने अपने तप, तेज, विद्या तथा निर्माण निष्ठा के बल पर युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव जैसे देवोपम पुत्रों में परिपक्व कर दिया। लोकमान्य तिलक निःसन्देह भारत के तिलक के समान ही महान् एवं पवित्र माने जाते हैं। उनमें इस महानता का विकास करने में उनकी माता का हाथ था। उनकी माता ने उज्ज्वल पुत्र रत्न पाने के लिये व्रत उपवासों तथा सूर्य की तपस्या में अपना जीवन ही समर्पित कर दिया था। जब लोकमान्य गर्भ में थे तब उनकी माता ने बड़े कठिन अनुष्ठान किये और व्रत रखे थे। वे कहा करती थीं कि मैंने पुत्र बाल गंगाधर को भगवान् सूर्य की कृपा से पाया है, यह अवश्य ही सूर्य की तरह तेजस्वी होगा। अपने विश्वास को चरितार्थ करने में मैं किसी प्रकार का प्रयत्न न उठा रखूंगी, फिर उसके लिये मुझे चाहे कितना ही नियम संयम का निर्वाह क्यों न करना पड़े। उन्होंने वैसा ही किया और उनका पुत्र भगवान् बाल गंगाधर तिलक के नाम से लोकमान्य हुये। आज भी उनका बलिदान, उनका यश भारतीय इतिहास में सूर्य के समान दैदिप्यमान हो रहा है और सदा सर्वदा होता रहेगा।
समाज, राष्ट्र तथा संसार को सदैव ही ऐसे नर रत्नों की आवश्यकता रहती है, फिर आज तो यह आवश्यकता बहुत बढ़ गई है। जरूरत है कि मातायें इस आवश्यकता का महत्त्व समझें और सन्तान पालन की योग्यता प्राप्त कर वीर तथा यशस्वी पुत्रवती बने। साथ ही समाज का यह कर्त्तव्य है कि उन मानव जाति की माताएं नारियों को वे सब सुविधायें तथा सुयोग पुरी तरह प्रदान करें जिससे कि वे शिक्षित सुयोग्य तथा संस्कारवती बनकर संसार को महान् तथा आदर्श पुत्र रत्नों से सजा दें।
माताओं का विकास हुये बिना संतानों का विकास नहीं हो सकता और संतानों के विकास के अभाव में समाज तथा राष्ट्र का उत्कर्ष होना संभव नहीं। हर भारतीय को इस आधार भूत क्रम को अच्छी तरह हृदयंगम कर उसके अनुसार अपना कर्त्तव्य निवाहते ही रहना चाहिये।
गर्भ में आने के समय से लेकर विकसित होने तक का यह समय बालक के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण समय है। इसी समय में उसके जो संस्कार बनने होते हैं बन जाते हैं। इसी काल में उसका चरित्र जिस सांचे में ढलना होता है ढल जाता है और उसके भविष्य-जीवन की भूमिका तैयार हो जाती है। भविष्य का उसका सारा जीवन इस काल के बीजों के अनुसार ही प्रस्फुटित एवं पल्लवित होता है।
एकबार एक स्त्री अपने बच्चे को लेकर सुकरात के पास पहुंची और पूछा—‘महात्मन्! में अपने इस बच्चे की शिक्षा कब से आरम्भ करूं।’’ सुकरात ने जानना चाहा कि बच्चे की आयु कितनी है? स्त्री ने बतलाया—सात वर्ष। इस पर सुकरात ने खेद प्रकट करते हुए कहा—कि तब तो आप इस बच्चे की शिक्षा में सात साल नौ महीने पिछड़ गईं।
यह छोटी सी घटना इस बात की पुष्टि करती है कि बच्चे की शिक्षा गर्भ में आते ही प्रारम्भ हो जानी चाहिये। क्योंकि गर्भस्थ बच्चे पर शिक्षा एवं संस्कारों का जितना प्रभाव पड़ता है उतना स्थायी तथा गहरा प्रभाव जन्मोपरान्त उस पर नहीं पड़ता। गर्भस्थ बालक की शिक्षा संस्कारों के रूप में उसकी माता के आचार-विचारों द्वारा ही पूरी होती है। उस काल में माता के आचार-विचार, आहार-विहार में जितनी पवित्रता, प्रबुद्धता और सात्त्विकता रहेगी बच्चे का चरित्र भी उसी आदर्श के आधार पर संस्कार रूप में ढलता चला जायगा।
यों तो पिता तथा शिक्षा गुरु भी बालक के निर्माण में योगदाता माने जाते हैं। पर वास्तविक बात यह है कि मूलतः माता ही उसकी पथ-प्रदर्शक, सृष्टा तथा निर्माता हुआ करती है। बच्चा माता के शरीर से रक्त, मांस, जीवन व प्राण-तत्त्व लेने के साथ उसके आन्तरिक कोष से गुण, कर्म, स्वभाव के बीज भी ग्रहण करता है जो उसके जीवन पथ पर प्रमुख भूमिका प्रस्तुत करते हैं। जब तक बालक की स्वतन्त्र विचार-शक्ति परिपक्व नहीं हो जाती, वह इसके लिये माता पर ही निर्भर रहता है। वह उसके अनुसार ही सांसारिक ज्ञान का अभिज्ञाता बनता है। माता द्वारा प्रारम्भ में दिये हुये संस्कारों के आधार पर ही उसकी विचारणा एवं ग्रहणशीलता का विकास होता है। उन्हीं के अनुसार वह आगे चलकर आत्म जातीय संस्कार तत्त्वों को खोज-खोजकर अपने गुण-अवगुण की वृद्धि करता और उसके परिणामों से स्वयं भी प्रभावित होता और समाज को भी करता है। इस प्रकार संस्कारवान् तथा उच्चादर्शिनी माताओं के बच्चे आगे चलकर आदर्श नागरिक और महामानव तक बन जाते हैं और इसके विपरीत चरित्र वाली माताओं की सन्तानें समाज के लिये कलंक रूप सिद्ध होती हैं।
गर्भ-कल में बालक माता के बाह्य क्रिया-कलाप से ही प्रभावित नहीं होता और न वह माता के बाह्याचरण मात्र सन्तुलित एवं शुद्ध रहने से महान् संस्कारवान् बन सकता है। माता के वाह्याचरण का प्रभाव बालक के निर्माण पर पड़ता तो अवश्य है किन्तु गहरा नहीं। गहरा तथा प्रमुख प्रभाव तो उस पर उसकी माता की अन्तःस्थिति के अनुसार ही पड़ता है। गर्भ में आने पर बालक का जहां शरीर बनता और विकसित होता है वहां उसी शरीर में उसके मस्तिष्क की रचना भी प्रारम्भ हो जाती है और मानसिक क्रियायें भी स्पन्दित होने लगती हैं। गर्भस्थ बालक की चेतना बहुत ही प्रखर, सूक्ष्म तथा ग्रहणशील होती है। माता के मनोसंस्थान से सम्बन्धित रहने के कारण उसकी विचारणा शक्ति माता के मनोनुकूल ही विकसित होती है। इसलिये आवश्यक है कि वाह्य व्यवहारों के साथ माता का अन्तर भी शुद्ध, बुद्ध तथा निरंजन बना रहना चाहिये।
माता का यह मानसिक महत्त्व तभी सम्भव है जब उसके रहन-सहन की व्यवस्था तथा आस-पास का वातावरण तद्नुरूप हो। घर में हर समय कलह-क्लेश मचा रहे, ईर्ष्या द्वेष तथा उद्वेग का प्रवाह बहता रहे, जरा-जरा-सी बात पर महाभारत उठता रहे—तब ऐसी दशा में किसी भावी जननी की मनोदशा किस प्रकार शान्त, सन्तुष्ट तथा निर्द्वन्द्व रह सकती है। सामान्यतः माताओं में वह मनोबल कहां होता है, जिसके आधार पर वे प्रतिकूल परिस्थितियों से अप्रभावित रहकर अपनी मनोदशा को विचलित न होने दें। उसकी इस आवश्यकता तथा कर्त्तव्य में, घर वालों तथा मुख्यतः पति को चाहिये कि सहयोग करे। गर्भिणी नारी का बड़ा महत्त्व है। उसे हर प्रकार से प्रसन्न तथा पुष्ट रखना बहुत जरूरी है। वह अपनी कुक्षि में किसी समाज तथा राष्ट्र की वह धरोहर धारण किये होती है, जिस पर संसार का बहुत कुछ निर्भर हो सकता है।
किन्तु लोगों में इस प्रकार का विचार स्फुरण हो तो तभी सकता है, जब वे भावी सन्तान का मूल्य महत्त्व समझें। जो संतान-जन्म को एक साधारण प्राकृतिक प्रक्रिया अथवा आकस्मिक घटना मानते और उसको अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझते हैं उनसे इस प्रकार के महान् तथा सार्वभौम विचार की आशा की भी किस प्रकार जा सकती है? जबकि प्रत्येक सन्तान एक स्वतन्त्र जीवात्मा है जो अपनी विकास-यात्रा पूरी करने के लिये किन्हीं माता-पिता के माध्यम से अवतार लेती है। उसकी इस यात्रा में सहयोग करना प्रत्येक माता-पिता का परम पावन कर्त्तव्य है। यों तो पिता का भी सहयोग, जिसके विन्दुयान में आकर जीवात्मा देही होने के लिये गर्भस्थ होती है, कुछ कम महत्त्व नहीं रखता। तथापि उसकी तुलना में माता का सहयोग बहुत महत्त्व रखता है। क्योंकि तदनन्तर माता ही उस गर्भ को धारण करती, पकाती और जन्म देने के बाद उसकी देख-रेख, रक्षा और पालन-पोषण करती है। यदि माता संस्कारवती, बुद्धिमती और सुयोग्य है। तब तो वह निश्चय ही उस शरणागत जीवात्मा को समुचित सांचे में ढालकर उसका बेड़ा पार कर देगी अन्यथा जन्म-मरण की चौरासी लाख योनियों की यातनाओं से विथकित तथा संत्रस्त वह जीवात्मा जो युग-युग के बाद किसी प्रकार मनुष्य की मांगलिक योनि का सुयोग प्राप्त कर सका है फिर उसी चक्र में लौट जायेगा और इस प्रकार उसका किनारे आया हुआ जीवन बेड़ा भव-सागर में डूब जायेगा। उसका जन्म उसकी यात्रा निष्फल हो जायेगी।
मदालसा एक ऐसी ही महान् एवं आदर्श माता थी। उसके गर्भ में त्राण पाने के लिये जिस जीवात्मा ने शरण लेकर उसके पुत्र रूप में जन्म लिया उसको दुबारा जन्म लेने की आवश्यकता न पड़ी। माता मदालसा के संस्कारों तथा उसकी शिक्षाओं ने उन्हें इस प्रकार विनिर्मित किया कि वे तत्त्व-ज्ञानी होकर भव-सागर के पार उतर गये। जिस मदालसा जैसी माता की, गर्भ काल से लेकर सन्तान के प्रबुद्ध होने तक की लोरियों तथा शिक्षाओं के बोल इस प्रकार के होते हों उसकी सन्तानें महान् से महानतम होकर उस परम गति को क्यों न पा लेंगी जो मानव जीवन की वास्तविक श्रेय मानी गई है—
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि,
संसार माया परिवर्जितोऽसि ।
संसार स्वप्नं त्यज मोहनिद्रां,
मदालसा वाक्यमुवाच पुत्रम् ।।
—‘‘हे पुत्र! तू अपनी जननी मदालसा के शब्द सुन। तू शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है, संसार की माया से रहित है। यह संसार स्वप्न मात्र है। उठ, जाग्रत हो, मोह निद्रा का परित्याग कर। तू सच्चिदानन्द आत्मा है, अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर।’’
संसार में आदि से लेकर अब तक जितने भी महान् एवं आदर्श पुरुष हुए हैं। उनके निर्माण में माता का विशेष हाथ रहा है। सुभद्रा को जितना गौरव अर्जुन की पत्नी होने से मिला उससे कहीं अधिक गौरव वीरवर अभिमन्यु की माता होने से प्राप्त हुआ है। वीर पत्नी होने का गौरव तो उन्हें अर्जुन से विवाह मात्र हो जाने से यों ही मिल गया किन्तु वीर माता होने का गौरव सुभद्रा ने अपनी योग्यता, संस्कार एवं संयम की निष्ठा से प्राप्त किया, स्वयं प्राप्त किया।
उन्हें इसका ज्ञान था कि गर्भकाल में बालक पर जो संस्कार डाले जाते हैं वे स्थायी तथा अमिट होते हैं। वे यह भी चाहती थीं कि उनका गर्भस्थ पुत्र पिता से बढ़कर यशस्वी तथा वीर बने। यदि वह मात्र पिता के गुणों तक ही पहुंच सका तो इसमें मुझ माता के सहयोग की क्या विशेषता रहेगी। बीज के अनुसार पौधे का होना तो स्वाभाविक ही है। यदि मैं अपने संस्कारों तथा शिक्षाओं द्वारा अपने पुत्र को पति के गुणों से अधिक गुणवान् बना सकी तो अपना मातृत्व सफल समझूंगी और वीर पुत्र की माता होने का गौरव ग्रहण करूंगी! और सुभद्रा ने वैसा ही कर दिखाया। जिस चक्र व्यूह का भेदन अर्जुन ने प्रौढ़ होकर गुरु द्रौण से एक दीर्घकालीन अभ्यास के बाद सीख पाया और तब भी उसकी परीक्षा का अवसर न दे सके। उसी चक्र व्यूह का भेदन सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु ने गर्भकाल में ही सीख लिया और सोलह वर्ष की आयु में ही एक साथ सात-सात महारथियों के छक्के छुड़ाकर उस शौर्य का परिचय देकर संसार को चकित कर दिया। यह सब पुत्र पर माता के संस्कारों उसके उच्चादर्शों तथा सन्तान निर्माण में विश्वास की कृपा थी।
पाण्डु जन्म जात रोगी थे। उन क्षीण वीर्य पिता के गर्भ को कुन्ती तथा माद्री जैसी महान् माताओं ने अपने तप, तेज, विद्या तथा निर्माण निष्ठा के बल पर युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव जैसे देवोपम पुत्रों में परिपक्व कर दिया। लोकमान्य तिलक निःसन्देह भारत के तिलक के समान ही महान् एवं पवित्र माने जाते हैं। उनमें इस महानता का विकास करने में उनकी माता का हाथ था। उनकी माता ने उज्ज्वल पुत्र रत्न पाने के लिये व्रत उपवासों तथा सूर्य की तपस्या में अपना जीवन ही समर्पित कर दिया था। जब लोकमान्य गर्भ में थे तब उनकी माता ने बड़े कठिन अनुष्ठान किये और व्रत रखे थे। वे कहा करती थीं कि मैंने पुत्र बाल गंगाधर को भगवान् सूर्य की कृपा से पाया है, यह अवश्य ही सूर्य की तरह तेजस्वी होगा। अपने विश्वास को चरितार्थ करने में मैं किसी प्रकार का प्रयत्न न उठा रखूंगी, फिर उसके लिये मुझे चाहे कितना ही नियम संयम का निर्वाह क्यों न करना पड़े। उन्होंने वैसा ही किया और उनका पुत्र भगवान् बाल गंगाधर तिलक के नाम से लोकमान्य हुये। आज भी उनका बलिदान, उनका यश भारतीय इतिहास में सूर्य के समान दैदिप्यमान हो रहा है और सदा सर्वदा होता रहेगा।
समाज, राष्ट्र तथा संसार को सदैव ही ऐसे नर रत्नों की आवश्यकता रहती है, फिर आज तो यह आवश्यकता बहुत बढ़ गई है। जरूरत है कि मातायें इस आवश्यकता का महत्त्व समझें और सन्तान पालन की योग्यता प्राप्त कर वीर तथा यशस्वी पुत्रवती बने। साथ ही समाज का यह कर्त्तव्य है कि उन मानव जाति की माताएं नारियों को वे सब सुविधायें तथा सुयोग पुरी तरह प्रदान करें जिससे कि वे शिक्षित सुयोग्य तथा संस्कारवती बनकर संसार को महान् तथा आदर्श पुत्र रत्नों से सजा दें।
माताओं का विकास हुये बिना संतानों का विकास नहीं हो सकता और संतानों के विकास के अभाव में समाज तथा राष्ट्र का उत्कर्ष होना संभव नहीं। हर भारतीय को इस आधार भूत क्रम को अच्छी तरह हृदयंगम कर उसके अनुसार अपना कर्त्तव्य निवाहते ही रहना चाहिये।