
देवत्व का उदय
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(ले. डा. शिवरतनलालजी त्रिपाठी, गोला गोकरननाथ)
जब तुम्हें ‘मनुष्य’ कहकर संबोधन किया जाता है या आदर के साथ उच्च आसन पर बिठाया जाता है तब तुम्हें सोचना चाहिए कि यह व्यवहार किसके प्रति हो रहा है? यह व्यवहार हाड़ माँस और मल मूत्रों की दुर्गन्ध भरी गठरी के लिये नहीं किया जाता है। वह वस्तु आत्मा है जिसका आदर किया जाता है, जिसके प्रति प्रकट किया जाता है, जिसके आगे शिर झुकाया जाता है।
अभागा आदमी इस गंदी गठरी को ‘मैं’ समझ बैठता है। जब उसमें से बदबू उठती है तो अपनी बदकिस्मती समझता है और शिर धुनकर रोता है। जब कहीं से कोई तर झोंका आ जाता है तो खुश होता है और अपनी गठरी को और उस पर चिपकी हुई रंग बिरंगी धज्जियों को देखकर फूल उठता है। कभी-कभी तो वह अपनी इन्हीं चीजों पर अभिमान में भी डूब जाता है।
किन्तु जानने वाला जानता है कि इन्द्रियजन्य इच्छाएं और उनकी पूर्ति वैसी ही है। जैसी किसी नाले के पानी की में उठने और विलीन होने वाली छोटी छोटी लहरें। यह काम नासमझ लड़कों को शोभा देता है कि उठने वाली हर लहर के साथ उछलें और उसके समाप्त होते ही हाथ मल-मल कर पछताएं। समझदार आदमी उसे कह सकते है जो पानी पर उठने वाली लहरों के क्षण में पैदा होने और क्षण में विलीन होने की बात जानता है। वह पानी और लहरों की हर एक क्रिया को देखता है और हर नई स्थिति में नया आनन्द प्राप्त करता है। जब तुम अपने स्वरूप को सचमुच समझ जाओगे अपने को सचमुच शरीर से ऊंचा अनुभव करने लगोगे तो देखोगे कि अपने आप तुम्हारे अन्दर एक देवत्व का उदय हो रहा हो और तुम पूर्ण परमात्मा से मिलने के लिये बड़ी तेजी से सरपट दौड़े जा रहे हो।