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Books - वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः

Media: TEXT
Language: HINDI
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स्वास्थ्य संवर्धन दीपयज्ञ

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   पैसे वाले, उच्च पदों पर बैठे और समाज का नेतृत्व करने वाले लोग, जैसा आचरण अपनाते हैं, उसे ही समाज में परम्परा के रूप में अपना लिया जाता है। किन्तु केवल परम्परा, लोगों के विश्वास, फैशन आदि के आधार पर अनमोल मानव जीवन को ही दांव पर लगा देना, समय और धन जैसी सम्पदाओं को खोते जाना, दुर्भाग्यपूर्ण है...

कार्यक्रम का उद्देश्य --

    शरीर की विकृति मन को एवं मन की विकृति कार्यो को प्रभावित करते रहती है और विकारों की एक श्रृंखला बनने लगती है। हमें समाज को इससे बचाना है।

यह कार्यक्रम जन्म दिवस संस्कार की तरह ही सम्पन्न होता है, किन्तु इसके लिए किसी के जन्म दिवस की प्रतीक्षा नहीं करनी है। आप देखेंगे कि इसमें कर्मकाण्डों का नियोजन इस प्रकार किया गया है, जिससे कुछ अतिरिक्त आवश्यकताएं भी पूर्ण होती हैं।

एक महत्त्वपूर्ण तथ्य और भी है। हमें ग्रामीण क्षेत्रों के स्वावलंबी समूहों द्वारा उत्पादित, स्वास्थ्य वर्धक उत्पादों को, शहरों में बेचना है। इसके लिए पश्चिमी ढंग के रीति- रिवाजों और खान- पान की अस्वास्थ्यकर परम्पराओं को बदल कर, प्राकृतिक अर्थात् आयुर्वेदिक मान्यताओं के आधार पर नये चाल चलन पुनर्स्थापित करने हैं। अतः उनकी जानकारी देना, उनका प्रयोग करके दिखाना, भी आवश्यक है। इसके लिए यह एक अच्छा अवसर है।

प्रारंभिक व्यवस्था --

    यह यज्ञ, घर परिवार के सामुहिक स्वास्थ्य लाभ के निमित्त कराया जा रहा है। यदि इसके निर्देशों को जीवन में उतारा जाए तथा लिए गए संकल्पों को पूरा किया जाए तो घर में सभी का स्वास्थ्य ठीक रहता है। इससे सुख- शांति बढ़ती है। इस प्रकार समुचित प्रचार किया जाए।

    निश्चित् दिन, घर को साफ कर, दीपयज्ञ हेतु आवश्यक सभी सुविधाएं जुटाई जाएं। पूजा वेदी पर पांच तत्वों के प्रतीक, पांच रंगीन चावल की ढेरियां, गीता, गाय का चित्र तथा तुलसी का गमले में लगा पौधा भी सजाकर रखा जाए। गीता न हो तो प्रज्ञापुराण अथवा अन्य युग साहित्य रखा जा सकता है। घर के सभी परिजनों की उपस्थिति में यह युग यज्ञ प्रारंभ हो।

   जयघोष एवं सामुहिक गायत्री मंत्रोच्चारण के पश्चात् संगठक प्रशिक्षक, आवश्यक मनोभूमि का निर्माण करने के लिए संक्षिप्त उद्बोधन दें।

प्रेरणा --

   अच्छे स्वास्थ्य का अर्थ होता है शरीर की सभी इन्द्रियां और मन, मस्तिष्क काम कर सकने की स्थिति में हों। दवाइयां अस्पताल और अच्छा उपचार, यह सब तो स्वास्थ्य बिगड़ने के बाद की बात है। मुख्य बात यह है कि स्वास्थ्य को बिगड़ने ही ना दिया जाए।

इस दुनिया में सारे तंत्र, परमात्मा ने बनाकर रख दिये हैं। इनके विपरीत चलने पर विनाशकारी परिस्थितियां बनती जाती हैं। हमारे हाथ में हमारा जीवन है, हम अपनी मर्जी से इसे चला सकते हैं। यदि लोगों को देखकर ही अपने जीवन की रीति- नीति तय करेंगे, तो जो सब भुगत रहे हैं, वही हमें भी भुगतना पड़ेगा। दुनिया में अधिकांश लोग, सामाजिक चलन या लोक व्यवहार को देखकर ही कार्य करते हैं इसीलिए सबको एक जैसी मुसीबतों और बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।

   परमात्मा का दिया, तन- मन यदि हम स्वतः अपनी करनी से नहीं संभालेंगे तो वह इसे वापस मांगेगा ही। आखिर उन्होंने किसी खास उद्देश्य से ही तो यह शरीर हमें दिया है।

हमारे पूर्वज ऋषियों ने व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन के प्रभावी सूत्र हमें दिये हैं। जब से हमने उन निर्देशों पर जीना छोड़ा है, हमारी सुख- शांति जाती रही है। आज इतनी धन संपदा, सुख सुविधा के रहते हुए भी, हम स्वस्थ व सुखी नहीं हो पा रहे हैं। जीवन छोटा सा और बड़ा कीमती है। आज आयोजित यह स्वास्थ्य संवर्धन दीपयज्ञ ईश्वर प्रदत्त हितकारी व्यवस्थाओं पर प्रकाश डालने वाला है। यदि हम श्रद्घापूर्वक इन व्यवस्थाओं को जी सके, तो निश्चित ही इस कार्यक्रम के माध्यम से, हमारा घर परिवार और समाज, स्वर्ग की तरह सुखी समुन्नत बन सकता है। बोलिये युगावतार महाकाल की... जय !

सभी लोग सद्बुद्घि की देवी, युग शक्ति मां गायत्री और मार्ग दर्शक गुरु सत्ता का ध्यान करें। कमर सीधी करके बैठें और समवेत स्वर में गायत्री महामंत्र का उच्चारण करें --
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात्

मंगलाचरणम् --

   मित्रों, शारीरिक एवं मानसिक विकारों के बढ़ जाने के कारण, आज लोगों का जीना मुश्किल हो गया है। शरीर के चिकित्सक व मनोचिकित्सक कम पड़ रहे हैं। बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं।

   युगावतार महाकाल की प्रेरणा से, आप इस यज्ञीय कार्यक्रम में आए हैं तो, सारी प्रक्रिया को हृदयंगम करने का प्रयास करें। आशा है कि इस सुयोग को आप अपने प्रयत्नों से अपना सौभाग्य जरूर बनाएंगे और अन्य लोगों को भी प्रेरणा देंगे।

दैवीय अनुग्रह के प्रतीक स्वरूप अक्षत- पुष्प की वर्षा आप पर की जा रही है... उसे श्रद्घापूर्वक स्वीकार करें।
  (स्वयं सेवक उपस्थित परिजनों पर अक्षत पुष्प का सिंचन करें)

ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा, भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरंगै स्तुष्टुवा, स्वस्तनुर्भिः व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥

पवित्रीकरणम् --

   पवित्रता को धारण करना, ईश्वरीय अनुदानों को प्राप्त करने की पहली शर्त है। पंच तत्वों से बना हमारा शरीर सूक्ष्म भावनाओं और प्रेरणाओं के माध्यम से ही कार्य करता है।

मौज मस्ती और भोग विलास के विचार स्वतः ही आ जाते हैं। यदि संयम और वैचारिक पवित्रता का अनुशासन नहीं हो तो अति भोग और विकृतियों से शरीर कमजोर होने लगता है, व्याधियां घर कर जाती हैं। स्वाध्याय एवं सत्संग द्वारा मान्यताओं, विचारों और कार्यो को पवित्र बनाना ही पवित्री करण का उद्देश्य है।

इस यज्ञ के प्रारंभ में आप सभी पर पवित्र जल का सिंचन हो रहा है। आप दोनों हाथ गोद में रखकर ईश्वर का ध्यान करें और इस पवित्रता को अंतःकरण में धारण का भाव करते हुए सूत्र दोहराते चलें --

(स्वयंसेवक पवित्र जल का सिंचन प्रारंभ करें)
ॐ पवित्रता मम मनः काय अंतः करणेषु संविशेत्।
सूर्यध्यान प्राणायामः --

व्रत, उपवास, योग, व्यायाम, प्राणायाम आदि क्रियाओं से हम प्राण शक्ति बढ़ा सकते हैं। प्राण शक्ति बढ़ने से ही शरीर में रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ती है और संयम को बल प्राप्त होता है। जैसे- जैसे हम बुराइयों का परित्याग करेंगे और सत्कर्म करते चलेंगे, हम प्राणवान होते जाएंगे।

    प्रतीक रूप में आइये एक बार प्राणाकर्षण प्राणायाम करें। सविता देवता सूर्य अथवा पूज्य गुरूदेव का ध्यान करते हुए एक लंबी श्वांस खींचें थोड़ी देर रोकें और फिर धीरे- धीरे छोड़ें। भावना पूर्वक संकल्प करें, कि श्वांस के माध्यम से हमारे अंदर दिव्य ऊर्जा प्रवेश कर रही है जो हमारे मन, बुद्धि अंतःकरण एवं प्रत्येक अंग- अवयव में ऊर्जा का संचार कर रही है।

   अब प्राणायाम की प्रक्रिया प्रारंभ करें --
ॐ विश्वानि देव सवितः दुरितानि परासुव यदभद्रं तन्न आसुव॥

चंदन धारणम् --

   इस स्वास्थ्य संवर्धन दीपयज्ञ में शामिल होने आए भाई बहन एक दूसरे के सौभाग्य की सराहना करते हुए एक दूसरे को तिलक करेंगे। अपने आचार विचार से एक दूसरे की सुख- शांति बढ़ाने के प्रयास करेंगे। अपने प्रयासों से समाज में, खानपान व लोक व्यवहार की स्वस्थ परंपराओं की शुरूवात करेंगे और दूसरे के प्रयासों में सहयोग भी करेंगे।

तिलक धारण करते समय सभी लोग भगवान को आश्वासन दें, कि हम मस्तिष्क शांत रखेंगे। शरीर और मन को स्वस्थ रखने के लिए, तर्क बुद्घि की कसौटी पर खरा व्यवहार अपनाएंगे। क्रोध आवेश आदि मानसिक विकारों को दूर करने के प्रयास, अपने परिवार में करते रहेंगे। उत्तम कार्यो के निर्धारण के लिए विवेक बुद्घि को स्थायी आधार बनाएंगे तथा संयम व सेवा के मार्ग पर चलकर गौरव का अनुभव करेंगे।

अपनी अनामिका उंगली पर रोली चंदन लेकर मन में भावना जगाते हुए यह सूत्र दोहराएं --
ॐ मस्तिष्कं शान्तम् भूयात.... ॐ अनुचितः आवेशः मा भूयात.... ॐ शीर्षम् उन्नतं भूयात।
अब गायत्री महामंत्र का उच्चारण करते हुए एक दूसरे के माथे पर तिलक करें

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात् ।।

संकल्प सूत्र धारणम् --

(स्वयं सेवक संकल्प सूत्र बांटने की व्यवस्था कर दें)

मित्रों, देवताओं की कृपा मात्र मंत्रोच्चार करने से नहीं मिलने वाली। उनके दिये शरीर को हम जिन उपायों से नष्ट कर रहे हैं, उन्हें बंद करने का तथा शरीर को सक्षम व सक्रीय बनाए रखने हेतु प्राकृतिक विधियों (आचार- विचार) को दैनिक जीवन में अपनाने का, संकल्प भी हमें लेना होगा।

   सीमित मात्रा में संतुलित भोजन लें, एक बार कुछ भी खाने के कम से कम छः घंटे बाद ही दुबारा कुछ खाएं। बिना भूख के ना खाएं। अस्वाभाविक आहार लेकर, पवित्र शरीर को गंदा ना करें। उचित व्यायाम करें व सक्रीय रहें। मन में कुविचार न आने दें। उपासना, स्वाध्याय व सत्संग से उसे नियंत्रित संयमित रखें और दूसरों को भी इसी प्रकार प्रेरणा देकर, जीवन को ईश्वरीय अनुशासन में रखने की शिक्षा भी देते रहें।

दिन भर कुछ न कुछ खाते रहना, तामसी बांसी व मांसाहारी भोजन की आदत, आराम तलब जीवन शैली, गंदा साहित्य पढ़ना, गंदे चित्र देखना, महिलाओं बच्चों व बुजुर्गो से दुर्व्यवहार करना, झूठ बोलना, चोरी करना, षडयंत्र करना, हराम की कमाई करना आदि वर्जित आचरण हैं।
  तीसरी महत्त्वपूर्ण बात जिसका संकल्प हमारे मन में उभरना चाहिए, वह है -- गुरु के निर्देशों पर जीवन चलाना। पूज्य गुरूदेव ने युग की परिस्थितियों को देखते हुए, हमारे लिए उचित निर्देश अपने साहित्य में लिख रखें हैं। हमें उनका अध्ययन मनन करके उन्हीं के आधार पर अपना जीवन चलाना चाहिए।

  संकल्प लेने से अधिक महत्त्वपूर्ण है उसे पूरा करने के लिए सच्चे मन से प्रयास करना। शरीर रूपी यह अनमोल उपहार, किसी खास उद्देश्य की पूर्ति हेतु, हमें देवताओं से प्राप्त हुआ है। यदि हम आज की परिस्थितियों में दैवीय सहयोग चाहते हैं, तो हमें अपने मन में संकल्प लेना होगा कि हम गुरू के निर्देशों पर चलेंगे और वर्जित आचरणों का त्याग करेंगे।

अब सभी परिजन रीढ़ सीधी करके बैठें। सूत्र को बाएं हाथ में लेकर उसे दाहिने हाथ से ढंक लें तथा संकल्प सूत्र दोहराते चलें --
ॐ मर्यादाम् चरिष्यामि.... ॐ वर्ज्यम् नो चरिष्यामि....
ॐ ईशानुशासनम् स्वीकरोमि।
अब गायत्री मंत्र कहते हुए एक- दुसरे को संकल्प सूत्र बांधें...
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात्।

   अब दोनों हाथ जोड़कर श्रद्घापूर्वक यह प्रार्थना दोहराएं- हे महाकाल.. उज्ज्वल भविष्य की रचना के लिए, अपने संकल्पों को पूरा करने के लिए, हमें उपयुक्त शक्ति -- मनोवृत्ति तथा प्रेरणा दें। हे प्रभु.. हमारे संकल्प पूरे हों, हम सुख सौभाग्य, श्रेय पुण्य तथा आपकी कृपा के अधिकारी बनें। आपसे दिव्य अनुदान पाने तथा उन्हें जन- जन तक पहुँचाने की हमारी पात्रता बढ़ती रहे...

बोलिए युगावतार महाकाल की जय।

कलश पूजनम् --

    आज लोगों का शरीर तथा मन ठीक नहीं है। उनके द्वारा ऐसे- ऐसे कर्म हो रहे हैं, जिनसे उनके मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही पूरा नहीं होता। हालात ऐसे हैं कि, जिन्हें सारे विश्व को सुखी समृद्घ करना है, वे स्वतः ही दीन- हीन अवस्था में दिन काट रहे हैं। अतः सभी परिजन दोनों हाथ जोड़कर भावना पूर्वक दैवी शक्तियों से प्रार्थना करें --

हे देव शक्तियों हम आपको इस युगयज्ञ में, श्रद्घा पूर्वक आमंत्रित करते हैं। पूजा वेदी पर स्थापित पवित्र कलश में, आप स्थान ग्रहण करें। हमारा मन अज्ञान के अंधकार में भटक रहा है। अहंकार से भरे मन में श्रद्घा का अभाव है। सब कुछ जानकर भी हम सत्कर्म में प्रवृत्त नहीं हो पाते, आप इस कमजोरी को दूर करने में हमारी मदद करें, ताकि हम सदा सुख से जीयें और प्रसन्न रह सकें।

   कलश के विभिन्न भागों में, विभिन्न देव शक्तियों की उपस्थिति का भाव करते हुए, अपनी श्रद्घा समर्पित करें तथा प्रतिनिधी अक्षत पुष्प हाथ में लेकर पूजन करें --

ॐ कलशस्य मुखे विष्णुः, कण्ठे रुद्रः समाश्रितः।
मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा, मध्ये मातृगणाः स्मृताः॥
कुक्षौ तु सागराः सर्वे, सप्तद्वीपा वसुन्धरा।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः, सामवेदो ह्यथर्वणः ॥
अंगैश्च संहिताः सर्वे, कलशन्तु समाश्रिताः।
अत्र गायत्री सावित्री, शान्ति- पुष्टिकरी सदा॥
त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि, त्वयि प्राणः प्रतिष्ठिताः।
शिवः स्वयं त्वमेवासि, विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः॥
आदित्या वसवो रुद्रा, विश्वेदेवाः सपैतृकाः।
त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि, यतः कामफलप्रदाः॥
त्वत्प्रसादादिमं यज्ञं, कर्तुमीहे जलोद्भव ।।
सान्निध्यं कुरु मे देव ! प्रसन्नो भव सर्वदा ॥
प्रसन्नो भव सर्वदा ॥
   सभी परिजन श्रद्घापूर्वक नमन करें --

ॐ नमो स्त्वनंताय सहस्त्रमूर्तये, सहस्त्रपादा क्षिशिरोरूहावहे।
सहस्त्र नाम्ने पुरूषाय शाश्वते, सहस्त्रकोटि युगधारिणे नमः॥

देव शक्तियाँ और उनका पूजन --

   यहां देव मंच पर पवित्र कलश के अतिरिक्त गुरू, गायत्री एवं कामधेनु गाय का चित्र, तुलसी का पौधा तथा गीता को भी स्थापित किया गया है। साथ ही पंचतत्वों पृथ्वी, जल, वायु, अग्रि और आकाश के प्रतीक भी स्थापित हैं। अब हम इनका पूजन करेंगे।

पूज्य गुरूदेव ने कृपा करके, हमें युग निर्माण योजना से जोड़ दिया है। माता- पिता व गुरू की तरह वे हमें पोषण व मार्गदर्शन देते रहते हैं। सिद्घी दात्री, युग शक्ति गायत्री हमें उन्हीं की कृपा से प्राप्त हुई है। इनसे अनुदान पाने का एक ही तरीका है, गुरू के निर्देशों पर जीवन जीया जाए। यही गुरू की जय करने का सही तरीका है।

द्वापर युग में भी परिवर्तन की प्रक्रिया सम्पन्न हुई थी जिसे उस समय की अवतारी सत्ता भगवान कृष्ण ने सम्पन्न किया था। उन्होंने जन मानस को आन्दोलित करके उस युग में यह प्रक्रिया अपने निर्देशन में पूर्ण कराई थी। आज भी उन निर्देशों को भगवत् गीता के रूप में पूजा जाता है।
   उन्होंने तन और मन दोनों को शक्तिशाली बनाने का जो मार्ग उस समय दिया था, वही मार्ग आज भी प्रासंगिक है। आज स्वास्थ्य संवर्धन दीपयज्ञ के देव मंच पर हम उन्हीं दैवी शक्तियों का पूजन संवर्धन कर, उनसे अनुदान प्राप्त कर सकेंगे।

कामधेनु (गाय) का पूजन --

   कृषि के बढ़ते रासायनीकरण, कारखानीकरण एवं यांत्रिक परिवहन आदि से भूमि, जल, वायु तेजी से प्रदूषित हो रहे हैं। इस प्रदूषण से प्रभावित विशाक्त भोजन को ग्रहण करने से हमारा स्वास्थ्य खराब होता है। गौ आधारित नई अर्थव्यवस्था की स्थापना में सहयोग देकर, हम जन स्वास्थ्य के संवर्धन में योगदान कर सकते हैं। यदि हम गोपालन, गौ संवर्धन के उपाय आरंभ कर दें और गौ आधारित कृषि के उत्पादों को खरीदें, तो गौ दूध, घी, दही जैसे पोषक तत्व, हमें प्रसाद रूप में प्राप्त हो सकते हैं। साथ ही गोबर, गोमूत्र जैसी अनेक औषधियां भी हमें प्राप्त हो सकती हैं जिनसे हम अपना स्वास्थ्य संरक्षण कर सकेंगे।

तुलसी का पूजन --

   यूं तो भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन पूजा के रूप में वृक्षारोपण, हरीतिमा संवर्धन भी किया था, जो आज भी प्रासंगिक है। किन्तु अपने घर परिवारों में तुलसी रोपण का चलन बढ़ाकर, हम पर्यावरण शोधन के साथ- साथ स्वास्थ्य संवर्धन भी आसानी से कर सकते हैं। तुलसी महिमा पर अनेकों ग्रंथ हैं, हमें उनके अध्ययन से, ज्ञान प्राप्त कर लाभ उठाना चाहिए।

युग गीता का पूजन --

   भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर युग में अपने शिष्य सखा अर्जुन का मार्गदर्शन किया था। उसी प्रकार आज की परिस्थिति में पूज्य गुरूदेव ने युगधर्म की व्याख्या, युग साहित्य में की है। हम विभिन्न साधना पद्घतियों की खोज में समय व्यर्थ ना गवांकर, उनके निर्देशानुसार जुट जाएं, तो अनेक मानसिक अन्तर्द्वन्दों से हमें मुक्ति मिल सकती है। श्रेष्ठ कार्यो के लिए हमारा समर्पण, हमें अनेक मानसिक बुराइयों से मुक्त करा सकता है। जिसके लिए लोग न जाने क्या- क्या कठोर साधनाएं करते फिरते हैं।

पंचतत्व पूजन --

  पंचतत्वों के नाम गिनाकर, शरीर को इनसे बना हुआ एक नश्वर पदार्थ कह देना आसान है। महत्त्वपूर्ण हैै इन पंचतत्वों से बने शरीर को ईश्वरीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सक्रीय रखना। अतः इनकी सही जानकारी हमें होनी चाहिए। इन्हीं की कमी व अधिकता से शरीर तथा मन रोगी या विकृत होते हैं... और इन्हीं के प्रयोग से उन्हें स्वस्थ भी किया जा सकता है।

   आकाश तत्व सबसे सूक्ष्म व प्रभावी है। इसी से स्थूल तत्वों क्रमशः वायु, अग्रि, जल तथा पृथ्वी तत्व की उत्पत्ति हुई है। हमारे शरीर के अंग- प्रत्यंगों में, विभिन्न तत्वों की प्रमुखता है।

आकाश तत्व से स्वास्थ्य लाभ --

   इसे महत् तत्व भी कह सकते हैं। इसकी शक्ति ही प्राण है। इसे प्राप्त करने का माध्यम है, उपवास। भूख से कुछ कम भोजन करने से इस तत्व की पूर्ति होती है। दिन भर का उपवास यदि ना हो सके, तो एक समय अन्न का त्याग करना भी लाभप्रद होता है। आकाश तत्व से लाभ प्राप्त करने के अन्य उपाय हैं -- संयम, ब्रह्मचर्य, सदाचार, मानसिक अनुशासन व संतुलन, विश्राम, शिथिलीकरण, प्रसन्नता, मनोरंजन एवं गहरी नींद।

वायुतत्व से स्वास्थ्य लाभ --

   वायु के घटकों में सबसे उपयोगी तत्व है, ऑक्सीजन। यह बहुत ही शक्तिशाली तत्व है, अन्य तत्व इसी की उपस्थिति से जलते हैं और ताप व प्रकाश उत्पन्न करते हैं। वायु का एक महत्त्वपूर्ण भाग ओजोन भी है। पहाड़ पर ले जाकर क्षय रोगियों की प्राण रक्षा इसी ओजोन द्वारा की जाती है।

   हम प्रायः बाएं और दाएं नथुने से क्रमशः ढ़ाई- ढ़ाई घड़ी तक श्वास लेते हैं। दोनों नथुनों से एक साथ बहुत कम श्वास लेते हैं। बाएं से श्वास चलने पर इड़ा या चंद्र स्वर चलना तथा दाहिने से श्वास चलने पर पिंगला या सूर्य स्वर चलना कहते हैं। जिस समय वाम स्वर चल रहा हो, तब स्थिर सौम्य व शांत प्रकृति वाले कार्य करने से लाभ होता है। जैसे भजन पूजन, चिकित्सा, दान, यज्ञ, विद्यारंभ, बीज बोना, मित्रता करना आदि। जब दक्षिण स्वर चल रहा हो, तब कठिन व श्रमशील कार्यो को करना चाहिए। जैसे व्यायाम, विषय भोग, कठोर श्रम, भोजन पाचन आदि।

   जब दोनों स्वर साथ- साथ चलें तो सुषुम्रा चलना कहते हैं। ऐसे अवसर पर ध्यान, चिंतन, योगाभ्यास आदि करने से शीघ्र सिद्घी मिलती है। किन्तु सूर्य, चंद्र स्वर में करणीय कार्य इस समय नहीं करने चाहिए, नहीं तो वे बिगड़ जाते हैं।

सौ दवा एक हवा --

  वायु ही प्राण है। अग्रिहोत्र से इसकी शुद्घि होती है। श्वास के अतिरिक्त त्वचा के करोड़ों छिद्रों से भी इसका अवशोषण लगातार होते रहता है। वायु सेवन के लिए, शुद्घ हवा में टहलना सर्वोत्तम है। योगासन व प्राणायाम करना, मालिश करना, दौड़ना, तैरना आदि भी वायु तत्व प्राप्ति के अन्य अच्छे उपाय हैं।

अग्रि तत्व से स्वास्थ्य लाभ --

   अग्रि, ईश्वर का प्रत्यक्ष दृश्य रूप है। गायत्री मंत्र, इस तत्व के अधिष्ठाता सूर्य की ही उपासना का मंत्र है।

सूर्य से बुद्घि और दीर्घ आयुष्य प्राप्त होता है। प्रातः कालीन उदीयमान सूर्य से नीलोत्तर किरणें (अल्ट्र्रा वॉयलेट रेंज) निकलती हैं, जो रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाकर स्वास्थ्य लाभ कराती हैं। सूर्य के सम्मुख जब जलधार छोड़ी जाती है, तब जल में से पार निकलने वाली यही किरणें लाभकारी होती हैं। रविवार सूर्योपासना के लिए आदर्श है। इस दिन तेल, नमक व स्त्री संसर्ग का त्याग करना चाहिए।

अग्रि तत्व की प्राप्ति.... सूर्योपासना, नवग्रह चिकित्सा, सूर्य रश्मि जल चिकित्सा, सूर्य स्नान, भाप स्नान, गर्म जल के प्रयोग से उपचार, गर्म जल का एनीमा, गर्म जल का कटि स्नान, उष्ण पाद स्नान तथा विभिन्न प्रकार की सेकाई आदि उपायों द्वारा की जा सकती है।

जल तत्व से स्वास्थ्य लाभ --

  जल सर्व प्रधान औषधि है। इसके सेवन से जीवन सुखमय बनता है और शरीर की अग्रि भी आरोग्य वर्धक हो जाती है।

  जल, रोगों का दुश्मन है और सभी रोगों का नाश करता है। हमारे शरीर का 7० प्रतिशत भाग जल ही है। रक्तचाप, श्वसन, पाचन, मल विसर्जन जैसी महत्त्वपूर्ण क्रियाएं, इसी से सम्पन्न होती हैं। ठंडे जल, गर्म जल, खनिज जल आदि के अनेक चिकित्सकीय प्रयोग होते हैं। विभिन्न प्रकार के स्नान जैसे नदी स्नान, कटि स्नान, साधारण स्नान, योनि स्नान आदि तथा सर या पेट की गीली पट्टी, उषापान, कुंजल क्रिया, एनीमा, शंख प्रक्षालन, मेहनसन आदि.... जल तत्व के कुछ प्रमुख चिकित्सकीय प्रयोग हैं। जिनसे ना केवल शरीर की भीतरी- बाहरी सफाई होती है, बल्कि सभी तरह के रोग ठीक भी होते हैं। ऐसे प्रयोगों की जानकारी प्राप्त करके लाभ उठाना चाहिए।

पृथ्वी तत्व और स्वास्थ्य --

     जिन पांच तत्वों से हमारा शरीर बना है, उनमें पृथ्वी तत्व सबसे प्रमुख है।

हमारे सारे खाद्य पदार्थों का स्त्रोत मिट्टी है। सभी प्रकार की धातुएं और खनिज लवण मिट्टी में ही पाए जाते हैं। अतः आहार चिकित्सा विज्ञान (फलाहार, रसाहार आदि) इसी तत्व की चिकित्सा प्रक्रिया है।

    मिट्टी में कई प्रकार की शक्तियां हैं, जैसे -- यह दुर्गंध मिटाती है, सर्दी गर्मी रोकती है, जल को स्वच्छ करती है, विष का नाश करती है, वनस्पतियों का पोषण करती है। मिट्टी की पट्टी और मिट्टी का स्नान अनेक रोगों को दूर करता है।

ये पांच दैवी तत्व प्रत्यक्ष देवता हैं। हमारा शरीर इन्हीं से बना है, अतः हमें इनकी पूर्ण जानकारी तो रखनी ही चाहिए। यह हास्यास्पद तथ्य है, कि हम चांद तारों की, देश विदेश की सब की जानकारी रखते हैं, किन्तु हमें अपने ही शरीर की जानकारी नहीं है। यही कारण है कि, थोड़ा स्वास्थ्य गड़बड़ाया नहीं कि हम घबड़ा जाते हैं। स्वतः अपने आपको ठीक करने की नहीं सोचते। जबकि हम ऐसा आसानी से कर सकते हैं और हमें ऐसा करना भी चाहिए। पूज्य गुरूदेव ने 2० चमत्कारी जड़ी बूटियों का एकौषधि प्रयोग हमारे सम्मुख रखा है। पंचगव्य चिकित्सा, तुलसी चिकित्सा जैसे उपाय विस्तार से बताए हैं।

आइये अब उसी गुरू सत्ता का आवाहन पूजन करें, जिन्होंने इस दुनिया का सारा ज्ञान हमें दिया और समस्त दैवी शक्तियों से हमारा परिचय कराया है।

गुरु वन्दना --

   प्रतिनिधी हाथ में अक्षत् पुष्प ले लें... अन्य सभी भावनात्मक पूजन सम्पन्न करें --

अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चरा चरम्।
तत्पदं दर्शितम् येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्ग दर्शिका।
नमोऽस्तु गुरुसत्तायै,
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