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हमारे बारे में   >   लक्ष्य और उद्देश्य   >   इतिहास और उपलब्धियां


इतिहास और उपलब्धियां

गायत्री परिवार : एक युग परिवर्तनकारी चेतना की विस्तार यात्रा

गायत्री परिवार की यात्रा केवल एक संगठन की नहीं, अपितु एक महायोजना की है—जो व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण के माध्यम से युग निर्माण का संकल्प लिए आगे बढ़ी। इस आंदोलन की शुरुआत गहराई में जाकर देखें, तो यह एक आत्मिक संकल्प से उत्पन्न हुआ—a silent revolution, initiated not by might, but by mind.

प्रारंभिक विकास और अखंड ज्योति की स्थापना

सन् १९२६ बसंत पंचमी के दिन पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने दादा गुरु श्री सर्वेश्वरानंद जी के सानिध्य में अखण्डदीप प्रज्वलित किया और २४ लक्ष्य के २४ पुरुश्चरण की गायत्री मंत्र साधना संपन्न करने का संकल्प लिया। यही संकल्प गायत्री परिवार का बीज है। इसी क्रम में १९३७ में "अखण्ड ज्योति" पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। यह मात्र एक पत्रिका नहीं थी, अपितु विचार क्रांति का वाहक बनी। इसने देशभर में जागरूकता का अलख जगाया—नैतिकता, अध्यात्म और समाज सुधार से जुड़े मुद्दों पर स्पष्ट और प्रेरक मार्गदर्शन देने लगी।

सन् १९२६ में प्रज्वलित लिया गया अखंड दीप ही अखंडज्योति के नाम से आज भी शांतिकुंज में जल रहा है। यह दीप प्रतीक है उस अविरल तप और संकल्प का, जो इस विचार क्रांति अभियान की आत्मा है।

गायत्री तपोभूमि मथुरा : प्रयोगशाला की स्थापना

१९५३ में अपने चौबीस वर्षों की साधना पूर्ण कर, उन्होंने मथुरा में गायत्री तपोभूमि की स्थापना की। यहीं से युग निर्माण योजना के बहुआयामी कार्यों का आरंभ हुआ। मथुरा वह भूमि बनी, जहाँ विचारों की प्रयोगशाला में आत्मिक साधना और सामाजिक सेवा का समन्वय किया गया। छोटे-छोटे अनुष्ठानों से लेकर सामूहिक साधना शिविरों और नैतिक प्रशिक्षण तक, यहां से राष्ट्र और विश्व को एक नई दिशा देने का अभियान शुरू हुआ।

१०५१ विराट गायत्री महायज्ञ और आंदोलन का विस्तार

१९५८ में मथुरा में आयोजित १०५१ कुंडीय विराट गायत्री महायज्ञ ने समूचे भारतवर्ष में चेतना की तरंगें फैलाईं। इस आयोजन ने यह स्पष्ट कर दिया कि गायत्री परिवार केवल एक आध्यात्मिक केंद्र नहीं, बल्कि सामाजिक पुनर्निर्माण की एक सशक्त विचारधारा है।

इसके बाद १९६२ में देशभर में १००८ कुंडीय महायज्ञों की श्रृंखला आरंभ हुई, जिसने हजारों कार्यकर्ताओं को जोड़ा और गाँव-गाँव तक युग निर्माण का संदेश पहुँचा। यज्ञ केवल वैदिक अनुष्ठान नहीं, अपितु सामूहिक मनोबल को जाग्रत करने का माध्यम बना।

शांतिकुंज की स्थापना और भारत भ्रमण

१९७१ में हरिद्वार में शांतिकुंज की स्थापना हुई, जो गायत्री परिवार का आध्यात्मिक और सांगठनिक केंद्र बना। यह ऋषियों की परंपरा में एक आधुनिक आश्रम था—जहाँ विचार, साधना और सेवा तीनों को समान महत्त्व मिला। यहाँ से युग निर्माण योजना, नारी जागरण, युवा अभियान, स्वास्थ्य संवर्धन, संस्कार शृंखला, और ग्रामीण विकास जैसे अनेकों प्रकल्पों का संचालन होने लगा।

इस दौरान आचार्य श्री ने भारत का व्यापक भ्रमण किया। उन्होंने गाँवों, कस्बों और नगरों में जनजागरण यात्राएँ कीं, और यज्ञ, प्रवचन, विचारगोष्ठियाँ, संस्कार अभियान के माध्यम से जन-जन में आत्मबल और राष्ट्रबल की भावना जगाई।

शक्तिपीठों, प्रज्ञापीठों और मंडलों की स्थापना

गायत्री परिवार का संगठनात्मक विस्तार व्यवस्थित और लक्ष्य-निष्ठ था। भारतवर्ष के कोने-कोने में प्रज्ञा मंडलों, युग शिल्पियों, महिला मंडलों, और बाल संस्कार शालाओं का गठन हुआ। इन इकाइयों ने स्थानीय स्तर पर सेवा, साधना और संस्कार के कार्यों को गति दी।

आज देश-विदेश में ३००० से अधिक शक्तिपीठ, प्रज्ञापीठ, और हजारों सेवा केंद्र कार्यरत हैं। ये केंद्र न केवल गायत्री उपासना और यज्ञीय जीवन के प्रचारक हैं, बल्कि स्थानीय समाज की समस्याओं के समाधान केंद्र भी हैं—नशा मुक्ति, स्वच्छता, स्वास्थ्य जागरूकता, पर्यावरण संरक्षण, नारी सशक्तिकरण, युवा मार्गदर्शन आदि के माध्यम से।

विचार क्रांति और बौद्धिक आंदोलन

गायत्री परिवार का एक महत्वपूर्ण आयाम रहा है—विचार क्रांति अभियान। इसके अंतर्गत लाखों पुस्तकों का नि:शुल्क वितरण, संस्कार शालाओं की स्थापना, प्रेरक साहित्य का प्रचार-प्रसार, और जनमानस को नैतिक दिशा देने वाले कार्यक्रमों का आयोजन किया गया।

आचार्य श्री का साहित्य इस आंदोलन का प्राणतत्त्व है—जो न केवल आध्यात्मिक गहराई से भरपूर है, बल्कि व्यवहारिक जीवन के प्रत्येक पक्ष को संबोधित करता है। यह साहित्य अब ७५ से अधिक भाषाओं में अनूदित होकर विश्वभर में पहुँचा है।

गुरुदेव का महाप्रयाण और युग-संकल्प का पुनर्नव संचार

गायत्री परिवार के लिए २ जून १९९० का दिन एक अत्यंत भावपूर्ण मोड़ लेकर आया, जब पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का महाप्रयाण हुआ। यद्यपि उनका शारीरिक अवसान हुआ, परंतु उनके विचार, तप और संकल्प संगठन में अनवरत प्रवाहित होते रहे।

अक्टूबर-नवंबर १९९० में श्रद्धांजलि समारोह का आयोजन हुआ, जिसमें देश के कोने-कोने से लाखों कार्यकर्ता श्रद्धांजलि अर्पित करने शांतिकुंज पहुँचे। यह केवल एक श्रद्धांजलि नहीं, अपितु युग चेतना के प्रति समर्पण की शपथ थी।

वंदनीया माताजी का नेतृत्व और अश्वमेध यज्ञों का संकल्प

१९९१ में वंदनीया माता भगवती देवी शर्मा जी ने आवलखेड़ा (गुरुदेव की जन्मभूमि) की मिट्टी का रजवंदन किया और शांतिकुंज में शपथ समारोह का आयोजन किया, जिसमें देशभर के लाखों कार्यकर्ताओं ने गुरुसत्ता की प्रेरणा को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया।

इसी वर्ष जयपुर में प्रथम १००८ कुंडीय गायत्री अश्वमेध महायज्ञ का भव्य आयोजन हुआ। इसके साथ ही विराट श्रृंखला का शुभारंभ हुआ, जिसमें देश-विदेश में १०० से अधिक अश्वमेध महायज्ञ आयोजित किए गए। ये यज्ञ न केवल वैदिक परंपरा के उत्थान के प्रतीक बने, बल्कि सामाजिक एकता, सद्भाव और जागृति के भी केन्द्र बने।

माताजी का महाप्रयाण और पूर्णाहुति समारोह

१९९४ में वंदनीया माताजी का भी महाप्रयाण हुआ। उनका जीवन एक आदर्श तपस्विनी, संगठिका, सेविका और गुरुपत्नी के रूप में प्रेरणास्रोत रहा। उनके द्वारा नारी शक्ति को संगठित करने और समाज परिवर्तन में सशक्त भूमिका निभाने की दृष्टि आज भी लाखों मातृशक्ति को प्रेरित करती है।

१९९५ में अर्ध महापूर्णाहुति समारोह और वर्ष २००० में विराट महापूर्णाहुति समारोह का आयोजन हुआ, जिसमें लाखों कार्यकर्ताओं की भागीदारी ने स्पष्ट किया कि गुरुसत्ता की वाणी, संकल्प और योजनाएँ आज भी जनमानस में जीवंत हैं।

युग परिवर्तन की गति

गायत्री परिवार की यह विकास यात्रा केवल संस्थागत उपलब्धियों की सूची नहीं है, बल्कि यह उस युग चेतना की उद्घोषणा है, जो एक-एक व्यक्ति को देवत्व की दिशा में प्रेरित करती है।

यह आंदोलन शिक्षा को केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित नहीं रखता, बल्कि जीवन मूल्यों की शिक्षा, संस्कार परंपरा, नारी सशक्तिकरण, युवा जागरण, ग्राम प्रबंधन, स्वास्थ्य संरक्षण, स्वस्थ शरीर–स्वच्छ मन–सभ्य समाज जैसे संकल्पों के साथ सामाजिक पुनर्निर्माण को आगे बढ़ाता है।

आज भी गायत्री परिवार विश्वभर में लाखों स्वयंसेवकों के माध्यम से सक्रिय है, जो बिना किसी लोभ, पद या प्रचार की आकांक्षा के, एक आदर्श समाज के निर्माण हेतु जीवन को युगधर्म में संलग्न कर रहे हैं।

यह आंदोलन किसी एक धर्म, संप्रदाय या मत का नहीं, बल्कि मानव मात्र का है—जहाँ हर जागरूक आत्मा, हर सत्संकल्पित हृदय, हर जिम्मेदार नागरिक इसका सहभागी बन सकता है।

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