
पत्नी व्रत
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(श्री हरिभाऊ जी उपाध्याय)
आशा है, इस लेख के नाम से हमारी बहनें खुश होंगी। खास करके वे बहनें, जिनकी यह शिकायत है कि प्राचीन काल के पुरुषों ने स्त्रियों को हर तरह दबा रखा। और वे पुरुष सम्भव है, लेखक को कोसें, जिन्हें स्त्रियों को अपनी दासी समझने की आदत पड़ी हुई है। यह बात कि किसने इसको दबा रखा है, एक ओर रख दें, तो भी यह निर्विवाद सिद्ध और स्पष्ट है कि आज स्त्री पुरुष के सम्बंध पर और उनके मौजूदा पारस्परिक व्यवहार पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता उपस्थित हो गई है। स्त्री और पुरुष दो परस्पर पूरक शक्तियाँ हैं और उनका पृथक-पृथक तथा सम्मिलित बल और गुण व्यक्ति और समाज के हित और सुख में लगना अपेक्षित है। यदि दोनों के गुणों और शक्तियों का समान विकास न होगा तो उनका पूरा और उचित उपयोग न हो सकेगा, पक्षी का एक पंख यदि कच्चा या कमजोर हो तो वह अच्छी तरह उड़ नहीं सकता। गाड़ी का एक पहिया यदि छोटा या टूटा हो तो वह चल नहीं सकती, हिन्दू समाज में आज पुरुष कई बातों में स्त्रियों से ऊंचा उठा हुआ, आगे बढ़ा हुआ, स्वतंत्र और बलशाली है। धर्म मन्दिरों में उसकी जय जय कार है, साहित्य कला में उसका आदर सत्कार है, शिक्षा दीक्षा में भी वही अगुआ है। स्त्रियों को न पढ़ने की स्वतंत्रता और सुविधा, न घर से बाहर निकलने की। परदा और घूँघट तो नाग-पाश की तरह उन्हें जकड़े हुए है। चूल्हा चौका, धोना-सोना, बाल-बच्चे यह हिन्दू स्त्री का सारा जीवन है। इस विषमता को दूर किए बिना हिन्दू समाज का कल्याण नहीं। देश और काल के ज्ञानी पुरुषों को चाहिए कि वे स्त्रियों के विकास में अपना कदम तेजी से आगे बढ़ायें। जहाँ तक लब्ध प्रतिष्ठा बलवान और प्रभावशाली व्यक्ति के सद्गुणों से सम्बन्ध है, हिन्दू पुरुष, हिन्दू स्त्री से बढ़-चढ़ कर है। और जहाँ तक अंतर्जगत के गुण और सौंदर्य से सम्बन्ध है, वहाँ तक स्त्रियाँ पुरुषों से बहुत आगे हैं। पुरुषों का लौकिक जीवन अधिक आकर्षक है उपयोगी है, व्यक्तिगत जीवन अधिक दोषयुक्त, नीरस और कलुषित है। अपने सामाजिक प्रभुत्व से वह समाज को चाहे लाभ पहुँचा सकता हो, पर व्यक्तिगत विकास में वह पीछे पड़ गया है। विपक्ष में स्त्रियों के उच्च गुणों का उपयोग देश और समाज को कम होता है, परन्तु व्यक्तिगत जीवन में वे उनको बहुत ऊंचा उठा देते हैं। अपनी बुद्धि चातुरी से पुरुष सामाजिक जगत में कितना ही ऊँचा उठ जाता हो, व्यक्तिगत जीवन उसका भोग विलास, रोग शोक, भय चिंता में समाप्त हो जाता है। स्त्रियों की गति समाज और देश के व्यवहार जगत में न होने के कारण, उनमें सामाजिकता का अभाव पाया जाता है। अतएव अब पुरुषों के जीवन को अधिक व्यक्तिगत और पवित्र बनाने की आवश्यकता है और स्त्रियों के जीवन को सामाजिक कामों में अधिक लगाने की। पुरुषों और स्त्रियों के जीवन में इस प्रकार सामंजस्य जब तक न होगा, तब तक न उन्हें सुख मिल सकता है, न समाज को।
यह तो हुआ स्त्री पुरुषों के जीवन का सामान्य प्रश्न। अब रहा उनके पारस्परिक सम्बन्ध का प्रश्न। मेरी यह धारणा है कि स्त्री, पुरुष की अपेक्षा अधिक वफादार है। पुरुष एक तो सामाजिक प्रभुता के कारण और दूसरे अनेक भले बुरे लोगों और वस्तुओं के संपर्क के कारण अधिक बेवफा हो गया है। स्त्रियाँ व्यक्तिगत और गृह जीवन के कारण स्वभावतः स्वरक्षण शील अतएव वफादार रह पाई हैं। पर अब हमारी सामाजिक अवस्था में ऐसा उथल-पुथल हो रहा है कि पुरुषों का जीवन अधिक उच्च, सात्विक और श्रेष्ठ एवं वफादार बने बिना समाज का पाँव आगे न बढ़ सकेगा। अब तक पुरुषों ने स्त्रियों के कर्त्तव्यों पर बहुत जोर दिया है उनकी वफादारी, पवित्रता हमारे यहाँ पवित्रता की पराकाष्ठा मानी गई है। अब ऐसा समय आ गाया है कि पुरुष अपने कर्त्तव्यों की ओर ज्यादा ध्यान दें। व्यभिचारी, दुराचारी, आक्रामक, अत्याचारी पुरुष के मुँह में अब पतिव्रत-धर्म की बात शोभा नहीं देती। हमारी माताओं और बहनों ने इस अग्नि परीक्षा में तप कर अपने को शुद्ध सुवर्ण सिद्ध कर दिया है। अब पुरुष की बारी है। अब उसकी परीक्षा का युग आ रहा है। अब से अपने लिए पत्नीव्रत धर्म की रचना करनी चाहिये। अब स्मृतियों में, कथा वार्त्ताओं में, पत्नीव्रत धर्म की विधि और उपदेश होना चाहिये। पत्नी व्रत धर्म के माने है- पत्नी के प्रति वफादारी। स्त्री अब तक जैसे पति को परमेश्वर मान कर एक निष्ठा से उसे अपना आराध्यदेव मानती आई है, उसी प्रकार पत्नी को गृहदेवी मानकर हमें उसका आदर करना चाहिये, उसके विकास में हर प्रकार सहायता करनी चाहिये और सप्तपदी के समय जो प्रतिज्ञायें पुरुष ने उसके साथ की हैं उनका पालन एक निष्ठापूर्वक होना चाहिए।