
भावी पीढ़ी का निर्माण यों कीजिए
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भावी पीढ़ी का निर्माण करिये’ बच्चों को अच्छा बनाइये। क्योंकि बच्चे ही कुछ समय में सयाने होकर आपकी जगह समाज और राष्ट्र का सारा भार अपने ऊपर लेंगे। लेंगे ही क्या, वह तो स्वतः उन पर आ ही जायेगा किन्तु एक सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना से स्वभावतः आने वाला भार भी जब दायित्वपूर्ण ढंग से संभाला जाता है तो उसका वहन सरलता और सुन्दरता से किया जा सकता है, और आने वाला भार जब अनजाने ही ऊपर आ पड़ता है तो उसको संभालने की ठीक-ठीक तैयारी न होने से वह एक दुर्वह बोझ ही बन जाता है। जिसे वहन तो करना ही पड़ता है, किन्तु उसमें वह वांछित सुख सुन्दरता नहीं रहती जो होनी चाहिए।
समाज को सुरक्षित बनाने के लिए वर्तमान पीढ़ी को अपने तुरन्त बाद आने वाली पीढ़ी को एक सुनिश्चित सामाजिक चेतना के साथ आगे बढ़ाना चाहिए—अर्थात् अपने बच्चों का निर्माण इस प्रकार करना चाहिए कि वे अपने को अपने समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग समझें, वे जो कुछ सोचें सामाजिक दृष्टिकोण से और जो कुछ करें समाज को ध्यान में रखते हुए ही करें।
आज भारतीय समाज दिन-दिन दुःखमय बनता चला जा रहा है। उन्नति और प्रगति के प्रचुर साधन होने पर भी इसकी उन्नति एवं प्रगति के सारे मार्ग अवरुद्ध-से दिखाई देते हैं। दिन-दिन इसमें बुराइयों की वृद्धि होने से संसार में इसकी साख घटती जा रही है। एक दिन संसार में सर्वोपरि कहा जाने वाला भारतीय समाज आज निम्नतर हो गया है। इसका क्या कारण है कि इसके सारे आदर्श, सारी संस्कृति और सारे साधन मौजूद हैं फिर भी यह दिन-दिन गिरता जा रहा है? इसका एकमात्र कारण यह है कि हमने सन्तान के प्रति अपने उत्तरदायित्व का सजगता के साथ पालन नहीं किया। संतति को जो गुण उत्तराधिकार में देते थे वे नहीं दे सके। स्वयं अंधेरे में भटके और सुकुमार बच्चों को भी अंधेरे में भटकने के लिए विवश किया।
लोग धर्म का अनुगमन करते हैं, संस्कृति एवं सभ्यता की बात करते हैं किन्तु अलग-अलग केवल अपने तक सीमित होकर। बड़े-बड़े व्यापारी, बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ, प्रकाण्ड विद्वान् और महान् से महान् व्यक्तित्व होने पर भी हमारा भारतीय समाज समग्र रूप से फिर भी कुछ नहीं दीखता। संसार में इसकी गणना पिछड़े हुए समाजों में ही की जाती है।
अस्तु, अपने समाज को प्रगतिशील बनाने के लिये आगामी पीढ़ी का नया निर्माण करना बहुत आवश्यक है। समाज में सुधार लाने के लिए निरन्तर प्रयत्न हो रहे हैं। किन्तु उनका कोई महत्त्वपूर्ण प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। इसका कारण यह है कि जो पीढ़ी आज समाज को चला रही है वह केवल अपने सुधार में लगी हुई है। जबकि आवश्यक यह है कि अपना सुधार करने के साथ-साथ बच्चों पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए।
प्रौढ़ों की अपेक्षा बच्चों का निर्माण अधिक सरल होता है। उनका मानसिक धरातल इतना कोमल और निर्विकार होता है कि उसमें बोये हुए बीज आसानी से फल-फूल सकते हैं। इसलिए सामाजिक कल्याण के लिए बच्चों का एक निश्चित रूप से निर्माण किया जाना चाहिये।
बच्चों के निर्माण के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उनके लिए कोई निर्माण करने वाली संस्थायें खोली जायें या उन्हें समय-समय पर एक जगह इकट्ठा करके किसी सामान की तरह उनका निर्माण किया जाये। बच्चों के निर्माण की जो संस्थायें हैं उनका लाभ तो उठाया ही जाना चाहिए किन्तु उन पर सर्वथा निर्भर नहीं रहना चाहिये। बच्चों का सबसे स्थायी और प्रभावपूर्ण निर्माण घर पर अभिभावकों के द्वारा ही हो सकता है।
बच्चों को प्रारम्भ से ही एक ऐसे वातावरण में रखना चाहिए। जिससे उनमें उदार भावनाओं का विकास हो। उनको भाई-बहनों से समता का व्यवहार सिखाया जाना चाहिये। जिन घरों में अनेक बच्चे होते हैं वहां बहुधा देखा जाता है कि कोई एक बच्चा माता-पिता का अधिक प्यारा होता है। उसको अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक विशेषता दी जाती है। यह व्यवहार उचित नहीं। इससे अन्य बच्चों में असमानता का भाव जागता है और वे आपस में एक-दूसरे से असमानतापूर्ण व्यवहार करना सीख जाते हैं।
बहुत बार छोटे बच्चों को बड़े बच्चों का इतना मातहत बना दिया जाता है कि बड़ा बच्चा दूसरे छोटे भाई-बहनों को बिल्कुल अपने सेवक समझ लेता है और अपना हर काम उनसे लेने का प्रयत्न करने लगता है। इससे बड़े बच्चे में अनुचित अधिकार और परावलम्बन की भावना पनपने लगती है और दूसरी ओर छोटे बच्चे में एक हीन भावना घर करने लगती है।
अनेक बार ऐसा होता है कि बच्चों की शिकायत सुनते समय अभिभावक किसी बच्चे का अनुचित पक्षपात कर बैठते हैं जिससे एक बच्चा ढीठ और दूसरा कायर हो जाता है। यदि इसी प्रकार के पक्षपात की पुनरावृत्ति बहुत बार होती है तो बच्चों में न्याय के प्रति अश्रद्धा का भाव पैदा हो जाता है।
अस्तु अनेक बच्चों के परिवार में बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिये जिससे उनमें समता, सत्यता, न्याय और पारस्परिकता का भाव जागे।
बच्चों से धीरे-धीरे क्रम से ऐसे काम लेने और सौंपने चाहिए जिससे वे करते समय अपने अन्दर एक उत्तरदायित्व अनुभव करें। इन कामों में से एक काम घर का हिसाब रखना भी हो सकता है। किन्हीं मित्रों अथवा सम्बन्धियों को प्रतिभोज अथवा खाने के समय उन्हें भोजन परोसने में मदद करना आदि। अधिकतर लोग करते यह हैं कि इस तरह के उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों और अवसरों पर बच्चों को अधिक-से-अधिक दूर रखते हैं जबकि उत्तरदायी बनाने के लिये यथासम्भव इन कामों में शामिल करना चाहिये।
उनको रहन-सहन, ओढ़ने-पहनने और उठने बैठने का एक सलीका सिखाना चाहिए जिससे उनमें अस्त-व्यस्तता अथवा लापरवाही का विकार पैदा न होने पावे। शिष्टाचार और मिलनसारियत सिखाने के लिये सम्बन्धियों और मित्रों के यहां जाते समय यथासम्भव उन्हें साथ ले जाना चाहिये इससे उनमें परिचय की जिज्ञासा का जन्म होगा और उनके परिचय का क्षेत्र बढ़ेगा।
यह ऐसी कुछ बातें हैं जिनका सम्बन्ध घर के लोगों के बीच व्यवहार से है। बच्चों को बाहर व्यवहार में आने वाली कुछ छोटी-मोटी बातों का भी ध्यान रखना चाहिये। जैसे वह अपने साथियों के साथ कैसा व्यवहार करता है? बाहर अपने से बड़ी आयु वालों के साथ कैसे पेश आता है? वह कहां किन-किन बातों में दूसरों से दबता है और कहां किन-किन बातों में दूसरों को दबाने का प्रयत्न करता है? यदि बच्चों सम्बन्धी ऐसी बातों का पता लगे तो उनमें तत्काल आवश्यक सुधार किया जाना चाहिए। उसके बाह्य व्यवहारों में एक संतुलन पैदा किया जाना चाहिए।
बच्चों में सामाजिकता और पारस्परिक स्नेह भाव उत्पन्न करने के लिए कभी-कभी पर्व आदिकों पर उसे अवसर दिया जाना चाहिए कि वह अपने साथियों को अपने घर चाय-पानी या भोजन करने के लिए आमन्त्रित करें। इससे उनमें आपस में स्नेह और विश्वास बढ़ेगा और अभिभावकों को उसके साथियों को पहचानने का अवसर मिलेगा।
अधिकतर अभिभावक बच्चों पर चारों ओर से एक घेरा डाले रहते हैं जिससे उनका व्यक्तित्व दबकर रह जाता है। उनकी अच्छी बुरी संगत पर ध्यान रखते हुये उन्हें अपने अनुरूप समाज में घुलने-मिलने और एक-दूसरे को जानने समझने में बाधा न दी जानी चाहिये।
यह सब बातें अपने बच्चों के साथ बर्ताव में लाने की है। कुछ ऐसी आवश्यक बातें भी हैं जो दूसरों के बच्चों के साथ व्यवहार में लाई जानी चाहिए। उनमें से सबसे पहली और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हर बच्चे को बिल्कुल अपने बच्चे के समान समझना और उससे प्यार करना चाहिए। कोई भी बच्चा किसी अभिभावक के सामने आकर यह न अनुभव करे कि वह किसी गैर के सामने खड़ा है उसे ऐसा अनुभव होना चाहिए कि वह अपने माता-पिता अथवा सगे-सम्बन्धी के सामने है। किसी भी बच्चे को कोई गलती या बुरा काम करते देखे तो उसे ठीक उसी प्रकार सुधारने की कोशिश की जानी चाहिए जैसे अपने बच्चे को।
अधिकतर देखने में आता है कि आपस में दो मित्र एक-दूसरे के अभिभावकों से या तो डरते हैं, या अजहद शरमाते हैं। यदि दो मित्र आपस में बैठे हैं और उनमें से किसी के अभिभावक आ जाते हैं तो वे दोनों एकदम सिट-पिटा जाते हैं। एक-दूसरे के घरों पर बैठे होने पर अभिभावकों के आने का समय होने पर खिसक चलते हैं। इसका मूल कारण यह है कि अभिभावक अपने बच्चों के मित्रों से परिचित नहीं होते और होते भी हैं तो उनसे ठीक अपने बच्चे जैसा व्यवहार नहीं करते।
समाज का निर्माण बच्चों के निर्माण से प्रारम्भ होता है। बच्चों का समुचित निर्माण तभी सम्भव है, जब हमारे उतने ही बच्चे हों जितनों का ठीक से पालन और देख-रेख की जा सके, जिनको शिक्षित और सुयोग्य बनाने के लिए हमारे पास साधन हों। परिस्थिति से परे अनावश्यक बच्चे पैदा करते जाने वाला गृहस्थ लाख प्रयत्न करने पर भी अपने परिवार और समाज का वांछित निर्माण नहीं कर सकता। जिस बोझ को उठाया ही नहीं जा सकता उसको लक्ष्य तक नहीं ले जाया जा सकता।
बच्चों को केवल भोजन-वस्त्र दे देना और उनकी शिक्षा के लिये प्रबन्ध कर देने मात्र से उनका निर्माण नहीं हो सकता। स्कूलों में बच्चों को केवल पुस्तकीय शिक्षा ही मिल पाती है। आचरण की शिक्षा, गुण, कर्म तथा स्वभाव की शिक्षा जो उनके निर्माण के लिए अत्यावश्यक है, वह आज के शिक्षालयों में नहीं मिलती है।
बच्चों के निर्माण में पिता का व्यक्तिगत आचरण बहुत महत्त्व रखता है। बच्चे सहज ही अनुकरणशील होते हैं, वे जैसा पिता को करते देखते हैं, वैसा ही सीख लेते हैं। अतः पिता को अपना रहन-सहन, आचार-विचार और स्वभाव उसके अनुकूल रखना चाहिये, जिस आदर्श में वह अपने बच्चों को ढालना चाहता है। यदि पिता अपने इस महान् दायित्व को समझे और अपने को त्याग, प्रेम, परिश्रम, पुरुषार्थ, सदाचार के आदर्श के रूप में प्रस्तुत करे तो कोई कारण नहीं कि उसके बच्चे वैसे न बन जायं। जो पिता स्वार्थी, क्रोधी, कर्कश और व्यसनी विलासी होता है, वह न तो आदर का पात्र रहता है और न उसके बच्चे ही अच्छे बन पाते हैं।
अभिभावकों के व्यक्तिगत आचरण के साथ परिवार का वातावरण भी बच्चों और सदस्यों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं। जिन घरों में दिन-रात लड़ाई-झगड़ा तथा आपा-धापी होती रहती है। उस परिवार के बच्चे और अन्य सदस्य परस्पर सहयोग का मूल्य नहीं समझ सकते। उनमें स्वार्थ और कलह की प्रमुखता हो जायगी। चाचा-ताऊ आदि जो भी सदस्य एक परिवार में रहते हैं, जो भी भाई-बहन एक घर में रहते हों उन सबको अपना तथा अपने बच्चों से अधिक ख्याल भाई-बहन के बच्चों और उन खुद का रखना चाहिये। परिवारों में बच्चों के प्रति अपना-अपना भाव रखने से ही अधिकतर कलह के अंकुर उगते हैं। यदि सब बच्चों को अपना बच्चा और अपने को उनका सगा अभिभावक समझा जाये और वैसा ही प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाये तो कोई कारण नहीं कि सबमें समान रूप से प्रेम-भाव न बना रहे और सारे बच्चे समान रूप से सारे गुरुजनों का आदर न करें अथवा अनुशासन न मानें। सारे प्रौढ़ सभी बच्चों को अपने बच्चे और सारे बच्चे सभी गुरुजनों को अपना शुभ-चिन्तक और अभिभावक मानकर वैसा ही आचरण करने लगें, तो निश्चय ही परिवार में दृढ़ता और स्थिरता के साथ-साथ सुख-शान्ति की परिस्थितियां रहने लगें।
इस प्रकार क्या अपना और क्या पराया हर समय हर बच्चे का नव-निर्माण ध्यान में रखते हुये हर समय व्यवहार किया जाना चाहिए। जिससे कि बच्चों की आने वाली नागरिक पीढ़ी कुछ सुधर कर आ सके।
*समाप्त*
समाज को सुरक्षित बनाने के लिए वर्तमान पीढ़ी को अपने तुरन्त बाद आने वाली पीढ़ी को एक सुनिश्चित सामाजिक चेतना के साथ आगे बढ़ाना चाहिए—अर्थात् अपने बच्चों का निर्माण इस प्रकार करना चाहिए कि वे अपने को अपने समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग समझें, वे जो कुछ सोचें सामाजिक दृष्टिकोण से और जो कुछ करें समाज को ध्यान में रखते हुए ही करें।
आज भारतीय समाज दिन-दिन दुःखमय बनता चला जा रहा है। उन्नति और प्रगति के प्रचुर साधन होने पर भी इसकी उन्नति एवं प्रगति के सारे मार्ग अवरुद्ध-से दिखाई देते हैं। दिन-दिन इसमें बुराइयों की वृद्धि होने से संसार में इसकी साख घटती जा रही है। एक दिन संसार में सर्वोपरि कहा जाने वाला भारतीय समाज आज निम्नतर हो गया है। इसका क्या कारण है कि इसके सारे आदर्श, सारी संस्कृति और सारे साधन मौजूद हैं फिर भी यह दिन-दिन गिरता जा रहा है? इसका एकमात्र कारण यह है कि हमने सन्तान के प्रति अपने उत्तरदायित्व का सजगता के साथ पालन नहीं किया। संतति को जो गुण उत्तराधिकार में देते थे वे नहीं दे सके। स्वयं अंधेरे में भटके और सुकुमार बच्चों को भी अंधेरे में भटकने के लिए विवश किया।
लोग धर्म का अनुगमन करते हैं, संस्कृति एवं सभ्यता की बात करते हैं किन्तु अलग-अलग केवल अपने तक सीमित होकर। बड़े-बड़े व्यापारी, बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ, प्रकाण्ड विद्वान् और महान् से महान् व्यक्तित्व होने पर भी हमारा भारतीय समाज समग्र रूप से फिर भी कुछ नहीं दीखता। संसार में इसकी गणना पिछड़े हुए समाजों में ही की जाती है।
अस्तु, अपने समाज को प्रगतिशील बनाने के लिये आगामी पीढ़ी का नया निर्माण करना बहुत आवश्यक है। समाज में सुधार लाने के लिए निरन्तर प्रयत्न हो रहे हैं। किन्तु उनका कोई महत्त्वपूर्ण प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। इसका कारण यह है कि जो पीढ़ी आज समाज को चला रही है वह केवल अपने सुधार में लगी हुई है। जबकि आवश्यक यह है कि अपना सुधार करने के साथ-साथ बच्चों पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए।
प्रौढ़ों की अपेक्षा बच्चों का निर्माण अधिक सरल होता है। उनका मानसिक धरातल इतना कोमल और निर्विकार होता है कि उसमें बोये हुए बीज आसानी से फल-फूल सकते हैं। इसलिए सामाजिक कल्याण के लिए बच्चों का एक निश्चित रूप से निर्माण किया जाना चाहिये।
बच्चों के निर्माण के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उनके लिए कोई निर्माण करने वाली संस्थायें खोली जायें या उन्हें समय-समय पर एक जगह इकट्ठा करके किसी सामान की तरह उनका निर्माण किया जाये। बच्चों के निर्माण की जो संस्थायें हैं उनका लाभ तो उठाया ही जाना चाहिए किन्तु उन पर सर्वथा निर्भर नहीं रहना चाहिये। बच्चों का सबसे स्थायी और प्रभावपूर्ण निर्माण घर पर अभिभावकों के द्वारा ही हो सकता है।
बच्चों को प्रारम्भ से ही एक ऐसे वातावरण में रखना चाहिए। जिससे उनमें उदार भावनाओं का विकास हो। उनको भाई-बहनों से समता का व्यवहार सिखाया जाना चाहिये। जिन घरों में अनेक बच्चे होते हैं वहां बहुधा देखा जाता है कि कोई एक बच्चा माता-पिता का अधिक प्यारा होता है। उसको अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक विशेषता दी जाती है। यह व्यवहार उचित नहीं। इससे अन्य बच्चों में असमानता का भाव जागता है और वे आपस में एक-दूसरे से असमानतापूर्ण व्यवहार करना सीख जाते हैं।
बहुत बार छोटे बच्चों को बड़े बच्चों का इतना मातहत बना दिया जाता है कि बड़ा बच्चा दूसरे छोटे भाई-बहनों को बिल्कुल अपने सेवक समझ लेता है और अपना हर काम उनसे लेने का प्रयत्न करने लगता है। इससे बड़े बच्चे में अनुचित अधिकार और परावलम्बन की भावना पनपने लगती है और दूसरी ओर छोटे बच्चे में एक हीन भावना घर करने लगती है।
अनेक बार ऐसा होता है कि बच्चों की शिकायत सुनते समय अभिभावक किसी बच्चे का अनुचित पक्षपात कर बैठते हैं जिससे एक बच्चा ढीठ और दूसरा कायर हो जाता है। यदि इसी प्रकार के पक्षपात की पुनरावृत्ति बहुत बार होती है तो बच्चों में न्याय के प्रति अश्रद्धा का भाव पैदा हो जाता है।
अस्तु अनेक बच्चों के परिवार में बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिये जिससे उनमें समता, सत्यता, न्याय और पारस्परिकता का भाव जागे।
बच्चों से धीरे-धीरे क्रम से ऐसे काम लेने और सौंपने चाहिए जिससे वे करते समय अपने अन्दर एक उत्तरदायित्व अनुभव करें। इन कामों में से एक काम घर का हिसाब रखना भी हो सकता है। किन्हीं मित्रों अथवा सम्बन्धियों को प्रतिभोज अथवा खाने के समय उन्हें भोजन परोसने में मदद करना आदि। अधिकतर लोग करते यह हैं कि इस तरह के उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों और अवसरों पर बच्चों को अधिक-से-अधिक दूर रखते हैं जबकि उत्तरदायी बनाने के लिये यथासम्भव इन कामों में शामिल करना चाहिये।
उनको रहन-सहन, ओढ़ने-पहनने और उठने बैठने का एक सलीका सिखाना चाहिए जिससे उनमें अस्त-व्यस्तता अथवा लापरवाही का विकार पैदा न होने पावे। शिष्टाचार और मिलनसारियत सिखाने के लिये सम्बन्धियों और मित्रों के यहां जाते समय यथासम्भव उन्हें साथ ले जाना चाहिये इससे उनमें परिचय की जिज्ञासा का जन्म होगा और उनके परिचय का क्षेत्र बढ़ेगा।
यह ऐसी कुछ बातें हैं जिनका सम्बन्ध घर के लोगों के बीच व्यवहार से है। बच्चों को बाहर व्यवहार में आने वाली कुछ छोटी-मोटी बातों का भी ध्यान रखना चाहिये। जैसे वह अपने साथियों के साथ कैसा व्यवहार करता है? बाहर अपने से बड़ी आयु वालों के साथ कैसे पेश आता है? वह कहां किन-किन बातों में दूसरों से दबता है और कहां किन-किन बातों में दूसरों को दबाने का प्रयत्न करता है? यदि बच्चों सम्बन्धी ऐसी बातों का पता लगे तो उनमें तत्काल आवश्यक सुधार किया जाना चाहिए। उसके बाह्य व्यवहारों में एक संतुलन पैदा किया जाना चाहिए।
बच्चों में सामाजिकता और पारस्परिक स्नेह भाव उत्पन्न करने के लिए कभी-कभी पर्व आदिकों पर उसे अवसर दिया जाना चाहिए कि वह अपने साथियों को अपने घर चाय-पानी या भोजन करने के लिए आमन्त्रित करें। इससे उनमें आपस में स्नेह और विश्वास बढ़ेगा और अभिभावकों को उसके साथियों को पहचानने का अवसर मिलेगा।
अधिकतर अभिभावक बच्चों पर चारों ओर से एक घेरा डाले रहते हैं जिससे उनका व्यक्तित्व दबकर रह जाता है। उनकी अच्छी बुरी संगत पर ध्यान रखते हुये उन्हें अपने अनुरूप समाज में घुलने-मिलने और एक-दूसरे को जानने समझने में बाधा न दी जानी चाहिये।
यह सब बातें अपने बच्चों के साथ बर्ताव में लाने की है। कुछ ऐसी आवश्यक बातें भी हैं जो दूसरों के बच्चों के साथ व्यवहार में लाई जानी चाहिए। उनमें से सबसे पहली और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हर बच्चे को बिल्कुल अपने बच्चे के समान समझना और उससे प्यार करना चाहिए। कोई भी बच्चा किसी अभिभावक के सामने आकर यह न अनुभव करे कि वह किसी गैर के सामने खड़ा है उसे ऐसा अनुभव होना चाहिए कि वह अपने माता-पिता अथवा सगे-सम्बन्धी के सामने है। किसी भी बच्चे को कोई गलती या बुरा काम करते देखे तो उसे ठीक उसी प्रकार सुधारने की कोशिश की जानी चाहिए जैसे अपने बच्चे को।
अधिकतर देखने में आता है कि आपस में दो मित्र एक-दूसरे के अभिभावकों से या तो डरते हैं, या अजहद शरमाते हैं। यदि दो मित्र आपस में बैठे हैं और उनमें से किसी के अभिभावक आ जाते हैं तो वे दोनों एकदम सिट-पिटा जाते हैं। एक-दूसरे के घरों पर बैठे होने पर अभिभावकों के आने का समय होने पर खिसक चलते हैं। इसका मूल कारण यह है कि अभिभावक अपने बच्चों के मित्रों से परिचित नहीं होते और होते भी हैं तो उनसे ठीक अपने बच्चे जैसा व्यवहार नहीं करते।
समाज का निर्माण बच्चों के निर्माण से प्रारम्भ होता है। बच्चों का समुचित निर्माण तभी सम्भव है, जब हमारे उतने ही बच्चे हों जितनों का ठीक से पालन और देख-रेख की जा सके, जिनको शिक्षित और सुयोग्य बनाने के लिए हमारे पास साधन हों। परिस्थिति से परे अनावश्यक बच्चे पैदा करते जाने वाला गृहस्थ लाख प्रयत्न करने पर भी अपने परिवार और समाज का वांछित निर्माण नहीं कर सकता। जिस बोझ को उठाया ही नहीं जा सकता उसको लक्ष्य तक नहीं ले जाया जा सकता।
बच्चों को केवल भोजन-वस्त्र दे देना और उनकी शिक्षा के लिये प्रबन्ध कर देने मात्र से उनका निर्माण नहीं हो सकता। स्कूलों में बच्चों को केवल पुस्तकीय शिक्षा ही मिल पाती है। आचरण की शिक्षा, गुण, कर्म तथा स्वभाव की शिक्षा जो उनके निर्माण के लिए अत्यावश्यक है, वह आज के शिक्षालयों में नहीं मिलती है।
बच्चों के निर्माण में पिता का व्यक्तिगत आचरण बहुत महत्त्व रखता है। बच्चे सहज ही अनुकरणशील होते हैं, वे जैसा पिता को करते देखते हैं, वैसा ही सीख लेते हैं। अतः पिता को अपना रहन-सहन, आचार-विचार और स्वभाव उसके अनुकूल रखना चाहिये, जिस आदर्श में वह अपने बच्चों को ढालना चाहता है। यदि पिता अपने इस महान् दायित्व को समझे और अपने को त्याग, प्रेम, परिश्रम, पुरुषार्थ, सदाचार के आदर्श के रूप में प्रस्तुत करे तो कोई कारण नहीं कि उसके बच्चे वैसे न बन जायं। जो पिता स्वार्थी, क्रोधी, कर्कश और व्यसनी विलासी होता है, वह न तो आदर का पात्र रहता है और न उसके बच्चे ही अच्छे बन पाते हैं।
अभिभावकों के व्यक्तिगत आचरण के साथ परिवार का वातावरण भी बच्चों और सदस्यों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं। जिन घरों में दिन-रात लड़ाई-झगड़ा तथा आपा-धापी होती रहती है। उस परिवार के बच्चे और अन्य सदस्य परस्पर सहयोग का मूल्य नहीं समझ सकते। उनमें स्वार्थ और कलह की प्रमुखता हो जायगी। चाचा-ताऊ आदि जो भी सदस्य एक परिवार में रहते हैं, जो भी भाई-बहन एक घर में रहते हों उन सबको अपना तथा अपने बच्चों से अधिक ख्याल भाई-बहन के बच्चों और उन खुद का रखना चाहिये। परिवारों में बच्चों के प्रति अपना-अपना भाव रखने से ही अधिकतर कलह के अंकुर उगते हैं। यदि सब बच्चों को अपना बच्चा और अपने को उनका सगा अभिभावक समझा जाये और वैसा ही प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाये तो कोई कारण नहीं कि सबमें समान रूप से प्रेम-भाव न बना रहे और सारे बच्चे समान रूप से सारे गुरुजनों का आदर न करें अथवा अनुशासन न मानें। सारे प्रौढ़ सभी बच्चों को अपने बच्चे और सारे बच्चे सभी गुरुजनों को अपना शुभ-चिन्तक और अभिभावक मानकर वैसा ही आचरण करने लगें, तो निश्चय ही परिवार में दृढ़ता और स्थिरता के साथ-साथ सुख-शान्ति की परिस्थितियां रहने लगें।
इस प्रकार क्या अपना और क्या पराया हर समय हर बच्चे का नव-निर्माण ध्यान में रखते हुये हर समय व्यवहार किया जाना चाहिए। जिससे कि बच्चों की आने वाली नागरिक पीढ़ी कुछ सुधर कर आ सके।
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