
मन को वश में करने का उपाय
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(ले.-श्री पं. शिवनारायण जी, गौड़, लश्कर)
किसी एकान्त स्थान में जहाँ किसी प्रकार की आवाज या अन्य किसी प्रकार की मन को विचलित करने वाली चीज न हो, जाकर बैठो। पर केवल एकान्त ही पर्याप्त नहीं। मन भी सब प्रकार के विचारों से शून्य हो। जब यह निश्चय कर लो कि आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार की निस्तब्धता है तो आगे का अभ्यास करो।
कोई भी पुस्तक जो पसन्द हो उठा लो। यह न सोचो कि पुस्तक कैसी है। यहाँ हमें विषय से प्रयोजन नहीं, क्रिया और चित्त रंजन ही हमारा ध्येय है। हमें यहाँ न तो अध्ययन करना है और न चरित्र सुधार, चाहे ये अन्य स्थानों पर आवश्यक हों। हमें तो यहाँ मन के पीछे चलना है। जब पुस्तक तुम्हारी रुचि की होगी तो यह निश्चय है कि तुम्हारा ध्यान उसमें खूब लगेगा। पर तुम इससे भी एक कदम आग बढ़ो। मन को उसमें इतना तल्लीन कर दो कि न तो तुम्हें अपना ही कुछ ध्यान हो और न तुम्हें यह भान हो कि तुम कुछ पढ़ रहे हो। सर्वप्रथम यह अभ्यास दो मिनट का भी हो सकता है, पर जैसे-2 तुम्हें सफलता मिलती जाय वैसे ही वैसे इसे बढ़ाते जाओ। कुछ दिनों के अभ्यास से तुम्हें पूर्णता प्राप्त होगी। और तुम बिना किसी रुकावट के यह काम सरलता पूर्वक करने लगोगे।
जब यह स्थिति हो जाय तो अभ्यास की दूसरी सीढ़ी पर पदार्पण करो। अब तक तो यदि कोई बाह्य कारण उपस्थित न हो तो तुम्हारा ध्यान भंग नहीं होता था, पर इतने पर ही बस नहीं। अब बाहरी बाधाओं का भी सामना करो। अब अभ्यास ऐसे स्थान में करो जहाँ दो व्यक्ति बातें कर रहे हों या जहाँ थोड़ी-थोड़ी ध्यान भंग करने वाली ध्वनि निकल रही हो। तुम्हारा अभ्यास तो यहाँ भी वही है, केवल स्थान और परिस्थिति में अन्तर है। पहले एकान्त था अतएव निस्तब्धता थी आगे शब्दों का सामना है। यहाँ भी तुम्हें क्रमशः अभ्यास बढ़ाते जाना चाहिये। जब तुम्हें इतना अभ्यास हो जाय कि बात करने वालों का तुम्हें इतना अभ्यास हो जाय कि बात करने वालों का तुम्हारे लिये वन रुदन मात्र रह जाए तो जानो कि इस श्रेणी में भी तुम उत्तीर्ण हो गये।
अब तुम अभ्यास की तीसरी और अंतिम श्रेणी में पहुँच गये। यह द्वितीयावस्था का परिवर्द्धित रूप है। दूसरी और तीसरी श्रेणी में कोई विशेष भेद नहीं है। अन्तर केवल यही है कि द्वितीय अवस्था में शब्द मामूली होता है, परन्तु तीसरी दशा में ध्वनि की अधिकता होती है तीसरे अभ्यास के लिये उपयुक्त स्थान ये हैं-मेला, हाट, कुँजड़ों ओर मालिनों का बाजार, अस्पताल का अहाता, मन्दिर या गंगा यमुना का तट। इन स्थानों पर शब्द जोर का और कई तरह का मिला हुआ होता है जिससे चित्त की एकाग्रता में बाधों की बहुत सम्भावना है। यहाँ भी वही अभ्यास प्रारम्भ करो। सम्भव है तुम्हें कोई अड़चन मालूम हो, पर अभ्यास को छोड़ो नहीं। थोड़े दिन के अभ्यास से तुम्हें एकाग्रता होने लगेगी। इस अभ्यास को भी पहले की तरह धीरे-धीरे बढ़ाओं। जब यहाँ भी पूर्ण एकाग्रता होने लगे तो समझ लो तुम अपने अभ्यास की सफलता प्राप्त करते जा रहे हो। यही अवस्था तुम्हारी तपस्या का-अभ्यास का-बोधिवृक्ष है। यहीं तुम्हारी विजय-पताका फहराएगी और यही तुम्हारी सफलता का कीर्ति-स्तम्भ है।