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Books - विज्ञान को शैतान बनने से रोकें

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खबरदार इस पानी को पीना मत—खतरा है

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प्रजागण का प्रश्न था—पितामह हमें आरोग्य रक्षा की सरल विधि बताइये।

महर्षि ने बताया—

‘‘सर्वेषाम् भेषजम अप्सुमे’’ । ‘‘जीवनां जीवनम् जीयोजमत्’’ । —ऋग्वेद

हे मनुष्यो! जल प्राणियों का प्राण है मैंने तुम्हारे लिए सभी प्रकार की औषधियां जल में सुरक्षित रखी हैं।

आपो इद्वां उभेषजोरायो अभीव चातकी । आपस सर्वस्य भेषजो स्तास्तु कृष्णन्तु भेषजः ।।

यह जल औषधि है रोगों को नाश करने वाला उनका शत्रु है। यह तुम्हारे सभी रोग दूर करेगा। ‘‘अप्स्वन्तर यमृतमप्नु’’ (अथर्ववेद) अधिक क्या कहना यह जल तो अमृत है। जल के महत्व को भारत ही नहीं विश्व के सभी देश और वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। फिनलैंड में हजारों वर्ष से शनिवार के दिन सामूहिक स्नान करने की प्रथा है। बड़े घरों में लोग गृह-वाटिकाओं में तालाब रखते हैं। जर्मनी में कटि स्नान और जल-चिकित्सा को व्यापक महत्व दिया गया है। वहां के वैज्ञानिक ब्राण्ड लीभर मीस्टर तथा जीम सीन ने जल-चिकित्सा पर शोध कीं और उसे बहुत लाभकारी बताया जिससे वहां जल-चिकित्सा का सर्वत्र प्रसार हुआ। कुछ तो गांव के गांव ऐसे हैं जहां घर-घर जल-चिकित्सा होती है। अमेरिका के फिलाडेलिफिया, न्यूयार्क वर्जीनिया, पेंसिलवेनिया में जल-चिकित्सा का बहुत प्रसार हुआ है। वियना के वैज्ञानिक विन्टरनीज ने अपने यहां जल-चिकित्सा के क्लास चलाये। रोम, जापान, चेकोस्लोवाकिया में प्राकृतिक झरनों आदि में स्नान का प्रचलन है वहां स्नान पर वैज्ञानिक खोजें हुई हैं। भारतवर्ष में तीर्थों के महत्व के साथ वहां स्नान का महत्व अनिवार्य रूप से जुड़ा है। गंगाजी का जल तो अमृत की तरह पूज्य माना गया है। यह सब देखते हुए उसे प्राणियों का प्राण कहा जाये तो उसमें जरा भी अत्युक्ति नहीं। आयुर्वेद का कथन है—प्रातःकाल सोकर उठते ही एक गिलास शीतल जल पीने वाला सदैव नीरोग रहता है, मस्तिष्क शीतल, पेट का पाचन संस्थान मजबूत, आंखों में चमक रहती है शुद्ध जल मनुष्य मनुष्य का जीवन है उसके बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता है।

खेद है कि जल को इतना अधिक महत्व देने और उसकी शुद्धता को अनिवार्य मानने वाली मनुष्य जाति ही आज उसे गन्दा करके स्वयं भी नष्ट होने, बीमार और चिर रोगी होने के सरंजाम जुटा रही है। अमरीका के प्रसिद्ध विचारक श्री आर्थर गाडफ्रे एक संस्मरण में लिखते हैं—मैं उन दिनों हैसब्राडक हाइट्स पढ़ने जाता था उन दिनों न्यूजर्सी में सैडिल नदी के तट पर पहला कारखाना लगा था, कारखाने की कीचड़-बदबू इस तरह से उस पर गिरती थी कि हम लोग स्नान नहीं कर सकते थे। स्वार्थी और पेटार्थी लोगों ने हमारे निवेदन को नहीं सुना था और अब तो पैसाइक, हैकेनसैक खाड़ी, हडसन सारी नदियां नरक कुंड बन गई हैं सारा जल दूषित हो गया। मनुष्य जाति जल को दूषित कर आत्मघात की तरह स्वयं रोगी बनने जा रही है इसे उसकी भूल नहीं मूर्खता ही कहा जा सकता है। वायु प्रदूषण के समान आज जल-प्रदूषण भी संसार के सामने एक महंगी समस्या बन गया है। अधिकांश शहर नदियों के तट पर बसे होते हैं, भारी उद्योग शहरों में ही होते हैं। कनाडा आदि विकसित देशों में तो हाइपीरियन जैसे टैंक भी बनाये गये हैं जो शहरों का मल और गन्दगी को साफ कर देते हैं केवल शुद्ध किया हुआ जल ही नदियों में गिरने देते हैं किन्तु भारतवर्ष में तो शहरों के लाखों लोगों का मल-मूत्र भी नदियों में ही गिराया जाता है। गंगा आदि काल से हमारी संस्कृति का अंग वर्ष की 12 अमावस्याओं के 12 स्नान तो निश्चित ही हैं पर्व और त्यौहार अलग जिनमें आज भी करोड़ों लोग स्नान करते और बर्तनों में जल भर ले जाते हैं, आज अधिकांश मल-मूत्र का प्रवाह हो गई है। ऋषिकेश के एण्टी बापोटिक कारखाने से लेकर कजकत्ते तक उसमें कितना मैला, कूड़ा-कचरा गिरता है उसकी याद करने मात्र से जी सिहर उठता है और लगता है आज सचमुच ही गन्दगी की दृष्टि से दुनिया नरक हो गई है।

किसी समय अमेरिका के सुन्दर झरने जो अपनी प्राकृतिक छटा के कारण प्रकृति प्रेमियों का मन ललचाते थे और लोग वहां कुछ समय बिता कर शान्ति प्राप्त करने के लिए जाया करते थे, अब उनके किनारों पर बड़े-बड़े सूचना बोर्ड लगे हैं—डेन्जर, पोन्यूटेड वाटर, नो स्वीमिंग, खबरदार, पानी जहरीला है, इसमें तैरिये मत! औद्योगिक नगरों के निकटवर्ती सरोवर एक प्रकार से मृतक संज्ञा में गिने जाते हैं। उनका पानी किसी उपयोग में नहीं आता। नदियां अब गन्दगी बहाने वाली गटरें भर रह गई हैं। ह्वाइन नदी को योरोप की गटर कहा जाता है।

स्वीडन सरकार ने डिडेलालबेन नदी को अपना प्राकृतिक रूप बनाये रहने के लिए सुरक्षित घोषित कर दिया है। यह इसलिए किया गया कि बढ़ती हुई औद्योगिक प्रगति कुछ दिनों में इस संसार की जल राशि की शुद्धता को नष्ट कर देगी, पानी में सर्वत्र विष भरा होगा। मजबूरी में पीना तो उसे ही पड़ेगा और उसके दुष्परिणाम भी कष्टकर असाध्य रोगों के रूप में सहने ही होंगे। तब भावी पीढ़ियां यह जानना चाहेंगी कि शुद्ध जल कैसा होता है? इसके लिए कम से कम जल देवता का एक तीर्थ तो रहना ही चाहिए जहां उसे अपने असली रूप में देखा जा सके। पुरातत्व संग्रहालय इसी लिए बनाये जाते हैं कि भूतकाल की झांकी देख सकना सम्भव हो सके। अगले दिनों भी यह नदी शुद्ध जल ही प्रवाहित करती रहे और एक दर्शनीय स्थान समझी जाय इसलिए इसमें मल-मूत्र अथवा कारखानों की गन्दगी डालने पर इसे प्रतिबन्धित रखा गया है। ऐरिजोना के प्रोफेसरों की एक समिति ने जनता की ओर से तांबा बनाने वाली छह फैक्ट्रियों पर दो अरब डालर का दावा किया है। वादियों का कहना है कि इन कम्पनियों ने जनता के जान-मान की जो अपार क्षति की है उसके बदले इन्हें इतना हरजाना तो देना ही चाहिए।

ऐसा ही एक मुकदमा जनता की ओर से न्यूयार्क की प्रमुख महिलाओं ने डी.डी.टी बनाने वाली 300 कम्पनियों के विरुद्ध दायर किया है और 30 अरब डालर की इस आधार पर मांग की है कि उनके उत्पादन ने जन-स्वास्थ्य को भारी हानि पहुंचाई है।

रसायन विशेषज्ञ नारवल्ड डफिमराइट ने नार्वे की सेन्ट पलेयर झील से पकड़ी गई मछलियों का रासायनिक विश्लेषण किया तो पारे की खतरनाक मात्रा पाई गई। मछलियों में पारा कहां से आया? अधिक बारीकी से पता लगाया तो मालूम हुआ कि औद्योगिक रसायनों में पारे की भी एक बड़ी मात्रा होती है और वह गन्दगी के रूप में बहती हुई झीलों में पहुंचती है। सोचा यह गया था कि यह पारा भारी होने के कारण जल की तली में बैठ जायगा। कुछ मछलियां यदि पारे से मर भी गईं तो कुछ विशेष हानि न होगी। पर वह अनुमान गलत निकला।

शोधों ने बताया कि जल में पहुंच कर पारे की रासायनिक प्रतिक्रिया होती है। उसकी सूक्ष्म मात्रा जीव कणों में प्रवेश कर जाती है। इन्हें छोटे कीड़े खाते हैं और वे मछलियों की खुराक बनते हैं इस प्रकार पारे को रासायनिक प्रतिक्रिया मछली के मांस में एक इकाई बनकर बस जाती है। विश्लेषण कर्त्ताओं ने बताया है कि इस प्रकार की पारा प्रभावित मछलियों को खाने वाले मनुष्य अन्धे या पागल हो सकते हैं और विशेष परिस्थितियों में तो वे मर भी सकते हैं।

इस वैज्ञानिक निष्कर्ष के उपरान्त उद्योगों में पारे के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगाये गये हैं। इस प्रकार के उद्योगों में कागज निर्माण और समुद्री जल में से क्लोरीन निकालने वाले कारखाने अग्रणी थे।

इस निष्कर्ष ने अमेरिका को भी चौकन्ना किया है उसने भी अब पारे के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगाया है फलतः उसमें 86 प्रतिशत कमी तत्काल कर दी गई है। फिर भी यह प्रश्न तो है ही कि पारे की जो मात्रा जल में चली गई उसका प्रभाव अभी कम से कम 50 वर्ष तक तो बना ही रहेगा। उसके द्वारा होने वाली हानियों से कैसे बचा जाय? पारे की भांति कुछ और भी ऐसे ही रसायन हैं जिनका खतरा कम नहीं कुछ ज्यादा ही है। उन्हें भी उद्योगों में भरपूर मात्रा में प्रयोग किया जाता है और उनका कचरा भी जल-दूषण में अग्रणी ही रहता है। डार्ट माउथ मेडीकल कालेज के काक्टर हैनरी श्रुडर ने अमेरिकी प्रशासन को चेतावनी दी है कि सीसा, कैडमियक, निकिल कार्बोनिला जैसे पदार्थ भी कम घातक नहीं है। इनका प्रयोग इन दिनों बहुत चल पड़ा है। इनकी अति सूक्ष्म मात्रा भी रक्तचाप एवं फेफड़े का केन्सर उत्पन्न कर सकती है।

अमेरिका में कचरा वृद्धि का एक और कारण है। वहां 48 अरब डिब्बे, 28 अरब बोतलें, 10 करोड़ टायर, 70 लाख मोटर गाड़ियां हर साल कचरा बन जाती हैं। इसी तरह की और भी बहुत-सी चीजें हैं जिनको रद्दी हो जाने के बाद कचरा ही बनना पड़ता है और फिर उसे समुद्र में पटक दिया जाता है। फलतः यह कूड़ा समुद्र तट के किनारे का खतरा बनता जा रहा है। इस कचरे में गन्दगी जड़ जमाती है और फिर समीपवर्ती क्षेत्र के लिए विपत्ति खड़ी करती है। थोड़ा इस्तेमाल करो। ‘फेंक दो और नया खरीदो’ का नारा उस देश को विलासिता और समृद्धि बढ़ाने में कितना सहायक सिद्ध हुआ यह तो समय ही बतायेगा, पर उससे कचरे में असाधारण वृद्धि हुई है। लोग अपनी पुरानी मोटरों के प्लेट उतार कर कहीं यों ही छोड़ जाते हैं। कारों के कब्रिस्तान हर जगह मौजूद मिलेंगे, डिब्बे और बोतलों को कोई उठाता तक नहीं। इस समस्या से क्षुब्ध जनता ने ‘अर्थ डे’ मनाया और यह कचरा उनके बनाने वाली फैक्ट्रियों के दरवाजे पर पटक कर पहाड़ लगा दिये और मांग की बनाने के साथ-साथ इनके रद्दी होने पर इनका कचरा उठाने की जिम्मेदारी भी वे ही लें।

पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घट जाने और विषाक्त तत्वों के बढ़ जाने से वहां वृक्ष वनस्पति विषैले होकर मर रहे हैं। बादलों में भी यह विष मिल जाता है और फिर जहरीली वर्षा के रूप में बरसता है, उससे पक्षी और पौधे दोनों ही झुलसते देखे गये हैं। मछलियां मरती, घटती जा रही हैं। जो उन्हें खाते हैं वे बीमार पड़ते हैं। अब वहां जहरीली मछलियों की एक नई जाति विकसित हो रही हैं जिसे ‘कार्प’ कहते हैं। इसने जहर भरे पानी में रहना और जीना तो सीख लिया है, पर मछलीमारों के लिए तो ये किसी काम की नहीं रहीं।

अमेरिका में हर साल 70 लाख मोटरें तथा 10 करोड़ टायर कचरा बन जाते हैं। वहां 20 करोड़ लोगों के पीछे 8।। करोड़ मोटर हैं। अकेले लोस ऐंजल नगर में ही 20 लाख आबादी में 10 लाख मोटरें हैं। वहां नई मोटर 300 डालर को मिल जाती है। ऐसी दशा में पुरानी गाड़ियों की मरम्मत महंगी पड़ती है। पुरानी होते ही उन्हें कूड़े में फेंक दिया जाता है। यही हाल मोटर साइकिलों तथा दूसरी मशीनों का है। यह कचरा कहां फेंका जाता रहेगा यह प्रश्न उस देश की सरकार के लिए सिरदर्द बना हुआ है। फिलहाल तो यह कबाड़ समुद्र में गिराया जा रहा है, पर वह भी तो यह पहाड़ गिरते-गिरते पटने ही लगेगा। समुद्र तटों का तो अभी भी बुरा हाल है। वहां इस कचरे की सड़ांद निकट भविष्य में किसी बड़े स्वास्थ्य संकट का कारण बन सकती है।

सागर अन्तराल के शोधकर्त्ता जैक्वीस वाइवस ने समुद्र में बढ़ती हुई अशुद्धता को शोचनीय स्थिति में पाया है और जल दूषण से समुद्रों की उपयोगिता नष्ट होने की आशंका व्यक्त की है। उनने तेल कणों तथा दूसरे विषाक्त रसायनों की मात्रा बढ़ जाने के फलस्वरूप विगत 20 वर्षों में 40 प्रतिशत जल जन्तुओं के मर जाने का हिसाब लगाया है। उनका कथन है कि मछलियां ही नहीं वनस्पतियां भी समुद्र तल से गायब होती चली जा रही हैं।

कीटाणु नाशक दवाओं में क्लोरीन जैसे पदार्थों का उत्पादन इन दिनों 50 लाख टन से अधिक है। उसकी स्वल्प मात्रा से ही चूहे जैसे छोटे जीव तत्काल मर जाते हैं। वह विष पदार्थ जलवायु में मिलकर इतना व्यापक होता जा रहा है कि ध्रुव प्रदेशों के निवासी मनुष्यों और पक्षियों तक के शरीर में वह तत्व पाया गया है।

कारखानों की गन्दगी घूम-फिरकर—नदी नालों में होती हुई अन्ततः समुद्र में जा पहुंचती है। वृक्ष वनस्पतियों पर छिड़के जाने वाले कृमिनाशक विष भी वर्षा जल के साथ समुद्र में ही जा पहुंचते हैं। अणु भट्टियों की राख को भी समुद्र में ही प्रश्रय मिलता है। समुद्र विशाल भले ही हो असीम नहीं है। विष को पचाने की उसकी भी एक सीमा है। वह मात्रा जब बढ़ रही हो तो समुद्र का विषाक्त होना स्वाभाविक है। जमीन की तरह उस जल राशि में भी वनस्पतियां हैं, इन तैरने वाली वनस्पतियों से जल जगत के लिए आवश्यक प्राण वायु उपलब्ध होती है। पृथ्वी पर फैली पड़ी प्राण वायु का एक बहुत बड़ा अंश इन जल वनस्पतियों—फिटो प्लैंकटीन—से ही मिलता है, समुद्र का जल जैसे-जैसे विषाक्त होता जाता है इन वनस्पतियों का नाश होता जाता है और फलस्वरूप जल जन्तुओं के लिए ही नहीं, धरती पर रहने वालों के लिए भी प्राण संकट उत्पन्न हो रहा है।

समुद्र का जल ही बादल बनकर सर्वत्र बरसता है। बादलों में वह विष घुला रहता है और विषैली वर्षा का जल पीकर उगी हुई वनस्पति भी वैसी ही बनती जाती है। उस घास पर पलने वाले पशुओं का दूध और मांस दोनों ही अभक्ष स्तर के बनने लगे हैं। अन्न और शाक, फलों में वे अवांछनीय तत्व के बनने लगे हैं। अन्न और शाक, फलों में वे अवांछनीय तत्व बढ़कर मानव शरीरों में भी वे आरोग्य नष्ट करने वाली परिस्थितियां उत्पन्न कर रहे हैं।

फिनलैंड के हेलसिंकी क्षेत्र का समीपवर्ती पानी, पीने के लायक नहीं रहा इसलिए 160 मील दूर से अच्छा पानी लाने का प्रबन्ध करना पड़ा है। साइप्रस के समीपवर्ती समुद्र जल में प्रदूषण भर जाने से उसका पर्यटन उद्योग ठप्प होता चला जा रहा है। यूनान में ऐथेन्स क्षेत्र खतरे के स्तर तक पहुंच रहा है। नीदरलैण्ड भी इसी मुश्किल में फंसता चला जा रहा है। उनने सुझाव दिया है कि जहां भी बड़े कारखाने खड़े किये जायें वहां प्रदूषण की शुद्धि के लिए कम से कम तीन प्रतिशत पूंजी अलग से रखी जाय अन्यथा आज की औद्योगिक प्रगति कल एक भयंकर संकट बनकर सामने आयेगी।

‘‘शो डाउन फार वाटर’’ नामक जल प्रदूषण (वाटर पोल्यूसन) पुस्तिका में अमेरिका ने इस समस्या को अत्यन्त जटिल, परेशान करने वाली और वर्तमान—अस्त्र-शस्त्रों से भी भयंकर बताया है और लिखा है कि उस समस्या के हल के लिए किये जा रहे प्रयत्नों से कई गुना वह और भी जटिल होती जा रही है। अमेरिका ने 1965 और 1966 में ऐसे कानून भी बनाये हैं, पर विज्ञान और भारी उद्योगों के विकास के पागलपन के आगे लाखों को मारने और करोड़ों को बीमार बनाने वाली इस मामूली (?) सी समस्या पर कौन ध्यान दे कौन सोचे?

इंग्लैंड में साबुन, फिनाइल, डी.डी.टी. और केवल कीटाणु नाशक औषधियों के निर्माण के कारण 45 करोड़ गैलन पानी दूषित कर दिया जाता है यही पानी बाद में घरों में इस्तेमाल किया जाता है। यही जल जब समुद्र में पहुंचता है तो उसमें से झाग उठने लगते हैं, उसे देखकर कोई भी अनुमान कर सकता है कि यह जल था या केवल मात्र गन्दगी बह कर आई। अमेरिका में इंग्लैंड से चार गुना अधिक जल नागरिक प्रयोग में आता है। कम ज्यादा संसार के सभी देश ऐसी गन्दगी निकालते हैं यह सारी ही समुद्र में जाती है। अमेरिका अपने यहां की रद्दी समुद्र में झोंक रहा है, अभी कुछ ही दिन पूर्व उसने 1440 प्राण घातक नर्व गैसों के रैकेट भर-भर फ्लोरिडा के पास समुद्र में फेंके हैं। यह दूषण जहां जल का ऑक्सीजन नष्ट करता है वहां समुद्र का सन्तुलन बनाये रखने वाले जीव-जन्तुओं और पौधों को भी मारता है उससे समुद्र की शोभा नष्ट होने की हानि उतनी गम्भीर नहीं जितनी उसके अमर्यादित होने की अगले दिनों समुद्र के भीषण उत्पात मनुष्य जाति को तंग कर सकते हैं। गन्दगी मिले जल की भाप भी दूषित होगी, मेघ दूषित होंगे, तब फिर जो वर्षा होगी वह रोगों की वर्षा होगी उसका प्रभाव सीधे भी मनुष्य जाति के स्वास्थ्य पर पड़ेगा और फसलों के द्वारा भी।

जल प्रदूषण के कुछ भयंकर दुष्परिणाम—टोरी केन्यन नामक एक तेल वाहक समुद्री जहाज ब्रिटेन के पास से गुजर रहा था 18 मार्च 1967 के दिन जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उसका 30000 टन तेल समुद्र में गिर गया और देखते-देखते 18 मील क्षेत्र में फैल गया। हवा के झोंकों और समुद्री तरंगों के कारण शीघ्र ही वह 100 वर्ग मील क्षेत्र को प्रभावित करने लगा। वही दूषित जल कुछ दिन बाद फ्रान्स के तट तक जा पहुंचा। अब मौतें प्रारम्भ होती हैं अप्रैल 1970 में अलास्का तट (अमेरिका) के पास जल प्रदूषण से हजारों पक्षी, समुद्री सिंह और ह्वेल मछलियां मरी पाई गईं। 400 सीलों का झुण्ड इस तेल-दूषण की चपेट में आकर जान गंवा बैठा। हजारों समुद्री वृक्ष नष्ट हो गये।

दिल्ली में दस से भी अधिक गंदे नाले यमुना नदी में गिरते हैं कुछ दिन पूर्व वजीराबाद और ओखला के बीच हजारों मछलियां इस गन्दगी से मरी पाई गईं। इन मछलियों का व्यावसायिक मूल्य 6 लाख रुपया आंका गया। 1956 में जल की समस्या गम्भीर हो गई सारी दिल्ली में पीलिया रोग ने भयंकर रूप धारण किया। सन् 1970 में भयंकर पीलिया होते-होते बचा उसके बाद मॉडल टाउन के पीछे झील में हजारों मछलियां मरी पाई गईं उनकी सड़न एक समस्या बन गई। गंगाजी के तट पर बसे मुंगेर (बिहार) में पेट्रोल के गंगा नदी में बह जाने के कारण गंगाजी के जल में 50 मील दूर तक आग लग गई। पानी में आग की लपटें उठने लगीं, लोग आश्चर्य और भय से इस कांड को देखते रहे। यह सब इस बात के प्रमाण हैं कि मानवीय सभ्यता ने अपने जीवन के आधार जल को किस बुरी तरह दूषित किया है उसके क्या दुष्परिणाम अब तक आगे आ गये हैं और भविष्य कितना अन्धकारपूर्ण है विनाश की इस काली घटा को मात्र दर्शन के रूप में नहीं देखना चाहिए अपितु दुर्बुद्धि के रावण की काली पाटी से बंधे वरुण देव की मुक्ति (शुद्धि) के उपायों पर भी विचार करना चाहिए अन्यथा उसके घातक दुष्परिणाम प्रस्तुत हो सकते हैं।

फूंक कर कदम रखने का समय

ओहियो अनुसन्धान परिषद ने फ्लोराइड मिश्रित जल की खामियों को जन-साधारण के सामने प्रस्तुत किया है और अपने शोध निष्कर्षों को डेलीमेल—सण्डे डिस्पैच आदि पत्रों में छपाया है। जिसमें उसे प्रयुक्त न करने का परामर्श दिया गया है।

अमेरिका की कितनी ही स्वास्थ्य संस्थाओं का एक संयुक्त विरोध सरकार के तथा जनता के सामने प्रस्तुत किया गया था जिसे उस संयुक्त मोर्चे के अध्यक्ष जे. मकफारलेन फोर्व्स ने ‘स्काट्स मैन’ आदि पत्रों में विस्तारपूर्वक छपाया था। इस विरोध पत्र में फ्लोराइड मिश्रित जल की खामियां गिनाई गई थीं और कहा गया था कि उससे शोधन के नाम पर विषाक्तता का समावेश होता है।

न्यूवर्ग में फ्लोराइड सहित और किंग्स्टन में उससे रहित पानी देकर उसके परिणामों की जांच की गई। उसका विवरण ‘‘पेनग्विन साइन्स न्यूज’’ पत्रिका में छपा। जिसमें बताया गया कि इस रासायनिक जल से दांतों की खराबियों और जोड़ों के दर्द की शिकायत उत्पन्न होती है।

वर्ल्ड हैल्थ आर्गनाइजेशन के जिनेवा कार्यालय से प्रकाशित एक बुलेटिन में फ्लोरीन युक्त पानी के सम्बन्ध में कई ख्यातिनामा स्वास्थ्य विशेषज्ञों के लेख छपे हैं जिनमें प्रायः सभी ने इस रासायनिक सम्मिश्रण का विरोध किया है। पक्ष समर्थन में तो केवल एक ही लेख है फ्लोरिडा विश्व-विद्यालय के रसायन प्रमुख ए.पी. व्लैक का। जल शोधन के लिए नगरपालिकाएं अक्सर पानी में फ्लोरीन मिलाती हैं। पानी में घोला हुआ यह सोडियम फ्लोराइड एक तीव्र रसायन है जो जल में पाये जाने वाले स्वाभाविक कैलशियम फ्लोराइड की तुलना में 85 गुना अधिक तीक्ष्ण है। शोधन के लिए प्रयुक्त किया गया यह रसायन एक मन्द विष के रूप में पीने वालों के शरीर में प्रवेश करता और जमता चला जाता है। आरम्भ में तो उसकी उतनी हानि प्रतीत नहीं होती, पर तीस-चालीस वर्ष बाद उसके दुष्परिणाम कई मन्द और तीव्र रोगों के रूप में फूटने लगते हैं। इस तथ्य को समझते हुए स्वीडन, फ्रांस, पश्चिमी जर्मनी, आस्ट्रेलिया, स्विटजरलैंड आदि ने इस सम्मिश्रण को बन्द कर दिया है। अमेरिका के 580 नगरों में भी इसे बन्द कर दिया गया है।

वैज्ञानिक सफलताएं भी अन्य असफलताओं की तरह तब दुर्भाग्यपूर्ण बन जाती है जब वे अत्युत्साह एवं अहंकार उत्पन्न करती हैं। कुछेक सफलताओं के कारण अपनी सर्वांगपूर्ण बुद्धिमत्ता का अभियान किया जाने लगता है और यह भुला दिया जाता है कि कुछ काम की कुछ सीमा तक मिली सफलता का अर्थ यह नहीं है कि अपना हर चिन्तन और हर प्रयास सही या सफल ही होगा। सफलता के लिए क्रिया ही काफी नहीं—सतर्कता भी आवश्यक है। भूल न होने पाये इस पक्ष को ध्यान में रखकर फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाने की नीति यदि छोड़ दी जाय और जल्दीबाजी में कुछ भी कर गुजरा जाय तो ऐसे ही दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं जैसे कि जल शोधन सम्बन्धी प्रयास की त्रुटि के सन्दर्भ में सामने आ रहे हैं।
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Type: SCAN
Language: EN
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मनस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले
Type: SCAN
Language: EN
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मनस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले
Type: SCAN
Language: EN
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मनस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले
Type: SCAN
Language: EN
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21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth
Type: SCAN
Language: ENGLISH
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Articles of Books

  • सह-अस्तित्व का नैसर्गिक नियम
  • मनुष्य पूरी तरह मशीन न बने
  • ‘सांस मत लो इस हवा में जहर है’
  • खबरदार इस पानी को पीना मत—खतरा है
  • चिल्लाइये मत कान फट रहे हैं
  • रोगों की जड़े काटी जायें पत्ते नहीं
  • कीटनाशक अन्ततः अपने लिये घातक
  • धरती को मार डालने का कुचक्र
  • अनियन्त्रित प्रगति अर्थात् महामरण की तैयारी
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Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

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