Magazine - Year 1942 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
Quotation
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
किसी आदमी के चरित्र बल को उसके उन प्रयत्नों से नहीं मापना चाहिए, जो कि वह दबाव पड़ने पर करता है, वरन् उसके साधारण व्यवहार से ही उसके चरित्र बल को जाँचना चाहिए।
सच्चा संन्यासी
दुर्वासा की तपस्या अत्यन्त उग्र थी, उनके शुभ कर्म इतने प्रसिद्ध थे, उनका तेज इतना प्रख्यात था कि लोक में सर्वत्र उनका आदर होता, उनकी आज्ञा उल्लंघन करने की किसी को हिम्मत न होती, क्योंकि सब जानते थे कि इसका अर्थ अपने आपको विपत्ति में डालना है। तेजस्वी दुर्वासा चक्रवर्ती राजा की तरह परिभ्रमण करते थे।
अम्बरीष राजा न तो उतने प्रसिद्ध थे और न वैसे तेजस्वी, तो भी अपने कर्तव्य धर्म पर दृढ़ थे। कीर्ति उन्हें प्राप्त नहीं थी और न वे संन्यासी तपस्वियों की तरह पूजनीय थे, तो भी उनका अन्तःकरण पवित्र था, सत्य और धर्म को हृदयंगम करके अपने राज महल को ही उन्होंने तपोभूमि बना लिया था।
एक बार ऋषि दुर्वासा अम्बरीष के यहाँ शिष्यों समेत ठहरे। उस दिन एकादशी थी। सब लोगों का उपवास था। दूसरे दिन द्वादशी थी। धर्म शास्त्र का ऐसा नियम था कि द्वादशी को प्रदोष के दिन अमुक समय तक पारण कर लेना चाहिए, उपवास को समाप्त कर देना चाहिए। किन्तु द्वादशी के दिन दुर्वासा नदी किनारे भ्रमण करने के लिए चले गये। राजा बड़े धर्म संकट में पड़े। अतिथि ब्राह्मण को भोजन कराये बिना स्वयं भोजन करना अनुचित है उधर प्रदोष का पारण न करने से धर्म का विधान टूटता है। बहुत सोच विचार करके राजा ने खिन्न होकर कुछ थोड़ा सा जल पान कर लिया।
थोड़ी देर में दुर्वासा लौट कर आये। उन्हें मालूम हुआ कि राजा ने मुझे भोजन कराये बिना ही भोजन कर लिया है, तो उनके क्रोध का ठिकाना न रहा, राजा से कारण पूछे बिना और सफाई माँगे बिना ही दुर्वासा आग बबूला हो गये और शिर के बालों में से आत्म तेज की एक कुपित मूर्ति निकाल डाली। उस राक्षसी को दुर्वासा ने आदेश दिया कि हे मेरी कोप शक्ति ! जो इस ब्राह्मण का अनादर करने वाले राजा के पीछे पड़ जा और इसे घुला-घुला कर मार डाल। यह तान्त्रिकी मारण शक्ति राजा के पीछे होली और उसका विनाश करने लगी।
अम्बरीष बड़े दुखी हुए, क्योंकि वे निर्दोष थे अकारण ही उन्हें यह दण्ड क्यों मिले, वे भगवान से करुण पुकार करने लगे। हे नाथ अकारण यह अत्याचार क्यों? मुझ निर्दोष के ऊपर यह मारण मन्त्र क्यों चलाया जा रहा है। अन्तरिक्ष में राजा की पुकार सुनी गई। ईश्वर की सृष्टि में यह नियम है कि निर्दोष पर किया हुआ जुल्म लौट कर जालिम को ही खाता है। आज भी यही हुआ परमात्मा की इच्छा से वह भावना मूर्ति लौट पड़ी और दुर्वामा को ही खा जाने के लिये दौड़ी। अब तो दुर्वासा का बुरा हाल था, वे अपना बचाव करने के लिए दशों दिशाओं में भागने लगे। जो मिलता उसी से बचाव का उपाय पूछते।
अपने ही जाल में उलझे हुए दुर्वासा छुटकारे का उपाय करते-करते थक गये, उनकी उत्पन्न की हुई राक्षसी उनका ही पीछा कर रही थी, अन्त में वे ब्रह्मा के पास पहुँचे और गिड़गिड़ा कर रक्षा का उपाय पूछने लगे। ब्रह्मा ने कहा- “हे तपस्वी तुम्हारी रक्षा केवल अम्बरीष ही कर सकते हैं। जिसके ऊपर अत्याचार किया गया है, वही यदि क्षमा कर दें, तो पाप से छुटकारा मिल सकता है, अन्यथा दुष्टता का दण्ड भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता।”
दुर्वासा अम्बरीष के पास वापिस पहुँचे और उनसे क्षमा माँगने लगे। राजा ने कहा-भगवन् आप चले गये, किन्तु आपको भोजन कराने के लिए उस दिन से अब तक मैं तो उपवास किये हुए बैठा हूँ। मेरे मन में आपके प्रति कोई दुर्भाव नहीं हैं, क्योंकि मैं सबको आत्म भाव से देखता हूँ, सबकी कठिनाइयों को समझता हूँ। आप भोजन करके मुझे कृतार्थ कीजिए। मैं अन्तःकरण से ऐसी कामना करता हूँ कि वह तान्त्रिकी मारण शक्ति शान्त हो जाय और हम में से किसी का अहित न करे।
राजा की प्रार्थना के साथ ही वह शाप शक्ति शान्त हो गई। दुर्वासा की जान में जान आई। अब उनका गर्व गल गया था और अनुभव कर रहे थे कि वनों में कठोर तपस्या करने से, तेजस्वी होने, प्रस्थान होने नेता बनने से जो महत्व प्राप्त होता है, वह मामूली गृहस्थ जीवन बिताने से भी प्राप्त हो सकता हैं। मैं दुर्वासा संन्यासी हूँ। पर अम्बरीष गृहस्थ हैं। फिर भी उसकी योग्यता मुझ से ऊँची है वह मेरी अपेक्षा अधिक महान हैं। कर्तव्य धर्म को पालन करने से हर मनुष्य परम पद को प्राप्त कर सकता है, फिर चाहे वह किसी वश में क्यों न हो और कोई भी पेशा क्यों न करता हो।