
आत्म-चित्र (कविता)
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(रचयिता-श्री मोहनलाल गुप्त) मुझमें दुख का संसार बसा करता है,
माया में मन लाचार फँसा करता है,
हूँ चढ़ा रहा नित अश्रुमाल मैं जिस पर-
वह भी मुझसे हर बार हँसा करता है बरबस प्यार किया करता हूँ,
पर न अधिकार किया करता हूँ
> विष भी प्रेम सहित जो देता-
नहीं इन्कार किया करता हूँ। भूलों पर भी मैं भूल किया करता हूँ
आघातों पर मैं धूल दिया करता हूँ
मेरे पथ में जो शूल निरन्तर बोते-
उनको भी मैं मृदु फूल दिया करता हूँ। मैं सबको जग में आस दिया करता हूँ।
पर अपना ही विश्वास किया करता हूँ
मेरे उपवन जो लूट दे रहे पतझड़-
मैं उनको भी मधुमास दिया करता हूँ। विपदाओं को मैं स्वयं चरा करता हूँ,
तूफानों में घर स्वयं खड़ा करता हूँ,
है नहीं विजय कर हर्ष, पराजय का दुख-
बाधाओं से मैं नित्य लड़ा करता हूँ। दिल से मैं जिसका मान लिया करता हूँ
रह रह उसका ही ध्यान किया करता हूँ
वसुधा की विपुल विभूतियाँ ही हैं भाती-
उस पर ही जीवन दान किया करता हूँ। असह्य वेदना भार लिये फिरता हूँ,
उस में अगणित उद्गार लिये फिरता हूँ
घन-स्वाति-बूँद पाने की अभिलाषा में-
चातक सी विकल पुकार लिए फिरता हूँ, रह मौन, सभी कुछ झेल लिया करता हूँ,
अंगारों से भी खेल लिया करता हूँ,
जो समझ मुझे भू,दूर व्योम से रहते-
मैं उनसे भी मिल मेल किया करता हूँ। जग में सबकी पहचान किया करता हूँ,
दे सुधा स्वयं विषपान किया करता हूँ
अभिशापों को वरदान भाग्य का कहकर-
रोदन में भी मुस्कान किया करता हूँ। *समाप्त*
माया में मन लाचार फँसा करता है,
हूँ चढ़ा रहा नित अश्रुमाल मैं जिस पर-
वह भी मुझसे हर बार हँसा करता है बरबस प्यार किया करता हूँ,
पर न अधिकार किया करता हूँ
> विष भी प्रेम सहित जो देता-
नहीं इन्कार किया करता हूँ। भूलों पर भी मैं भूल किया करता हूँ
आघातों पर मैं धूल दिया करता हूँ
मेरे पथ में जो शूल निरन्तर बोते-
उनको भी मैं मृदु फूल दिया करता हूँ। मैं सबको जग में आस दिया करता हूँ।
पर अपना ही विश्वास किया करता हूँ
मेरे उपवन जो लूट दे रहे पतझड़-
मैं उनको भी मधुमास दिया करता हूँ। विपदाओं को मैं स्वयं चरा करता हूँ,
तूफानों में घर स्वयं खड़ा करता हूँ,
है नहीं विजय कर हर्ष, पराजय का दुख-
बाधाओं से मैं नित्य लड़ा करता हूँ। दिल से मैं जिसका मान लिया करता हूँ
रह रह उसका ही ध्यान किया करता हूँ
वसुधा की विपुल विभूतियाँ ही हैं भाती-
उस पर ही जीवन दान किया करता हूँ। असह्य वेदना भार लिये फिरता हूँ,
उस में अगणित उद्गार लिये फिरता हूँ
घन-स्वाति-बूँद पाने की अभिलाषा में-
चातक सी विकल पुकार लिए फिरता हूँ, रह मौन, सभी कुछ झेल लिया करता हूँ,
अंगारों से भी खेल लिया करता हूँ,
जो समझ मुझे भू,दूर व्योम से रहते-
मैं उनसे भी मिल मेल किया करता हूँ। जग में सबकी पहचान किया करता हूँ,
दे सुधा स्वयं विषपान किया करता हूँ
अभिशापों को वरदान भाग्य का कहकर-
रोदन में भी मुस्कान किया करता हूँ। *समाप्त*